Wednesday, July 24, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - गुरु दक्षिणा शास्त्र सम्मत नहीं - 96 - बसंत

प्रश्न- गुरु दक्षिणा के विषय में आपके क्या विचार हैं.
उत्तर- गुरु दक्षिणा शास्त्र सम्मत नहीं है यह प्रथा कथा सम्मत है. वेद, उपनिषद, भगवद्गीता, अष्टावक्रगीता, पातंजलि योगसूत्र, ब्रह्मसूत्र, संख्या दर्शन, विवेक चूडामणि आदि प्रामाणिक एवं शास्त्रों में गुरु दक्षिणा का कोई उल्लेख नहीं है. ब्रह्म ज्ञानी गुरु को शिष्य की केवल श्रद्धा की दक्षिणा चाहिए पर आजकल न ब्रह्मज्ञानी गुरु हैं न शिष्य में श्रद्धा है.

प्रश्न- तो फिर गुरु पूजन किस प्रकार करें?
उत्तर- गुरु पूजन में शिष्य को गुरु की श्रद्धा पूर्वक जल, गंध, पुष्प, फल, अन्न और वस्त्र से पूजन करना चाहिए. अपने घर से श्रद्धा और प्रेम से बनाया भोजन लाकर प्रेम से खिलाना चाहिए. यह भी अपनी सामर्थ के अनुसार करना चाहिए. एक तुलसी का पत्ता अतवा एक बूँद जल पर्याप्त है. गुरु को धन देना न अपना भला करना है न गुरु का भला होना है. गुरु को धन देने से तो अच्छा है किसी जरूरतमंद की चुपचाप मदद कर दो. गुरु को मात्र तुम्हारा प्रेम चाहए तुम्हारी श्रद्धा चाहिए. यदि तुम्हारा गुरु सच्चा है तो वह शरीर नहीं है वह आत्म रूप में आपके अन्दर और अपनी देह और सर्वत्र विराजमान है.एक बात  सच्ची सच्ची सुन लो तुम जो धन अपने गुरु को देते हो वह अपने भय, लालच, लोक परलोक के टिकट के लिए दे रहे हो और तुम्हारे गुरु इस भय का फायदा उठा रहे हैं. सच्चा गुरु तुमसे कोइ अपेक्षा नहीं करता. भूख, बीमारी, प्राकृतिक आपदा से बिलखती मानवता की सेवा करो यह सबसे बड़ी गुरु सेवा होगी. गुरु पूजा पावन दिवस तो तुम्हारी लिए गुरु के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के लिए बनाया है और तुम लिफफा या चेक भेंट कर इस दिन का अपमान करते हो.

Monday, July 22, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - ऊँ तत् सत् (ॐ, ततोऽहं, सतोऽहं) - 95 -बसंत

प्रश्न- भगवद्गीता में ईश्वर के तीन नाम आये है ऊँ तत् सत्, इनका गूड रहस्य क्या है?  ॐ शब्द का तो स्वास के साथ जप किया जा सकता है पर तत्, सत्, का जप तो संभव नहीं है, यदि कोई करना चाहे तो किस प्रकार करे?

