प्रश्न - परमात्मा का क्या स्वरुप है?
उत्तर- परमात्मा के स्वरूप
परमात्मा जो सबका मूल है जो सबकी आत्मा है, इस सृष्टि का मूल तत्व है वह किसी के द्वारा न जाना जा सकता है न जाना गया है. यहां तक कि परमात्मा और उसकी मूल प्रकृति को भी कोई नहीं जानता इन स्थितियों के बाद तीसरी स्थिति में परमात्मा और प्रकृति में अहम उत्पन्न होता है जिसे हम शब्द ब्रह्म कहते हैं. चौथी स्थिति में अहम त्रिगुणात्मक प्रकृति के माध्यम से स्पष्ट होता है, पांचवीं स्थिति में अहम् पुरुष (जीव ) रूप में प्रकृति को स्वीकार कर लेता है. यह पाँचों स्थितियां अनादि हैं. इसका तात्पर्य है की पहली स्थिति से लेकर पांचवीं स्थिति सब एक साथ ही उत्पन्न होती हैं.
इसके बाद सृष्टि उत्त्पन्न होती है.
सृस्टि त्रिगुणात्मक है और सदा जीव युक्त है. सृष्टि के प्रत्येक अणु-परमाणु में जीव विद्यमान है.
इस जीव के साथ जैसी त्रिगुणात्मक प्रकृति है यह वैसा है. यह जीव सदा बढ़नेवाला और फैलने वाला है. इसलिए अपने विशुद्ध रूप में ब्रह्म कहलाता है और प्रकृति को स्वीकार कर जीव कहलाता है.यह जीव ही सृष्टा है, पालन कर्ता है और संहारक है. यह जैसी इच्छा करता है वैसा हो जाता है. यह प्रकृति को स्वीकार कर सृष्टि उत्त्पन्न करता है और फिर सृष्टि में जन्म लेता है. यह जड़ चेतन सब में,सब जगह व्याप्त है.परमात्मा इसी रूप में सर्वत्र व्याप्त है.
जड़ से यह चेतन हो जाता है और निरंतर विकास करता हुआ एक कोशीय जीव से बहु कोशीय जीवक्रमशः विभिन्न योनियों से गुजरता हुआ मनुष्य हो जाता है. फिर शुरू होती है मनुष्य की विकास यात्रा. यहाँ जो जितना बेहोश है वह उतना नीचे जो जितना होश में है वह उतना ऊपर. मनुष्य - श्रेष्ठ मनुष्य - महा मानव - अधि मानव- देवत्त्व - सिद्ध - ईश्वर जो कालान्तर में अवतरित होकर इस धरती में आता है जैसे श्री राम, श्री कृष्ण आदि. इस प्रकार सुगुण और साकार ईश्वर में ही हम परमात्मा की दिव्यता पाते हैं. परमात्मा को त्रिगुणात्मक प्रकृति द्वारा ही जा जा सकता है और मानव देह में वह अपनी दियताओं के साथ चमकता है. यही सत्य है.
उत्तर- परमात्मा के स्वरूप
परमात्मा जो सबका मूल है जो सबकी आत्मा है, इस सृष्टि का मूल तत्व है वह किसी के द्वारा न जाना जा सकता है न जाना गया है. यहां तक कि परमात्मा और उसकी मूल प्रकृति को भी कोई नहीं जानता इन स्थितियों के बाद तीसरी स्थिति में परमात्मा और प्रकृति में अहम उत्पन्न होता है जिसे हम शब्द ब्रह्म कहते हैं. चौथी स्थिति में अहम त्रिगुणात्मक प्रकृति के माध्यम से स्पष्ट होता है, पांचवीं स्थिति में अहम् पुरुष (जीव ) रूप में प्रकृति को स्वीकार कर लेता है. यह पाँचों स्थितियां अनादि हैं. इसका तात्पर्य है की पहली स्थिति से लेकर पांचवीं स्थिति सब एक साथ ही उत्पन्न होती हैं.
इसके बाद सृष्टि उत्त्पन्न होती है.
सृस्टि त्रिगुणात्मक है और सदा जीव युक्त है. सृष्टि के प्रत्येक अणु-परमाणु में जीव विद्यमान है.
इस जीव के साथ जैसी त्रिगुणात्मक प्रकृति है यह वैसा है. यह जीव सदा बढ़नेवाला और फैलने वाला है. इसलिए अपने विशुद्ध रूप में ब्रह्म कहलाता है और प्रकृति को स्वीकार कर जीव कहलाता है.यह जीव ही सृष्टा है, पालन कर्ता है और संहारक है. यह जैसी इच्छा करता है वैसा हो जाता है. यह प्रकृति को स्वीकार कर सृष्टि उत्त्पन्न करता है और फिर सृष्टि में जन्म लेता है. यह जड़ चेतन सब में,सब जगह व्याप्त है.परमात्मा इसी रूप में सर्वत्र व्याप्त है.
जड़ से यह चेतन हो जाता है और निरंतर विकास करता हुआ एक कोशीय जीव से बहु कोशीय जीवक्रमशः विभिन्न योनियों से गुजरता हुआ मनुष्य हो जाता है. फिर शुरू होती है मनुष्य की विकास यात्रा. यहाँ जो जितना बेहोश है वह उतना नीचे जो जितना होश में है वह उतना ऊपर. मनुष्य - श्रेष्ठ मनुष्य - महा मानव - अधि मानव- देवत्त्व - सिद्ध - ईश्वर जो कालान्तर में अवतरित होकर इस धरती में आता है जैसे श्री राम, श्री कृष्ण आदि. इस प्रकार सुगुण और साकार ईश्वर में ही हम परमात्मा की दिव्यता पाते हैं. परमात्मा को त्रिगुणात्मक प्रकृति द्वारा ही जा जा सकता है और मानव देह में वह अपनी दियताओं के साथ चमकता है. यही सत्य है.
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