प्रश्न- क्या हम कर्म के लिए स्वतंत्र हैं अथवा परवश हैं?
उत्तर- हम कर्म के लिए स्वतंत्र दिखाई देते हैं, वास्तविकता में हम कर्म के लिए परवश हैं. कर्म का सिद्धांत बहुत जटिल है. असल में हर कर्म के पीछे कोई न कोई कारण और उसका प्रभाव है. यह दोनों कारण और प्रभाव अदृश्य होकर किसी भी घटना और कर्म के लिए उत्तरदायी हैं. इस संसार में छोटी से लेकर बड़ी घटना जो भी घटित हो रही है उसके पीछे कोई न कोई कारण अवश्य है. हम सोचते हैं मैं शायद यह न करता तो ऐसा न होता पर आप उस कर्म को करने के लिए प्रतिबद्ध है इसी प्रकार दूसरा जो कर्म का निमित्त बना वह भी प्रतिबद्ध है. आपके साथ जो भी होता है या होने जा रहा है प्रकृति उस घटना के लिए परिस्थिति पैदा कर देती है.
पदार्थ और प्राणी के साथ सदा तीन स्थितियां रहती है. जन्म, जीवन और मृत्यु इन तीनो स्थितियों के लिए दृश्य और अदृश्य रूप आप और दूसरा प्रतिबद्ध है. हम जाने अनजाने में अनेक प्राणियों की ह्त्या करते हैं कालान्तर में किसी न किसी रूप में वह जीव ही हमारी मृत्यु का कारण बनते हैं. अनजाने में हुई हिंसा उस जीव का प्रारब्ध था. हम उसकी मृत्यु का कारण बने और जान कर हुई ह्त्या उसके प्रारब्ध वश और उस कर्म के साथ साथ हमारा प्रारब्ध जुड़ जाता है. कालान्तर में किसी न किसी रूप में संयोग और परिस्थिति उत्पन्न होकर हमें कर्म फल भोगना पड़ता है.
श्री भगवान् भगवदगीता के अठारहवें अध्याय में बताते हैं-
सब प्राणी की देह में बैठे हैं भगवान
यन्त्र आरूढ़ सब भूत को, प्रकृति नचाती नाच।। 61-18।।बसंतेश्वरी गीता
मैं आत्मा सभी प्राणियों के हृदय में सम्पूर्ण ईश्वरीय शक्तियों के साथ स्थित रहता हूँ, प्रकृति (माया) का सहारा लेकर सभी भूतों को उसके कर्मों के अनुसार जिससे जैसा कराना है कराता हूँ। उसे भ्रम में डाल अथवा वैसी परिस्थितियाँ उत्पन्न कर नियत कर्म के लिए परवश देता हूँ।
इस संसार में जो भी हो रहा है वह कर्म बंधन है.इसे आप क्रिया प्रतिक्रया कह सकते है. प्रतिक्रया तात्कालिक भी हो सकती है और लम्बे समय के बाद परिणाम भी दे सकती है. यही कर्म बीज है और यह कर्म ही मृत्यु का कारण हैं.
प्रश्न- कर्म मृत्यु का कारण कैसे हैं?
उत्तर- कर्म अथवा क्रिया चाहे कितनी ही शुभ हो या अशुभ आप के द्वारा जड़ और चेतन प्रभावित होते हैं इसी क्रम में आप जाने अनजाने कई की मृत्यु का कारण बनते हैं, उनको नष्ट करते हैं और वही आपकी मृत्यु का कारण होते हैं. केवल स्वरुप परिवर्तन के कारण सब को कारण अलग अलग दिखाई देता है. इसी प्रकार हम जो भी अच्छा अथवा बुरा कार्य कर रहे हैं और हमारे साथ जो भी अच्छा और बुरा होता है, हो रहा है और होयेगा यह सब केवल संयोग का परिणाम है जिसके लिए हम अथवा हमारे कर्म उत्तरदायी हैं.
प्रश्न - फिर अमरत्व कैसे प्राप्त हो सकता है?
उत्तर- जब तक कर्म हैं तब तक अमरत्व नहीं हो सकता. कर्म ही मृत्यु का कारण हैं. कर्म चाहे शुभ हो अतवा अशुभ, यह हमें मृत्यु की और ले जाते हैं और यही हमारे जन्म का कारण हैं.
प्रश्न- क्या अमरत्व झूठी बात है? क्या अमरत्व नहीं है/
उत्तर- अमरतत्व पाया जा सकता है इसके लिए कर्म छोड़ने होंगे.
प्रश्न- यह कैसे संभव है?
उत्तर- आपको 100% दृष्टा अथवा साक्षी होना होगा. उससे पहले आप कोई भी जतन कर लें मृत्यु अवश्य आयेगी. 100% दृष्टा अथवा साक्षी स्थिति में आप बोध के साथ शरीर से बाहर हो जायेंगे, तब न कोई कर्म होगा न कर्म बंधन और परिणाम.
कर्म की दृष्टि से तुम किसी के काल हो तो कोई तुम्हारा काल है, तुम किसी के रक्षक हो तो कोई तुम्हारा रक्षक है, किसी ने तुमको जन्म दिया तो किसी को तुम जन्म देते हो.यही प्रकृति बंधन है, यही कर्म बंधन है और अनादि है. जब तुम इन सभी कर्मों को देखने लग जाते हो तो यह प्रकृति रुक जाती है, यही अमृत की घड़ी है.इसकी पूर्णता तुम्हारी पूर्णता है.