उत्तर- भगवद्गीता के सत्रहवें अध्याय में ऊँ तत् सत् विषय पर भगवान् श्री कृष्ण जी ने ॐ के साथ वेदान्त के चार महावाक्यों की और संकेत किया है. तत्वमसि – वह तुम हो, अहं ब्रह्मास्मि-मैं ही ब्रह्म हूँ, प्रज्ञानं ब्रह्म –परम ज्ञान ही ब्रह्म है, अयमात्मा ब्रह्म – यह आत्मा ही ब्रह्म है. श्री भगवान् कहते हैं-
ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा ।23।
आत्मतत्व रूपी परब्रह्म परमात्मा का नाम ‘ऊँ’ ‘तत्’ ‘सत्’ है। ऊँ परमात्मा का मूल नाम है। स्वर विज्ञानी जानते हैं कि शरीर में इसकी स्थिति भृकुटि के मध्य आज्ञा चक्र में है। परमात्मा सृष्टि से परे है अतः उसका दूसरा नाम तत् है। सत् अर्थात जिससे अज्ञान नष्ट होता है यह परमात्मा का तीसरा नाम है। अव्यक्त रूप में परमात्मा का कोई नाम नहीं है परन्तु उसको जानने, बताने के लिए उसे शब्द (नाम) से बांधा गया है। ऊँ तो परमात्मा का शुद्ध अहंकार है इसलिए वही उसका यथार्थ नाम है। परमात्मा के इन तीन नाम ऊँ तत् सत् को आधार मान धर्म के तत्व को जानने वाले ब्राह्मणों ने उपनिषद, वेद और परमात्मा के निमित्त कर्म का विधान किया है।
ॐ परमात्मा का शुद्ध अहंकार है. ॐ कोई ध्वनि नहीं है. ॐ शब्द पूर्ण विशुद्ध ज्ञान में हलचल की अवस्था को दिया गया नाम है. इस पूर्ण विशुद्ध ज्ञान में हलचल होते ही अव्यक्त अवस्था  जन्म, स्थिति और लय में रूपांतरित हो गयी. हिन्दुओं में जन्म, स्थिति और लय ही त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और शिव शंकर की द्योतक है. बाइबिल भी कहती है की जब सृष्टि नहीं थी तब शब्द था. यहाँ शब्द का अर्थ ध्वनि से न होकर ज्ञान है. इस ज्ञान में हलचल की अवस्था को ॐ ही नाम क्यों दिया गया. ॐ अ, उ, म तीन अक्षरों से बना है. अ की ध्वनि करते हुए मुंह खुलता है, उ की ध्वनि करते हुए ध्वनि का विस्तार होता है और मुंह खुला रहता है म की ध्वनि के साथ मुंह बंद हो जाता है. यह तीन अवस्था सृष्टि का जन्म, विस्तार जिसे स्थिति कहा है और अंत है. इसके अलावा ॐ में बिंदु भी लगा होता है जो अव्यक्त परमात्मा का द्योतक है.
ॐ शब्द परम ज्ञान जिसे परमात्मा कहते हैं के वास्तविक स्वरुप और विशेषताओं को पूर्ण रूप से स्पष्ट करता है इसलिए यह परमात्मा का वास्तविक नाम है. इसी कारण हिन्दू बच्चे का संस्कार करते समय गायत्री मंत्र  के साथ ॐ की दीक्षा देते हैं. वास्तव में ॐ ही गायत्री है. श्री भगवन भगवद गीता  में  कहते हैं -ओम इति एकाक्षरं ब्रह्म. ओम ही ब्रह्म है और इसे व्यवहार में स्वीकारते हुए सदा परमात्मा का चिंतन करना चाहिए.
तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपः क्रियाः।
प्रवर्तन्ते विधानोक्तः सततं ब्रह्मवादिनाम्‌ ।24।
इसलिए ईश्वर के लिए उच्चारण करने वाले जो शास्त्र विधि सम्मत ईश्वर के निमित्त कर्म दान और तप आदि करते हैं वह सदा ऊँ प्रणव का उच्चारण करके अपनी क्रिया आरम्भ करते हैं।
तदित्यनभिसन्दाय फलं यज्ञतपःक्रियाः।
दानक्रियाश्चविविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः ।25।
आत्म स्वरूप परब्रह्म परमात्मा इस जगत से परे है और सबका साक्षी है जो यह जानते हैं वह ‘तत्‘- ततोऽहं शब्द का उच्चारण करते हैं। ‘तत्‘ वेदान्त वाक्य तत्वमसि – वह तुम हो के लिए आया है. वह तत् स्वरूप परब्रह्म, को उसके निमित्त समस्त कर्म, तप, यज्ञ, दान आदि अर्पण कर निष्काम हो जाते हैं। इसे भाव से विचारते हुए चिंतन करना है, यदि आप जप करना चाहें तो ततोऽहं का स्वास के साथ उचारण करें. इसका अर्थ है वह मैं हूँ.
सद्भावे साधुभावे च सदित्यतत्प्रयुज्यते।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते ।26।
सत अर्थात जिससे अज्ञान नष्ट होता है, यथार्थ के दर्शन होते हैं, जिसमें कभी कोई परिवर्तन नहीं होता जो निश्चित है यह जानकर कल्याण के लिए, सरल आचरण करते हुए सत् का प्रयोग किया जाता है। वेदान्त के तीन वाक्य अहं ब्रह्मास्मि-मैं ही ब्रह्म हूँ, प्रज्ञानं ब्रह्म –परम ज्ञान ही ब्रह्म है, अयमात्मा ब्रह्म – यह आत्मा ही ब्रह्म है. एक सत को ही बताते हैं. इसे आप जप करना चाहें तो सतोऽहं का स्वास के साथ उचारण करें. इसका अर्थ है परम सत जो आत्मा है, ब्रह्म है, जो पूर्ण विशुद्ध ज्ञान है वह मैं हूँ.
यह  इसी प्रकार उत्तम कर्म अर्थात जो कर्म परमात्मा के लिए हैं, जिन कर्मों से परमात्मा में एकता का भाव प्राप्त होता है, के लिए सत् रूपी परमात्मा के सम्बोधन सतोऽहं का प्रयोग किया जाता है। ऊँ तत् सत् तीनो का अलग अलग अथवा एक साथ भाव चिंतन सर्वश्रेष्ठ एवं शीघ्र परिणामकारी है.


Thursday, July 18, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - धर्म- संत, सन्यासी होकर मृत्यु भय है तो फिर क्या पाया? - 94 - बसंत

