हिरण्यगर्भ–सोने के अंडे के भीतर रहने वाला
हिरण्यगर्भ: समवर्तताग्रे भूतस्य जात: पतिरेक आसीत् ।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम ।सूक्त ऋग्वेद -10-10-121
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम ।सूक्त ऋग्वेद -10-10-121
वेदान्त और दर्शन ग्रंथों में हिरण्यगर्भ शब्द कई बार आया है. सामान्यतः हिरण्यगर्भ शब्द का प्रयोग जीवात्मा के लिए हुआ है जिसे ब्रह्मा जी भी कहा गया है. ब्रह्म और ब्रह्मा जी एक ही ब्रह्म के दो अलग अलग तत्त्व हैं. ब्रह्म अव्यक्त अवस्था के लिए प्रयुक्त होता है और ब्रह्माजी ब्रह्म की तैजस अवस्था है. ब्रह्म का तैजस स्वरूप ब्रह्मा जी हैं. हिरण्यगर्भ शब्द का अर्थ है सोने के अंडे के भीतर रहने वाला. सोने का अंडा क्या है और सोने के अंडे के भीतर रहने वाला कौन है? पूर्ण शुद्ध ज्ञान की शांतावस्था ही हिरण्य - सोने का अंडा है. उसके अंदर अभिमान करनेवाला चैतन्य ज्ञान ही उसका गर्भ है जिसे हिरण्यगर्भ कहते हैं. स्वर्ण आभा को पूर्ण शुद्ध ज्ञान का प्रतीक माना गया है जो शान्ति और आनन्द देता है जैसे प्रातः कालीन सूर्य की अरुणिमा. इसके साथ ही अरुणिमा सूर्य के उदित होने ( जन्म ) का संकेत है.
इसी को प्रतीक रूप में प्राज्ञ ब्रह्म और ब्रह्माजी के लिए लिया गया है.
ब्रह्म की ४ अवस्थाएँ हैं प्रथम अवस्था अव्यक्त है, जिसे कहा नहीं जा सकता, बताया नहीं जा सकता.
दूसरी प्राज्ञ है जिसे पूर्ण विशुद्ध ज्ञान की शांतावस्था कहा जाता है. इसे हिरण्य कह सकते हैं. क्षीर सागर में नाग शय्या पर लेटे श्री हरि विष्णु इसी का चित्रण है. मनुष्य की सुषुप्ति इसका प्रतिरूप है. शैवों ने इसे ही शिव कहा है.
तीसरी अवस्था तैजस है जो हिरण्य में जन्म लेता है इसे हिरण्यगर्भ कहा है. यहाँ ब्रह्म ईश्वर कहलाता है. इसे ही ब्रह्मा जी कहा है. मनुष्य की स्वप्नावाथा इसका प्रतिरूप है. यही मनुष्य में जीवात्मा है. यह जगत के आरम्भ में जन्म लेता है और जगत के अन्त के साथ लुप्त हो जाता है.
ब्रह्म की चौथी अवस्था वैश्वानर है. मनुष्य की जाग्रत अवस्था इसका प्रतिरूप है. सम्पूर्ण सृष्टि का निर्माण विस्तार ब्रह्म का वैश्वानर स्वरूप है.
इससे यह न समझें कि ब्रह्म या ईश्वर चार प्रकार का होता है, यह एक ब्रह्म की चार अवस्थाएँ है. इसकी छाया मनुष्य की चार अवास्थों में मिलती है, जाग्रत, स्वप्न, सुसुप्ति और स्वरूप स्थिति जिसे बताया नहीं जा सकता.
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