उपनिषद में ब्रह्म वाचक -आत्मा
आत्मा, आनन्द, बोध, शिव, रूद्र, ईश, परम ज्ञान, पुरुष,परमदेव,ॐ शब्द उपनिषद में जगह जगह ईश्वर के लिए आये हैं. यह सभी शब्द ब्रह्म वाचक हैं. परन्तु आत्मा शब्द का सर्वाधिक प्रयोग परब्रह्म परमात्मा के लिए उपनिषदों में हुआ है.
इस आत्मा को कहीं कहीं अंगुष्ठ सम कहा है क्योंकि अंगुष्ठ सदा स्व की अनुभूति कराता है. अंगूठा उठा कर हम अपना समर्थन देते हैं. अंगूठा हमें अपना अर्थात स्व का बोध कराता है. यह शरीर का अस्मिता बोधक अंग है. thumbs up and thumbs down इसी स्व के समर्थन का प्रतीक है.
अंगुष्ठ सम से यह भी तात्पर्य है हाथ में अंगूठा सूक्ष्म होते हुए भी महत्वपूर्ण है. आत्मा को अव्यक्त और निराकार बताया गया है केवल सरल शब्दों समझाने के लिए उसे अंगुष्ठ सम कहा है.
अंगुष्ठ मात्र वह पुरुष है
सदा हृदय में वास
मना ईश निर्मल हृदय
प्रत्यक्ष शुद्ध मन साथ
ऐसे ब्रह्म को जानते
अमृत अमृत को प्राप्त.१३-३. श्वेताश्वतरोपनिषद्..
अंगुष्ठ सम वह पर पुरुष
बुद्धी मध्य है वास
भूत भवि भव ईश है
राग द्वेष कोऊ नाहिं.१२-२-१-कठोपनिषद
इसी प्रकार जीवात्मा को भी अंगुष्ठ सम रवि तुल्य कहा है अर्थात सूर्य के प्रकाश के समान तेजस्वी और निराकार है, सूर्य का प्रकाश जैसे संसार को प्रभावित करता है उसी तरह देह में जीव सत्ता अपरा प्रकृति को संचालित करती है. जो सुई की नोक के समान निश्चयात्मक बुद्धि और अस्मिता गुणों से युक्त है.
अंगुष्ठ सम रवि तुल्य जो
संकल्प अहं से युक्त
बुद्धि आत्म गुण अराग्र सम
जीव दृष्ट है विज्ञ.८-५- श्वेताश्वतरोपनिषद्..
विडंबना है ज्यादातर भाष्यकार प्रतीकात्मक अंगुष्ठ सम को समझे ही नहीं और श्रुति वचनों में अनर्थ कर दिया है.
उपनिषदों में ब्रह्म के लिए आत्मा शब्द का प्रयोग -
जो सब में मैं देखता,
मैं देखे सर्वत्र
राग द्वेष से मुक्त वह
सदा आत्म स्वरूप.६- ईशावास्य उपनिषद
केन्द्र चक्र रथ में अरे
हृदय नाड़ि तस देह
तहां वास यह आत्मा
भिन्न नाद आधार
इस अलौकिक आत्म का
करो ॐ मय ध्यान
तमस परे इस बोध का
अन्य न हेतु उपाय.६-२-२- मुंडकोपनिषद्.
जान ज्ञान विज्ञान को
स्वयं आत्म आनन्द
परम बोध के अमृत का
साधक करता पान.७-२-२. मुंडकोपनिषद्.
आत्म बोध के होत ही
जीव ग्रंथि का नाश
सारे संशय तब मिटें
कर्म क्षीण हो जांय.८-२-२. मुंडकोपनिषद्.
जब देखे वह परम को
ब्रह्मा का आधार
पाप पुण्य को त्यागकर
आत्मरूप हो जात.३-१-३. मुंडकोपनिषद्.
नेत्र से न घ्राण से
न वाक इन्द्रियादि से
न कर्म से न तप सकल
ज्ञान के प्रसाद से
विशुद्ध चित्त पुरुष ही
शुद्ध आत्म देखता.८-३-१- मुंडकोपनिषद्.