हिन्दू समाज सदा सहिष्णु और विकासवादी रहा है. यहाँ धर्म को सनातन (जो सदा है) माना जाता है. धर्म सदा सनातन ही होता है अतः धर्म में धर्म गुरु का कोई स्थान नहीं है. भारत में आदि काल से गुरु शिष्य परम्परा रही है और गुरु शिष्य के अज्ञान को दूर करने का प्रयास करते हुए प्रतिबोध धरातल को पुष्ट करने का भरसक प्रयास  शिष्य के भिन्न भिन्न प्रश्नों का उत्तर देते हुए करते थे. इसी कारण अनेक मत मतान्तर प्रचलन में आये और आज भी हिन्दू समाज खुली सोच रखता है इसलिए हर व्यक्ति धर्म के विषय में स्वतंत्र है. वर्तमान में विज्ञान और सुविधा भोगी समाज में बहुत कुछ बदल गया है. लोग धन से सब कुछ खरीदना चाहते हैं, कुछ मूड़ता और गरीबी के मारे हैं. इस मनोवज्ञान को समझकर कुछ साधू एवं विचारक स्वयं अपने को धर्मगुरु घोषित कर ईश्वर से मिलाने का का दावा करते हैं पर धर्मगुरु शब्द ही शास्त्र सम्मत नहीं है. धर्म जो सदा सनातन है में स्वयं धर्म को गुरु माना जाता है. धर्म का कोई गुरु नहीं होता है, न हो सकता है.
धर्म का अर्थ है धारण करने वाला और धारण जिसने इस  सृष्टि  को किया है उसे आत्मा, परमात्मा अथवा ईश्वर कहते हैं. अतः अनादि तत्त्व आत्मा का न कोई गुरु है न कोई शिष्य इसलिए कोई भी धर्म गुरु नहीं हो सकता. हाँ धर्म पर विचार करने वाले, उसे दूसरे को बताने वाले को विचारक, प्रबोधक, दार्शनिक, आचार्य कहना उचित है. धर्म गुरु तो मीडिया का दिया हुआ नाम है. 
आदि शंकर कहते हैं-
न बन्धुर न मित्रं गुरुर नैव शिष्यः 
चिदानंद रूप  शिवोहम  शिवोहम 
अष्टावक्रगीता कहती है-
अयं सोऽहंमयं नाहं विभाग मिति संत्यज 
सर्वमात्मेति निश्चित्य निःसंकल्प सुखी भव.15-15
यह मैं हूँ यह मैं नहीं हूँ इस विषय को छोड़ दे. सभी आत्मा हैं यह निश्चय कर और कुछ भी न सोच, न संकल्प कर कि मैं गुरु हूँ मैं शिष्य हूँ. संकल्प मुक्त होने पर ही तू सुखी होगा.
आदि शंकर ने धर्म उपलब्धि के सिधान्तों की विकृति रोकने के लिए चार मठों की स्थापना की और आचार्य नियुक्त किये जो शंकर पीठाचार्य कहलाते थे और कालान्तर में शंकराचार्य हो गए. इनको आज अपने अपने सिंहासनो में बैठने से फुरसत मिले तभी तो वह धर्म उपलब्धि के सिधान्तों और सामाजिक विकृति की ओर देखंगे. जब शंकर के उताराधिकारी ही अपने को धर्मगुरु कहलाना पसंद करते हों तो फिर किसका ज्ञान किसका अज्ञान. यही नहीं आज  देश मैं 100 से अधिक स्वयंभू शंकराचार्य हो गए हैं तो कई जगत गुरु, इनमें से कई इतने संवेदनशील हैं कि कोई साधारण व्यक्ति श्रद्धावश इनके पाँव छूने चले जाय तो ऐसे उछलते हैं जैसे बिजली का करंट लग गया हो और यदि माल पानी वाला आसामी आ जाय तो इनकी मोहक दन्त छटा देखने लायक होती है.
तत्त्वज्ञानी योगी तो किसी में भेद नहीं करते पर जो अपने शरीर से ही चिपका है उसकी  गति का अंदाजा आप लगा सकते हैं. बड़े खेद से लिखना पद रहा है कि टीवी, मीडिया और धर्म में वी आई पी आडम्बर ने अच्छे संतों को जन समुदाय से दूर कर दिया है.
जो संत, साधू, जगत गुरु वी आई पी आडम्बर जैसे सिक्यूरिटी, गनर आदि के साथ रहते हों उनको तत्काल स्वांग छोड़कर दुनिया में एक सांसारिक  रूप से वापस हो जाना चाहिए क्योकि वहां अन्दर से सब गड़बड़ है.
सन्यासी अथवा संत हो तो तदनुसार आचरण आवश्यक है. यदि वर्णाश्रम मर्यादा का पालन नहीं कर सकते तो फिर सन्यासी क्यों बने.
संत, सन्यासी होकर मृत्यु भय है तो फिर क्या पाया?
उपाधि और सिंहासन तत्काल त्यागो. एक कुत्ते और ज्ञानी को सम भाव से देखो. सरल होकर सबसे सदा मिलो. मीडिया का लोभ छोडो, वी आई पी आडम्बर छोड़ो. 
जो सम्पति तुमने धर्म के नाम से अर्जित की है उसे जरूरत मंदों में बाँट दो यही नारायण सेवा होगी.
मंदिरों का धन राष्ट्र को समर्पित कर दो. अपनी मोह माया दूर करो तब दूसरों की मोह माया दूर कर पाओगे. अपना उद्धार करो दूसरे का ठेका मत लो. उसे केवल यह बताओ कि तू भी हमारी तरह ही है सदा शुद्ध है. तुझे स्वयं अपना उद्धार करना होगा.
यह जान लो अन्दर से गड़बड़ साधू की गति शोचनीय है. तुम्हारी आत्मा तुम्हारा कल्याण करे.

