Thursday, January 31, 2013

तेरी गीता मेरी गीता -17- बसंत



प्रश्न- बोध क्या है?

उत्तर -बोध का अर्थ है जानना.
आप इसे अधिक सरलता से समझें.  परमात्मा जो पूर्ण विशुद्ध ज्ञानमाय है हम सबका पिता है और हम सभी जीव उसके बच्चे है. आप अपने जीवन में देखते हैं की आपका अपना बच्चा  आपका होते हुए भी आपसे अलग व्यक्तित्व  रखता है. बच्चा जन्म के बाद अपने जीवन का संघर्ष  प्रारम्भ करता है वह विशेष होना चाहता है. बस यहीं से प्रारम्भ होती है उसकी जीवन यात्रा. प्रत्येक जीव्  स्वाभाविक रूप से जीवन से कुछ सीखता है और उसका विकास होता जाता है. मनुष्य जीवन में  यह गति तेज हो जाती है. किसी जीव अथवा मनुष्य का सीखा ज्ञान यद्यपि उसके विकास में मदद तो करता है पर यह सब सुप्त अवस्था में उसमें समाया रहता है. मृत्यु के बाद उसे पिछली स्मृति याद नहीं रहती. बोध होने पर प्रकृति का यह बंधन टूट जाता है और उसे सदा भूत वर्तमान और भविष्य का ज्ञान बना रहता है.परन्तु बोध होने पर भी पूर्णता की और विकास यात्रा चलती रहती है. बोध से परम पूर्णता की यात्रा भी  जीवन के विकास की  तरह है.
आपने लोगों से सुना होगा श्री कृष्ण 16 कलाओं वाले अवतारी पुरुष थे, श्री राम 12 कलाओं वाले अवतारी पुरुष थे, परुशराम जी 8 कलाओं वाले अवतारी पुरुष थे, ब्रह्माजी परमात्मा की केवल एक कला ही रखते है. यहाँ 16 कलाओं का अर्थ है100% पूर्ण ज्ञानमय पुरुष. अब ब्रह्माजी जब पूर्ण ज्ञानमय पुरुष परमात्मा का 6.25 % हैं तो फिर मनुष्य के बोध के धरातल का आप अनुमान कर सकते हैं. फिर भी बोध कोई मामूली घटना नहीं है. यहाँ से जीव के प्रक्रति बंधन से आजाद होने की यात्रा प्रारंभ होती  है. करोड़ों  मनुष्यों में किसी विरले को ही  बोध हो पाता है.
जानना सृष्टि की तरह अनंत है. अपने को जानना. अपना अगला - पिछ्ला और  वर्तमान जानना. अपना जन्म और पिछले  जन्म जन्मान्तरो को जानना. इसी प्रकार दूसरे का भूत, भविष्य, वर्तमान जानना. सृष्टि के प्रत्येक जड़ चेतन का ज्ञान. दूसरे शब्दों में त्रिकालाज्ञं हो जाना बोध है. बोध होने का अर्थ है पूर्णता. पूर्ण स्थिति से तात्पर्य है सृष्टि का नियंता. काल का भी काल हो जाना अर्थात जन्म मृत्यु जिसकी इच्छा से  से हो. रोग, शोक, आयु वृद्धि जिसे न व्यापे. संक्षेप और सरल शब्दों में जो जड़ को चेतन और चेतन को जड़ कर सकने में समर्थ हो. जो सृष्टि में व्याप्त होकर उससे परे हो उसे ही पूर्ण कहा जाता है.
अब प्रश्न उठता है क्या उक्त बोध अथवा पूर्णता प्राप्त की जा सकती है?
इसके लिए बोध और बोध की पूर्णता इन दो बातों में विचार करंगे. पूर्णता की ऊपर कही स्थिति प्राप्त की जा सकती है और  बोध प्राप्ति के बाद अनेक जन्मों की सतत साधना के परिणाम स्वरुप बोध की पूर्णता प्राप्त होती है. श्री राम और श्री कृष्ण पूर्ण बोधत्व पुरुष थे.उनके जीवन चरित्र से इसकी पुष्टि होती है. श्री राम जब अयोध्या वापस आते है तो समस्त अयोध्या वासियों से एक साथ मिलते हैं. 'अमित रूप प्रगटे तेहि काला ' आदि. इसी प्रकार श्री कृष्ण का विराट रूप  जो सृष्टि में व्याप्त होकर भी उससे परे था.  इनके अलावा पूर्णत्व अन्य किसी में नहीं दिखाए देता है.
जहाँ तक बोध की बात है बोध होना भी जीवन और सृष्टि की एक बहुत बड़ी घटना है.
इसकी पहली स्थिति में साधक को अपना ज्ञान होने लगता है और स्व अनुभूति का स्तर बड़ता जाता है. इन स्थितियों में साधक को स्व अनुभूति के स्तर के आधार पर कुछ अथवा कई जन्मों की याद आने लगती है. उसकी स्मृति बड्ती जाती है. वह आनन्दावस्था मैं रहने लगता है.
धीरे धीरे वासना का नाश होने लगता है. चित्त ज्ञानमय होने लगता है. धीरे धीरे कोइ वृत्ति नहीं रहती
साधक देह से अलग हो जाता है और अपना नियंता हो जाता है. वह अपने सभी जन्म जन्मान्तरों को देखने लगता है. देह से अलग होने की अवधि में, नित साधना के परिणाम स्वरुप वृद्धि होती जाती है.
यहाँ से उसे सृष्टि का खेल समझ में आने लगता है और वह उत्तरोत्तर सिद्धियाँ प्राप्त करता जाता है.
अब पूर्णता की ओर यात्रा के लिए वह सदा अपने को पूर्ण से जुड़ा देखता है.

