आत्मतत्त्व के आलावा कोई भी वस्तु नहीं है. यही एक सत्य है. यह आत्मा ही ब्रह्म है. परमात्मा से पृथक जगत नहीं है. सम्पूर्ण विश्व में केवल आत्मतत्त्व का ही विस्तार है. आधुनिक विज्ञान पदार्थ को स्वीकार करता है पर जड़ पदार्थ में चेतना कहाँ से आयी? ज्ञान कहाँ से आया? इसका कोई उत्तर नहीं है. आत्मतत्त्व परम विशुद्ध ज्ञान है जो अपनी सम्पूर्णता से सृष्टि के प्रत्येक परमाणु में बीज रूप से स्थित है. इसी सत्य को भिन्न भिन्न उपनिषदों में अपने अपने तरीके से प्रस्तुत किया गया है. भगवद्गीता भी इसी सत्य को सुस्पष्ट करती है.
पूर्ण हैं प्रभु, पूर्ण यह जग,
पूर्ण से जग पूर्ण है,
पूर्णता से पूर्ण घट कर,
पूर्णता से पूर्ण घट कर,
पूर्णता ही शेष है. ईशावास्य उपनिषद
ईश समाया जगत में
जगत ईश परिपूर्ण ..1. ईशावास्य उपनिषद
अचल होकर नित चले,
दूर रह यह पास
सब में रहता नित सदा.
है विलक्षण सर्वदा.5. ईशावास्य उपनिषद
.
जो सब में मैं देखता,
मैं देखे सर्वत्र
राग द्वेष से मुक्त वह
सदा आत्म स्वरूप.6. ईशावास्य उपनिषद
सब भूतों में देखता
अपना शुद्ध स्वरूप
शोक मोह नहीं वहाँ
जुड़ा सकल जग भूत.7-1-1- मुंडक
उपनिषद
दीप्तमान अणु से भी अणु यह
सकल भूत जेहि व्याप्त
अविनाशी यह
प्राण यही है
वाक् सत्य मन अमृत है.2-2-2- मुंडक उपनिषद
अग्रे ब्रह्म पृष्ठे ब्रह्म
ऊपर ब्रह्म नीचे ब्रह्म
दायें ब्रह्म बायें ब्रह्म
सकल जगत है ब्रह्म स्वरूप.11-2-2-
मुंडक उपनिषद
दिव्य है अचिन्त्य है
सूक्ष्म सूक्ष्म भासमान
दूर है समीप है
चेतन्य रूप देह में
बुद्धि की गुहा में बैठ
ज्ञानवान देखता.7 -3-1. मुंडक उपनिषद
जो जाने वह स्वयं ही
जगत उसी का रूप .1-3-2-मुंडकउपनिषद
लोक व्याप्त परलोक व्याप्त
सकल लोक में वही व्याप्त
नाना भांति देखता जग मे
मृत्यु मृत्यु को प्राप्त सदा वह.10-2-1-कठ उपनिषद
सकल लोक में व्याप्त जेहि
अग्नि रूप तद्रूप
सकल भूत एक आत्मा
भासित भिन्न स्वरूप .9-2-2 कठ उपनिषद
सकल लोक में व्याप्त जेहि
वायु रूप तद्रूप
सकल भूत एक आत्मा
भासित भिन्न स्वरूप .10-2-2-कठ उपनिषद
जो कुछ है वह ब्रह्म है
नहिं परे पर ब्रह्म
चरण चार पर ब्रह्म के
जान विलक्षण ब्रह्म.२. मांडूक्योपनिषद्
सब ओर उसके हाथ हैं
सब ओर उसके पैर
चक्षु मुख है विश्व उसका
एक देव है ख़म् और भू का
उसी देव ने हाथ दिए हैं
उसने पक्षी पंख संजोये.३-३ श्वेताश्वतरोपनिषद्
सब और जिसके पैर कर हैं
आंख सिर मुख सब ओर हैं
कर्ण हैं चुन ओर जिसके
व्याप्त जग सब ओर से.१६-श्वेताश्वतरोपनिषद्
योनि योनी में पैठ एक
जगत लीन जेहि जात
रूप प्रकट बहु आदि में
ईश वरद परदेव
ईश जान निश्चय परम
परम शान्ति को प्राप्त.११-४श्वेताश्वतरोपनिषद्
एक अकेला बहुत से
शासक निष्क्रिय तत्व
एक बीज बहु रूप प्रकट हो
धीर आत्म में देख
धीर देख अस ईश को
शाश्वत सुख नहिं अन्य.१२-६-
श्वेताश्वतरोपनिषद्
भगवदगीता के दसवें अध्याय विभूति योग में में श्रीभगवान ने सम्पूर्ण विश्व में आत्मतत्त्व के विस्तार को सुस्पष्ट किया है जिसमें से कुछ अंश निम्न लिखित हैं.
