पन्द्रहवाँ
अध्याय
थोड़े से
उपदेश से सत्त्व बुद्धि कृतकृत्य
आजीवन
जिज्ञासु हो असत बुद्धि मोहित सदा.१.
विषय
विरसता मोक्ष है बंध विषय रस जान
इतना ही
विज्ञान है जस इच्छा तस कर.२.
तत्त्व
बोध जड़ अलस कर वाचाल प्राज्ञ उद्योगी
अभिलाषा
जिन भोग की तत्त्व बोध है व्यक्त.३.
देह
नहीं ना देह तव भोक्ता कर्ता नाहिं
चैतन्य
निरपेक्ष साक्षी सदा, नित्य तू चर सुख यहाँ.४.
राग
द्वेष मानस धरम, मन ना कभी न तू
निर्विकल्प
बोधात्मा विकारहीन तू विचर सुख.५.
सब
भूतों में आत्म को आत्म जान सब भूत
अहंकार
ममता रहित सदा सुखी संसार.६.
जिससे
जग उत्पन्न हो ज्यों सागर में तरंग
निसन्देह
तू है वही ज्वार रहित भव चैतन्य.७.
श्रृद्धा
कर श्रृद्धा कर, नहीं मोह कर तात
ज्ञान
रूप भगवंत तू प्रकृति परे तू आत्म.८.
लिप्त गुणों से देह यह आता जाता नित्य
आत्मा
आता जात नहिं फिर क्यों करता सोच.९.
कल्प
अन्त तक देह हो चाहे तुरत विनष्ट
चैतन्य
रूप तव वृद्धि कुत कहाँ नाश चैतन्य.१०.
तुझ
अनन्त अम्बोधि में उदय अस्त तरंग
विश्व
तरंग स्वभाव से तोर वृद्धि न नाश.११.
तू
चैतन्य रूप है तुझसे भिन्न न विश्व
हेय
उपादेय कल्पना किसकी क्योंकर और कहाँ.१२.
तू अविनाशी
अमल है चैतन्य शान्त आकाश
कहाँ
जन्म कहँ कर्म हैं और कहाँ अहंकार.१३
जिसको
तू है देखता प्रतिभासित तू जान
कंगन
नूपुर बाजूबंद कहाँ भिन्न हैं स्वर्ण.१४.
यह मैं
हूँ मैं हूँ नहीं तज दे ऐसा भाव
निश्चय
कर संकल्पगत सदा सुखी हो तात.१५.
तव
अज्ञान विश्व है परम अर्थ तू एक
अन्य न
कोई दूसरा लोक अलौकिक जान.१६.
विश्व
जान भ्रम मात्र है और न कछु है निश्चयी
विगत
वासना चैतन्य वह जान स्वाभाविक शान्ति.१७.
संसार
महाअम्बोधि में भूत भवि एक तू
बंध
मोक्ष तव है नहीं सुख विचरत कृतकृत्य.१८.
संकल्प
विकल्प क्षोभित नहीं कर चित को चैतन्य
शान्त
सुखी निज रूप में सुखपूर्वक स्थित चैतन्य.१९.
ध्यान
त्याग सर्वत्र ही हृदि नहिं धारण कोय
तू आत्मा
ही मुक्त है विमर्श प्राप्त केहि लब्ध.२०.
गीतामृत
सत्व
बुद्धि वाला मनुष्य थोड़े से उपदेश से कृतकृत्य हो जाता है और असत बुद्धि आजीवन
जिज्ञासु रहकर भी सदा भ्रमित रहता है.
विषयों में अरुचि मोक्ष है और विषय रस
बंधन है.
तत्त्व
बोध, वाचाल बुद्धिमान और प्रबल उद्योगी पुरुष को जड़ और आलसी कर जाता है. इसलिए जिन
लोगों को भोग की अभिलाषा है उनके द्वारा तत्त्व बोध व्यक्त है. बोध पुरुष कुछ नहिं
कहता. शास्त्रार्थ, प्रवचन भोग की अभिलाषा रखने वाले ही करते हैं.
तू शरीर नहीं है, यह शरीर तेरा नहीं
है तू भोक्ता कर्ता भी नहीं है तू नित्य, चैतन्य, निरपेक्ष, साक्षी है इसलिए तू
सुख पूर्वक रह.
राग
द्वेष मन के धर्म हैं तू कभी मन नहीं है
तू निर्विकल्प विकारहीन बोधात्मा है अतः तू सुख पूर्वक इस संसार में विचरण कर.
सब
भूतों में आत्मा को और सब भूतों को आत्मा जानकर अहंकार ममता रहित होकर सदा सुख
पूर्वक संसार में विचरण कर.
सागर
में तरंग के सामान जिससे यह संसार उत्पन्न होता है तू वही है इसलिए तू ज्वार रहित
हो.
हे तात
तू श्रृद्धा कर श्रृद्धा कर तू मोह मत कर. तू ज्ञान रूप भगवान है, तू ही प्रकृति
से परे आत्मा है.
गुणों
से लिप्त यह देह सदा आता जाता है, जन्म मृत्यु को प्राप्त होता है पर आत्मा आता जाता नहीं है फिर क्यों सोच करता है.
यह देह
हो सृष्टि के अन्त तक रहे या तुरन्त विनष्ट हो जाये इससे क्या फर्क पड़ता है
क्योंकि तू चैतन्य रूप है तेरी वृद्धि और नाश कहाँ है.
तुझ
महासमुद्र में अपने स्वभाव से लहर उदय अस्त होती रहती हैं किन्तु तेरी वृद्धि और
नाश कहाँ है.
तू
चैतन्य रूप है यह विश्व तुझसे भिन्न नहीं है इसलिए त्याग और ग्रहण की कल्पना किसकी
क्योंकर और कहाँ हो सकती है.
तू
अविनाशी निर्मल चैतन्य शान्त रूप आकाश में कहाँ जन्म है, कहाँ कर्म है, कहाँ अहंकार
है.
जिसको
तू देखता है उसमें तू ही प्रतिभासित होता है क्या कंगन, नूपुर, बाजूबंद सोने से
भिन्न हैं?
यह मैं
हूँ अथवा यह मैं हूँ नहीं हूँ इस भाव को त्याग दे. सब आत्मतत्त्व है ऐसा निश्चय
करके तू संकल्प रहित हो सुखी हो.
तेरे ही
अज्ञान से यह विश्व है परमार्थतः तू एक है. तेरे अतरिक्त दूसरा कोई नहीं है न
संसारी न असंसारी.
यह
विश्व भ्रम मात्र है और कुछ नहीं है.निश्चय पूर्वक जो इस तथ्य को जनता है वह वासना
रहित चैतन्य स्वाभाविक शान्ति को प्राप्त है.
संसार
रुपी महासागर में तू एक ही था और होगा. तेरा बंधन और मोक्ष नहीं है तू कृतकृत्य होकर सुखपूर्वक विचर.
हे
चैतन्य तू चित्त को संकल्प विकल्प से क्षोभित मत कर. तू शान्त सुखी होकर अपने
स्वरूप में सुखपूर्वक स्थित हो.
सदा
ध्यान को त्यागकर हृदय में कुछ भी धारण मत कर. तू मुक्त आत्मा है तू विमर्श करके
क्या प्राप्त करेगा.
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