Tuesday, January 29, 2013

तेरी गीता मेरी गीता -16- बसंत



प्रश्न -  श्रीमद भगवदगीता और हिन्दू दर्शन में उत्तरायण  में मृत्यु  होना शुभ माना जाता है और दक्षिणायन में  अशुभ. ऐसा क्यों? यह उत्तरायण और दक्षिणायन क्या हैं?

उत्तर - श्रीमदभगवदगीता के आठवें अध्याय में उत्तरायण और दक्षिणायन की चर्चा हुई है. इसी प्रकार  महाभारत में वृत्तांत है कि भीष्म पितामह  ने  देह त्याग के लिए छः माह उत्तरायण  की प्रतीक्षा की. मकर संक्रांति से लेकर कर्क संक्रांति १४- १५ जनवरीसे १३ जुलाई के बीच के छः मास के समयान्तराल को उत्तरायण कहते हैं। इसके विपरीत कर्क संक्रांति से लेकर मकर संक्रांति के बीच के छः मास के काल को दक्षिणायन कहते हैं। उत्तरायण में  पृथ्वी के उत्तरी गोलार्ध में दिन बड़े होते हैं, इस समय सार्वाधिक सूर्य प्रकाश उत्तरी गोलार्ध को प्राप्त होता है.
आपसे  कई  बार चर्चा हुई है कि दर्शन में प्रकाश शब्द ज्ञान के लिए आया है और अन्धकार अज्ञान के लिए प्रयुक्त हुआ है.उत्तरी गोलार्ध के छः मास के दिन सर्वाधिक प्रकाश के हैं इसलिए  दर्शन में उत्तरायण शब्द परम ज्ञान के लिए प्रयुक्त हुआ है. उत्तरायण, दक्षिणायन  की तरह शुक्ल और कृष्ण पक्ष के प्रकाश की तुलना ज्ञान और अज्ञान की भिन्न भिन्न अवस्थाओं से की है. इसी प्रकार आदित्य (सूर्य ) शब्द जगह जगह ज्ञान के लिए आया है. श्री भगववान कहते है आदित्यों में मैं विष्णु हूँ. इसका अर्थ है अदिति के सभी ज्ञानी पुत्रों में मैं परम पूर्ण विशुद्ध ज्ञानी विष्णु हूँ जो कण कण में व्याप्त है. इस उत्तरायण, दक्षिणायन  को समझाते हुए भगवदगीता में  श्री भगवान् अर्जुन से कहते हैं.

अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्‌ ।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ।24-8।

जो योगी ज्योति, अग्नि, दिन, शुक्ल पक्ष, उत्तरायण, के छह माह में देह त्यागते हैं अर्थात जिन पुरूषों और योगियों में आत्म ज्ञान का प्रकाश हो जाता है, वह ज्ञान के प्रकाश से ज्योर्तिमय, अग्निमय, शुक्ल  पक्ष की चांदनी के समान प्रकाशमय और उत्तरायण के छह माहों के समान परम प्रकाशमय हो जाते हैं अर्थात जिन्हें आत्मज्ञान हो जाता है (उनके ज्ञान की तुलना प्रकाश की मात्रा से की है)। ऐसे आत्मवान विश्वात्मा परमात्मा हुए पुरुष, अव्यक्त हो जाते हैं। स्वयं परम ब्रह्म हो जाते हैं।यहाँ बोध की भिन्न भिन्न मात्रा को प्रकाश की भिन्न भिन्न की मात्रा से बताया गया है साथ ही यह भी बताया है कि बोध प्राप्त योगियों की स्थिति भी प्रकाश की मात्रा की तरह भिन्न भिन्न होती है.