Tuesday, July 16, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - साधू और संत - तपसी धनवंत दरिद्र गृही कलि कोतुक तात न जात कही.'- 93 - बसंत

प्रश्न- साधू और संत कितने प्रकार के होते हैं.
उत्तर- वास्तव में साधू और संत का कोई प्रकार नहीं होता, कोई किस्म और भेद नहीं होता. यथार्थ अनुभूत ज्ञान ही उनकी पहिचान है परन्तु ज्ञान और त्रिगुणात्मक प्रकृति के आधार पर चार प्रकार के साधू संत समाज में दिखाई देते हैं.
1 - परमहंस 
2-सतोगुणी साधू 
3- रजोगुणी साधू 
4- तमोगुणी साधू 
1 - परमहंस -आज के युग में परमहंस का मिलना कठिन है.जो कोई परम हंस के नाम से जाने जाते हैं वह गड़बड़ साधू हैं. परमहंस कोई डिग्री नहीं है वह तो दिव्य कमल की भांति सर्वत्र सभी को अपनी सुगंध से आकर्षित करता है. भगवद्गीता में परमहंस योगी के लक्ष्ण बताये गए हैं.
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः ।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ।56-2।
जिसका मन दुखः में उद्विग्नता को प्राप्त नहीं होता, जिसकी सुखों से कोई प्रीति नहीं है, दोनो अवस्थाओं में जो निस्पृह है, जिसके राग, क्रोध, भय समाप्त हो गये हैं, जो अनासक्त हो गया है, उसकी बुद्धि स्थिर कही जाती है।
यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्‌ ।
नाभिनंदति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।57-2।
जो इस संसार में उदासीन होकर विचरता है, सभी वस्तुओं में वह स्नेह रहित होता है शुभ और अशुभ की प्राप्ति होने पर उसे न हर्ष होता है न वह द्वेष रखता है, वह स्थित प्रज्ञ कहा जाता है।
नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित्‌ ।
पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपंश्वसन्‌ ।8-5।
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि ॥
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्‌ ।9-5।
तत्व को जानने वाला योगी, मैं पन के अभाव से रहित हो जाता है और वह देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूघंता हुआ, भोजन करता, हुआ गमन, करता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ, बोलता हुआ, त्यागता हुआ, ग्रहण करता हुआ, आँख खोलता हुआ, मूँदता हुआ किसी भी शारीरिक कर्म में सामान्य मनुष्य की तरह लिप्त नहीं होता है। वह यह जानता है कि इन्द्रियाँ अपने अपने कार्यों को कर रही हैं अतः उसमें कर्तापन का भाव नहीं होता है।
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्‍गं त्यक्त्वा करोति यः ।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ।।10-5।।
जो सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके आसक्ति का त्यागकर कर्म करता है और कभी भी कर्म बन्धन में लिप्त नहीं होता है, जैसे कमल का पत्ता जल में रहते हुए भी जल से लिप्त नहीं होता है।
युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्‌ ।
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ।12-5।
कर्म योगी कर्म फल की आसक्ति का पूर्णतया त्याग करके निरन्तर शान्ति को प्राप्त होता है। क्योंकि वह पूर्ण ज्ञान को प्राप्त हो जाता है; उस सम्पूर्ण ज्ञान की शान्तावस्था में निरन्तर रमण करता है और जो सकाम पुरुष हैं वह विभिन्न इच्छाओं के लिए फल में आसक्त होकर कर्म बन्धन में फॅसते हैं।
सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी ।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्‌ ।13-5।
जो मनुष्य नवद्वार वाले शरीर में सभी कर्मो को मन से त्यागकर अर्थात अकर्ता भाव से कर्म करते हुए फल की इच्छा त्याग देता है और शरीर में रहते हुए भी नहीं रहता है, ऐसा वशी पुरुष जिसने मन से इन्द्रियों का निग्रह कर लिया है; जिसकी बुद्धि स्थिर है, जो कर्म फल की इच्छा से मुक्त है, न करता हुआ, न करवाता हुआ आत्मानन्द में रहता
इससे आप यह न समझ लें कि पृथ्वी परमहंस योगी विहीन है. हाँ इनका दर्शन दुर्लभ है और इनकी स्थिति रमता जोगी बहता पानी की तरह है. 

2-सतोगुणी साधू - इस कोटि के साधू भी नगण्य हैं. इस कोटि के संत अपनी साधना में लगे रहते है. यह प्रचार प्रसार से दूर सरल हृदय पुरुष बड़े भाग्य से मिलते हैं. टीवी प्रसारित सत संग में जबरन विवश कर लाये हुए ही यदा कदा दिख सकते हैं.

3- रजोगुणी साधू  - यह दूरदर्शन के साधू हैं जो सदा प्रचार प्रसार में रहते हैं. आज कल इनका ही बोल बाला है. भीड़ इकठी करना, भिन्न भिन्न भेष धारण करना इनका स्वभाव होता है. इनके विषय में तुलसीदासजी लिख  गए हैं. 
'हरइ सिष्य धन सोक न हरई सो गुरु घोर नरक महुं परई.' 

