प्रश्न- शंकाराचार्य के इस सूत्र 'ब्रह्म सत्यम जगत मिथ्या जीवो ब्रह्मेव नापराह' का क्या मतलब है? जब से यह सिद्धांत आया है तबसे इस विषय में कोई स्पष्टता से कुछ नहीं कह सका है, कुछ विद्वानों और आचार्यों ने तो इसके जगत मिथ्या विषय में संशोधन कर डाला है.
उत्तर-शंकाराचार्य के इस सूत्र 'ब्रह्म सत्यम जगत मिथ्या जीवो ब्रह्मेव नापराह' (ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है और जीव ही ब्रह्म है) को दो ही मनुष्य सही रूप में सरलता से बता सकते हैं. एक वह जिसको बोध हो गया हो दूसरा जिसका प्रतिबोध प्रभु के कृपा से पुष्ट हो गया हो.
प्रश्न- क्या आप हमें बताने का कष्ट करंगे?
उत्तर- ब्रह्म सत्य है इसे सभी स्वीकार करते हैं पर ब्रह्म को ठीक प्रकार से जानते नहीं हैं कि ब्रह्म क्या है? पहले ब्रह्म को समझो. ब्रह्म पूर्ण शुद्ध ज्ञान की अवस्था है जहाँ कोई हलचल नहीं है. यह सृष्टि और सृष्टि से परे जो भी है उसका मूल तत्त्व है. सम्पूर्ण सृष्टि इससे ही प्रकट होती है, इसमें ही स्थित रहती है और इसमें ही समा जाती है. यह आदि कारण ही सत्य है, यह सदा एकसा रहता है, यही परम अस्तित्त्व है जिससे अस्तित्व और अज्ञान प्रकट होते हैं और फिर अज्ञान से अस्तित्व दुबारा जीव रूप में प्रकट होता है.
जगत मिथ्या का अर्थ है जो पदार्थ अथवा गुण अभी है, आज है पर कुछ क्षण बाद अथवा कल उस रूप में नहीं होता है. संसार सदा परिवर्तनशील है. कोई वस्तु विकास को प्राप्त हो रही है तो कोई वस्तु विनाश को प्राप्त हो रही है, जो वस्तु आज सुख है वही कल दुःख है और जो आज, अभी दुःख है वह कल सुख है. कोई भी वस्तु सदा एक सम नहीं रहती. यहाँ तक की पृथ्वी, सूर्य सभी की निश्चित आयु है.
प्रश्न- ब्रह्म सत्य है तो फिर इससे मिथ्या जगत कैसे पैदा हुआ?
ब्रह्म पूर्ण शुद्ध ज्ञान की अवस्था है, ज्ञान में अस्तित्व बोध स्वाभाविक है .इसी कारण ब्रह्म में अस्तित्व 'मैं हूँ' बोध हुआ. यह अस्तित्व बोध शुद्ध था. जब भी कोई क्रिया होगी कोई दूसरा विपरीत अथवा अन्य तत्त्व अस्तित्व में आयेगा और पूर्ण शुद्ध अस्तित्व के विपरीत अज्ञान अस्तित्व में आया. चूँकि यह मूल नहीं है इसलिए असत कहा गया. इसे जड़ भी जाना जाता है. इसे आप इस प्रकार भी जान सकते है जैसे पदार्थ वैज्ञानिक के आधार पर ऊर्जा शुद्ध स्वरुप है और उससे निर्मित भिन्न भिन्न तत्त्व ऊर्जा के अशुद्ध अथवा असत रूप हैं, जिनमें ऊर्जा अन्दर छिपी बैठी है इसी प्रकार यह जगत ब्रह्म का असत रूप सर्वत्र स्थित है जहां ब्रह्म जीव रूप में छिपा बैठा है..