धूमो रात्रिस्तथा कृष्ण षण्मासा दक्षिणायनम्‌ ।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते ।25-8।

धुंआ, रात्रि, कृष्ण पक्ष एवं दक्षिणायन के छह माहों में जो देह त्यागते हैं, वह चन्द्रमा की ज्योति को प्राप्त करके पुनः लौटते हैं अर्थात जिन पुरुषों व योगियों को आत्म ज्ञान नहीं होता उनके अन्दर अज्ञान की स्थिति धुएं, रात्रि, कृष्ण पक्ष एवं दक्षिणायन के छःमाह जैसी तमस युक्त (अज्ञान मय) होती है। वह तमस के कारण अन्ध लोकों अर्थात अज्ञान में भटकते रहते हैं, कालान्तर में उनके सतकर्मों के कारण जो उन्हें चन्द्र ज्योति अर्थात ज्ञान का प्रकाश मिलता है उसके परिणाम स्वरूप इस संसार में पुनः जन्म लेते हैं।यहाँ अज्ञान  की भिन्न भिन्न मात्रा को अन्धकार की भिन्न भिन्न की मात्रा से बताया गया है साथ ही यह भी बताया है जिन पुरुषों व योगियों को आत्म ज्ञान नहीं होता उनमें अज्ञान की स्थिति अन्धकार की मात्रा की तरह भिन्न भिन्न होती है तदनुसार लौट कर उन्हें कर्म फल भोगने पड़ते हैं.
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शुक्ल कृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते ।
एकया यात्यनावृत्ति मन्ययावर्तते पुनः ।26-8।

इस जगत में दो प्रकार के मार्ग हैं 1 - शुक्ल  मार्ग अर्थात ज्ञान मार्ग जहाँ ज्ञानी देह छोड़ने से पहले आत्म स्थित हो जाता है।
2 - कृष्ण मार्ग जहाँ सकामी योगी व पुरुष शुभ और अशुभ कर्मों के कारण अज्ञान के मार्ग में जाता है तथा ज्ञान का अंश प्राप्त होने पर कर्मानुसार पुनः इस संसार में जन्म लेता है।

प्रश्न -फिर भीष्म पितामह  ने  देह त्याग के लिए छः माह उत्तरायण  की प्रतीक्षा क्यों की.

उत्तर-  युद्ध में घायल होकर निरंतर एकांत में बोध को प्राप्त करने की चेष्टा की और सफल हुए. तप का कठिन  व्रत ही उनकी शर शय्या था. यही उनका  उत्तरायण में देह त्याग था.

Saturday, January 26, 2013

तेरी गीता मेरी गीता -15 - बसंत



प्रश्न  - कृपया आत्मा को अत्यंत संक्षेप एक वाक्य में बताएं.
उत्तर- पूर्ण विशुद्ध ज्ञान पुंज आपकी अस्मिता ही आत्मा है.
प्रश्न - जीवात्मा क्या है?
उत्तर- ज्ञान और अज्ञान का पुंज जीवात्मा है .
प्रश्न - परमात्मा क्या है ?
उत्तर - आत्मा का विराट स्वरुप परमात्मा है.
प्रश्न - दिव्यता केसे आती है.
उत्तर -ज्ञान की वृद्धि और अज्ञान के नष्ट होने से दिव्यता बड्ती जाती है.
प्रश्न - आत्मा अथवा परमात्मा को पाने का केवल एक सरल और शीघ्र फल दायक उपाय.
उत्तर - आप दृष्टा हो जाएँ,
प्रश्न - दृष्टा होकर क्या करना होगा?
उत्तर - जीवन के प्रत्येक कार्य को साक्षी भाव से देखें.
प्रश्न - चेतना क्या है?
उत्तर .चेतना एक विकृति है.
प्रश्न -विकृति क्या होती है?
उत्तर- जो प्रकृति में उत्पन्न होत्ती है.
प्रश्न - क्या हमारी चेतना  हमारी असलियत नहीं है.
उत्तर- नहीं. तुम ज्ञान पुंज हो अतः शुद्ध चैतन्य हो. यह चैतन्य  जब  शरीर को स्वीकार करता है तब चेतना का जन्म होता है. चैतन्य की उपस्थिति से ही अनुकूल परिस्थिति में चेतना उत्पन्न होती है.



Friday, January 25, 2013

तेरी गीता मेरी गीता -14 - बसंत



प्रश्न -आप कहते हैं आत्मा और ज्ञान एक है. क्या आप इसे सिद्ध कर सकते है?

