प्रश्न- भगवद्गीता में ईश्वर के तीन नाम आये है ऊँ तत् सत्, इनका गूड रहस्य क्या है? ॐ शब्द का तो स्वास के साथ जप किया जा सकता है पर तत्, सत्, का जप तो संभव नहीं है, यदि कोई करना चाहे तो किस प्रकार करे?
उत्तर- भगवद्गीता के सत्रहवें अध्याय में ऊँ तत् सत् विषय पर भगवान् श्री कृष्ण जी ने ॐ के साथ वेदान्त के चार महावाक्यों की और संकेत किया है. तत्वमसि – वह तुम हो, अहं ब्रह्मास्मि-मैं ही ब्रह्म हूँ, प्रज्ञानं ब्रह्म –परम ज्ञान ही ब्रह्म है, अयमात्मा ब्रह्म – यह आत्मा ही ब्रह्म है. श्री भगवान् कहते हैं-
ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा ।23।
आत्मतत्व रूपी परब्रह्म परमात्मा का नाम ‘ऊँ’ ‘तत्’ ‘सत्’ है। ऊँ परमात्मा का मूल नाम है। स्वर विज्ञानी जानते हैं कि शरीर में इसकी स्थिति भृकुटि के मध्य आज्ञा चक्र में है। परमात्मा सृष्टि से परे है अतः उसका दूसरा नाम तत् है। सत् अर्थात जिससे अज्ञान नष्ट होता है यह परमात्मा का तीसरा नाम है। अव्यक्त रूप में परमात्मा का कोई नाम नहीं है परन्तु उसको जानने, बताने के लिए उसे शब्द (नाम) से बांधा गया है। ऊँ तो परमात्मा का शुद्ध अहंकार है इसलिए वही उसका यथार्थ नाम है। परमात्मा के इन तीन नाम ऊँ तत् सत् को आधार मान धर्म के तत्व को जानने वाले ब्राह्मणों ने उपनिषद, वेद और परमात्मा के निमित्त कर्म का विधान किया है।
ॐ परमात्मा का शुद्ध अहंकार है. ॐ कोई ध्वनि नहीं है. ॐ शब्द पूर्ण विशुद्ध ज्ञान में हलचल की अवस्था को दिया गया नाम है. इस पूर्ण विशुद्ध ज्ञान में हलचल होते ही अव्यक्त अवस्था जन्म, स्थिति और लय में रूपांतरित हो गयी. हिन्दुओं में जन्म, स्थिति और लय ही त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और शिव शंकर की द्योतक है. बाइबिल भी कहती है की जब सृष्टि नहीं थी तब शब्द था. यहाँ शब्द का अर्थ ध्वनि से न होकर ज्ञान है. इस ज्ञान में हलचल की अवस्था को ॐ ही नाम क्यों दिया गया. ॐ अ, उ, म तीन अक्षरों से बना है. अ की ध्वनि करते हुए मुंह खुलता है, उ की ध्वनि करते हुए ध्वनि का विस्तार होता है और मुंह खुला रहता है म की ध्वनि के साथ मुंह बंद हो जाता है. यह तीन अवस्था सृष्टि का जन्म, विस्तार जिसे स्थिति कहा है और अंत है. इसके अलावा ॐ में बिंदु भी लगा होता है जो अव्यक्त परमात्मा का द्योतक है.
ॐ शब्द परम ज्ञान जिसे परमात्मा कहते हैं के वास्तविक स्वरुप और विशेषताओं को पूर्ण रूप से स्पष्ट करता है इसलिए यह परमात्मा का वास्तविक नाम है. इसी कारण हिन्दू बच्चे का संस्कार करते समय गायत्री मंत्र के साथ ॐ की दीक्षा देते हैं. वास्तव में ॐ ही गायत्री है. श्री भगवन भगवद गीता में कहते हैं -ओम इति एकाक्षरं ब्रह्म. ओम ही ब्रह्म है और इसे व्यवहार में स्वीकारते हुए सदा परमात्मा का चिंतन करना चाहिए.
तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपः क्रियाः।
प्रवर्तन्ते विधानोक्तः सततं ब्रह्मवादिनाम् ।24।
इसलिए ईश्वर के लिए उच्चारण करने वाले जो शास्त्र विधि सम्मत ईश्वर के निमित्त कर्म दान और तप आदि करते हैं वह सदा ऊँ प्रणव का उच्चारण करके अपनी क्रिया आरम्भ करते हैं।
तदित्यनभिसन्दाय फलं यज्ञतपःक्रियाः।
दानक्रियाश्चविविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः ।25।
आत्म स्वरूप परब्रह्म परमात्मा इस जगत से परे है और सबका साक्षी है जो यह जानते हैं वह ‘तत्‘- ततोऽहं शब्द का उच्चारण करते हैं। ‘तत्‘ वेदान्त वाक्य तत्वमसि – वह तुम हो के लिए आया है. वह तत् स्वरूप परब्रह्म, को उसके निमित्त समस्त कर्म, तप, यज्ञ, दान आदि अर्पण कर निष्काम हो जाते हैं। इसे भाव से विचारते हुए चिंतन करना है, यदि आप जप करना चाहें तो ततोऽहं का स्वास के साथ उचारण करें. इसका अर्थ है वह मैं हूँ.
सद्भावे साधुभावे च सदित्यतत्प्रयुज्यते।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते ।26।
सत अर्थात जिससे अज्ञान नष्ट होता है, यथार्थ के दर्शन होते हैं, जिसमें कभी कोई परिवर्तन नहीं होता जो निश्चित है यह जानकर कल्याण के लिए, सरल आचरण करते हुए सत् का प्रयोग किया जाता है। वेदान्त के तीन वाक्य अहं ब्रह्मास्मि-मैं ही ब्रह्म हूँ, प्रज्ञानं ब्रह्म –परम ज्ञान ही ब्रह्म है, अयमात्मा ब्रह्म – यह आत्मा ही ब्रह्म है. एक सत को ही बताते हैं. इसे आप जप करना चाहें तो सतोऽहं का स्वास के साथ उचारण करें. इसका अर्थ है परम सत जो आत्मा है, ब्रह्म है, जो पूर्ण विशुद्ध ज्ञान है वह मैं हूँ.
यह इसी प्रकार उत्तम कर्म अर्थात जो कर्म परमात्मा के लिए हैं, जिन कर्मों से परमात्मा में एकता का भाव प्राप्त होता है, के लिए सत् रूपी परमात्मा के सम्बोधन सतोऽहं का प्रयोग किया जाता है। ऊँ तत् सत् तीनो का अलग अलग अथवा एक साथ भाव चिंतन सर्वश्रेष्ठ एवं शीघ्र परिणामकारी है.
