प्रश्न- हमारी साधना का क्या स्तर है यह हर साधक जानना चाहता है, क्या आप पहले बताये तरीकों के अलावा कोई सरल मूल्यांकन विधि बता सकते हैं?
उत्तर- मनुष्य का मन पिछली बातों को याद करता है, भविष्य की चिंता करता है और वर्तमान के सुख दुःख को अनुभव करता है. अब आप अपना निरीक्षण करें, आप पिछली बातों को कितना याद करते हैं, आप किस मात्रा में भविष्य की चिंता करते हैं और वर्तमान के सुख दुःख से आप कितने उदासीन हैं. यदि आप पिछली बातों को बहुत कम अथवा नहीं के बराबर याद करते हैं तो आपका धरातल ऊँचा है, इसी प्रकार भविष्य की चिंता नहीं करते हैं तो आप श्रेष्ठ स्तर में हैं .यदि वर्तमान के सुख दुःख से आप जिस मात्रा में उदासीन हो गए हैं उतना उच्च स्तर आपका है.
यदि आप वर्तमान के सुख दुःख से पूर्णतया उदासीन हो गए हैं . भविष्य की कोई फिक्र नहीं करते, आपके जीवन में पिछली बातों का कोई स्थान नहीं है तो आप मुक्त पुरुष हैं.
जीवन को दृष्टा हाकर अथवा साक्षी होकर जियें. संसार के सभी कर्म दृष्टा भाव से निमित्त मात्र होकर करें इससे मन स्वाभाविक वैराग्य को प्राप्त होगा.
प्रश्न- विद्या और अविद्या के अंतर को सरल रूप से समझाने का कष्ट करें?
उत्तर- जो संसार की और ले जाए वह अविद्या है. संसार का ज्ञान अविद्या है. जो अपने स्वरुप का बोध कराये, जो सृष्टि के परम सत को अनुभूत कराये वह विद्या है.
प्रश्न - आप ने बताया था की गुरु केवल शिष्य के प्रतिबोध के धरातल को ही पुष्ट करता है शेष शिष्य को स्वयं करना होगा. क्या यह आपका मत है अथवा अन्य किसी ब्रह्मज्ञानी ने भी इस प्रकार कहा है?
उत्तर- आदि शंकराचार्य आत्म अनुभव के बारे में बताते हुए कहते हैं-
तटस्थिता बोधयन्ति गुरवः श्रुतयो यथा
प्रज्ञयैव तरेद्विद्वानीश्वरानुगृहीतया- 477- विवेक चूड़ामणि
श्रुति अर्थात वेद, उपनिषद के सामान गुरु भी ब्रह्म का केवल तटस्थ रूप से ही बोध कराते हैं अर्थात शिष्य के प्रतिबोध के धरातल को ही पुष्ट करते हैं. बुद्धिमान को चाहिए की ईश्वर द्वारा दी हुयी बुद्धि का सहारा लेकर संसार से पार हो जाए.
इसी प्रकार श्लोक 480 में कहते हैं - गुरु के प्रमाण युक्त वचन और अपनी युक्तियों द्वारा परमात्मतत्त्व को जानकार जब चित्त और इन्द्रियाँ शांत हो जाती हैं तब बोध प्राप्त होता है.
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