उत्तर - आपके सम्मुख कुछ उदहारण प्रस्तुत हैं आप स्वयं परीक्षण कर लीजिये.
जिस प्रकार एक आत्मा सम्पूर्ण क्षेत्र (शरीर) को जीवन देता है, ज्ञानवान बना देता है क्रियाशील बना देता है।
उसी प्रकार ज्ञान सम्पूर्ण क्षेत्र (शरीर) को जीवन देता है, ज्ञानवान बना देता है क्रियाशील बना देता है।
आत्मतत्व और ज्ञान  सत् है, नित्य है और सदा है।
आत्मा की तरह यह ज्ञान सदा नाश रहित है ।
आत्मा की तरह ज्ञान ने सम्पूर्ण सृष्टि को व्याप्त किया है।
सृष्टि में कोई भी स्थान ऐसा नहीं है जहाँ आत्मतत्व अथवा ज्ञान न हो।
इस अविनाशी आत्मा और ज्ञान का नाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है।
जीवात्मा अथवा ज्ञान इस देह में आत्मा अथवा विशुद्ध ज्ञान का स्वरूप होने के कारण सदा नित्य है।
इस जीवात्मा अथवा ज्ञान के देह मरते रहते हैं।
जब देह मरता है तो समझा जाता है सब कुछ नष्ट हो गया परन्तु ऐसा नहीं होता है। इसलिए भगवान श्री कृष्ण कहते हैं, जो इसे मारने वाला और मरणधर्मा मानता है, वह दोनों नहीं जानते हैं।
यह आत्मा और ज्ञान  दोनों  न किसी को मारते  हैं, न मरते  हैं ।
आत्मा और ज्ञान  दोनों अक्रिय अर्थात क्रिया रहित हैं अतः किसी को नहीं मारते  ।
आत्मा और ज्ञान  दोनों नित्य अविनाशी है.
आत्मा और ज्ञान  दोनों किसी भी काल में नहीं मरते हैं।
इस आत्मा और ज्ञान  दोनों का न जन्म है न मरण है।
यह आत्मा और ज्ञान  दोनों  न जन्म लेता है न किसी को जन्म देता है।
आत्मा और ज्ञान दोनों हर समय नित्य रूप से स्थित है, सनातन है ।
आत्मा और ज्ञान  दोनों को कोई नहीं मार सकता ।
केवल इसके देह नष्ट होते हैं ।
आत्मा और ज्ञान दोनों  को जो पुरुष नित्य, अजन्मा, अव्यय जानता है, उसे बोध हो जाता है.
जीवात्मा और ज्ञान दोनों  के शरीर उसके वस्त्र हैं, जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर नए वस्त्र धारण करता है उसी प्रकार यह आत्मा और ज्ञान दोनों पुराने शरीर त्याग कर नया शरीर धारण करता है.
आत्मा और ज्ञान दोनों  को शस्त्र नहीं काट सकते हैं.
आत्मा और ज्ञान दोनों को आग में जलाया नहीं जा सकता.
आत्मा और ज्ञान दोनों को जल गीला नहीं कर सकता.
आत्मा और ज्ञान दोनों को वायु सुखा नहीं सकती।
आत्मा और ज्ञान दोनों निर्लेप हैं, नित्य हैं, शाश्वत हैं ।
आत्मा और ज्ञान दोनों को छेदा नहीं जा सकता.
आत्मा और ज्ञान दोनों को जलाया नहीं जा सकता.
आत्मा और ज्ञान दोनों को गीला नहीं किया जा सकता.
आत्मा और ज्ञान दोनों को सुखाया नहीं जा सकता.
यह आत्मा और ज्ञान दोनों अचल हैं, स्थिर हैं, सनातन हैं।
यह आत्मा और ज्ञान दोनों को व्यक्त नहीं किया जा सकता है.
आत्मा और ज्ञान दोनों अनुभूति का विषय हैं।
आत्मा और ज्ञान दोनों बुद्धि से परे हैं। बुद्धि ज्ञान द्वारा संचालित होती है.
आत्मा और ज्ञान विकार रहित हैं.
आत्मा और ज्ञान सदा अक्रिय हैं।
देह में आत्मा और ज्ञान क्रियाशील और मरता जन्म लेता  दिखायी देता है
आत्मतत्त्व और ज्ञान एक आश्चर्य है, आश्चर्य इसे इसलिए कहा है कि अक्रिय होते हुए भी यह कुछ करता दिखायी  देता है।
आत्मा और ज्ञान दोनों निराकार हैं.
आत्मा और ज्ञान दोनों अजन्मा है, फिर भी जन्म लेते हुए, मरते हुए  दिखायी देता है।
आत्मा और ज्ञान दोनों इस देह में अवध्य है.
आत्मा और ज्ञान दोनों को कैसे ही, किसी भी प्रकार, किसी के द्वारा नहीं मारा जा सकता.
आत्मा और ज्ञान दोनों मरण धर्मा प्राणी अथवा पदार्थ नहीं है।
आत्मा ही और ज्ञान दोनों  विश्वात्मा है. इस शरीर में आत्मा और ज्ञान दोनों ही अधिदैव और अधियज्ञ दोनों रूप से प्रतिष्ठित हैं। अधिदैव के रूप में वह कर्ता भोक्ता है तो अधियज्ञ के रूप में दृष्टा है ।
आत्मा और ज्ञान दोनों ही सम्पूर्ण सृष्टि की उत्पत्ति का कारण है
आत्म अथवा ज्ञान शक्ति से ही यह सम्पूर्ण जगत चेष्टा करता है श्री ब्रह्मा और श्री हरि विष्णु आत्म शक्ति से ही उत्पत्ति एवं जगत पालन का कार्य करते हैं।
आत्मा और ज्ञान दोनों ही इस सृष्टि का आदि अन्त और मध्य है अर्थात सम्पूर्ण सृष्टि आत्मा अथवा ज्ञान से ही जन्मती है, आत्मा अथवा ज्ञान में ही स्थित रहती है और आत्मा अथवा ज्ञान में ही ही लय हो जाती है। आत्मा और ज्ञान दोनों ही सृष्टि का बीज हैं और सृष्टि का विस्तार भी आत्मा और ज्ञान दोनों  ही हैं और यह जगत आत्मा अथवा ज्ञान  का ही रूप है।
आत्मा अथवा ज्ञान की  शक्ति ही क्रियाशक्ति उत्पन्न करती है। उससे सभी प्रकृति के तत्व बुद्धि मन इन्द्रियाँ अनेकानेक कार्य करने लगती हैं। आत्मा और ज्ञान दोनों सदा अकर्ता अक्रिय हैं।
सृष्टि का मूल तत्व आत्मतत्व अथवा ज्ञान  है वही सत् है, वही नित्य है, सदा है। असत् जिसे जड़ या माया कहते हैं, यह वास्तव में है ही नहीं। जब तक पूर्ण ज्ञान नहीं हो जाता तब तक सत् और असत् अलग अलग दिखायी देते हैं। ज्ञान होने पर असत् का लोप हो जाता है वह सृष्टि का मूल तत्व ज्ञान है वही सत् है, वही नित्य है, सदा है। असत् जिसे जड़ या माया कहते हैं, यह वास्तव में है ही नहीं। जब तक पूर्ण ज्ञान नहीं हो जाता तब तक सत् और असत् अलग अलग दिखायी देते हैं। ज्ञान होने पर असत् का लोप हो जाता है वह ब्रह्म में तिरोहित हो जाता है। उस समय न दृष्टा रहता है न  दृश्य। केवल आत्मतत्व जो नित्य है, सत्य है, सदा है, वही रहता है।
आत्मा परम बोध है.
आत्मा महा बुद्धि है.
साधक जब ब्रह्म में तिरोहित हो जाता है। उस समय न दृष्टा रहता है न  दृश्य। केवल ज्ञान जो नित्य है, सत्य है, सदा है, वही रहता है।
ज्ञान को प्राप्त होना ही परम बोध है.
ज्ञान महा बुद्धि है.
आत्मा अथवा ज्ञान  ही ईश्वर है, वही ब्रह्म, परब्रह्म है परम बोध है, अस्मिता है.

