ईश्वर निराकार है. उसे यथार्थ में पूर्ण रूप से व्यक्त कर पाना संभव नहीं है. इस कारण ईश्वर अव्यक्त कहा जाता है.
ईश्वर का ईश्वर वही
सकल देव के देव
पतियों के वह परमपति
ब्रह्म अंड के स्वामि
वह स्तुति के योग्य है
परम परे है जान.७.-६-
श्वेताश्वतरोपनिषद्
यह मानना कि ईश्वर ने जगत अथवा सृष्टि का निर्माण किया है पहले दर्जे की मूर्खता है. वास्तव में जगत ईश्वर का विस्तार है जैसे बीज और वृक्ष. शुक्राणु और शरीर, डी एन ए और शरीर. इसी प्रकार शरीर और बाल, शरीर और नाखून. वृक्ष और पत्ते, वृक्ष और फल. जगत ईश्वर का सगुण स्वरूप है.
धरा पुष्ट हो खुद उगें
जैसे पादप भिन्न
रोम प्रकट जिमि पुरुष में
विश्व प्रकट परब्रह्म.७-१-
मुंडकोपनिषद्
अक्षर है वह सत्य है
ब्रह्म बीज सब भूत
चिनगी निकलें अग्नि से
जीव जगत तस ब्रह्म
भाव प्रकट परब्रह्म से
ओर उसी में लीन .१. -२-
मुंडको पनिषद्
ॐ अक्षर ब्रह्म है
जगत है प्राकट्य
भूत भवि भव ॐकार है
काल परे भी सोहि.१.
मांडूक्योपनिषद्
अवर्ण है निहितार्थ वह
अनेक वर्ण धारता
शक्ति योग आदि से
सृष्टि आदि में प्रकट
अन्त में विलीन जग
एक है देव वह
योग युक्त कर सदा
शुद्ध बुद्धि दे सकल.१-४-
श्वेताश्वतरोपनिषद्
तू नर है तू नारि तू
तू कुमार कुमारी
वृद्ध हो तू चले दण्ड संग
तू विराट तू विश्व मुख.३-४-
श्वेताश्वतरोपनिषद्
नील वर्ण कीट है
लाल हरित पक्षी भी
मेघ है ऋतु सभी
सप्त सागर तू हि है
विश्व भूत तुझसे हैं
आदि विभु वर्तमान.४-४-
श्वेताश्वतरोपनिषद्
योनि योनी में पैठ एक
जगत लीन जेहि जात
रूप प्रकट बहु आदि में
ईश वरद परदेव
ईश जान निश्चय परम
परम शान्ति को प्राप्त.११-४-
श्वेताश्वतरोपनिषद्
एक अकेला बहुत से
शासक निष्क्रिय तत्व
एक बीज बहु रूप प्रकट हो
धीर आत्म में देख .१२.-६-
श्वेताश्वतरोपनिषद्
भगवद गीता के दसवें अध्याय में श्री भगवान कहते हैं-
सकल भूत का बीज मैं और बीज का बीज
पार्थ, चराचर भूत नहिं जो मुझसे हो रिक्त।। 39।।
हे अर्जुन, सब भूतों की उत्पत्ति का कारण मैं ही हूँ अर्थात मैं बीजप्रद पिता हूँ जो इस प्रकृति में गर्भ स्थापित करता है, इस संसार में चर अचर कोई भी ऐसा नहीं है जिसमें मैं नहीं हूँ और वह मुझमें नहीं है, मैं आत्मरूप में सृष्टि के प्रत्येक परमाणु में स्थित हूँ। सृष्टि की कोई वस्तु कोई स्थान ऐसा नहीं है जहाँ आत्मतत्व का विस्तार, आत्मतत्व (विशुद्ध ज्ञान) की उपस्थिति न हो।
मेरी दिव्य विभूति का, अन्त नहीं है पार्थ
तेरे से संक्षेप में कहा विभूति विस्तार ।। 40।।
हे अर्जुन, मेरे योग ऐश्वर्य और विभूति का कोई अन्त नहीं है, मेंने अपने दिव्य विभूतियों को बहुत संक्षेप में तेरे लिए कहा है।
जो जो वस्तु विभूतिमय, शक्ति कान्तिमय पार्थ
अल्प अंश मम तेज से, उसका उद्भव जान।। 41।।
हे अर्जुन तू यह जान ले कि इस सृष्टि में जो भी विभूति युक्त, कान्ति युक्त और शक्ति युक्त वस्तु है वह सब मेरे आत्म तेज के एक अंश की अभिव्यक्ति है अर्थात परमात्मा के एक अंश मात्र ने सृष्टि के कण कण को व्याप्त किया हुआ है, सृष्टि का प्रत्येक कण परमात्मा को भासित करता है।
क्या करेगा जानकर, बहुत जानकर बात
स्थित मैं धारण जगत, एक अंश सुन पार्थ।। 42।।
श्री भगवान कहते हैं मेरी विभूतियों का अन्त नहीं है, मुझ अव्यक्त परमात्मा के एक अंश परा प्रकृति ने सम्पूर्ण जगत को धारण किया है। विश्व के कण कण में मैं आत्म रूप में स्थित हूँ, सभी विभूति मेरा ही विस्तार हैं। चर अचर में मैं ही व्याप्त हूँ। सबका कारण भी मैं ही परमात्मा हूँ।
भगवदगीता का पन्द्रहवाँ अध्याय अश्वथ योग भी इसी की पुष्टि करता है.
