Friday, February 21, 2020

बुद्ध, बौद्ध और भगवद्गीता


१- ईसा से 500 वर्ष पूर्व एक दिव्य पुरुष बुद्ध का जन्म हुआ उनके निर्वाण के लगभग 400 वर्ष बीत जाने पर उनके विषय में लिखना प्रारंभ हुआ. इस प्रकार हम देखते हैं कि बुद्ध और उनसे संबंधित लिपिबद्ध दर्शन के बीच में 6 से 8 पीढ़ियां गुजर गई. इसलिए निश्चित रूप में नहीं कहा जा सकता की की बुध का क्या दर्शन था.

२-हां, निसंदेह वह एक दिव्य पुरुष रहे होंगे इसी कारण दुनिया के दो अरब लोग बुद्ध को या तो भगवान मानते हैं अथवा बुद्ध पुरुष.

३- यहाँ हाँ बुद्ध की चर्चा न कर बौद्ध दर्शन की चर्चा करेंगे. भारत में लिपिबद्ध दर्शन बुद्ध के सिद्धांतों जो वेदांत, सांख्य और भगवद्गीता पर आधारित हैं के साथ इनके प्रति एक आक्रोश के साथ लिखा गया और भारत के बौद्धों में वह आक्रोश दिखाई देता है जो बुद्ध के बिलकुल विपरीत है. हिन्दू तो बुद्ध को अवतार मानते है इसलिए उनको स्वाभविक रूप से आराध्य के रूप में स्वीकार करते हैं, कम से कम वहां कोई आक्रोश नहीं है, बौद्धों के आक्रोश के कारण बुद्ध के साथ उनका दर्शन भारत से बाहर चला गया और बुद्ध को आत्मसात कर अग्रसर है. भारत में दर्शन के साथ केवल आक्रोश रह गया उसमें बुद्ध नहीं हैं. आज भी भारत में जो बुद्ध हैं वह बौद्धों के कारण नहीं अपितु हिन्दुओं के कारण हैं.

४- बौद्ध दर्शन के प्रमुख सिद्धांत और उनका आधार श्रोत.

तैत्तिरीय उपनिषद् के वचन  - ‘यान्यनवद्यानि कर्माणि. तानि सेवितव्यानि. नो इतराणि. यान्यस्माकं सुचरितानि. तानि त्वयोपास्यानि...’ जो तुम्हें उपदेश दिया उसे ही पूरी तरह अनुकरणीय सत्य नहीं मान लेना. उसे अपने विवेक की कसौटी पर कसना और  फिर तय करना कि वह अनुकरणीय है या नहीं.

 बुद्ध ने कहीं भी नकारात्मक भाषा का इस्तेमाल नहीं किया. वेद-उपनिषद् पर कोई तात्विक टीका-टिप्पणी नहीं की. एक बुद्ध  व्यक्ति जिसमें करुणा की अनंत धारा बह रही हो, वह क्यों किसी खंडन-मंडन में उलझेगा.  बुद्ध तो अपने धर्मबोध की आनंदलहर में मौन होकर विचरण करने लगे होंगे. समर्थ रामदास के वचन  ‘कलि लागि झाला असे बुद्ध मौनी घोर कलियुग था इसलिए बुद्ध मौन हो गए.

बुद्ध ने आत्मा और ब्रह्म पर  बहस नहीं की. वे प्रायः ध्यानमग्न  मौन रहते होंगे . पूछने पर कारुणिक स्वर में उनके मुंह से धर्म की  की स्वानुभूतियाँ निकलती होंगी. महात्मा बुद्ध  400 वर्ष बाद उनके विषय में अथवा उनकी शिक्षाओं के विषय में लिखना प्रारंभ हुआ किसी बात को कहते हैं और वह बात 5 मिनट में तिल का ताड़ बन जाती है और ताड़का तिल बन जाती है बौद्ध दर्शन के अनुयाई इस बात को गहराई से समझें तो वह बुद्ध को आसानी से समझ सकते हैं. 

वर्तमान में विशेषकर भारतवर्ष में बौद्ध अनुयाई हिंदू अथवा सनातन धर्म के विरोध में खड़े दिखाई देते बुद्ध सदा समता का उपदेश देते हैं और उनके अनुयाई विशेषकर भारतवर्ष में विषमता लिए रहते हैं कुछ तो केवल अपने विचारों में पुस्तकों में,  लेखों में अथवा वीडियो ऑडियो द्वारा केवल विषमता ही बखान करते हैं.

सम्पूर्ण बुद्ध के दर्शन के सूत्र भगवद गीता में समाहित हैं जो वेदांत का सार है केवल विशाल दृष्टि चाहिए.

दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ।2-56

जिसका मन दुखः में उद्विग्नता को प्राप्त नहीं होता, जिसकी सुखों से कोई प्रीति नहीं है, दोनो अवस्थाओं में जो निस्पृह है, जिसके राग, क्रोध, भय समाप्त हो गये हैं, जो अनासक्त हो गया है, उसकी बुद्धि स्थिर कही जाती है।

यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्
नाभिनंदति द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।2-57

जो इस संसार में उदासीन होकर विचरता है, सभी वस्तुओं में वह स्नेह रहित होता है शुभ और अशुभ की प्राप्ति होने पर उसे हर्ष होता है वह द्वेष रखता है, वह स्थित प्रज्ञ कहा जाता है।

यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गनीव सर्वशः
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।2-58