सृष्टि का मूल तत्व आत्मतत्व अथवा ज्ञान  दोनों एक हैं.







तेरी गीता मेरी गीता - 13 - बसंत



प्रश्न - यह ॐ क्या है.

उत्तर - ॐ परमात्मा का नाम है. यह परमात्मा का अहंकार है. ॐ कोई ध्वनि नहीं है. ॐ शब्द पूर्ण विशुद्ध ज्ञान में हलचल की अवस्था को दिया गया नाम है. इस पूर्ण विशुद्ध ज्ञान में हलचल होते ही अव्यक्त अवस्था  जन्म, स्थिति और लय में रूपांतरित हो गयी. हिन्दुओं में जन्म, स्थिति और लय  ही त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और शिव शंकर की द्योतक है. बाइबिल भी कहती है की जब सृष्टि नहीं थी तब शब्द था. यहाँ शब्द का अर्थ ध्वनि से न होकर ज्ञान है. इस ज्ञान में हलचल की अवस्था को ॐ ही नाम क्यों दिया गया. ॐ अ, उ, म तीन अक्षरों से बना है. अ की ध्वनि करते हुए मुंह खुलता है, उ की ध्वनि करते हुए ध्वनि का विस्तार होता है और मुंह खुला रहता है म की ध्वनि के साथ मुंह बंद हो जाता है. यह तीन अवस्था सृष्टि का जन्म, विस्तार जिसे स्थिति कहा है और अंत है. इसके अलावा ॐ में बिन्द्दु भी लगा होता है जो शून्यावस्था का  द्योतक है.
ॐ शब्द परम ज्ञान जिसे परमात्मा कहते हैं के वास्तविक स्वरुप और विशेषताओं को पूर्ण रूप से स्पष्ट करता है इसलिए यह परमात्मा का वास्तविक नाम है. इसी कारण हिन्दू बच्चे का संस्कार करते समय गायत्री मंत्र  के साथ ॐ की दीक्षा देते हैं. वास्तव में ॐ ही गायत्री है. श्री भगवन भगवद गीता  में  कहते हैं -ओम इति एकाक्षरं ब्रह्म. ओम ही ब्रह्म है और इसे व्यवहार में स्वीकारते हुए सदा परमात्मा का चिंतन करना चाहिए. यही ओँकार  आप हैं.
यही सृष्टि का सूक्ष्म से सूक्ष्म कण और विराट से विराट कह रहा है मैं हूँ। 

Wednesday, January 23, 2013

तेरी गीता मेरी गीता -12- बसंत



प्रश्न -क्या विशुद्ध ज्ञान और आत्मा एक ही हैं?