उत्तर- भगवद्गीता के सत्रहवें अध्याय में ऊँ तत् सत् विषय पर भगवान् श्री कृष्ण जी ने ॐ के साथ वेदान्त के चार महावाक्यों की और संकेत किया है. तत्वमसि – वह तुम हो, अहं ब्रह्मास्मि-मैं ही ब्रह्म हूँ, प्रज्ञानं ब्रह्म –परम ज्ञान ही ब्रह्म है, अयमात्मा ब्रह्म – यह आत्मा ही ब्रह्म है. श्री भगवान् कहते हैं-
ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा ।23।
आत्मतत्व रूपी परब्रह्म परमात्मा का नाम ‘ऊँ’ ‘तत्’ ‘सत्’ है। ऊँ परमात्मा का मूल नाम है। स्वर विज्ञानी जानते हैं कि शरीर में इसकी स्थिति भृकुटि के मध्य आज्ञा चक्र में है। परमात्मा सृष्टि से परे है अतः उसका दूसरा नाम तत् है। सत् अर्थात जिससे अज्ञान नष्ट होता है यह परमात्मा का तीसरा नाम है। अव्यक्त रूप में परमात्मा का कोई नाम नहीं है परन्तु उसको जानने, बताने के लिए उसे शब्द (नाम) से बांधा गया है। ऊँ तो परमात्मा का शुद्ध अहंकार है इसलिए वही उसका यथार्थ नाम है। परमात्मा के इन तीन नाम ऊँ तत् सत् को आधार मान धर्म के तत्व को जानने वाले ब्राह्मणों ने उपनिषद, वेद और परमात्मा के निमित्त कर्म का विधान किया है।
ॐ परमात्मा का शुद्ध अहंकार है. ॐ कोई ध्वनि नहीं है. ॐ शब्द पूर्ण विशुद्ध ज्ञान में हलचल की अवस्था को दिया गया नाम है. इस पूर्ण विशुद्ध ज्ञान में हलचल होते ही अव्यक्त अवस्था जन्म, स्थिति और लय में रूपांतरित हो गयी. हिन्दुओं में जन्म, स्थिति और लय ही त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और शिव शंकर की द्योतक है. बाइबिल भी कहती है की जब सृष्टि नहीं थी तब शब्द था. यहाँ शब्द का अर्थ ध्वनि से न होकर ज्ञान है. इस ज्ञान में हलचल की अवस्था को ॐ ही नाम क्यों दिया गया. ॐ अ, उ, म तीन अक्षरों से बना है. अ की ध्वनि करते हुए मुंह खुलता है, उ की ध्वनि करते हुए ध्वनि का विस्तार होता है और मुंह खुला रहता है म की ध्वनि के साथ मुंह बंद हो जाता है. यह तीन अवस्था सृष्टि का जन्म, विस्तार जिसे स्थिति कहा है और अंत है. इसके अलावा ॐ में बिंदु भी लगा होता है जो अव्यक्त परमात्मा का द्योतक है.
ॐ शब्द परम ज्ञान जिसे परमात्मा कहते हैं के वास्तविक स्वरुप और विशेषताओं को पूर्ण रूप से स्पष्ट करता है इसलिए यह परमात्मा का वास्तविक नाम है. इसी कारण हिन्दू बच्चे का संस्कार करते समय गायत्री मंत्र के साथ ॐ की दीक्षा देते हैं. वास्तव में ॐ ही गायत्री है. श्री भगवन भगवद गीता में कहते हैं -ओम इति एकाक्षरं ब्रह्म. ओम ही ब्रह्म है और इसे व्यवहार में स्वीकारते हुए सदा परमात्मा का चिंतन करना चाहिए.
तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपः क्रियाः।
प्रवर्तन्ते विधानोक्तः सततं ब्रह्मवादिनाम् ।24।
इसलिए ईश्वर के लिए उच्चारण करने वाले जो शास्त्र विधि सम्मत ईश्वर के निमित्त कर्म दान और तप आदि करते हैं वह सदा ऊँ प्रणव का उच्चारण करके अपनी क्रिया आरम्भ करते हैं।
तदित्यनभिसन्दाय फलं यज्ञतपःक्रियाः।
दानक्रियाश्चविविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः ।25।
आत्म स्वरूप परब्रह्म परमात्मा इस जगत से परे है और सबका साक्षी है जो यह जानते हैं वह ‘तत्‘- ततोऽहं शब्द का उच्चारण करते हैं। ‘तत्‘ वेदान्त वाक्य तत्वमसि – वह तुम हो के लिए आया है. वह तत् स्वरूप परब्रह्म, को उसके निमित्त समस्त कर्म, तप, यज्ञ, दान आदि अर्पण कर निष्काम हो जाते हैं। इसे भाव से विचारते हुए चिंतन करना है, यदि आप जप करना चाहें तो ततोऽहं का स्वास के साथ उचारण करें. इसका अर्थ है वह मैं हूँ.