'मिथ्यारंभ दंभ रत जोई ता कहुं संत कहइ सब कोई.'  '

तपसी धनवंत दरिद्र गृही कलि कोतुक तात न जात कही.' आदि.
यह सब वी आई पी साधू हैं. इनका पहनावा कुछ भी हो सकता है. यह आधे गड़बड़ साधू हैं. इनके अन्दर सब गड़बड़ है पर इनके बाहर सब अच्छा है.
इनके विषय में एक महात्मा प्रवचन देते हुए कह रहे थे सतयुग, त्रेता, द्वापर में जो असुर थे वह कहते थे मुझको पूजो, केवल मेरी बात मानो वही इस जन्म में रजोगुणी टीवी बाबा होकर जन्में हैं. आप खुद निर्णय करें  केमरे के सामने एक्टिंग तो हो सकती है पर सत्संग होना विलक्ष्ण ही कहा जाएगा. 
इनमें कुछ विरले साधुओं  में रज की मात्रा कम और सत अधिक होता है यह अच्छे चिन्तक और विद्वान् तो होते हैं पर उपाधि रुपी व्याधि से ग्रस्त लोकेषणा के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन गवां देते हैं. कोई कोई इस वृत्ति से विमुख हो सतोगुण की और बड़ते हैं. आजकल तो कथावाचक भी राष्ट्रीय संत कहलाने लगे हैं. वेश चाहे गेरुआ हो, सफेद हो या सामान्य गृहस्थ का उपाधि और लोकेषणा छोड़े बिना परम पद नहीं पाया जा सकता है.
वी आई पी आडम्बर छोड़ना होगा. सिंहासन त्यागने होंगे, अपने पीछे कट आउट लगाने और टीवी मोह को छोड़ना होगा. दूर दर्शन विद्वानों आचार्यों, कथावाचक और दार्शनिकों के लिए छोड़ दें. 

तमोगुणी साधू-  यह अधर्म को धर्म मानते हैं. शास्त्रों के विपरीत वचन बोलते हैं. भय दिखाते हैं.अशुभ वेश धारण करते हैं. भूत, प्रेत को पूजनेवाले, अपने को ईश्वर से बड़ा मानने वाले, भक्ष अभक्ष खाने वाले अपनी आत्मा से ही शत्रुता रखते हैं. 

Saturday, July 6, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - साधक और ज्ञान -92- बसंत

प्रश्न- हमारी साधना का क्या स्तर है यह हर साधक जानना चाहता है, क्या आप पहले बताये तरीकों के अलावा कोई सरल मूल्यांकन विधि बता सकते हैं?
उत्तर- मनुष्य का मन पिछली बातों को याद करता है, भविष्य की चिंता करता है और वर्तमान के सुख दुःख को अनुभव करता है. अब आप अपना निरीक्षण करें, आप पिछली बातों को कितना याद करते हैं, आप किस मात्रा में भविष्य की चिंता करते हैं और वर्तमान के सुख दुःख से आप कितने उदासीन हैं. यदि आप पिछली बातों को बहुत कम  अथवा नहीं के बराबर याद करते हैं तो आपका धरातल ऊँचा है, इसी प्रकार भविष्य की चिंता नहीं करते हैं तो आप श्रेष्ठ स्तर में हैं .यदि वर्तमान के सुख दुःख से आप जिस मात्रा में उदासीन हो गए हैं उतना उच्च स्तर आपका है.
यदि आप वर्तमान के सुख दुःख से पूर्णतया उदासीन हो गए हैं . भविष्य की कोई फिक्र नहीं करते, आपके जीवन में पिछली बातों का कोई स्थान नहीं है तो आप मुक्त पुरुष हैं.
जीवन को दृष्टा हाकर अथवा साक्षी होकर जियें. संसार के सभी कर्म दृष्टा भाव से निमित्त मात्र होकर करें इससे मन स्वाभाविक वैराग्य को प्राप्त होगा.

प्रश्न- विद्या और अविद्या के अंतर को सरल रूप से समझाने का कष्ट करें?
उत्तर- जो संसार की और ले जाए वह अविद्या है. संसार का ज्ञान अविद्या है. जो अपने स्वरुप का बोध कराये, जो सृष्टि के परम सत को अनुभूत कराये वह विद्या है.

प्रश्न - आप ने बताया था की गुरु केवल शिष्य के प्रतिबोध के धरातल को ही पुष्ट करता है शेष शिष्य को स्वयं करना होगा. क्या यह आपका मत है अथवा अन्य किसी ब्रह्मज्ञानी ने भी इस प्रकार कहा है?
उत्तर- आदि शंकराचार्य आत्म अनुभव के बारे में बताते हुए कहते हैं-
तटस्थिता बोधयन्ति गुरवः श्रुतयो यथा 
प्रज्ञयैव          तरेद्विद्वानीश्वरानुगृहीतया- 477- विवेक चूड़ामणि 
श्रुति अर्थात वेद, उपनिषद के सामान गुरु भी ब्रह्म का केवल तटस्थ रूप से ही बोध कराते हैं अर्थात शिष्य के प्रतिबोध के धरातल को ही पुष्ट करते हैं. बुद्धिमान को चाहिए की ईश्वर द्वारा दी हुयी बुद्धि का सहारा लेकर संसार से पार हो जाए.
इसी प्रकार श्लोक 480 में कहते हैं - गुरु के प्रमाण युक्त वचन और अपनी युक्तियों द्वारा परमात्मतत्त्व को जानकार जब चित्त और इन्द्रियाँ शांत हो जाती हैं तब बोध प्राप्त होता है.