उत्तर -आप आत्मा को समझिये. आत्मा का अर्थ है स्वयं अथवा आप. इसलिए आत्मज्ञान स्वयं का ज्ञान है. इसे आप शुद्ध मैं कह सकते हैं. शुद्ध मैं आप की वास्तविकता है. आप जिस मैं का सदा प्रयोग करते हैं, जिस नाम से जाने जाते हैं वह समयबद्ध है. केवल आपके इस शरीर तक ही सीमित है. आपका मैं संसार से बद्ध है,

आप ज्ञान और अज्ञान के पुंज हैं. आप का ज्ञान अज्ञान के कई आवरणों से ढका हुआ है. इसे अधिक  गहराई  से समझने  के लिए पत्थर, बीज, पेड़, पशु और मनुष्य को देखें. इन पाँचों स्थिति मैं अज्ञान और ज्ञान है पर उतरोत्तर विकासक्रम मैं ज्ञान बढ़ता गया है और अज्ञान कम होता गया है. अज्ञान जड़त्व अथवा पदार्थ का कारण है और ज्ञान चेतना का कारण है. इस विषय में यह भी जानना महत्वपूर्ण है कि अज्ञान, ज्ञान का ही रूपान्तरित स्वरुप है अतः यह स्थाई नहीं है.

आप अथवा आपकी आत्मा जो है उसका वास्तविक स्वरुप शुद्ध और पूर्ण ज्ञान है. इसे ऐसे भी जान सकते हैं  कि बिना हलचल हुए  मन में जो आपका अपना बोध है वह आत्मा है. जब उस शुद्ध बोध को  सृष्टि के कण कण में भासित देखता है तो वह विराट होकर परमात्मा के दर्शन करता है. आपकी अस्मिता ही विराट हो जाती है. यह निश्चय पूर्वक जान लीजिये कि विशुद्ध ज्ञान ही आप सभी का कारण है. इसे ही आत्मा  कहा जाता है.

अज्ञान अथवा जड़त्व जितना कम होता जाता है उतनी दिव्यता आती जाती है. अज्ञान का पूर्ण रूप से नष्ट होना पूर्णता है.

तेरी गीता मेरी गीता -11- बसंत



प्रश्न - क्या ज्ञान प्राप्ति के लिए गुरु आवश्यक हैं.

उत्तर- सबसे पहले गुरु को समझना आवश्यक है. गुरु शब्द का अर्थ है भारी अर्थात जो सृष्टि और सृष्टि से परे  सबसे भारी हो. जिससे विशिष्ट अन्य कुछ  न हो. ऐसा तत्त्व केवल परमात्मा अथवा आत्मा है और वह आत्म रूप में तुम्हारे अन्दर है. यदि तुम अपनी आत्मा की आवाज सुनते हो तो वही तुम्हारा परम गुरु है.

श्री भगवान् भगवद्गीता में कहते हैं -
उपदृष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेस्मिन पुरुषः परः ..२२-१३..

इस देह में स्थिति आत्मा (पुरुष) ही परमात्मा है। वह साक्षी होने के कारण उपदृष्टा, यथार्थ सम्मति देने के कारण अनुमन्ता, सबका पालन पोषण करने वाला, सभी कुछ भोगने वाला, सबका स्वामी और परमात्मा है। प्रकृति के विलक्षण प्रभाव के बाद भी पुरुष (आत्मतत्व) सदा स्थित रहता है। उसी के प्रभाव से प्रकृति का जन्म होता है और उस प्रकृति का विलक्षण प्रभाव यह है कि वह उस पुरुष को भ्रम में डाल देती है। फिर भी उसकी सत्ता देह में सदा स्थित रहती है और वह साक्षी, अनुमन्ता, भोक्ता, महेश्वर रूप से सदा स्थित रहता है।
स्पष्ट है कि आत्मा अनुमन्ता और उपदृष्टा है. अनुमन्ता  का अर्थ है यथार्थ सम्मति देने वाला.जो यथार्थ सम्मति दे वह गुरु है. उपदृष्टा  का अर्थ है साक्षी. जो तुम्हारा साक्षी हो वह ही तुम्हारा सर्व समर्थ  गुरु हो सकता है.
इससे  यह भी स्पष्ट हो जाता है कि  आप की आत्मा से अन्य दूसरा जिसने परमात्मा को पा लिया हो जो पूर्ण ज्ञानमय हो, जो तुम्हारा साक्षी हो वही तुम्हारा गुरु हो सकता है और ऐसा गुरु ही यथार्थ सम्मति दे सकता है.इसलिए उसी गुरु को स्वीकार करना चाहिए जो तुम्हरे बारे में वह सब जानता हो जिसको संसार में दूसरा कोई नहीं जानता. गुरु को ठोक बजाकर स्वीकार करना आवश्यक है तभी श्रद्धा और पूर्ण विश्वास हो सकता  है जो आत्मज्ञान के लिए आवश्यक है.

