ॐ
श्वेताश्वतरोपनिषद्
AUTHOR OF HINDI VERSE PROF BASANT
प्रथम अध्याय
ॐ रक्ष गुरु शिष्य सह
पालन कर एक साथ
शक्ति प्राप्त एक साथ ही
तेजोमय स्वाध्याय
कभी नहीं विद्वेष हम
शान्ति शान्ति ॐ शान्ति.१.
ज्ञानी कहते ज्ञानि से
कारण ब्रह्म है कौन
किससे यह उत्पन्न जग
किससे स्थित जान
कौन अधिष्ठा जगत का
सुख दुःख जेहि जग व्याप्त.२.
कहे काल कोई कारणम्
कोई प्रकृति को जान
कर्म कहे कारण कोई
भवितव्यता को मान
पांच भूत को मानता
कोई माने जीव
सुख दुःख में परतंत्र है
फिर को कारण जान.३.
ध्यान योग से देखकर
परम देव का ज्ञान
पुरुष काल कारण का शासक
निज गुण गूढ है जान.४.
एक नेमी त्रिचक्रमय
सोलह सर हैं जान
अर पचास, हैं बीस सहायक
छह अष्टक तू जान
विविध रूप से युक्त यह
एक पाश से बद्ध
तीन मार्ग अरु दो निमित्त
मोह चक्र को पश्य.५.
त्रिचक्रमय-सत्व,रज,तम से युक्त. सोलह सर-अहँकार,बुद्धि,मन,आकाश,वायु,अग्नि,जल. पृथ्वी,प्रत्येक के दो स्वरूप सूक्ष्म और स्थूल. बीस सहायक-पांच ज्ञानेन्द्रियाँ, पांच कर्मेन्द्रियाँ,पांच प्राण,पांच विषय. छह अष्टक (आठ प्रकार की प्रकृति, आठ धातुएं, आठ ऐश्वर्य, आठ भाव. आठ गुण, आठ अशरीरी योनियाँ, तीन मार्ग-ज्ञानमय (शुक्ल) अज्ञानमय (कृष्ण)और परकायाप्रवेश. दो निमित्त-सकाम कर्म और स्वाभा विक कर्म.कुलयोग –पचास. इन्हें पचास अर कहा है.
त्रिचक्रमय-सत्व,रज,तम से युक्त. सोलह सर-अहँकार,बुद्धि,मन,आकाश,वायु,अग्नि,जल. पृथ्वी,प्रत्येक के दो स्वरूप सूक्ष्म और स्थूल. बीस सहायक-पांच ज्ञानेन्द्रियाँ, पांच कर्मेन्द्रियाँ,पांच प्राण,पांच विषय. छह अष्टक (आठ प्रकार की प्रकृति, आठ धातुएं, आठ ऐश्वर्य, आठ भाव. आठ गुण, आठ अशरीरी योनियाँ, तीन मार्ग-ज्ञानमय (शुक्ल) अज्ञानमय (कृष्ण)और परकायाप्रवेश. दो निमित्त-सकाम कर्म और स्वाभा विक कर्म.कुलयोग –पचास. इन्हें पचास अर कहा है.
सर्वाजीवे ब्रह्मचक्र जो
सबका आश्रय भूत
जीव घूमता चक्र में
जान पृथक स्व ब्रह्म
पुनः ज्ञान से जानकार
ज्ञान ज्ञान परिपुष्ट
अमृत तत्त्व पता वही
जुड़े होत संतुष्ट.६.
जिसको गाते वेद हैं
सब आश्रय अवलम्ब
अक्षर थित त्रय लोक में
उर अंतर कर ध्यान
ब्रह्मज्ञ मुक्त सो जान कर
सदा ब्रह्म में लीन.७.
क्षर अक्षर से जन्मता
व्यक्ताव्यक्त संसार
जिसका धर्ता ईश है
जीव रूप आबद्ध
भोगी बन असमर्थ सा
जगत मोह आबद्ध
जान परम उस देव को
सकल पाश से मुक्त.८.
ईश जान सर्वज्ञ तू
जान सर्व-समर्थ
जान जीव को अज्ञ तू
और जान असमर्थ
पर अविनाशी दोउ वे
तीसरि शक्ति अजा
जीव भोग की रचना करती
पर अविनाशी तीन
विश्वरूप अनन्त आत्म है
नित्य अकर्ता जान
ब्रह्मरूप त्रय प्राप्त कर
बंध मुक्त सब पाश.९.
प्रकृति जान तू क्षर सदा
भोगी जीव अमृत अविनाशी
वश में रखता ईश दोउ
कर मन उसमें नित्य
तन्मय हो लयलीन हो
तब सब माया मुक्त.१०.
ध्यान योग उस परम देव का
करता बन्धन मुक्त
सकल क्लेश से मुक्त हो
जन्म मृत्यु भय मुक्त
देह नाश के साथ ही
त्याग लोक ऐश्वर्य
आप्त काम विशुद्ध वह
सदा ब्रह्म स्वरूप.११.
जान आत्म को सर्वदा
सब उर अंतर पैठ
तत्त्व ना कोई श्रेष्ठ है
भोक्ता भोग्य को जान
और जान कारण परम
सर्व विदित हो जात
जो जाने त्रय भेद को
जान उसे पर ब्रह्म .१२.
अग्नि दृश्य नहीं मूर्तिवत
लिंग नाश नहीं नाश
कर प्रयास इंधन ग्रहण
अग्नि प्रकट निज रूप
वैसे वो इस देह में
ग्रहण साध्य प्रणवेन.१३.
दक्षिण अग्नि बना देह को
प्रणव अग्नि उत्तर की
सदा ध्यान का मंथन करते
दृश्य परम को जान अग्नि सम.१४.
तिल में जैसे तेल है
घृत जेसे दधि माहि
जल श्रोत में नित्य है
अग्नि अरणि में वास
तैसे ही यह आत्मा
उर अंतर में वास
जो जानत अस आत्म को
उसे गृहण यह आत्म.१५.
दुग्ध घृत परिपूर्ण है
जगत पूर्ण है आत्म
आत्मविद्या तप यज्ञ से
सो परम है प्राप्त
जान आत्म वह तत्त्व है
कहा उपनिषद् ब्रह्म.१६................................................
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