Thursday, July 4, 2013

तेरी गीता मेरी गीता -91- मृत्यु का विज्ञान और महावीर का जन्म और पुनर्जन्म- बसंत

प्रश्न- क्या मृत्यु के विज्ञान को सरलता पूर्वक उदाहरण देकर समझाया जा सकता है?
उत्तर- हाँ. मृत्यु के विज्ञान को समझने के लिए स्वप्न और सुषुप्ति को समझना होगा. एक व्यक्ति  स्वप्न में देखता है कि वह  कार चला रहा है, कार एक पेड़ से टकरा जाती है और खाई में गिर जाती है. इसी प्रकार स्वप्न में देखता है कि उसकी किसी ने चाकू से ह्त्या कर दी आदि. इस घटना से उसकी मृत्यु हो जाती है. इसके बाद वह गहरी नींद में चले जाता है. यही मृत्यु में होता है आप गहरे तमस- अन्धकार-(अज्ञान) में खो जाते हैं. कभी कभी आप मृत्यु के बाद देखते हैं  आप को कोई देव दूत ले जा रहे हैं, कभी रथ में बैठा देखते हैं, तो कभी भयानक यम दूत बिखाई देते हैं, यह सब उसी प्रकार है जैसे स्वप्न म्रत्यु के बाद के बाद दूसरा स्वप्न का चालू हो जाना जैसे मृत्यु के स्वप्न के बाद आप अपने को दिव्य रथ मैं बैठा देखें, उड़ता हुआ देखें या कहीं गन्दगी में पड़ा देखें. यह सब मन की शरारत है. यह मन ही आप का भिन्न भिन्न रूप धारण करता है.
यह मन ही इस जिन्दगी में दुःख सुख का कारण है और यही स्वप्न में भी दुःख सुख का कारण है और मृत्यु के समय भी दुःख का कारण है. मृत्यु को प्राप्त कुछ जीव तात्कालिक रूप से सुषुप्ति के समान कुछ भी महसूस नहीं करते है, कुछ स्वप्नवत दुःख सुख महसूस करते हैं. कालांतर (जो कुछ मिनट से कई वर्षों का हो सकता है) में पुनः सुप्त ज्ञान के जाग्रत हो जाने पर वह जीवात्मा कहीं भी प्रारब्ध वश जन्म लेकर दुःख सुख को भोगता है. यह सुप्त ज्ञान का जागरण नींद खुलने जैसा होता है.

प्रश्न- हमें स्वप्न की बातें याद रहती हैं पर पूर्व जन्म की बातें याद नहीं रहती. ऐसा क्यों?
उत्तर-  पहली बात है हमें सब स्वप्न याद नहीं रहते. दूसरी बात यह है स्वप्न का कुछ भाग ही याद रहता है.  तीसरा स्वप्न पूरा याद रहता है. इसी प्रकार ज्यादातर को पूर्व जन्म की याद नहीं होती है किसी किसी को धुंधली याद आती है और कुछ को सारी बात याद रहती है. दूसरा प्रमुख कारण है समय. स्वप्न और जाग्रति में कुछ घंटे का अंतर होता है और जन्म और पिछले जन्म के  बीच कई वर्षों (शैशवावस्था) का अंतर होता है. बच्चा माँ के गर्भ में फिर १-२ साल के बीच नए वातावरण में सब भूल जाता है. यह स्मृति बोध जीवन मुक्त पुरुषों और सिद्धों में सदा बना रहता है. यहाँ में प्रमाण स्वरुप जैन ग्रंथों में उपलब्ध  तीर्थंकर महावीर स्वामी के केवल पृथ्वी में हुए कुछ जन्मों का विवरण देना चाहूँगा जो सिद्ध होने पर उनके द्वारा बताये गए हैं.