Monday, January 21, 2013

तेरी गीता मेरी गीता -10-बसंत



प्रश्न - बुद्धि के सूक्ष्म होने पर क्या होगा?
उत्तर- बुद्धि जितनी सूक्षम होती जायेगी उसी मात्रा में प्रकृति नष्ट होती जायेगी और बुद्धि के पूर्ण रूप से से निश्चयात्मक होने, दूसरे शब्दों में एक होने पर तुम्हारा काम समाप्त हो जाता है.
अब प्रकृति के स्थिर होते ही परमात्मा जो पूर्ण शुद्ध ज्ञान हैं वह तुम्हारे अन्दर अवतरित होते हैं.इसे परमात्मा का अवतरण कहा गया है. यही पूर्ण बोध है.
प्रकृति स्थिर होते ही स्वाभाविक समाधि लग जाती है. यहाँ यह बात भी महत्वपूर्ण है कि जितनी मात्रा  में प्रकृति स्थिर होती जाती है उतनी मात्रा में साधक बोध को प्राप्त होता जाता है. पूर्णावस्था कोई विरला ही प्राप्त करता है.
प्रश्न - पूर्णावस्था प्राप्त कर क्या उपलब्धि होती है.
उत्तर- पूर्णावस्था प्राप्त कर मनुष्य जन्म और मृत्यु पर विजय प्राप्त कर लेता है. वह अपनी इच्छा से जन्म लेता है और अपनी इच्छा से शरीर छोड़ता  है.वह जब तक चाहे अपने धारण किये शरीर में रह सकता है. उसे रोग, शोक, बुढ़ापा व्याप्त नहीं होता. उसकी मर्जी से उसकी आयु वृद्धि होती है.सभी जड़ चेतन पर उसका अधिकार हो जाता है. सम्पूर्ण दिव्यता उसके अन्दर आ जाती हैं. वह जड़ को चेतन और चेतन को जड़ कर सकता है. वह सम्पूर्ण सृष्टि का नियंता हो जाता है.वह देखता है की सम्पूर्ण सृष्टि उससे ही निकल रही है और उसी में समा रही है.सब ज्ञान विज्ञान उसमें समाहित होते हैं. वह अणु से भी सूक्ष्म और ब्रह्माण्ड से भी विराट हो सकता है. श्री राम और श्री कृष्ण ऐसे ही अवतारी पुरुष थे. आज एक  रहस्य यह भी जान लें की जो मनुष्य ज्ञान यात्रा के  विकास की 50% यात्रा पूरी कर लेता है वह भी अनेक दिव्यताओं का स्वामी हो जाता है पर उसकी सीमा उसके दिव्य ज्ञान के आधार पर निश्चित हैं.

तेरी गीता मेरी गीता -9-बसंत



प्रश्न - बुद्धि को सूक्ष्म किस प्रकार किया जा सकता है?
उत्तर -  विचारों की गति( frequency) को कम करके बुद्धि को सूक्ष्म किया जा सकता है.
प्रश्न- कृपया विचारों की गति (frequency) को कम करने का सरलतम उपाय बताएं.
उत्तर -  नाक के अगले हिस्से को लगातार देखते रहें. श्वास में ॐ को प्रवाहित करें.
दिन में नीले आकाश को एक टक देखते रहें. यदि आपका निवास  एकांत में बड़ी नदी के समीप हो तो नदी की धारा को एक टक निहारें. एकांत में टहलते हुए अपने कदमों को निहारें.
अकेले एकांत बंद कमरे में  आँख खोलकर एक घंटा शांत बैठे रहें. इस समय कोई कार्य न करें. एकांत से घबड़ाये नहीं. एकांत परमात्मा का दिया महान वरदान है.
आँख बंद कर ध्यान कदापि न करें. आँख बंद करते ही विचारों की बाड़ आ जाएगी. आँख बंद कर ध्यान बुद्धि की गति कम होने पर करना चाहिए.