सब भूतों के हृदय में,
स्थित सबका आत्म
आदि मघ्य अरु अन्त मैं,
जान मुझे तू पार्थ।। 20-10।।
मैं सम्पूर्ण भूतों का आदि, मध्य और अन्त हूँ अर्थात सभी भूत मुझ आत्मतत्व परमात्मा से प्रकट होते हैं मुझमें स्थित रहते हैं और अन्त में मुझमें ही विलीन हो जाते हैं। हे अर्जुन, मैं सब भूतों में उनके हृदय में स्थित आत्मा हूँ, मैं सृष्टि के अणु-अणु में व्याप्त हूँ, मेरे आत्मतत्व ने इस सृष्टि को धारण किया हुआ है।
आदि अन्त अरु मध्य हूँ,
सभी सर्ग का पार्थ
विद्या हूँ अध्यात्म की,
वाद हूँ विवाद ।। 32-10।।
हे अर्जुन, इस सृष्टि का आदि अन्त और मध्य मैं ही हूँ अर्थात सम्पूर्ण सृष्टि मुझसे जन्मती है, मुझमें स्थित रहती है और मुझमें ही लय हो जाती है। मैं सृष्टि का बीज हूँ और सृष्टि का विस्तार भी मैं ही हूँ और यह जगत मेरा ही रूप है। मैं विद्याओं में अध्यात्म विद्या हूँ जिससे जीव स्वभाव और आत्म स्वभाव को जाना जाता है और परस्पर विवाद विषय में विवाद का तत्व मैं ही हूँ।
सर्वहरों में मृत्यु हूँ
और जनम का हेतु
कीर्ति वाक स्मृति क्षमा,
धृति श्री मेधा नारि।। 34-10।।
मैं सबका नाश करने वाली मृत्यु हूँ और भविष्य का हेतु भी मैं ही हूँ, स्त्रियों में र्कीति, श्री, वाक, स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा यह सात गुणों में मैं ही हूँ अथवा इनको तू मुझसे ही उत्पन्न जान।
सकल भूत का बीज मैं
और बीज का बीज
पार्थ, चराचर भूत नहिं
जो मुझसे हो रिक्त।। 39-10।।
हे अर्जुन, सब भूतों की उत्पत्ति का कारण मैं ही हूँ अर्थात मैं बीजप्रद पिता हूँ जो इस प्रकृति में गर्भ स्थापित करता है, इस संसार में चर अचर कोई भी ऐसा नहीं है जिसमें मैं नहीं हूँ और वह मुझमें नहीं है, मैं आत्मरूप में सृष्टि के प्रत्येक परमाणु में स्थित हूँ। सृष्टि की कोई वस्तु कोई स्थान ऐसा नहीं है जहाँ आत्मतत्व का विस्तार, आत्मतत्व (विशुद्ध ज्ञान) की उपस्थिति न हो।
जो जो वस्तु विभूतिमय,
शक्ति कान्तिमय पार्थ
अल्प अंश मम तेज से,
उसका उद्भव जान।। 41-10 ।।
हे अर्जुन तू यह जान ले कि इस सृष्टि में जो भी विभूति युक्त, कान्ति युक्त और शक्ति युक्त वस्तु है वह सब मेरे आत्म तेज के एक अंश की अभिव्यक्ति है अर्थात परमात्मा के एक अंश मात्र ने सृष्टि के कण कण को व्याप्त किया हुआ है, सृष्टि का प्रत्येक कण परमात्मा को भासित करता है।
क्या करेगा जानकर,
बहुत जानकर बात
स्थित मैं धारण जगत,
एक अंश सुन पार्थ।। 42-10।।
श्री भगवान कहते हैं मेरी विभूतियों का अन्त नहीं है, मुझ अव्यक्त परमात्मा के एक अंश परा प्रकृति ने सम्पूर्ण जगत को धारण किया है। विश्व के कण कण में मैं आत्म रूप में स्थित हूँ, सभी विभूति मेरा ही विस्तार हैं। चर अचर में मैं ही व्याप्त हूँ। सबका कारण भी मैं ही परमात्मा हूँ।
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सर
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर शब्दों में आपने परिभाषित किया है पर इस छोटे से ब्रेन में ये किस तरह समाय कि हर समय वही दीखे यहाँ
ईश्वर का यह अप्रत्यक्ष रूप हर समय भासित होने लगे इसका कोई उपाय बतायें .
ईश्वर का भाव आना उसके लिए सोच अथवा चिन्तन का होना, प्रश्न का उपस्थित होना यह बताता है कि ब्रह्म बीज पड़ गया है. अब वह जमेगा, फूलेगा और फलेगा भी. अभ्यास और वैराग्य से ही इस चिन्तन को बढाया जा सकता है. ज्ञान से परम ज्ञान जो आपके अंदर है उसे देखें, महसूस करें . ज्ञान परम ज्ञान में स्वतः लीन होने लगेगा. यही आत्मतत्त्व के बोध का सरल मार्ग है.
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