उत्तर- हम कर्म के लिए स्वतंत्र दिखाई देते हैं, वास्तविकता में हम कर्म के लिए परवश हैं. कर्म का सिद्धांत बहुत जटिल है. असल में हर कर्म के पीछे कोई न कोई कारण और उसका प्रभाव है. यह दोनों कारण और प्रभाव अदृश्य होकर किसी भी घटना और कर्म के लिए उत्तरदायी हैं. इस संसार में छोटी से लेकर बड़ी घटना जो भी घटित हो रही है उसके पीछे कोई न कोई कारण अवश्य है. हम सोचते हैं मैं शायद यह न करता तो ऐसा न होता पर आप उस कर्म को करने के लिए प्रतिबद्ध है इसी प्रकार दूसरा जो कर्म का निमित्त बना वह भी प्रतिबद्ध है. आपके साथ जो भी होता है या होने जा रहा है प्रकृति उस घटना के लिए परिस्थिति पैदा कर देती है.
पदार्थ और प्राणी के साथ सदा तीन स्थितियां रहती है. जन्म, जीवन और मृत्यु इन तीनो स्थितियों के लिए दृश्य और अदृश्य रूप आप और दूसरा प्रतिबद्ध है. हम जाने अनजाने में अनेक प्राणियों की ह्त्या करते हैं कालान्तर में किसी न किसी रूप में वह जीव ही हमारी मृत्यु का कारण बनते हैं. अनजाने में हुई हिंसा उस जीव का प्रारब्ध था. हम उसकी मृत्यु का कारण बने और जान कर हुई ह्त्या उसके प्रारब्ध वश और उस कर्म के साथ साथ हमारा प्रारब्ध जुड़ जाता है. कालान्तर में किसी न किसी रूप में संयोग और परिस्थिति उत्पन्न होकर हमें कर्म फल भोगना पड़ता है.
श्री भगवान् भगवदगीता के अठारहवें अध्याय में बताते हैं-
सब प्राणी की देह में बैठे हैं भगवान
यन्त्र आरूढ़ सब भूत को, प्रकृति नचाती नाच।। 61-18।।बसंतेश्वरी गीता
मैं आत्मा सभी प्राणियों के हृदय में सम्पूर्ण ईश्वरीय शक्तियों के साथ स्थित रहता हूँ, प्रकृति (माया) का सहारा लेकर सभी भूतों को उसके कर्मों के अनुसार जिससे जैसा कराना है कराता हूँ। उसे भ्रम में डाल अथवा वैसी परिस्थितियाँ उत्पन्न कर नियत कर्म के लिए परवश देता हूँ।
इस संसार में जो भी हो रहा है वह कर्म बंधन है.इसे आप क्रिया प्रतिक्रया कह सकते है. प्रतिक्रया तात्कालिक भी हो सकती है और लम्बे समय के बाद परिणाम भी दे सकती है. यही कर्म बीज है और यह कर्म ही मृत्यु का कारण हैं.
प्रश्न- कर्म मृत्यु का कारण कैसे हैं?
उत्तर- कर्म अथवा क्रिया चाहे कितनी ही शुभ हो या अशुभ आप के द्वारा जड़ और चेतन प्रभावित होते हैं इसी क्रम में आप जाने अनजाने कई की मृत्यु का कारण बनते हैं, उनको नष्ट करते हैं और वही आपकी मृत्यु का कारण होते हैं. केवल स्वरुप परिवर्तन के कारण सब को कारण अलग अलग दिखाई देता है. इसी प्रकार हम जो भी अच्छा अथवा बुरा कार्य कर रहे हैं और हमारे साथ जो भी अच्छा और बुरा होता है, हो रहा है और होयेगा यह सब केवल संयोग का परिणाम है जिसके लिए हम अथवा हमारे कर्म उत्तरदायी हैं.
प्रश्न - फिर अमरत्व कैसे प्राप्त हो सकता है?
उत्तर- जब तक कर्म हैं तब तक अमरत्व नहीं हो सकता. कर्म ही मृत्यु का कारण हैं. कर्म चाहे शुभ हो अतवा अशुभ, यह हमें मृत्यु की और ले जाते हैं और यही हमारे जन्म का कारण हैं.
प्रश्न- क्या अमरत्व झूठी बात है? क्या अमरत्व नहीं है/
उत्तर- अमरतत्व पाया जा सकता है इसके लिए कर्म छोड़ने होंगे.
प्रश्न- यह कैसे संभव है?
उत्तर- आपको 100% दृष्टा अथवा साक्षी होना होगा. उससे पहले आप कोई भी जतन कर लें मृत्यु अवश्य आयेगी. 100% दृष्टा अथवा साक्षी स्थिति में आप बोध के साथ शरीर से बाहर हो जायेंगे, तब न कोई कर्म होगा न कर्म बंधन और परिणाम.
कर्म की दृष्टि से तुम किसी के काल हो तो कोई तुम्हारा काल है, तुम किसी के रक्षक हो तो कोई तुम्हारा रक्षक है, किसी ने तुमको जन्म दिया तो किसी को तुम जन्म देते हो.यही प्रकृति बंधन है, यही कर्म बंधन है और अनादि है. जब तुम इन सभी कर्मों को देखने लग जाते हो तो यह प्रकृति रुक जाती है, यही अमृत की घड़ी है.इसकी पूर्णता तुम्हारी पूर्णता है.
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