Sunday, January 20, 2013

तेरी गीता मेरी गीता -8- बसंत



प्रश्न - क्या पूर्ण ज्ञान बिना किसी प्रयास के स्वाभाविक विकास क्रम में प्राप्त किया जा सकता है.
उत्तर- हाँ  पूर्ण ज्ञान बिना किसी प्रयास के स्वाभाविक विकास क्रम में प्राप्त किया जा सकता है परन्तु इसमें उतना ही समय लग जाएगा जितनी  ब्रह्मांडीय सृष्टि की आयु होगी. इसे स्पष्ट समझने के लिए सृष्टि की संरचना को समझना होगा. सम्पूर्ण सृष्टि जड़ और चेतन से बनी है.दोनों तत्त्व एक दूसरे के विरोधी हैं और प्रत्येक परमाणु को अपनी अपनी ओर खींचते हैं. जड़ परमाणु चेतन की ओर खिंचता है और चेतन जड़ की ओर   खिंचता है. इसमें एक बात महत्वपूर्ण और जानने योग्य है कि जड़ और चेतन का मूल श्रोत ज्ञान है जो चैतन्य है. इसलिए अंत में हम सबको चैतन्य ही होना है. चूंकि ज्ञान मूल है इसलिए अपने को बराबर जड़ चेतन में बाँट कर भी वह परिणाम में वह सदा शुद्ध व पूर्ण रूप से बना रहता है. इस सूत्र के अनुसार जड़ को चेतन्य में विलीन होना ही है.यही आदि अवस्था है.
इसलिए सृष्टि के अंत का इन्तजार न करके अपनी बुद्धि के प्रभाव  को समझते हुए अभ्यास और वैराग्य से बुद्धि को सूक्ष्म कर पूर्ण ज्ञान जिसे बोध कहा जाता है प्राप्त करना चाहिए.

प्रश्न-हमारा मन इतना चंचल है कि यह हमें सदा भटकाता है, भ्रम में डाले रखता है, क्या इस मन को रोका जा सकता है.
उत्तर- हाँ मन को  रोका जा सकता है परन्तु इसका 100 % अवरोध पूर्ण ज्ञान होने पर ही होता है. इसलिए इसके भटकने से अथवा संशयात्मक होने से घबडाए नहीं. मन को परमात्मा ने भटकने और भटकाने के लिए ही बनाया है. आप अपना काम कीजिये इसे भटकने दीजिये. जो कोई आपसे कहता हे कि उसने परमात्मा के साक्षात्कार से पहले मन पर पूर्ण विजय पाली है वह मिथ्याचारी है. क्योंकि वासना इतनी प्रबल है वह हठ पूर्वक रोकी गयी इन्द्रियों और मन को एक झटके मैं बहा ले जाती है.
प्रश्न- हमारा काम क्या है.
उत्तर -अपनी बुद्धि को सूक्ष्म करना .इसके लिए साक्षी भाव से अपने कार्यों को देखना,परमात्मा का चिंतन करना,श्वास में  निरंतर ॐ को प्रवाहित करना आदि जो शास्त्रानुकूल हो और तत्व ज्ञानियों द्वारा निर्देशित हो.

Thursday, January 10, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - 7 - बसंत



प्रश्न - क्या ज्ञान सर्वोत्तम है?
उत्तर - हाँ ज्ञान सर्वोत्तम है, परम पवित्र है. पवित्र को भी पवित्र करने वाला है. सबसे बड़ा है, सर्व श्रेष्ठ है.
प्रश्न - क्या ज्ञान परमात्मा से भी बड़ा है?
उत्तर - परम पूर्ण विशुद्ध ज्ञान ही परमात्मा है. हिन्दू दर्शन परमात्मा  को न मानने वाले को नास्तिक नहीं मानता है वह कहता है,  'वेद निंदक नास्तिकः'. यहाँ वेद का अर्थ चार वेदों से नहीं है. वेद का अर्थ है ज्ञान. वेद का अर्थ है जानना. जिस ज्ञान के द्वारा परम सत्य को जाना जाया वह ज्ञान है उसे ही वेद कहा है.
आप स्वयं चिंतन करें की ब्रह्म बड़ा है या वह जिसके द्वारा ब्रह्म को जाना जाता है. श्री भगवान् भग्वदगीता के चोथे अध्याय में कहते हैं
न हि ज्ञानेन सद्रिशम पवित्रं इह विद्यते.
ज्ञान स्वयं परमात्मा का स्वरुप है.
प्रश्न - हम जो सीखते हैं पड़ते हैं वह क्या है?
उत्तर - ज्ञान अज्ञान का मिला जुला रूप है जो निरंतर व परिस्थिति वश बदलने वाला है.जिसमें अज्ञान की मात्र अधिक अथवा बहुत अधिक होती है.ज्ञान का आभास मात्र होता है. अज्ञान के कारण सदा संशय बना रहता है.

BHAGAVAD-GITA FOR KIDS

    Bhagavad Gita   1.    The Bhagavad Gita is an ancient Hindu scripture that is over 5,000 years old. 2.    It is a dialogue between Lord ...