तुरीयम्-पूर्ण विशुद्ध ज्ञान
यहाँ माया का अंश मात्र भी नहीं होता. पूर्ण विशुद्ध ज्ञान शान्त अवस्था में स्थित होता है. इसलिए इस अवस्था को शिव कहा है. इस अवस्था में पूर्ण चैतन्य, आनन्द और शान्ति है. यह वेश्वानर, तेजस एवम प्राज्ञ का आधार है. यह ब्रह्म कहलाता है. यह अवस्था ॐ का चौथा पाद कहलाती है.
मांडूक्योपनिषद् स्पष्ट करता है-
मांडूक्योपनिषद् स्पष्ट करता है-
भीतर बाहर प्रज्ञ ना
ना प्रज्ञाघन जान
नहीं प्रज्ञ अप्रज्ञ नहिं
नहीं दृष्ट अव्यवहार्य
नहीं ग्राह्य नहिं लक्षणा
नहीं चिन्त्य उपदेश
जिसका सार है आत्मा
जो प्रपंच विहीन
शान्त शिवम अद्वितीय जो
ब्रह्म का चोथा पाद.
मात्रा रहित ॐकार है
ब्रह्म का चौथा पाद
व्यवहार परे प्रपंच परे
कल्याणम् है आत्म
आत्म बोध कर आत्म से
आत्म प्रवेशित नित्य.
साधक असम्प्रज्ञात समाधि में इस अवस्था का आभास प्राप्त करता है. इस अंतिम अवस्था को स्वरूप स्थिति कहा गया है.इस अवस्था को शब्दों में नहीं बताया जा सकता. इसे बोध भी कहते हैं.
यहाँ न कुछ दिखायी देता है न् सुनायी देता है. यह सर्वथा विलक्षण स्थिति है. यहाँ बुद्धि का अस्तित्व पूर्णतया समाप्त हो जाता है. इस आत्मानंद के अमृत रूपी महासागर को वाणी से नहीं बताया जा सकता, मन बुद्धि से चिन्तन नहीं किया जा सकता.
यहाँ वह जानता है-
मैं ईश्वर
मैं नारायण हूँ
राम कृष्ण सत् साईं मैं हूँ
मैं जगदीश्वर
मैं ही शंकर
मैं ही विश्व जगत आधार
मैं ही रूद्र शिवा भी मैं हूँ
मैं ही आत्म परम सत् सार
मैं तीर्थंकर मैं ही ब्रह्मा
मैं ही विष्णु सत्य संसार
मैं ही अणु हूँ
मैं विराट हूँ
मैं निर्गुण मैं वृहद आकाश
मैं योगी योगीश पुरुष मैं
मैं अक्षर मैं ही ॐकार.
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