अष्टावक्रगीता (हिन्दी)
सोलहवाँ अध्याय
अनेक
शास्त्र बहुविधि कहे और सुने हे तात
बिना
विसारे नहिं कभी स्वास्थ्य शान्ति उपलब्ध.१.
साधे
भोग समाधि को साध लेत तू कर्म
सकल आशय
रहित चित अधिक लोभ मय जान.२.
सभी
दुखी प्रयास से कोई इसे न जान
भाग्यवान
उपदेश अस परम निवृत्ति को प्राप्त.३.
आँख
मूदने खोलने का प्रयत्न दुःख जान
परम
आलसी अति सुखी दूसर कोउ न जान.४.
यह किया
यह नहीं किया मना मुक्त इस द्वन्द्व
उदासीन
तत्काल वह धर्मार्थ काम अरु मोक्ष.५.
विषय
द्वेषी विरक्त है विषया लोलुप रागि
ग्रहण
त्याग से रहित जो ना विरक्त ना रागि.६.
त्याग
ग्रहण जीवित रहें संसार वृक्ष के बीज
जब तक
जीवित राग है जान दशा अविवेक.७.
राग जान
प्रवृत्ति से निवृत्ति द्वेष को जन्म
द्वंद्व
मुक्त बाल सम सदा यथावत धीर.८.
रागी
तजता विश्व को जिससे दुःख विश्राम
वीतरागी
विदेह हो नहीं खेद को प्राप्त.९.
जो
अभिमानी मोक्ष का वैसे देह से प्रीति
ना
ज्ञानी ना जोगि है केवल दुःख का भागि.१०.
जो उपदेशक हरि हरो
अथवा ब्रह्मा होय
सबके
विस्मर होत बिन तुझे स्वास्थय न होय.११.
गीतामृत
मनुष्य शास्त्र
के कितने ही वचन सुन ले अथवा कह ले परन्तु उनका विस्मरण किये बिना शान्ति कभी भी
प्राप्त नहीं हो सकती है.
तू
कितना ही भोग, कर्म अथवा समाधि को साध ले परन्तु यह चित्त जिसको तूने साधना के
द्वारा निग्रह कर आशय रहित कर दिया है समय आने पर विषयों के प्रति अधिक लोभी होकर
भागेगा.
प्रयास
से सभी दुखी हैं इस रहस्य को कोई नहीं जानता है. कोई भाग्यवान ही प्रयास छोड़कर मोक्ष को प्राप्त होता है.
जिस
मनुष्य को आँख मूदने अथवा खोलने के प्रयत्न में कष्ट होता है वह परम आलसी का ही सुख है, दूसरा कोई व्यक्ति इसे नहीं जान
सकता है.
यह किया
यह नहीं किया जब मन इस द्वन्द्व से मुक्त हो जाय तब वह धर्म अर्थ, काम और मोक्ष के
प्रति उदासीन हो जाता है.
जो विषय
से द्वेष कर्ता है वह विरक्त है और विषय लोलुप रागी है पर जो ग्रहण और त्याग से
रहित है वह न विरक्त है न रागी है.
जब तक
संसार में राग जीवित है जो अविवेक की दशा है तब तक त्याग और ग्रहण भी जीवित रहते
हैं जो संसार वृक्ष के बीज हैं.
प्रवृत्ति
से राग और निवृत्ति से द्वेष का जन्म होता है इसलये ज्ञानी बालक के समान द्वंद्व
मुक्त होता है.
रागी
संसार को दुःख से मुक्ति के लिए त्यागता है परन्तु वीतरागी दुःख मुक्त होकर संसार
में रहता है.
जिसे
मोक्ष के प्रति अहँकार है और साथ ही साथ देह से प्रीति है वह न ज्ञानी है न योगी
है वह केवल दुःख का भागी है.
यदि
उपदेशक ब्रह्मा विष्णु महेश भी हों तो भी सबके विस्मरण के बिना तुझे आत्म स्वभाव
और शान्ति प्राप्त नहीं होगी.
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