ज्यादातर
भारतीय और हिन्दू संस्कृति से जुड़ाव रखने
वाले यज्ञ के बारे में जानते हैं. आप सबने
अपने बचपन यज्ञ होते देखे होंगे. प्रत्येक
हिन्दू के घर जन्म से लेकर मृत्यु तक यज्ञ
होता है. किसी के घर तो रोज यज्ञ होता है. पर यज्ञ क्या होता है? क्या हम उसे
सही रूप में करते हैं? सामान्यतः अग्नि को एक विधान से जलाकर यज्ञ किया जाता है.
अग्नि में हवन करना यज्ञ का पंच भूतों को संतुष्ट करने वाला यज्ञ है और
इससे प्रकृति अनुकूल होती है और मनुष्य को शुद्ध शब्द, स्पर्श, प्रभा,रस और गंध की
प्राप्ति होती है. परन्तु इसका असर सीमित
और अल्पकालिक होता है. आइये यज्ञ के असली स्वरुप को समझते हैं.
यज्ञ क्या है.
यज्ञ
एक पवित्र करने वाली क्रिया है. जिस क्रिया से कोई मनुष्य, जीव, तत्त्व या स्थान
पवित्र होता है वह यज्ञ है. कोई भी स्वाभाविक क्रिया यज्ञ है. यथा स्थिति रहना
यज्ञ है. ईश्वर के निमित्त किया कोई भी कर्म यज्ञ है.
इसलिए यज्ञ कई प्रकार के हैं और अनेक प्रकार के हो सकते हैं
1-द्रव्य यज्ञ- इस सृष्टि से जो कुछ भी हमें प्राप्त है उसे ईश्वर को
अर्पित कर ग्रहण करना।
2-तप यज्ञ- जप कहाँ से हो रहा है इसे देखना तप यज्ञ है।
3-योग यज्ञ- प्रत्येक कर्म को ईश्वर के लिए कर्म समझ कर निपुणता से करना
योग यज्ञ है।
4-यम, नियम, संयम आदि कठोर शारीरिक और मानसिक क्रियाओं द्वारा मन को
निग्रह करने का प्रयास. यह शम, दम, उपरति, तितीक्षा, समाधान और श्रद्धा हैं।
4-1-मन को संसार से रोकना - शम यज्ञ
2-बाह्य इन्द्रियों को रोकना -
दम यज्ञ.
3-निवृत्त की गयी इन्द्रियों
भटकने न देना-- उपरति यज्ञ
4- सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख, हानि-लाभ,
मान अपमान को शरीर धर्म मानकर सरलता से सह लेना - तितीक्षा यज्ञ
5-रोके हुए मन को आत्म चिन्तन
में लगाना - समाधान यज्ञ
5-अपान वायु में प्राण
वायु का हवन करना.
6-प्राण वायु में अपान
वायु का हवन करना.
7-दोनों प्रकार की
वायु, प्राण और अपान को
रोककर प्राणों को प्राण में हवन करना.
8-सब प्रकार के आहार को जीतकर नियमित आहार करने वाले प्राण वायु में प्राण
वायु का हवन करना.
9-शब्द में शब्द का हवन करना.
10-शब्दादि विषयों को इन्द्रिय रूप अग्नि में हवन करना.
11-जीव बुद्धि का आत्म स्वरूप में हवन करना.
12-आत्म यज्ञ- ज्ञान के द्वारा आत्म संयम योगाग्नि प्रज्वलित कर सम्पूर्ण
विषयों की आहुति देते हुए.
इस
प्रकार यज्ञ अनेक है और उनकी नाना विधियां
हैं जैसे स्नान यज्ञ, क्षुधा यज्ञ, बलि यज्ञ, भूत यज्ञ, पितृ यज्ञ, ऋषि यज्ञ, देव
यज्ञ, तीर्थ यज्ञ जिसके अंतर्गत देवालयों
में जाना भी है, दान यज्ञ, सेवा यज्ञ आदि.
जो ईश्वर निमित्त या दुसरे के निमित्त किया जाता है. यह सभी यज्ञ करने वाले के अन्ततर्गत पवित्रता का संचार करते
हैं और दूसरे का हित करते हैं.
श्री
भगवान् कृष्ण भगवदगीता में विस्तार से यज्ञ को बताते हुए कहते हैं,
द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञान यज्ञ अत्यन्त श्रेष्ठ है। द्रव्यमय यज्ञ
सकाम यज्ञ हैं और अधिक से अधिक स्वर्ग को देने वाले हैं परन्तु ज्ञान यज्ञ द्वारा
योगी कर्म बन्धन से छुटकारा पा जाता है और परम गति को प्राप्त होता है। सभी कर्म
ज्ञान में समाप्त हो जाते हैं। ज्ञान से ही आत्म तृप्ति होती है और कोई कर्म अवशेष
नहीं रहता है।
उनके शब्दों में यज्ञ, यज्ञ करने
वाला और यज्ञ की समूर्ण क्रिया और पदार्थ
ब्रह्म है।
अर्पण ही ब्रह्म है, हवि ब्रह्म है, अग्नि ब्रह्म है, आहुति ब्रह्म है, कर्म रूपी समाधि भी ब्रह्म है और
जिसे प्राप्त किया जाना है वह भी ब्रह्म ही है। यज्ञ परब्रह्म स्वरूप माना गया है।
इस सृष्टि से हमें जो भी प्राप्त है, जिसे अर्पण किया जा रहा
है, जिसके द्वारा हो रहा है, वह सब
ब्रह्म स्वरूप है। सृष्टि का कण कण, प्रत्येक क्रिया में जो
ब्रह्म भाव रखता है वह ब्रह्म को ही पाता है अर्थात ब्रह्म स्वरूप हो जाता है ।
यज्ञ के परिणाम को बताते हुए कहते
हैं,
यज्ञ से बचे हुए अमृत का अनुभव करने वाले पर ब्रह्म परमात्मा को प्राप्त
होते हैं। यज्ञ क्रिया के परिणाम स्वरूप जो बचता है वह ज्ञान ब्रह्म स्वरूप है। इस
ज्ञान रूपी अमृत को पीकर वह योगी तृप्त और आत्म स्थित हो जाते हैं।
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