नित्य कर्म और चार साधन
निर्विवाद रूप से वेद, वेदान्त और भगवद्गीता ने नित्य कर्म के महत्व को स्वीकार किया है.
हिन्दुओं में नित्य कर्म पर विशेष जोर दिया गया है यद्यपि वर्तमान पीड़ी इससे दूर होती जा रही है. कुछ गुरुडम ने भी इसका ह्रास कर दिया है. यह नित्य कर्म क्या हैं?
प्रति दिन प्रातः काल सूर्योदय से पहले उठना, हो सके तो ब्रह्म मुहूर्त में उठना, नित्य स्नान करना, माता, पिता, गुरु आदि श्रेष्ठ जनों का आशीर्वाद लेना, प्रातःकालीन और सायंकालीन संध्या- ईश और देवार्चन करना. जीवों को तप अर्पित करना, पांच प्रकार के जीवों के लिए भोजन अर्पित करना आदि प्रमुख नित्य कर्म हैं.इसके अलावा प्राश्चित रूप कर्मों तथा नेमित्तिक कर्मों का भी विधान है.
संसार के सभी धर्मो में किसी न किसी रूप में नित्य कर्मों का विधान है. भारतीय संस्कृति नित्य कर्मों पर विशेष जोर देती है. नित्य कर्म का अर्थ है अपने भीतर बाहर की शुद्धि के लिए नियम बद्ध दैनिक जीवन चर्या अपनाना आवश्यक है. इससे बच्चे के संस्कार बनते हैं और बुद्धि शुद्ध होती है और निषिद्ध कर्म जिन्हें भगवद्गीता में विकर्म कहा है क्षय होते हैं. नित्य कर्म ही अनुशासन का मार्ग है. इनके करने से धर्माचरण का प्रारंभ होता है. धर्माचरण से पाप क्षय होते हैं. मनुष्य का चित्त शुद्ध होने लगता है. चित्त शुद्ध होने से ज्ञान का विस्तार होने लगता है. जिज्ञासा का भाव बढता है. संसार का स्वरूप समझ में आने लगता है. संसार की नश्वरता से चित्त में वैराग्य होने लगता है और वास्तविक तत्त्व को जानने समझने के लिए वह व्याकुल होने लगता है. मोक्ष की इच्छा जाग्रत होती है और मूलतत्त्व की खोज के लिए उच्च स्तरीय साधना अपनाता है.
कहा जा सकता है नित्य कर्म ईश्वर की ओर जाने वाले मार्ग की प्रथम सीड़ी है.
वेदान्त यह भी कहता है कि नित्य कर्म का फल पितृलोक और देवलोक अर्थात स्वर्ग तक ही है.
आत्मतत्त्व की प्रप्ति ज्ञान से होती है. इसलिए आत्मतत्त्व के पथिक को चार विशेष साधन अपनाने होते है.
१.नित्य और अनित्य वस्तु का विवेक
२.संसार और स्वर्ग के फल भोगने की इच्छा से विरक्ति.
३.छह सम्पति
शम, दम, उपरति, तितीक्षा, समाधान, श्रद्धा.
मन को संसार से रोकना शम है.
बाह्य इन्द्रियों को रोकना दम है.
निवृत्त की गयी इन्द्रियों भटकने न देना उपरति है.
सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख, हानि-लाभ, मान-अपमान को शरीर धर्म मानकर सरलता से सह लेना तितीक्षा है.
रोके हुए मन को आत्म चिन्तन में लगाना समाधान है.
आत्मतत्त्व के ज्ञानी और उसके वचन में विश्वास रखना श्रद्धा है.
४.मोक्ष की इच्छा. समाधि की पहली सीड़ी तक मोक्ष की इच्छा को श्रेयष्कर माना है. आगे निर्विकल्प स्थिति में यह स्वयं समाप्त हो जाती है.
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आत्मसात
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