जिज्ञासा
आत्म जिज्ञासा, ब्रह्म जिज्ञासा स्वरूप के खोज की और ले जाती है.जिज्ञासा के कारण ही मनुष्य सत्य की खोज करता है.
मैं कौन हूँ? यह देह क्या है? इस देह के साथ क्या मेरा आदि और अन्त है? देह त्याग के पश्चात् क्या मेरा अस्तित्व रहेगा? यह अस्तित्व कहाँ और किस रूप में होगा? मेरे संसार में आने का क्या कारण है? मेरे देह त्यागने के बाद क्या होगा, कहाँ जाना होगा? किसी भी जिज्ञासु के हृदय में यह बातें निरन्तर घूमती रहती हैं। हम सदा इन बातों के बारे में सोचते हैं और अपने को, अपने स्वरूप को नहीं जान पाते।
इसी जिज्ञासा को शान्त करने के लिए कठ उपनिषद में नचिकेता यमराज से तीसरा वर मांगता है.
देह शान्त के बाद भी
आत्मा रहता नित्य
कुछ कहते यह झूठ है
बतलायें प्रभु आप .
नचिकेता की जिज्ञासा शान्त करने के लिए यमराज आत्मतत्त्व का उपदेश देते है.
श्रेय साधन भिन्न हैं
प्रेय साधन भिन्न
आकर्षण दोनों करें
श्रेय जान कल्याण
जो हिय माने प्रेय को
भ्रष्ट लाभ कल्याण.१-१-२.
विद्या और अविद्या का
भिन्न भिन्न परिणाम
विद्या का अभिलाषी तू
नहीं खिंचा तू भोग.४-१-२.
जिन्हें अविद्या व्याप्त है
विद्या मूढ तू जान
नाना योनी भटकते
अंध अंध दे ज्ञान.५-१-२.
नचिकेता यमराज से पूछते हैं-
अधर्म धर्म से अति परे
कार्य कारण भिन्न
भूत भव से भिन्न है
भवि से भी है भिन्न
प्रसन्न मना हो धर्म हे
ज्ञान बताओ श्रेष्ठ.१४-१-२.
यमराज बताते हैं
यह अक्षर ही ब्रह्म है
अक्षर ही परब्रह्म
इस अक्षर को जानकर
वही प्राप्त जिस चाह.१६-१-२.
अपनी अस्मिता, अपनी आत्मा को जानने की इच्छा जिज्ञासा है. जिज्ञासा ही पहली सीड़ी है और ज्ञान पूर्णता है.
केनोपनिषद् का प्रारंभ इसी जिज्ञासा से होता है.
किसका बल है प्राण में
किसका बल है चित्त
वाक् इन्द्रियाँ कर्म रत
किस बल से हे श्रेष्ठ .१-१ .
श्वेताश्वतरोपनिषद् का प्रारंभ भी इसी जिज्ञासा से होता है.
ज्ञानी कहते ज्ञानि से
कारण ब्रह्म है कौन
किससे यह उत्पन्न जग
किससे स्थित जान
कौन अधिष्ठा जगत का
सुख दुःख जेहि जग व्याप्त.२-१.
कहे काल कोई कारणम्
कोई प्रकृति को जान
कर्म कहे कारण कोई
भवितव्यता को मान
पांच भूत को मानता
कोई माने जीव
सुख दुःख में परतंत्र है
फिर को कारण जान.३ १.
भगवद्गीता में अर्जुन अनेक स्थानों में जिज्ञासा करते हैं.
ब्रह्म क्या, अध्यात्म क्या,
कर्म क्या पुरुषोत्तम
अधिभूत को कहते किसे,
अधिदेव किसको जानते।। 1-८।।
अर्जुन बोले, हे श्री कृष्ण, ब्रह्म क्या है, अध्यात्म क्या है, कर्म क्या है, अधिभूत क्या और अधिदैव किसको कहते हैं।
कौन यहाँ अधियज्ञ है,
कैसे बैठा देह
अन्त समय प्रभु किस तरह,
युक्त चित्त हो ज्ञेय।। 2-८।।
हे मधुसूदन अधियज्ञ किसे कहते हैं तथा इस देह में उसका क्या स्थान है और जो आपके आत्म रूप में नित्य युक्त चित्त पुरुष हैं उन्हें मृत्यु के समय आपका स्वरूप किस प्रकार जानने में आता है?
जिज्ञासा से स्वरूप अनुसन्धान का मार्ग पशस्त होता है. आदि शंकर ने स्वरूप अनुसन्धान को भक्ति कहा है.
श्री भगवान भगवद्गीता में कहते हैं कि ईश्वर की भक्ति चार प्रकार लोग करते है.
चतुर्विधा भजन्ते मां
जनाः सुकृतिनोऽर्जुन ।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी
ज्ञानी च भरतर्षभ ।7-16।
हे अर्जुन चार प्रकार के उत्तम कर्म करने वाले, आर्त (दुखी), अर्थार्थी, जिज्ञासु और ज्ञानी मुझ विश्वात्मा को भजते हैं, मुझ से प्रेम करते हैं।
आर्त (दुखी), अर्थार्थी सकाम पूजन है. इसके फल नश्वर हैं.
इन चार प्रकार के भक्तों में अनन्य प्रेम से जो मुझ परमात्मा की भक्ति करता है अर्थात सदा आत्मरत हुआ आत्म सुख अनुभव करता है ऐसा ज्ञानी भक्त अति उत्तम है। क्योंकि ज्ञानी मुझे तत्व से जानता है। इसलिए आत्म स्थित मुझे यथार्थ से जानने के कारण सदा मुझसे प्रेम करता है और वह सदा मुझे प्रिय है। वास्तव में हम दोनों एक ही हैं। ज्ञानी मेरा ही साक्षात स्वरूप है।
पूर्ण सत्य जानने के बाद अथवा स्वरूप अनुभूति के बाद ही वास्ताविक प्रेम और भक्ति उत्पन्न होती है.
इस हेतु जिज्ञासा पहली सीड़ी है और परम ज्ञान पूर्णता है.
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