ईश्वर का संकल्प
छान्दग्योपनिषद में जगत रचना के विषय में कहा गया है कि उस सत् ने संकल्प किया कि मैं बहुत हो जाऊँ अन्यत्र एतरीयोपनिषद में कहा है कि मैं लोकों की रचना करूँ.
पूर्व में अव्यक्त था
नहीं अन्य कोउ और
नहीं कोउ की चेष्टा
लोक रचे संकल्प .१-१-एतरीयोपनिषद्
परमात्मा अकर्ता है अतः वह कर्ता नहीं है और जड़ प्रकृति में संकल्प हो नहीं सकता फिर सृष्टि की रचना कैसे हुयी.
एक महत्वपूर्ण बात और है कि परमात्मा ने संकल्प किया ,इससे यह स्पष्ट होता है वह हमारी तरह कोई एक है जो संकल्प कर रचना कर्ता है पर ऐसा भी नहीं है.
ईश्वर पूर्ण विशुद्ध ज्ञान है और स्रष्टि परम विशुद्ध ज्ञान का विस्तार है. ज्ञान जड़ हो सकता है पर जड़ ज्ञान नहीं हो सकता. इसलिए ज्ञान अनादि सत्ता है. सृष्टि का निर्माण का आदि कारण ज्ञान है जिसमे आदि अवस्था में कोई हलचल नहीं थी, कोई स्पंदन नहीं था. प्रत्येक का निश्चित स्वभाव होता है. ज्ञान में तरंग उठना स्वाभाविक है.
इस कारण विशुद्ध शांत ज्ञान में ज्ञान का स्फुरण हुआ और ज्ञान शक्ति तथा क्रिया शक्ति का उदय हुआ. ज्ञान और क्रिया शक्ति के भिन्न भिन्न मात्रा में मिलने से त्रिगुणात्मक प्रकृति का विस्तार होने लगा. इसे मानव मस्तिष्क के अध्ययन से भी जाना जा सकता है. सामान्यतः भिन्न भिन्न प्रकार की मस्तिष्क तरंगे किसी भी मनुष्य में भिन्न भिन्न अवस्थाओं में देखी जाती हैं जैसे क्रियाशील अवस्था में बीटा तरंग, गहरी नीद में डेल्टा तरंग आदि. इसी प्रकार परम ज्ञान में पहली अवस्था में हाई डेल्टा तरंग स्वतः उत्पन्न हुई जिससे ज्ञानशक्ति और क्रिया शक्ति विस्तृत हुई और बीटा तरंग फैलने लगीं. यह रेडिएन्ट उर्जा लगातार निकलती गयी और कालांतर में वैज्ञानिक अल्बर्ट आयनस्टीन के सूत्र E=mc2 के आधार पर घनीभूत हुई और पदार्थ बना. इस प्रकार सृष्टि का विस्तार होता गया, हो रहा है. हिंदू इस परम विशुद्ध ज्ञान को परमात्मा, भगवान, शब्दब्रह्म, अव्यक्त कहते हैं, बाइबिल ने इसे शब्द (WORD) कहा है, बौद्ध बोध कहते हैं, सिक्ख शबद, नूर और जैन मोक्ष. यह पूर्णतया वैज्ञानिक एवम सत्य है की कोई जड़ पदार्थ चेतन में न बदल सकता है, न चेतन को पैदा कर सकता है अतः सृष्टि का कारण परम ज्ञान है.
विशुद्ध शांत ज्ञान में ज्ञान का स्फुरण ही परमात्मा का संकल्प है . ज्ञान और क्रिया शक्ति के भिन्न भिन्न मात्रा में मिलने से त्रिगुणात्मक प्रकृति का विस्तार जगत का निर्माण है. छान्दग्योपनिषद में सुस्पष्ट है उस ब्रह्म ने स्वयं ही अपने आपको इस जड़ चेतन जगत के रूप में प्रकट किया.
अव्यक्त था वह पूर्व में
उससे सत् उत्पन्न
स्वयं प्रकट अव्यक्त वह
सुकृत कहा वह जान.१-७. तैत्तिरीयोपनिषद्
यह सत्य है कि सब कुछ ब्रह्म (पूर्ण विशुद्ध ज्ञान) ही है. यह जगत उससे ही प्रकट होता है उसी में स्थित रहता है उसी में विलीन हो जाता है.
जो कुछ है वह ब्रह्म है
जन्म उसी में लीन.३-१४-१ -छान्दग्योपनिषद
रचनाकर वह जगत की
प्रविष्ट हुआ जग साथ
वही हुआ सत् वह असत
जड़ चेतन सब रूप.२-६ –तैत्तिरीयोपनिषद्
वेदान्त के इसी तत्त्व को श्री भगवान ने सुस्पष्ट रूप से भगवद्गीता में सुस्पष्ट किया है.
मैं अध्यक्ष, साकाश मम, प्रकृति रचा संसार
इसी हेतु इस चक्र में, घूमे जीव सजीव।। 10।।
हे अर्जुन, मेरी अध्यक्षता में प्रकृति सभी चर अचर की रचना करती है। सभी प्राणी सृष्टि के पदार्थों का कारण, परमात्मा की परा और अपरा प्रकृति का परिणाम हैं। यही और भी गहराई से जाने तो ज्ञान शक्ति और क्रिया शक्ति ही सबके लिए उत्तरदायी है। इस कारण ही समस्त जगत का आवागमन चक्र निरन्तर चल रहा है।
भूत प्रकृति बल अवश हो, रचता बारम्बार
मैं निज प्रकृति स्वीकार कर, भूत रचे संसार।। 8।।
परमात्मा जब व्यक्त प्रकृति को अपनी अव्यक्त (परा) प्रकृति द्वारा स्वीकार करते हैं अर्थात अव्यक्त (परा) प्रकृति जब व्यक्त प्रकृति से मिल जाती है तब सृष्टि भिन्न भिन्न आकार ग्रहण करने लगती हैं। प्राणी मात्र का विस्तार होने लगता है और भूत समुदाय बार बार मेरे द्वारा अक्रिय तथा कोई सम्बन्ध न रखने पर भी रचा जाता है।
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परा प्रकृति को समझना है कि वह अपरा प्रकृति नहीं है व्यक्त प्रकृति नहीं है। सरल शब्दों में कहें तो यह कथन सही है कि वह दृश्य नहीं है वह दृष्टा है। माया के कारण दृश्य दृष्टा एक महसूस होता है। जब यह धारणा परिपक्व हो जाता है तो अव्यक्त परा प्रकृति और व्यक्त अपरा प्रकृति अलग अलग हो जाते हैं। मेरी धारणा है कि यह मोक्ष अवस्था है। माया से मुक्त होने की स्थिति है। कृपया टिप्पणी भेजें।
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