आजकल वेदांत के नाम से आपको अधूरा वेदांत सिखाया जा रहा है. सबसे पहले वेद का अर्थ समझिए. वेद का अर्थ होता है जानना और वेदांत का अर्थ है जो जानने के अंतिम छोर में पहुंच गए अर्थात जो जानना था जान लिया. अब कुछ भी शेष नहीं रहा अर्थात सत्य को महसूस कर लिया, जान लिया. वेदांत के अनेक ग्रंथ हैं और किसी भी दर्शन को पूरा अध्ययन किए और आत्मसात किए बिना आप उसके तत्व को नहीं पा सकते. अधूरा ज्ञान बड़ा खतरनाक होता है परंतु जब मुझे वेदांत के नाम से व्यवसाय करना है, महान उपदेशक बनना है, संसार में प्रसिद्धि पानी है, चेले - चपाटे बनाने हैं, अपना साम्राज्य स्थापित करना है,सरकार से नजदीकी बनानी है और आज मैंने यह कर लिया कल मैं ऐसा करूंगा, इस प्रकार अज्ञान से मोहित भिन्न-भिन्न आशा लिए इन धर्मगुरुओं से आप अपेक्षा करते हैं कि वह आपको सच्चा मार्ग बताएंगे. अरे वाह क्या बताएंगे, वह खुद भी नहीं जानते. तुम्हारे धर्मगुरु तुम्हारे डर का फायदा उठाते हैं और व्यापार करते हैं यही नहीं आजकल तो वह चूरन, चूड़ी और चेहरे भी बेचने लगे हैं और कहते हैं वह है तो कर्म योगी हैं. कर्म और अकर्म के सिद्धांत को समझे बिना स्वयं अपने में कर्म योगी का ठप्पा लगा लेते हैं. आज में आपके समक्ष कुछ सत्य प्रस्तुत है. पर उससे पहले आप स्वयं अपना निरीक्षण करें कि आप अनेक उपदेशक तथाकथित धर्म गुरुओं के पास गए होंगे क्या आपके जीवन में वास्तव में उनके संग से कुछ परिवर्तन आया आपने कुछ सत्य को जाना, खुद निरीक्षण करें यदि आपने सत्य जाना तो मेरी यह वार्ता आपके किसी काम की नहीं है.अन्यथा वेदांत के कुछ सत्य को स्वीकार करें .
1 - वेदांत कोई किताबी ज्ञान नहीं है यह प्रैक्टिकल नॉलेज, प्रायोगिक ज्ञान है अर्थात स्वयं के द्वारा सत्य को अनुभव कर अपने सत्य को जानना.
2- परमात्मा इस विश्व का मूल कारण है और उससे संपूर्ण सृष्टि व्याप्त है परंतु उसको जाना नहीं जा सकता.
3- परमात्मा की शक्ति मूल प्रकृति को भी नहीं जाना जा सकता उसे शब्दों में प्रकट नहीं किया जा सकता है.
4- अहम, आकार के बिना नहीं रह सकता और आकार का अहम के बिना कोई अस्तित्व नहीं है. दोनों परमात्मा के अभिन्न अंग हैं.
5-परमतत्व की विशुद्ध शिवा अवस्था तक ही कोई भी जीव या मनुष्य पहुंच सकता है उसके आगे उस परम तत्व परमात्मा को न कोई जान सकता न कोई जान पाया है.
किसने जाने तेरी माया किसने भेद तुम्हारा पाया
हारे ऋषि मुनि कर ध्यान बना मन मंदिर आलीशान
तू ही जल में तू ही थल में तेरा रूप अनेक जहान
बना मन मंदिर आलीशान.
6- वेदांत सत्य को खोजता है. मनुष्य जीवन का परम लक्ष्य अपने सत्य को जानना है. जिसको जानने के बाद कुछ भी जानना शेष नहीं रहता और मनुष्य के पास केवल बुद्धि है जिसको उन्नत करते हुए सत्य को ग्रहण करने वाली बुद्धि ऋतंभरा बनाया जा सकता है और मनुष्य सत्य को प्राप्त कर सकता है.
