Monday, August 12, 2013

तेरी गीता मेरी गीता – मैं तत्त्व परमात्मा है. - 98 - बसंत


प्रश्न- मैं तत्त्व को विस्तार से बताने का कष्ट करें.
उत्तर- मैं परमात्मा है. मैं आत्मा है. मैं जीव है. मैं ज्ञान है. मैं चैतन्य है. मैं ओंकार है. मैं नारायण है. मैं सदा शिव है. मैं अज्ञान है. मैं विष्णु है. मैं महादेव है. मैं ब्रह्मा है. मैं अहंकार है, मैं बुद्धि है. मैं मन है. मैं इंद्र है. मैं देह है. मैं देव है. मैं संसार है. मैं राक्षस है. मैं भूत है. मैं असुर है. मैं साधू है. मैं शैतान है. मैं अच्छा है. मैं बुरा है. मैं पशु है. मैं पक्षी है. मैं सर्प है. मैं कीट है. मैं जड़ है. मैं क्षुद्र है. मैं विराट है. मैं स्त्री है. मैं पुरुष है. मैं पत्ता है. मैं पत्थर है. सभी कुछ मैं है. मैं इन सभी अवस्थाओं में है. इन भिन्न भिन्न अवस्थाओं में मात्र अंतर उसकी पूर्णता का है उसकी दिव्यता का है. परमात्मा में मैं पूर्णता लिए है पर पत्थर में अत्यंत सीमित हो जाता है. मनुष्य में मैं सीमित और असीम के बीच की स्थिति में है. मनुष्य सीमित और असीम के बीच किस स्थिति में है यह वह अपना मूल्यांकन कर खुद जान सकता है. यदि शरीर के धरातल पर है तो मैं सीमित है. मन के धरातल पर मैं शरीर स्थिति से कई गुना बड़ा हो जाता है, वही बुद्धि के धरातल पर महान हो जाता है और आत्मा के धरातल पर पूर्ण हो असीम हो जाता है. मैं जितना अधूरा है उतना क्षुद्र है, जितना अधूरापन मिटता जाता है उतना मैं पूर्ण हो जाता है.

पूर्णता की स्थिति में केवल मैं होता है. उससे निचले स्तर पर मैं दृष्टा होता है पर वह दृश्य से अलग रहता है. तीसरी स्थिति में मैं दृश्य में सम्मलित हो जाता है और दृश्य में उलझ उलझ कर क्षुद्र होता जाता है. मैं पूर्ण शुद्ध रूप में जब ब्रह्मांडीय होता है तो उसे परमात्मा कहते हैं, जब वह विशुद्ध पूर्ण रूप में पूर्ण दिव्यता के साथसृष्टि के जन्म, स्थिति व लय का नियामक होता है तो ईश्वर और जब संसारी हो जाता है और अपने को किसी अस्मिता से बाँध लेता है तो जीव कहा जाता है. परिस्थिति के अनुसार यह भिन्न भिन्न रूपों में परिलक्षित होता है.

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