आप सब लोग धर्म
को माननेवाले हैं परन्तु धर्म मानने की बात नहीं है धर्म जीने का तरीका है जैसे
सत्य बोलना धर्म है, यह सब मानते और जानते हैं पर सत्य को जीवन में नहीं उतारते
हैं. जैसा कि आपको पहले भी सुस्पष्ट किया गया है आपका स्वभाव आपका धर्म है यही
नहीं आप स्वयं धर्म हो परन्तु आप धर्म को अपने से बाहर खोजते हो. आप अच्छे हैं
अथवा बुरे आपका धर्म जो स्वयं आप हो सदा आपके साथ रहता है. बिना धर्म के आपका कोई
अस्तित्व ही नहीं है. दूसरे का बताया
कोई भी रास्ता यदि आपके स्वभाव के अनुकूल होता है तभी आप उससे सहमत होते हैं, उसका अनुसरण करते हैं. मूल बात यह है हम
सब दिव्यता चाहते हैं, श्रेष्ठता चाहते
हैं और इसके लिए अपने को समझना और जानना आवश्यक है. यदि आप में अपने को जानने की
समझ नहीं है तो आप कभी भी धर्म का आचरण नहीं कर सकते हैं.
आप सभी ने रावण
का नाम सुना है, बड़ा प्रतापी राक्षस
था जिसने तीनो लोक जीत लिए थे. ऋषि पुलत्स्य के कुल में उत्पन्न रावण चारों वेदों
का पंडित होने के कारण धर्म को अवश्य ही जानता था परन्तु स्वयं के जीवन में उसका
आचरण नहीं था, स्वयं के जीवन में धर्म नहीं था.
‘तामस तन कछु
साधन नाहीं’
कहने का तात्पर्य
यह है यदि आप विद्वान हैं बहुत कुछ जानते हैं पर जीवन में धर्म साधन नहीं है तो सब
कुछ निरर्थक है. धर्म कहने की वस्तु नहीं है, धर्म तो जीना पड़ता है. आप यदि धर्म
अर्थात अपने वास्तविक स्वरुप को जानने का साधन करते हैं तो आप धर्म को जानते हैं.
अतः स्पष्ट है स्वयं
को (अपनी आत्मा) को जानने का प्रयत्न धर्म साधन है और स्वरुप स्थिति इसका
पूर्णत्व है.
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