प्रश्न- परमात्मा क्या है?
उत्तर-परमात्मा जो सबका
कारण है सनातन है. सनातन
का अर्थ है
जो पहले था,
आज है और
सदा रहेगा. इसे
ही कभी न
नाश होने वाला ब्रह्म
कहा गया है.
यह प्रकृति, पुरुष
और सृष्टि का
परम कारण है.
प्रश्न- क्या परमात्मा
की प्राप्त हो
सकती है? क्या
परमात्मा को जाना
जा सकता है?
उत्तर- परमात्मा को जाना
नहीं जा सकता
उसकी प्राप्ति असंभव
है. उसे आज
तक कोई नहीं
जान पाया न
जानता है. उसे
न देवता जानते
हैं न सिद्ध
जानते हैं न
संत जानते हैं
यहां तक कि
ईश्वर भी उसे
नहीं जानता है.
वेद भी उसे
नहीं जानते इसलिए
‘नेति नेति’ कहते
हैं. उसे वेद, भगवादगीता
आदि सभी प्रमाणिक
शास्त्र अव्यक्त कहते हैं.
अव्यक्त का अर्थ
है जिसे बताया
नहीं जा सकता,
कहा नहीं जा
सकता. वह अचिंत्य
है अर्थात जिस
का चिंतन नहीं
हो सकता फिर
भी उसे आप
जानना चाहते हैं
और आप के
आधुनिक गुरु उसे
जानने का दावा
करते हैं. परमात्मा
की बात छोड़िए
उसकी मूल प्रकृति
को भी कोई
नहीं जान सकता
न कोई जान
पाया. मूल प्रकृति
परमात्मा की उपस्थिति
से जब गुणों
के रूप में
प्रकट होती है
तो ही ज्ञानी
जन प्रकृति में
परमात्मा को जान
पाते हैं. इसलिए
नानक जी कहते
हैं ‘बलिहारी कुदरत
बसिया तेरा अंत
न जाने लखिआ’.
वेद कहते हैं
तू ही लाल
है, तू ही
पीला है, तू
ही हरा है,
तू ही नीला
है, तू ही
पक्षी है, तू
ही तितली है,
तू ही देव
है तू ही
दानव है, तू
ही मनुष्य है,
तू ही सब
कुछ है, तेरा
ही सब विस्तार
है.अब साधक
और ज्ञानी उसके
किसी एक अंश
को जानकर ही
कृतार्थ हो जाता
है. वह एक
है या अनेक
है? उसके बारे
में क्या कहा
जाए. कबीर कहते
हैं ‘मैं क्या
जानू राम को
नैनं कबहुँ न
दीठ’. उसको
कोई नहीं जानता.
हम सब भरमा
रहे हैं. इसलिए
अपना शोधन करना
आवश्यक है और
अपने शोधन से
ही उसके एक
सत्यांश को जाना
जा सकता है.
वह परमात्मा अपने
में पूर्ण है.
उस पूर्ण में
से आप कितना
ही निकाल दें
और उस पूर्ण
में आप कितना
ही जोड़ दें
वह सदा पूर्ण
रहता है इसलिए
उसकी प्राप्ति किसी
के लिए भी
संभव नहीं है
उसको जानना किसी
के लिए भी
संभव नहीं है.
हाँ उस के
एक अंश के
छोटे से हिस्से
के सत्यांश को
प्राप्त कर मनुष्य
या कोई जीव
कृतार्थ हो जाता
है.
प्रश्न- फिर मनुष्य
के लिए ज्ञेयं
क्या है?
उत्तर- स्वयं को जानना
ही मनुष्य का
परम ज्ञेयं है.
प्रश्न- स्वयं को जानने
से आपका क्या
तात्पर्य है?
उत्तर- क्या आप
शरीर हैं/ क्या
सूक्ष्म प्रकृति हैं? या
बुद्धि हैं ?क्या
चेतना हैं? क्या जीव
हैं? कहने का
तात्पर्य है आप
सबसे पहले क्या
थे. आप का
वास्तविक स्वरूप क्या था.
क्या स्वरूप वर्तमान
में है और
भविष्य में आप
का क्या स्वरूप
होगा.
प्रश्न- इसके लिए
क्या करना होगा?
उत्तर_ अपने मूल
को खोजना होगा.
पहले समझे आप
क्या है? आप
स्वयं का निरीक्षण
करें आप एक
विचार हैं या
कहैं विचारों का
समूह हैं . आपकी
जैसी बुद्धि है
आप वैसे हैं.
आप ही अहंकारी
हैं, आप ही
निरंकारी है, आप
ही बुद्धिमान हैं,
आप ही मूर्ख
हैं, जिस जीव
की जैसी बुद्धि
वह वैसा. श्री
भगवान भगवादगीता में
कहते हैं 'शृद्धामयो
अयं पुरुषो यो
यच्द्ध स एव
सः' ।17।3Iअर्थात जो जैसा
यह स्वयं है.
सबसे बड़ी कुंजी
बुद्धि है. बुद्धि
परमात्मा और मूल
प्रकृति जिसको कोई नहीं
जान सकता उसके
स्वरूप को, उनके
गुणों को प्रकट
करती है. कहीं
यह ज्ञानमयी है
तो कहीं अज्ञानमयी
है. कहीं है
सात्विक है, कहीं
राजस है तो
कहीं तमोगुणी. सामान्यतः
जीवों और मनुष्यों
में यह भिन्न-भिन्न मात्रा में
परिलक्षित होती है.
यहां मैं आपको
यह स्पष्ट कर
देना चाहता हूं,बुद्धि और इंटेलीजेंशिया
में अंतर. इंटेलीजेंशिया बुद्धि का एक
अंग है, जिसकी
जैसी बुद्धि उसमें
परमात्मा वैसा प्रगट
है.
प्रश्न- तो क्या
हमें अपनी बुद्धि
पर केंद्रित होना
चाहिए?
उत्तर- हां आपको
अपनी बुद्धि के
द्वारा बुद्धि का शोधन
करना है, विद्या
से अविद्या को
दूर करना, सतोगुण
से रज और
तम का
बाध करना है
तभी सात्विक बुद्धि
में परमात्मा का
सत प्रकट होता
है. इसलिए परमात्मा
को मत खोजो
अपनी बुद्धि का
शोधन करो. 'बुद्धि
युक्तो जहातीह उभे सुकृत
दुष्कृते' भगवादगीता
में अर्जुन को
दिया गया यही
परम कल्याणप्रद उपदेश
है। OM TAT SAT.
परम् ब्रह्म परमेश्वर ने संकेत कर दिया है जितना आत्मकेंद्रित रहोगे विचार के प्रवाह को कम करोगे विचार शून्य होगा तब यह संसार शुन्य होगा सिर्फ ब्रह्म बचेंगे।
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