1-पुरुरवा भील - विदेहक्षेत्र की पुन्डरिकिणी नगरी से श्रावको का संघ तीर्थयात्रा पर जा रहा था. इस यात्रा में सागरसेन नाम के मुनि भी थे. जंगल मार्ग से जा रहे थे.  पुरुरवा भील डाकुओ की टोली ने  मुनि व  श्रावको को मारने के लिए बाण चढाए. पत्नी ने रोका. मुनि की तेजस्वी मुद्रा से मन बदल गया.भील ने मुनिराज को वन मे से बाहर का रास्ता बताया. मुनि ने अहिंसा धर्मं को बताया पुरुरवा भील ने क्रूरता छोड़ दी.
2- मरीचि कुमार - मरीचि ऋषभ देव के पुत्र भरत के पुत्र थे. ऋषभ देव से  दीक्षा ली.  मुनि मार्ग छोड़ दिया और अलग होकर अलग वर्तन  सांख्यमत का प्रवर्तन किया.
3-प्रियमित्र ब्राह्मण 
4- पुष्पमित्र ब्राह्मण - बाल्यकाल मे संन्यासी होकर तप किया
5-अग्निसह ब्राह्मण -   संन्यासी होकर तप किया.
6-अग्निमित्र ब्राह्मण - युवावस्था मे गृह त्यागकर संन्यासी हुए.
7-भारद्वाज ब्राह्मण - इस जीवन में भी संन्यासी.
8-त्रस पर्याय - अनेक बार मनुष्य और देव गति मे भ्रमण अर्थात गर्भ में ही अनेक बार मृत्यु को प्राप्त हुए.
9-स्थविर ब्राह्मण - राजग्रुही मे जन्मे फिर संन्यासी हुए.  
10-विश्वनंदी - राजग्रुही नगरी मे विश्व भूति राजा के पुत्र हुए - विश्वभूति ने विशाखभुती को राज्य और विश्वनंदी को युवराज पद दिया.विश्वनंदी ने सुंदर उद्यान बनाया जिसमें उनका ममत्व अधिक था. विशाखनंदी ने उद्यान पर अधिकार  किया. इस कारण विश्वनंदी और विशाखनंदी के बीच युद्ध. विशाखनंदी शरण मे आकर क्षमा याचना करने लगा. विश्वनंदी का क्रोध शांत हुआ साथ ही भाई के साथ युद्ध करके लज्जित हुए. दीक्षा ली और अनेक उपवास, तप किए मुनि हो गए.  मथुरा में बैल ने सींग मारा, विश्वनंदी धरती पर गिर पड़े. विशाखानंदी ने इनके बल के बारे मे कटाक्ष किया. विश्वनंदी मुनि क्रोध मे बोलने लगे मैं तप के प्रभाव से भविष्य मे सबके सामने छेद डालूँगा.....
11-त्रिपुष्ठ वासुदेव - प्रजापति राजा के पुत्र के रूप मे जन्म लिया. गाँव मे एक सिंह ने लोगो की हिंसा करके भयभीत कर रखा था. त्रिपुष्ठ ने सिंह को स्वयं मारने की इच्छा प्रकट की. सिंह से युद्ध कर पछाड़ दिया. विद्याधर के राजा की पुत्री स्वयंप्रभा का विवाह त्रिपुष्ठ के साथ हुआ. प्रतिस्पर्धी राजा अश्वग्रीव अपमान करने लगा. दोनों के बिच युद्ध हुआ. क्रोध पूर्वक त्रिपुष्ठ ने अश्वग्रीव को मार डाला. 
12-सिंह - निर्दय सिंह 
13-सिंह - बलवान सिंह हुआ जिसकी गर्जना सुनकर जंगल के पशु कांप उठते थे. अमितकिर्ती और अमितप्रभ नाम के मुनि आकाशमार्ग से  सिंह को प्रतिबोध करने नीचे उतरे   मुनि की वाणी से पूर्व जन्मों का स्मरण हुआ. मुनि  ने बताया की भरत क्षेत्र के चौबिसवें  तीर्थंकर बनोगे. सिंह योनी में सम्यग्दर्शन  हुआ. एक ही करवट बैठा रहा शरीर शांत हो गया. 
14-कनकध्वज - विदेह्क्षेत्र मे कनकप्रभ राजा के पुत्र हुए. सुंदरवन मे यात्रा करने गए, वहां तेजस्वी मुनि इनको को देखकर अति प्रसन्न हुये और दीक्ष्ह लेने को कहा. यह जीवन  वैराग्यपूर्वक बीता.
हरिषेण-व्रजधर राजा के पुत्र के रूप मे जन्म हुआ. इस जन्म में श्रावक के १२ व्रत धारण किए तथा दीक्षा लेकर वन मे जाकर  मग्न हो गए और समाधि पूर्वक शरीर त्याग किया.
15-प्रियमित्र- विदेह्क्षेत्र मे धनंजय राजा के पुत्र के रूप मे जन्मे. राजा ने राज्य इनको सौंप दिया.यह  राज्य के साथ साथ अणुव्रतों का भी पालन करते थे. कालान्तर में चित्त संसार से विरक्त हुआ और  जिन दीक्षा ली और पालन किया.
16-नंदन- भरतक्षेत्र के पूर्व भाग मे श्वेतनगरी मे राजा नन्दिवर्धन के पुत्र के रूप मे जन्म हुआ. पिता के बाद नन्द   ने राज्य का भार संभाल लिया. प्रौष्ठल नाम के श्रुतकेवली मुनि श्वेतपुरी में आए थे  जिनके  उपदेश  से  जातिस्मरण हुआ  पूर्व जन्म याद आ गए. मुनि ने दीक्षा लेने को कहा.  दीक्षा अंगीकार की. इस जन्म में तीर्थंकर नामकर्म बंधना प्रारम्भ हो गया. इनमें सोलह प्रकार की मंगल भावना जागृत हुई और सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ. इस जन्म में समाधि मरण को प्राप्त हुए.
17- तीर्थंकर  महावीर स्वामी

Tuesday, July 2, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - बोधिसत्त्व - 90 -बसंत

प्रश्न- कुछ मत्वपूर्ण बाते बताने की कृपा करें.

