प्रश्न- हम सदा कोई न कोई कर्म करते हैं. क्या कर्म करते हुए भी ईश्वर अथवा बोध को पाया जा सकता है?
उत्तर- कर्म के विषय में बड़े बड़े विद्वान् भ्रमित हैं, क्या करना चाहिए क्या नहीं करना चाहिए, शकाराचार्य विवेक चूड़ामणि में कहते हैं- कार्य के बढने से बीज की वृद्धि देखी जाती है और कार्य का नाश हो जाने से बीज भी नष्ट हो जाता है; इसलिए कार्य का ही नाश कर देना चाहिए. आगे कहते हैं-
वासना के बदने से कार्य बढता है और कार्य बढने से वासना बढती है.
क्रिया नष्ट हो जाने से चिंता का नाश होता है और चिंता नष्ट होने से वासना नष्ट होती हैं.
यह अद्भुत सूत्र है और जिस साधक ने मोक्ष अपना हेतु बना लिया है उसे तत्काल इस सूत्र का पालन प्रारम्भ कर देना चाहिए. पर यह सिद्धांत हर मनुष्य नहीं अपना सकता.
कर्म के विषय में भगवद गीता में श्री कृष्ण ने विस्तार से चर्चा की है. भगवद गीता बताती है कि सभी कर्म दोषवत हैं और मनुष्य अथवा कोई भी प्राणी बिना कर्म के क्षण मात्र भी नहीं रह सकता है इसलिए किस कर्म को करना चाहिए और किसे नहीं करना चाहिए इस विषय में विस्तार से सभी प्रश्नों का उत्तर दिया गया है.
1- निषिद्ध कर्म नहीं करने चाहिए जैसे दूसरे प्राणी को सताना, निंदा करना, चुगली, कपट, छल
2- स्वाभाविक कर्म करते हुए मनुष्य सिद्धि को प्राप्त हो सकता है. वह कर्म जो स्वभाव से तुम्हें रुचिकर लगते हों जिनको कर आपका चित्त प्रसन्न होता हो. दुसरे के गुणी स्वभाव को को अपनाकर अपना मूल स्वभाव खो देना बड़ा भयकारी है. यह अशांति का कारण हो जाता है.
3- कर्म के लिए अधिक परिश्रम और व्यर्थ चेष्टा का अभाव होना चाहिए.
4- कर्म निमित्त मात्र होना चाहिए.
5- श्रेठ पुरुषों के बताये मार्ग का अनुसरण करना चाहिए.
6- ईश्वर निमित्त कर्म अवश्य करने चाहिए. यह मनुष्य को पवित्र करते हैं.
7- सभी कर्म ईश्वर को अर्पित कर करना ही कर्म बंधन से मुक्ति देता है.
8- यदि कर्म ईश्वर को अर्पित नहीं कर सकते तो कर्म फल ईश्वर को अर्पित कर करना चाहिए.
9-कर्म इन्द्रियों के द्वारा हो रहा है मेरा किसी भी शुभ अशुभ कर्म से कोई वास्ता नहीं है यह धारणा पुष्ट करते हुए निष्काम होने का प्रयास करना चाहिए.
उपरोक्त सूत्रों का परिणाम अनासक्त योग है जिसे निष्काम कर्म योग कहा गया है. अनासक्त होने पर कोई भी कर्म कर्म नहीं रह जाता है और जीव कर्म बंधन से मुक्त हो जाता है.
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