श्वेताश्वतरोपनिषद्
Author of Hindi verse -Prof. Basant
तीसरा अध्याय
संसार जंजाल का ईश जो
निज स्वरूपिणी शक्ति
इस से वह शासन करे
सकल लोक वह एक
विस्तार जन्म जो जानते
अमृत अमृत वे विज्ञ.१.
निज स्वरूपिणी शक्ति से
सकल लोक शासन करे
एक देव वह रूद्र है
नहीं अन्य कोउ जान
सकल जीव के हृदय में
स्थित रच संसार
सकल लोक का रक्ष है
प्रलय समेटे सर्व.२.
सब ओर उसके हाथ हैं
सब ओर उसके पैर
चक्षु मुख है विश्व उसका
एक देव है ख़म् और भू का
उसी देव ने हाथ दिए हैं
उसने पक्षी पंख संजोये.३.
उद्भव कारण देव सब
विश्वधिप वह रूद्र
महा ऋषी शुभ बुद्धि का
जेहि से जन्म हिरण्य.४.
अघोर प्रकाशिनि पुण्य से
कल्याण मूर्ति हे रूद्र
पर्वत वास शिवा परम
शान्त रूप हम लक्ष.५.
जेहि शर लिए हाथ में
सञ्चालन गिरि शान्त
शिवा शान्त शर को करें
जीव जगत नहिं नष्ट.६.
जीव जगत से श्रेष्ठ है
श्रेष्ठ हिरण्यमय जान
देह रूप सब प्राणी में
गुह्य गूढ़ हो पैठ
सकल विश्व आवर्त कर
व्यापक है एक देव
ऐसे प्रभु को जानता
अमृत अमृत को प्राप्त.७.
को विदु कहता जानता
महत् महत् है देव
अज्ञान तमस से पर वही
आदित्य वर्ण है जान
जान मृत्यु को पार वह
अन्य न कोई मार्ग.८.
नहीं अन्य कोउ श्रेष्ठ है
सूक्ष्म महत् नहिं अन्य
वृक्ष भांति दिवि स्थित
पूर्ण पुरुष जग पूर्ण.९.
श्रेष्ठ हिरण्यमय पुरुष से
निराकार पर ब्रह्म
सकल दोष से शून्य है
जान अमृत वह विज्ञ
जो नर जानत नाहीं हैं
बार बार दुःख प्राप्त.१०.
सर्व चहुँ मुख शीश हैं
ग्रीवा है सब ओर
हृदय गुहा में वासते
सर्वगत शिव रूप.११.
ईश सभी से महत् है
शासक प्रभु वह जान
अविनाशी ज्योती पुरुष
निर्मल सत्त्व प्रवर्त्त.१२.
अंगुष्ठ मात्र वह पुरुष है
सदा हृदय में वास
मना ईश निर्मल हृदय
प्रत्यक्ष शुद्ध मन साथ
ऐसे ब्रह्म को जानते
अमृत अमृत को प्राप्त.१३.
अंगुष्ठ मात्र - सूक्ष्म परन्तु महत्वपूर्ण जैसे हाथ में अंगूठा.
सहस्र शीर्ष सहस्र चक्षु
सहस्र पाद पुरुष के
जग घेरे सब ओर से
दस अंगुल स्थित परम.१४.
भूत भवि भव जगत का
नित्य अन्न परिपुष्ट
सर्व जग ही परम है
जान अमृत का ईश.१५
सब ओर जिसके पैर कर हैं
आंख सिर मुख सब ओर हैं
कर्ण हैं चुन ओर जिसके
व्याप्त जग सब ओर से.१६.
भोगता सब इन्द्रियों से
इन्द्रियों से रहित है
ईश है प्रभु जान सबका
आलम्ब जग का जान ले.१७.
चर अचर सम्पूर्ण जग
जिसके वश वह हंस
नौ द्वारी पुर देह बस
लीला जग में जान.१८.
हाथ पैर से रहित है
गृहण करे सब वस्तु
आँख कान बिन देख सुन
वेग गमन सर्वत्र
सभी वेद्य को जानता
नहिं कोउ उसको वेद
ज्ञानी उसको वाचते
पुरुष आदि महान.१९.
सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है
महत् महत् है जान
जीव बुद्धि की पेठ गुहा में
सबका रचनाकार
महिमा जाने अकृतु ईश की
वीत शोक नर मुक्त.२०.
वेद विज्ञ वर्णन करें
जन्म रहित है नित्य
विभु व्यापक सर्वत्र है
अजर पुराण मैं वेद्य.२१....................................................................................
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