प्रश्न- आप कहते हैं चेतना एक विकृति है जो प्रकृति में पैदा होती है क्या आप इसे प्रमाणित कर सकते हैं?
उत्तर- चेतना एक विकृति है यह शास्त्र द्वारा भी प्रमाणित है और प्रत्यक्ष भी प्रमाणित है.
पहले आप प्रत्यक्ष प्रमाण को जानिये.
संसार में अज्ञान युक्त चैतन्य के कारण जड़ प्रकृति में चेतना उत्पन्न होती है.
जाग्रत अवस्था में यह सिर से लेकर नाखून तक फैली रहती है और दिखाई देती है. किसी मृत और जीवित व्यक्ति को देखकर यह हम सरल और स्वाभाविक रूप से समझ सकते हैं.
नींद में यह स्पर्श, गंध, शब्द विहीन हो जाती है.
बेहोशी में यह केवल हृदय और प्राण और आवश्यक आतंरिक अंगों के कार्य संचालन तक सीमित हो जाती है. देह चेतना शून्य हो जाती है और कोई संवेदना महसूस नहीं करती है.
परन्तु इन तीनो अवस्थाओं में अज्ञान युक्त चैतन्य और शुद्ध चैतन्य सदा एकसा और एक अवस्था में रहता है.
इसी प्रकार मैं देह से अलग हूँ यह भी चैतन्य को सदा बोध रहता है.
मृत्यु में भी में मैं देह से अलग हो गया हूँ यह यह भी अज्ञान युक्त चैतन्य और शुद्ध चैतन्य को बोध होता है पर अज्ञान युक्त चैतन्य को देह आसक्ति और अज्ञान उसे सीमित रखता है इसलिए वह पुनः देह में आने जाने के लिए स्वतंत्र नहीं है.
शुद्ध चैतन्य असीमित शक्ति व दिव्यता युक्त है इसलिए देह से आना और जाना उसकी इच्छा पर निर्भर करता है. उसकी चेतना रुपी विकृति भी शुद्ध होकर दिव्यता के रूप में प्रकट होती है. ऐसे पुरुष अवतार कहलाते हैं. श्री राम और श्री कृष्ण शुद्ध चैतन्य के ऐसे ही सगुण अवतार हैं.
अब आप शास्त्र प्रमाण हेतु भगवद्गीता के अध्याय तेरहवें अध्याय का सन्दर्भ लीजिये. श्री भगवान् ने स्पष्ट रूप से चेतना को विकृति माना है, शरीर का विकार माना है.-
महाभूतान्यहङ्कारो बुद्धिरव्यक्तमेव च ।
इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः ।5।
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं सङ्घातश्चेतना धृतिः ।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम् ।6।
पाँच महाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश), अहंकार, बुद्धि, अव्यक्त त्रिगुणात्मक प्रकृति, इन्द्रियां (कान, नाक, आंख, मुख, त्वचा, हाथ, पांव, गुदा, लिंग, वाक), मन, इन्द्रियों की पाचं तन्मात्राएं (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध), इन्द्रियों के विषय (इच्छा द्वेष, सुख-दुःख, जो अनेक प्रकार के गुण दोष उत्पन्न कर देते हैं), स्थूल देह का पिण्ड और चेतना, यह सब शरीर के विकार हैं.
प्रश्न- कृपया और अधिक स्पष्टता से समझायें?
उत्तर- यह समझ लो वास्तविक रूप में तुम सूर्य के सामान ज्ञानवान प्रकाश पुंज हो और जीव रूप में तुम इस देह में परम ज्ञान का 1/4 अरबवां हिस्सा (सूर्य की ऊर्जा जो पृथ्वी में पहुचती है) हो और 1/4 अरबवां हिस्से से उत्पन्न तुम्हारी चेतना पृथ्वी के रात दिन, भिन्न भिन्न ऋतु, भिन्न भिन्न मोसम, आंधी, तूफान, वर्षा, गर्मी की तरह की तरह तुमको तुम्हारे स्वरुप तुमको प्रतिभासित करती है और तुम इस प्रतिभासित चेतना को सब कुछ मान बैठे हो.
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