जिस प्रकार कछुआ अपने अंगों को सब ओर से समेट कर अन्दर कर लेता है वैसे ही जब मनुष्य इन्द्रियों  को सब विषयों से समेट लेता है, तब स्थित प्रज्ञ कहा जाता है।

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं-
समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे
शान्तिमाप्नोति कामकामी ।2-70

नदी नालों का समस्त पानी समुद्र में समा जाता है फिर भी समुद्र अचल रहता है, उसमें बाढ़ नहीं आती, वह जस का तस बना रहता है। इसी प्रकार स्थित प्रज्ञ पुरुष में भी संसार के समस्त कर्म, समस्त भोग समा जाते हैं, वह परम शान्ति, परम आनन्द को प्राप्त होता है। जो व्यक्ति भोगों को चाहने वाला है उसे शान्ति नहीं प्राप्त होती है क्योंकि कामना में विघ्न पड़ने से उसका चित्त उद्विग्न रहता है।

विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः
निर्ममो निरहंकारः शान्तिमधिगच्छति ।2-71

जिस पुरुष ने अपनी सम्पूर्ण कामनाओं को त्याग दिया है जो सांसारिक ममता, मोह से रहित हो गया है, उदासीन है, जो अहंकार से रहित है, जिसे किसी भी वस्तु की इच्छा नहीं है, ऐसा आत्मवान पुरुष परम शान्ति, परम आनन्द को प्राप्त होता है।

एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ।2-72

आत्म स्थित ही ब्राह्मी स्थिति है। जब बुद्धि और आत्मा एक हो जाती है तब यह ब्राह्मी स्थिति प्राप्त होती है। जो भी योगी इस ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त हो जाता है, उसे सांसारिक और परमार्थिक मोह व्याप्त नहीं होते और अन्त में आत्म स्थित हुआ वह पुरुष आत्मा को ही प्राप्त होता है। इसे ही ब्रह्म निर्वाण कहते हैं।

बुद्ध के 600 जन्मऔर भगवद्गीता -

बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ।4-5।

श्री भगवान बोले:- हे अर्जुन, तेरे और मेरे बहुत से जन्म हो चुके हैं, उन सबको मैं जानता हूँ परन्तु तू उनको नहीं जानता है।

बुद्ध  का सम्यक मार्गऔर भगवद्गीता-धर्म साधना हेतु बुद्ध ने सम्यक मार्ग दिया. इसे सम्यक अष्टांगिक मार्ग कहते हैं.
वह है सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वाणी, सम्यक कर्म, सम्यक व्यायाम, सम्यक आजीवका सम्यक स्मृति और सम्यक समाधि.
बौद्ध दर्शन इसे नया मार्ग कहता है. वास्तव में यह प्राचीन पद्धति है. बुद्ध से कई हजार वर्ष पूर्व भगवदगीता में श्री भगवान कृष्ण कहते है-

नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः ।
न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ।6-16।

यह योग न बहुत खाने वाले का और न बिल्कुल खाने वाले का तथा न बहुत शयन करने वाले का न अधिक जागने वाले का सिद्ध होता है। अर्थात सोना जागना, खाना पीना नियमित होना चाहिए तभी योग का अधिकारी होता है।

सयुक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ।6-17।

जिसका आहार-विहार, चेष्टाएं, कर्म, जागना-सोना सभी यथा योग्य हैं, ऐसे संयमित पुरुष का दुखों का नाश करने वाला योग सिद्ध होता है।

यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते ।
निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा ।6-18।

लगातार साधना से वश में किया हुआ चित्त जब स्वरूप में स्थित हो जाता है उस समय सभी विषय वासनाओं से योगी उदासीन हो जाता है। उसमें कोई कामना नहीँ  रहती, वह आत्म तृप्त हुआ आत्म स्थित रहता

यथा दीपो निवातस्थो नेंगते सोपमा स्मृता ।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ।6-19।

योगी जिसने अपने चित्त को आत्मा के साथ तदाकार कर लिया है, उसका चित्त फिर चंचल नहीं होता। वह उस दीपक की तरह स्थिर हो जाता है, जिसकी लौ वायु रहित स्थान में अचल रहती है। संसार की विषय वासनाएं उसके चित्त को चंचल नहीं कर पाती हैं।

बुद्ध और भगवद्गीता- "साक्षी" 

उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः ।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः ।13-22।

इस देह में स्थिति जीव आत्मा (पुरुष) ही परमात्मा है। वह साक्षी होने के कारण उपदृष्टा, यथार्थ सम्मति देने के कारण अनुमन्ता, सबका पालन पोषण करने वाला, सभी कुछ भोगने वाला, सबका स्वामी और परमात्मा है। 

बुद्ध और और भगवद्गीता- "विपश्यना और साक्षी"

नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित्
पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपंश्वसन् ।5-8
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ।5-9

तत्व को जानने वाला योगी, मैं पन के अभाव से रहित हो जाता है और वह देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूघंता हुआ, भोजन करता, हुआ गमन, करता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ, बोलता हुआ, त्यागता हुआ, ग्रहण करता हुआ, आँख खोलता हुआ, मूँदता हुआ किसी भी शारीरिक कर्म में सामान्य मनुष्य की तरह लिप्त नहीं होता है। वह यह जानता है कि इन्द्रियाँ अपने अपने कार्यों को कर रही हैं अतः उसमें कर्तापन का भाव नहीं होता है।

बुद्ध भी दृष्टा और साक्षी होकर सदा श्वास आदि क्रियाओं को देखने को कहते हैं.

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