प्रश्न - क्या आत्मा पूर्ण है, बोध स्वरूप है, चैतन्य है, मुक्त है?
उत्तर- यह सत्य है कि आत्मा जो अस्तित्त्व है परम बोध स्वरूप है और
उसे कोई बंधन नहीं है और वह हमारे अंदर भी बंधी हुई नहीं है और उसमें लेश मात्र भी
अज्ञान नहीं है वह सदा मुक्त है.
प्रश्न- फिर हम पूर्ण, बोध स्वरूप, चैतन्य आत्मा होते हुए इतने सीमित एवं मोह, दुःख और भय ग्रसित क्यों हैं?
उत्तर- जैसी प्रकृति होती है अस्त्तिव या आत्मा उसमें वैसा प्रतिभासित होता
है जैसा हमारा शरीर है, प्रकृति है वैसी आत्मा प्रतिभासित दिखाई देती है. एक ब्लैक
बोर्ड लीजिये जिसके अंदर एक, दो या कई छोटे बड़े घेरे गड़े हैं. आप समझें ब्लैक बोर्ड
अस्तित्व या आत्मा है, जो घेरों के अंदर भी है और बाहर भी है. घेरा आपकी प्रकृति है.
घेरे के अंदर और बाहर चैतन्य आत्मा के प्रभाव से प्रकृति (घेरा) चेतन हो जाती है और अलग दिखती
है, आत्मा और प्रकृति के इस संयोग से उत्पन्न चेतन प्रकृति को विशेष चेतन कहते हैं.
उसमें बुद्धि उत्पन्न हो जाती है अब उसे और अन्य घेरे छोटे बड़े अपने से भिन्न दिखाई
देते हैं और यह दिखना ही जीव बुद्धि है. यही चेतन का बंधन है. इसी को ही संसार जीवात्मा
कहता है. अस्तित्व या आत्मा का कोई बंधन नहीं है.
परन्तु तुम विशेष चेतन हो और तुम्हारी यात्रा विशेष से विशिष्ट चेतन
की है. तुम अस्त्तिव या आत्मा का हिस्सा हो और तुम कभी भी अस्त्तिव नहीं हो सकते हो
क्योंकि प्रकृति और आत्मा का बंधन अनादि है. इसलिए जीव भी अनादि है. तुम्हारा उत्थान
हो सकता है, तुम्हारा पतन हो सकता है, यह तुम्हारे हाथ में है. जब तक तुम मन के बंधन
में हो तुम विशेष चेतन हो. जब मन तुम्हरे नियंत्रण में आ जाए तो तुम विशिष्ट चेतन हो
जाओगे. जीव और ईश्वर दोनों जीव हैं एक विशेष चेतन है दूसरा विशिष्ट चेतन.
अस्तित्त्व और विशेष चेतन को समझें. जिस प्रकार सामान अग्नि सब जगह
है पर वह न दिखाई देती है न किसी को जलाती है न कुछ पकाती है आदि परन्तु विशेष अग्नि
लकड़ी ,घी, तेल, जंगल आदि के रूप में जलती दिखती
है वह जलाती भी है और कार्य सिद्ध भी करती है. इसी प्रकार अस्तित्व सामान अग्नि के
रूप में सर्वत्र है और वह सदा अक्रिय है. विशेष अग्नि के सामान विशेष चेतन, करते हुए
भोगते हुए भिन्न भिन्न रूपों में दिखाई देता है.
जीव की यात्रा ईश्वर होने की है जैसे कक्षा एक का विद्यार्थी शिक्षा
प्राप्त कर एम ए पास कर लेता है उसी प्रकार जीव अपना अज्ञान नष्ट करते हुए जाग्रत होकर
ईश्वर हो जाता है. ईश्वर वह है जिसके आधीन मन है, जो विशिष्ट होने के कारण दिव्य है.
जहाँ तक अस्तित्त्व या आत्मा का प्रश्न है उसे आज तक कोई नहीं जान पाया फिर कोई अस्त्तिव
कैसे हो सकता है. हाँ आप अस्त्तिव भाव अपने में अनुभव कर सकते हैं. यही वेदांत और भगवद्गीता
कहती है पर शुद्ध बुद्धि से कोई समझे तो सही.
प्रश्न- शरीर के विषय में आपका क्या मत है?
उत्तर- सबसे पहले आप शरीर को सरल रूप से समझें तो हमारे दो शरीर हैं एक
स्थूल शरीर जो दिखाई देता है और दूसरा सूक्ष्म शरीर जिसे बुद्धि कहते हैं. सूक्ष्म
शरीर के अंतर्गत पांच ज्ञानेंद्रियां, पांच कर्मेंद्रियां सूक्ष्म रूप से, पंचमहाभूत सूक्ष्म रूप से , मन, बुद्धि,
चित्त, अहंकार, अविद्या, काम और कर्म आते हैं इसके अलावा स्थूल शरीर बुद्धि की रचना
है जो पंचमहाभूत स्थूल रूप से, काम और कर्म, अविद्या और
बुद्धि और इन्द्रियों के संयोग से बनता है.
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