जीव का अर्थ है पूर्ण विशुद्ध ज्ञान का अंश. यह अज्ञान से मिला जुला अवश्य है पर ज्ञान होने से मूल रूप में शुद्ध है. इसे अज्ञान के संग रहने से उसमें आसक्ति हो गयी है, यह जगत अज्ञान-पदार्थ जो जड़ है से उत्पन्न और परिवर्तनशील होने के कारण असत है, से आसक्ति के कारण शुद्ध ज्ञानमय जीव बंध जाता है. इसलिए परमात्मा से उत्पन्न संसार हर परमाणु में जीव उपस्थिति के कारण असत होते हुए भी सत भासित होता है. जीव ही ब्रह्म है. ब्रह्म की बंधनमय अवस्था जीव कहलाती है. जीव अज्ञान का सीना फाड़ कर बाहर आता है और यही जगत को स्थान देता है. इसे इस प्रकार भी कहना उचित होगा कि यह प्रकृति के गर्भ से उत्पन्न होता दिखाई देता है और उसे जीवन देता है.
अब इसे सरल रूप से समझें अ- परमात्मा के दो भाग हुए १- शुद्ध बोध २- अज्ञान. अज्ञान परमात्मा से ही उत्पन्न है इसलिए वह परमात्मा अज्ञान में भी छिपा रहता है. बोध का जन्म अज्ञान के अन्दर से दुबारा होता है.
ज्ञान अज्ञान का मिलाजुला स्वरुप यह जगत है और विलक्षणता यह है कि दूसरी बार अज्ञान के अन्दर से जन्मा जो बोध है वह सृष्टि में परमात्मा का अंश होकर सर्वत्र व्याप्त है और अज्ञान भी सर्वत्र व्याप्त है. यह अज्ञान में स्थित और बाहर प्रकट होने वाला बोध सृष्टि को धारण किये हुए है. यदि जगत अथवा सृष्टि से ज्ञान निकल जाए तो पदार्थ बिना आधार का हो जाएगा और सृष्टि तत्काल नष्ट हो जायेगी.
रात को आप नींद में चले जाते हैं. नींद में दो तत्त्व रहते है नींद और नींद का बोध करने वाला. यही सृष्टि का रहस्य है. इसे आप ज्ञान और अज्ञान समझ लें. अब इस अज्ञान रुपी नींद के सीने से स्वप्न उदय होता है यह ही जगत है जो असत है पर जो नींद और स्वप्न में जो एक सा था जिसे बोध कहते हैं वह सत है. इन दोनों ज्ञान अज्ञान की एक स्थिति अव्यक्त ब्रह्म कही जाती है. इस अज्ञान के साथ रहते हुए इसके गुणों से आकर्षित हुआ बोध इनकी कामना करने लगता है और वह शुद्ध चैतन्य 'मैं' इस के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ लेता है और अपने ब्रह्म स्वरुप को भूल जाता है और जीव कहलाता है. वह इस जगत से आकर्षित हुआ अपनी आसक्ति में मस्त अपने शुद्ध स्वरुप को भूल जाता है. इस जीव को चेताने के लिए शंकर कहते हैं 'ब्रह्म सत्यम जगत मिथ्या'
ये प्रश्न करने वाला भी अज्ञानी है व उत्तर देने वाले ने उत्तर सही दिया मगर उसे भी नही पता कि ये शनकराचर्य का सूत्र नही बल्कि वेद वाक्य है
ReplyDeleteप्रकृति और पुरुष जब संपर्क में आते हैं तो अहंकार खड़ा होता है। अज्ञानता से प्रभावित अहंकार होता है। सर्वव्यापी आत्मा हमेशा सर्वज्ञानी है। इसलिए भ्रांति अहंकार को है आत्मा को नहीं। सामर्थ्यवान गुरु से मिलने का संयोग बनता है तो अहंकार को सच्चे ज्ञान का बोध होता है और अहंकार अज्ञान से मुक्त हो जाता है। अहंकार का आधार अज्ञानता से खड़ा होता है सत्य का बोध अहंकार को होता है तो अहंकार खुद-ब-खुद अपनी वजूद खो देता है। बच जाता है सिर्फ सत चित आनंद।
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