सद्भावे साधुभावे च सदित्यतत्प्रयुज्यते।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते ।26।
सत अर्थात जिससे अज्ञान नष्ट होता है, यथार्थ के दर्शन होते हैं, जिसमें कभी कोई परिवर्तन नहीं होता जो निश्चित है यह जानकर कल्याण के लिए, सरल आचरण करते हुए सत् का प्रयोग किया जाता है। वेदान्त के तीन वाक्य अहं ब्रह्मास्मि-मैं ही ब्रह्म हूँ, प्रज्ञानं ब्रह्म –परम ज्ञान ही ब्रह्म है, अयमात्मा ब्रह्म – यह आत्मा ही ब्रह्म है. एक सत को ही बताते हैं. इसे आप जप करना चाहें तो सतोऽहं का स्वास के साथ उचारण करें. इसका अर्थ है परम सत जो आत्मा है, ब्रह्म है, जो पूर्ण विशुद्ध ज्ञान है वह मैं हूँ.
यह इसी प्रकार उत्तम कर्म अर्थात जो कर्म परमात्मा के लिए हैं, जिन कर्मों से परमात्मा में एकता का भाव प्राप्त होता है, के लिए सत् रूपी परमात्मा के सम्बोधन सतोऽहं का प्रयोग किया जाता है। ऊँ तत् सत् तीनो का अलग अलग अथवा एक साथ भाव चिंतन सर्वश्रेष्ठ एवं शीघ्र परिणामकारी है.
Very nicely explained
ReplyDeleteमूल श्लोकः
ReplyDeleteतस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपःक्रियाः।
प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम्।।17.24।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।17.24।।इसलिये वैदिक सिद्धान्तोंको माननेवाले पुरुषोंकी शास्त्रविधिसे नियत यज्ञ? दान और तपरूप क्रियाएँ सदा इस परमात्माके नामका उच्चारण करके ही आरम्भ होती हैं।
Hindi Translation By Swami Tejomayananda
।।17.24।। इसलिए? ब्रह्मवादियों की शास्त्र प्रतिपादित यज्ञ? दान और तप की क्रियायें सदैव ओंकार के उच्चारण के साथ प्रारम्भ होती हैं।।
।।17.24।। ब्रह्मवादियों से तात्पर्य सात्त्विक? जिज्ञासु साधकों से है। अपने सभी कर्मों में परमात्मा का स्मरण रखने से उन्हें श्रेष्ठता? शुद्धता और दिव्यता प्राप्त होती है। परमात्मा के स्मरण में ही अहंकार और उसके बन्धनों का विस्मरण है। अहंकार के अभाव में? साधक अपने तपाचरण में अधिक कुशल? यज्ञ कर्मों में निस्वार्थ और दान में अधिक उदार बन जाता है।
ReplyDeleteBahut achha ...pr isme anubhav km aur anuman jyada hii....like as om dhwani nhi hii jbki om ko bachakse liya gya hii jiska uchharan pranav hii....aur doosra tatoham nhi hii bha tatvmashi hii....soham sabd surti ki dhara taha anhad naam vichara....aur sat sabd se pre hii nisabd hii.....baki vyakhya threek hii
ReplyDeleteमहानुभाव ॐ कोई ध्वनि नहीं है. प्रमाण स्वरुप शास्त्र मर्यादा का सहारा ले रहा हूँ. श्रीमद्भगवद्गीता में श्री भगवान कहते हैं-
Deleteॐ एक( जो दो नहीं है) अक्षर ( अविनाशी ) ब्रह्म है.
माण्डूक्य उपनिषद में ॐ की व्याख्या करते हुए कहा है-
अ, उ, म और बिंदु ब्रह्म के चार पाद हैं. वैश्वानर, तैजस, प्राज्ञ और अव्यक्त जिसको कोई नहीं जानता.
शेष यह अनुभव का विज्ञान है.
बहुत ही खुबसूरत
ReplyDeletehttps://www.youtube.com/watch?v=RlWN68hhkUY&t=1326s
ओम तत् सत्
ReplyDeleteपी के कर्ण
रामपुर कोरिगामा
दरभंगा