अष्टावक्र गीता (हिन्दी) / प्रो बसन्त प्रभात जोशी
ग्यारहवाँ अध्याय
अष्टावक्र ऋषि कहते हैं
विकृति
भाव आभाव की निश्चय जान स्वाभाव
क्लेश रहित निर्विकार वह सुखम् शान्ति
उपलब्ध.१.
सबका कारण ईश है नहीं अन्य कोउ जान
आशा जड़ से मिट गयी अनासक्त वह
शान्त.२.
आपद सम्पद प्राप्त हो भाग्य समय पर
जान
तृप्त स्वस्थ इन्द्रिय पुरुष नहीं काम
नहिं शोक.३.
जन्म मृत्यु सुख दुःख सदा सकल देव वश
जान
साध्य कर्म को देखता निरायास नहिं
लिप्त.४.
दुःख देती चिन्ता सदा ऐसा निश्चय जान
चिंता गयी सुख शान्त है गलित सकल
इच्छा सदा.५.
नहीं देह हूँ देह न मोरी बोध रूप
निश्चय सदा
मोक्ष प्राप्त अस पुरुष जो नहीं स्मर
कृत कर्म.६.
त्रण से लेकर ब्रह्म तक मैं हूँ ऐसा
जान
निर्विकल्प शुचि शान्त हो प्राप्त
अप्राप्त निवृत्त.७.
विविध आश्चर्य जग कुछ नहीं निश्चय ऐसा
जान
आश रहित सो बुद्ध वह शान्ति प्राप्त
स्वभाव.८.
गीतामृत
अष्टावक्र ऋषि कहते हैं
भाव
आभाव का विकार स्वभाव के कारण होता है जो यह जान लेता है वह क्लेश मुक्त होकर
आनन्द और शान्ति को उपलब्ध होता है.
ईश्वर
सभी जड़ चेतन का कारण है उसके अलावा अन्य कोई कारण नहीं है. इच्छा का समाप्त होना
ही अनासक्ति है.
सम्पत्ति
विपत्ति भाग्य से समय पर आती है जिसका ऐसा निश्चय है उस पुरुष को कोई कमाना होती
है वह सदा तृप्त रहता है अतः उसे कोई दुःख नहीं होता.
जन्म
मृत्यु सुख दुःख सदा भाग्य से समय पर आते
हैं वह साक्षी भव से सभी कर्त्तव्य कर्म करता हुआ लिप्त नहीं होता.
चिन्ता
सदा दुःख का कारण है चिन्ता मुक्त ही सुखी और शान्त है. इच्छा नष्ट होते ही चिन्ता नष्ट हो जाती है.
मैं
शरीर नहीं हूँ यह शरीर मेरा नहीं है. मैं बोध स्वरूप हूँ. ऐसा पुरुष ही मोक्ष को
प्राप्त होता है. ऐसे पुरुष के कर्म संस्कार नहीं होते.
तिनके
से लेकर ब्रह्म तक मैं ही हूँ. ऐसा मनुष्य ही निर्विकार शुद्ध शान्त और सम होता
है. प्राप्त अप्राप्त की चिन्ता से मुक्त हो जाता है.
अनेक
आश्चर्य वाला संसार वास्तव में कुछ भी नहीं है जो यह जानता है वह इच्छा रहित बोध
स्वरूप पुरुष स्वाभाविक शान्ति को प्राप्त होता है.
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अष्टावक्रगीता (हिन्दी) / प्रो बसन्त प्रभात जोशी
बारहवाँ अध्याय
राजा
जनक कहते हैं
पहले
रोके देह के फिर वाणी के काम
मानस
कर्म निरोध कर स्थित हूँ मैं आत्म.१.
इन्द्री
शब्द विषयादि में प्रीती भाव आभाव
आत्म
अज्ञान विक्षोभ से मुक्त चित्त एकाग्र.२.
सम्यक
अध्यास विक्षोभ हो करे समाधि व्यवहार
देख इसे
स्थित हुआ रहित समाधि व्यवहार.३.
हर्ष
विषाद प्राप्त हो हेय उपादेय वियोग
बीते
उनके जस हुआ तस मैं स्थित जान.४.
आश्रम ध्यान
अनाश्रम है चित्त स्वीकार वर्जनम्
उनसे
उद्भव निज विकल्प देख मुक्त स्थित स्वयं.५.
कर्म
होत अज्ञान से त्याग जान अज्ञान
कर्म
अकर्म से मुक्त हो स्थित हूँ मैं जान.६.
अचिन्त्य
चिन्त्य रत हो सदा भजे चिंत दिन रात
भाव
त्याग भव मुक्त हो स्थित हूँ निज आप.७.
अक्रिय
रूप अर्जित किया जिस साधन से ज्ञानि
इह
स्वभाव कृतकृत्य है नहीं शेष कुछ अन्य.८
गीतामृत
राजा
जनक कहते हैं
शरीर के
कर्म रोककर फिर क्रमशः वाणी और मन के कर्म रोककर अथवा उनको विस्मृत कर मैं
आत्मस्थित हूँ.
शब्द
आदि इन्द्री विषयों में प्रीति का आभाव से और आत्म अज्ञान विक्षोभ से मुक्त चित्त
होकर मैं आत्मस्थित हूँ.
आत्म
ज्ञान के लिए समाधि की आवश्यकता कोई जरूरी नहीं है अज्ञान के कारण विक्षोभ उत्पन्न
होते हैं इसलिए समाधि का व्यवहार किया जाता है. जिसे बोध नहीं उसे ध्यान धारणा और
समाधि की आवश्यकता होती है अन्यथा यह आवश्यक नहीं है. ऐसा निश्चय हुआ मैं, समाधि
रहित आत्मस्थित हूँ.
अच्छे
बुरे के संयोग और वियोग से जो हर्ष और विषाद होता है उसके आभाव से मैं जैसा हूँ
वेसा स्थित हूँ.
आश्रम
ध्यान अनाश्रम आदि अनेक व्यवस्थाएँ हैं इसी प्रकार चित्त का स्वीकार और त्यागना है
उन सबसे उत्पन्न अपने विकल्प को देखकर मैं मुक्त हुआ स्वरूप स्थित हूँ.
सभी
कर्मो का कारण अज्ञान है इसी तरह त्याग का
कारण भी अज्ञान है. इस तत्त्व को जानकर कर्म अकर्म से मुक्त हुआ मैं स्वरूप स्थित
हूँ.
अचिन्त्य
परमात्म के चिन्तन में लगा मनुष्य चिन्ता रत रहता है. इसलये उस भाव को त्यागकर
भावना मुक्त मैं स्थित हूँ.
जिस
मनुष्य ने साधनों से अक्रिय रूप अर्जित किया वह धन्य है. ऐसा स्वभाव वाला ही
मनुष्य वास्तव में कृतकृत्य है.
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