अविनाशी अश्वत्थ यह नीचे शाखा ऊपर मूल
छंद इसके पर्ण हैं, जाने विज्ञ विभेद।। 1।।
श्री भगवान अर्जुन को सृष्टि का रहस्य बताते हुए कहते हैं; इस सृष्टि का जो मूल है वह परब्रह्म परमात्मा मूल से भी ऊपर है अर्थात जहाँ से सृष्टि जन्मी है परमात्मा उससे परे है और माया जिसे अज्ञान कहा है इस सृष्टि का मूल है। उस मूल से परे ब्रह्म से यह अश्वत्थ वृक्ष पैदा होता है। माया इस वृक्ष का मूल है, इस वृक्ष का फैलाव ऊपर से नीचे की ओर है। माया (अज्ञान) उस अव्यक्त (ज्ञान) को आच्छादित कर सुला देती है। फिर उस
माया में अव्यक्त के बीज से माया का अंकुर फूटता है। परम शुद्ध ज्ञान को अज्ञान (माया) क्रमशः अधिक-अधिक आवृत्त करते जाता है। यही अश्वत्थ वृक्ष की ऊपर से नीचे की ओर फैलने की गति है। यह माया का वृक्ष भी अविनाशी है। वेद छन्द इसके पत्ते हैं अर्थात वेद भी माया के पार नहीं जा पाते हैं, अज्ञान से प्रभावित होने के कारण उनकी पहुंच सीमित है। जो मनुष्य इस अश्वत्थ वृक्ष को तत्व से जानता है वही यथार्थ ज्ञानी है।
जगत ईश्वर का विस्तार है जेसे बीज और वृक्ष पर यदि कोई मनुष्य जगत को पाकर यह सोच ले कि उसने ईश्वर को पा लिया है तो यह सोच उसी प्रकार की होगी कि नाखून को पाल कर, उनकी देख भाल कर व्यक्ति यह मान ले कि उसने शरीर की देख भाल कर ली है शरीर का पालन कर लिया है. जगत से ईश्वर को समझा जा सकता है, पाया भी जा सकता है ठीक उसी प्रकार जैसे नाखून के एक सूक्ष्म अंश डी एन ए से शरीर. इस हेतु सम्पूर्ण प्रक्रिया से गुजरना होगा तभी सत्य की उपलब्धि होगी. जगत से ईश्वर को जानने के लिए सम्पूर्ण जगत को जानना होगा. जगत संरचना के सूक्ष्म से सूक्ष्म तत्त्व को जानना होगा.
सबका कारण परमात्मा होने से उसे जगत का निर्माण करने वाला मान लिया जाता है. बीज जेसे स्वाभविक रूप से वृक्ष बनता है उसी प्रकार परमात्मा से विश्व प्रकट होता है.
ईश्वर का साकार स्वरूप
ईश्वर का साकार स्वरूप ईश्वर का विस्तार जगत है पर यथार्थ में इसकी कोई सत्ता नहीं है क्योंकि परमात्मा से जगत पृथक नहीं है.
ईश्वर का साकार स्वरूप-
सत् रज तम (महत् )
अहँकार
बुद्धि
मन
शब्द
स्पर्श
प्रभा
रस
गंध
आकाश
वायु
अग्नि
जल
पृथ्वी
इन सबका मिला जुला पूर्ण चैतन्य शुद्ध स्वरूप ईश्वर का साकार स्वरूप है. जहाँ सत् रज तम ( महत् ) उसकी ज्ञान शक्ति के आधीन है.जब ज्ञान शक्ति इनके आधीन हो जाती है तो ईश्वर जीव हो जाता है. जितना आधीन उतना निम्न स्तर और जितना मुक्त उतना उच्च स्तर जिस मानवीय शरीर में महा बुद्धि ( पूर्ण शुद्ध ज्ञान ) INTELLIGENCE OF HIGHEST ORDER, ABOLUTE WISDOM AND KNOWLEDGE हो वह साकार ईश्वर होता है जिसे अवतार कहते हैं. श्री कृष्ण, श्री राम ऐसे ही स्वरूप थे. इस विषय में महात्मा ईसा का कथन Me and my Father are one. उल्लेखनीय है.
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