7- सत्य अनुभव करने पर या किसी भी सत्य को जानने पर उससे संबंधित संकल्प और विकल्प समाप्त हो जाते हैं जिससे मनुष्य आनंदित होता है और उसके अंदर कभी नष्ट न होने वाली शांति आ जाती है आज मनुष्य तनावग्रस्त है उसका धरातल बुद्धि का निचला स्तर मन है. यहां संकल्प विकल्प जन्म लेते हैं इसलिए वह बेचैन है और शांति चाहता है. आपके व्यापारिक धर्मगुरुओं ने आपको वास्तविकता न बताकर शांति या कहें नकली शांति जो थोड़े समय की होती है, का तरीका, अपने संसार को या अपनी प्रभुता को बढ़ाने के लिए किया जा रहा है. आपको एक प्रकार के भ्रम में या कहें शांति के भ्रम में डाल दिया जाता है और आपको थोड़ी देर शांति मिलती है, आप सोचते हैं की मुझे कुछ उपलब्धि हो गई है और आप उनसे प्रभावित होकर एक मृगतृष्णा को जीवन भर पालते हैं.
8- मनुष्य की बुद्धि संशय ग्रस्त रहती है, वह सदा विवेचना और जो उसने सीखा है उस लर्निंग पर निर्भर करती है इसलिए वह सदा वह ज्यादातर मन के धरातल पर रहती है. इस संशय ग्रस्त बुद्धि को विवेकमय बनाना है. जितना विवेक बढ़ेगा उतना संशय नष्ट होगा. विवेक अधिक होने पर प्रज्ञा का धरातल पुष्ट होता जाएगा और कालांतर में मनुष्य के अंदर बोध जन्म लेता है और यही बोध आगे चलकर बुद्धि को ऋतंभरा बना देता है जो सत्य को ग्रहण करती है. तभी वास्तविकता समझ में आती है और मनुष्य सदा सदा के लिए आनंदित हो जाता है ,उसे असली शांति प्राप्त होती है क्योंकि उसके संकल्प विकल्प समाप्त हो जाते हैं वह निश्चित तौर पर अपने भूत, वर्तमान और भविष्य जानता को है उसे मृत्यु भय से समाप्त हो जाता है.
9- वेदांत के अनुसार यह संपूर्ण जगत ब्रह्म का ही स्वरूप है. यह जगत ब्रह्म से भिन्न नहीं है. जहां तक ‘ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या’ की बात है, उसका तात्पर्य है ब्रह्म से अलग जगत का कोई अस्तित्व नहीं है. जो दिखाई दे रहा है और जो दिखाई नहीं दे रहा है वह सब कुछ परमात्मा परमात्मा ही है. परमात्मा से भिन्न कुछ भी नहीं है. परमात्मा ने इस सृष्टि को संपूर्ण रूप से व्याप्त किया है. परमात्मा सर्वत्र है सर्वव्यापी है. सब कुछ उसी का विस्तार है. सब में वही है परंतु जो सब हैं या अलग-अलग हैं, जो दिखाई दे रहे हैं, जो दृश्य जगत है, वह परमात्मा नहीं है. परमात्मा सब में है, सब परमात्मा में नहीं हैं उदाहरण के लिए सूर्य परमात्मा के तेज से ही प्रकाशित है, सूर्य में परमात्मा हैं, पर सूर्य परमात्मा नहीं है. मनुष्य में परमात्मा है पर मनुष्य परमात्मा नहीं है. इसी प्रकार प्रत्येक देवता में परमात्मा है, पर देवता परमात्मा नहीं है.
10- जीव और ईश्वर परमात्मा रूपी गाय के दो बछड़े हैं. अविद्या नष्ट होने पर जीव ईश्वर हो जाता है जीव सकाम और कर्ता भोक्ता है, जबकि ईश्वर निष्काम कर्ता भोक्ता और साक्षी है.
11- लिंग शरीर ही मृत्यु के बाद जाता है वही वापस आता है उसे ही जीव कहा गया है.लिंग का अर्थ होता है चिन्ह अर्थात पहचान. प्रत्येक जीव का लिंग शरीर उसकी पहचान है, उसका चिन्ह है, उसकी प्रकृति है.
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