जो जाने वह स्वयं ही
जगत उसी का रूप
अमल रूप जो भासता
उसी आत्म का ध्यान
विज्ञ बीज का नाश कर
बंधन छूटे कर्म .१-३-२- मुंडकोपनिषद्.
जाने कोई न आत्म को
अल्पज्ञ प्रोक्त अरु सोच
सुविज्ञ प्रोक्त यह ना मिले
अणु से भी अति सूक्ष्म.८-२- कठोपनिषद
आत्म योग का श्रवण कर
अनुभव से जो विज्ञ
सूक्ष्म बुद्धी से जानकर
आत्मतत्त्व जो भिज्ञ
मग्न लाभ आनन्द परम में
नचिकेता तू पात्र.१३-२- कठोपनिषद
बुद्धी गुहा में पैठकर
अणु से अणु अति सूक्ष्म
महत् महत् है आत्मा
विरला साधक विज्ञ
काम शो़क से मुक्त हो
आत्म प्रसीदति प्राप्त.२०-२- कठोपनिषद
प्रवचन से यह ना मिले
श्रवण नहीं बहु बार
यह जिसको स्वीकारता
प्राप्त उसी को होय
प्रकट करे यह आत्मा
निज स्वरूप को दर्श.२३-२- कठोपनिषद
सभी भूत का आत्मा
जान इसे तू गूढ
नहिं प्रत्यक्ष सबके लिए
अतिसूक्ष्म बुद्धि प्रत्यक्ष.१२-३- कठोपनिषद
जिस सत् से है देखता
स्वप्न दिवस जिन दृश्य
विभु महत् है आत्मा
जान धीर नहिं मोह.४ -२-१- कठोपनिषद
मन से प्राप्त यह आत्मा
जग है कुछ नहिं भिन्न
भिन्न भिन्न जग देखता
मृत्यु मृत्यु को प्राप्त.११-२-१- कठोपनिषद
विशुद्ध ज्ञानमय आत्मा
ग्यारह द्वार पुर वास
नर जो पर का ध्यान कर
मिटे शो़क वह पार .१-२-२- कठोपनिषद
परम शुद्ध यह आत्मा
स्वयं प्रकाशित तेज
अंतरिक्ष में वसु वही
जान अतिथि वह द्वार
अनल वही, हवि है वही
सब मानव और देव.१. कठ
वही सत्य अरु व्योम है
जल में, भू में, सकल ॠत
वही देव है सकल गिरि
उसे परम ॠत जान.२-२-२-कठोपनिषद
सकल भूत यह आत्मा
रखता वश में लोक
बहु निर्मित एक रूप से
जान धीर अनुभूत
आत्मस्थिति देख ज्ञानी
आनन्द मोक्ष उपलब्ध .१२-२-२-कठोपनिषद
दुग्ध घृत परिपूर्ण है
जगत पूर्ण है आत्म
आत्मविद्या तप यज्ञ से
सो परम है प्राप्त
जान आत्म वह तत्त्व है
कहा उपनिषद् ब्रह्म.१६-१- श्वेताश्वतरोपनिषद्..
एक अकेला बहुत से
शासक निष्क्रिय तत्व
एक बीज बहु रूप प्रकट हो
धीर आत्म में देख
धीर देख अस ईश को
शाश्वत सुख नहिं अन्य.१२-६- श्वेताश्वतरोपनिषद्..
श्री भगवान भगवद्गीता के विभूति योग में कहते हैं-
सब भूतों के हृदय में, स्थित सबका आत्म
आदि मघ्य अरु अन्त मैं, जान मुझे तू पार्थ।। 20।।
मैं सम्पूर्ण भूतों का आदि, मध्य और अन्त हूँ अर्थात सभी भूत मुझ आत्मतत्व परमात्मा से प्रकट होते हैं मुझमें स्थित रहते हैं और अन्त में मुझमें ही विलीन हो जाते हैं। हे अर्जुन, मैं सब भूतों में उनके हृदय में स्थित आत्मा हूँ, मैं सृष्टि के अणु-अणु में व्याप्त हूँ, मेरे आत्मतत्व ने इस सृष्टि को धारण किया हुआ है।
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