उत्तर-१- यह महत्वपूर्ण नहीं है कि बूँद सागर में मिल जाए, महत्वपूर्ण यह है कि सागर बूँद में समा जाए. यह महत्वपूर्ण नहीं है कि तुम परमात्मा में विलीन हो जाओ, महत्वपूर्ण यह है कि परमात्मा तुम में समा जाए. 
२- शान्ति, आनंद, प्रेम पूर्णता न होकर पूर्णता का प्रसाद हैं.
3- जब तक आप अपने नियंता नहीं हो जाते तब तक सब व्यर्थ है.
४- नियंता का प्रसाद ही शान्ति, आनंद और प्रेम है.
५- पूर्ण विशुद्ध ज्ञान की प्राप्ति से ही मनुष्य अपना नियंता हो सकता है.
६- तुम्हारे अन्दर ही सम्पूर्ण अस्तित्व छिपा है.
७- तुम नित्य शुद्ध बुद्ध हो.
८- जो यह सृष्टि है वह मैं हूँ जो सृष्टि से परे है वह भी मैं हूँ.
९- सृष्टि जब तक तुम्हारे बाहर है तुम सृष्टि की जेल में कैद हो जैसे ही तुम इस जेल को तोड़ डालते हो, तुम मुक्त हो जाते हो और तुम इतने विराट हो जाते हो कि सृष्टि तुम्हारे अन्दर आ जाती है.
१०- जड़ और चेतन दोनों परमात्मा से ही उपजे हैं. 
११- कुछ भी कर लो यथार्थ ज्ञान अनुभूति के बिना कोई तुमको मुक्त नहीं कर सकता.
१२- सृष्टि के प्रत्येक परमाणु में उसका अस्तित्व छिपा है जिसे कोई नष्ट नहीं कर सकता.

Monday, July 1, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - सोऽहं - 89 - बसंत

प्रश्न- कई महात्मा सोऽहं के जप को बड़ा महत्व देते हैं. आपका इस विषय में क्या अभिमत है?
उत्तर- पहले आप सोऽहं को समझिये. सोऽहं  का अर्थ है मैं वही हूँ. वही अर्थात परमात्मा. वैदिक एवं उत्तर वैदिक मंत्र अहम् ब्रह्मास्मि, अयमात्मा ब्रह्म, शिवोहम, नारायणोहम को ही ध्वनित करने वाला शब्द सोऽहं है. यह ॐ (ओंकार) ही है. सोऽहं का तात्पर्य है जो ॐ स्वरुप परमात्मा है वह मैं हूँ. 

प्रश्न- यह ॐ (ओंकार) ही सोऽहं कैसे है.
उत्तर- ॐ समस्त सृष्टि और सृष्टि से परे का सूचक है. यह शब्द ब्रह्म भी कहा गया है. अध्यात्म में शब्द का वास्तविक अर्थ है यथार्थ पूर्ण ज्ञान अर्थात पूर्ण वास्तविकता. ॐ परमात्मा का नाम है. यह परमात्मा का अहंकार है. ॐ कोई ध्वनि नहीं है. ॐ शब्द पूर्ण विशुद्ध ज्ञान में हलचल की अवस्था को दिया गया नाम है. इस पूर्ण विशुद्ध ज्ञान में हलचल होते ही अव्यक्त अवस्था जन्म, स्थिति और लय में रूपांतरित हो गयी साथ ही अपने मूल स्वरुप में भी स्थित रही. हिन्दुओं में जन्म, स्थिति और लय  ही त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और शिव शंकर की द्योतक ॐ को ही प्रतिध्वनित करती है. बाइबिल भी कहती है की जब सृष्टि नहीं थी तब शब्द था. यहाँ शब्द का अर्थ ध्वनि से न होकर ज्ञान (यथार्थता) है.
प्रश्न- ज्ञान में हलचल की अवस्था को ॐ ही नाम क्यों दिया गया?
ॐ अ, उ, म तीन अक्षरों से बना है. अ की ध्वनि करते हुए मुंह खुलता है, उ की ध्वनि करते हुए ध्वनि का विस्तार होता है और मुंह खुला रहता है म की ध्वनि के साथ मुंह बंद हो जाता है. यह तीन अवस्था सृष्टि का जन्म, विस्तार जिसे स्थिति कहा है और अंत है. इसके अलावा ॐ में बिन्द्दु भी लगा होता है जो सृष्टि से परे परम सत्य का परमात्मा का द्योतक है.
ॐ शब्द परम ज्ञान जिसे परमात्मा कहते हैं के वास्तविक स्वरुप और विशेषताओं को पूर्ण रूप से स्पष्ट करता है इसलिए यह परमात्मा का वास्तविक नाम है. श्री भगवन भगवद गीता  में  कहते हैं -ओम इति एकाक्षरं ब्रह्म. ओम ही ब्रह्म है और इसे व्यवहार में स्वीकारते हुए सदा परमात्मा का चिंतन करना चाहिए.

प्रश्न- क्या सोऽहं बोध की अवस्था है?
उत्तर- हाँ सोऽहं  बोधावस्था है. ॐ तत्त्व जब अनुभूत हो जाता है तो साधक स्वयं जानता है कि वह, प्रकृति और पुरुष सब एक ही हैं. कहीं भी द्वैत नहीं है. जो परमात्मा है वह स्वयं है तब वह स्वतः ही कहता है सोऽहं, अहम् ब्रह्मास्मि, शिवोहम, नारायणोहम. इसलिए बिना ॐकार को अनुभूत किये सोऽहं से कोइ लाभ नहीं होता क्योकि जब तक मिथ्यात्मा है तब तक सोऽहं जो बोध स्वरुप है कैसे और किस प्रकार कोई जान सकता है. इसलिए 'एक ॐकार सत नाम' जानकार ॐ का ही जप, व्यवहार में स्मरण करना चाहिए. सोऽहं खुद प्रगट होगा.

BHAGAVAD-GITA FOR KIDS

    Bhagavad Gita   1.    The Bhagavad Gita is an ancient Hindu scripture that is over 5,000 years old. 2.    It is a dialogue between Lord ...