प्रश्न - श्रीमद भगवदगीता और हिन्दू दर्शन में उत्तरायण में मृत्यु होना शुभ माना जाता है और दक्षिणायन में अशुभ. ऐसा क्यों? यह उत्तरायण और दक्षिणायन क्या हैं?
उत्तर - श्रीमदभगवदगीता के आठवें अध्याय में उत्तरायण और दक्षिणायन की चर्चा हुई है. इसी प्रकार महाभारत में वृत्तांत है कि भीष्म पितामह ने देह त्याग के लिए छः माह उत्तरायण की प्रतीक्षा की. मकर संक्रांति से लेकर कर्क संक्रांति १४- १५ जनवरीसे १३ जुलाई के बीच के छः मास के समयान्तराल को उत्तरायण कहते हैं। इसके विपरीत कर्क संक्रांति से लेकर मकर संक्रांति के बीच के छः मास के काल को दक्षिणायन कहते हैं। उत्तरायण में पृथ्वी के उत्तरी गोलार्ध में दिन बड़े होते हैं, इस समय सार्वाधिक सूर्य प्रकाश उत्तरी गोलार्ध को प्राप्त होता है.
आपसे कई बार चर्चा हुई है कि दर्शन में प्रकाश शब्द ज्ञान के लिए आया है और अन्धकार अज्ञान के लिए प्रयुक्त हुआ है.उत्तरी गोलार्ध के छः मास के दिन सर्वाधिक प्रकाश के हैं इसलिए दर्शन में उत्तरायण शब्द परम ज्ञान के लिए प्रयुक्त हुआ है. उत्तरायण, दक्षिणायन की तरह शुक्ल और कृष्ण पक्ष के प्रकाश की तुलना ज्ञान और अज्ञान की भिन्न भिन्न अवस्थाओं से की है. इसी प्रकार आदित्य (सूर्य ) शब्द जगह जगह ज्ञान के लिए आया है. श्री भगववान कहते है आदित्यों में मैं विष्णु हूँ. इसका अर्थ है अदिति के सभी ज्ञानी पुत्रों में मैं परम पूर्ण विशुद्ध ज्ञानी विष्णु हूँ जो कण कण में व्याप्त है. इस उत्तरायण, दक्षिणायन को समझाते हुए भगवदगीता में श्री भगवान् अर्जुन से कहते हैं.
अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम् ।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ।24-8।
जो योगी ज्योति, अग्नि, दिन, शुक्ल पक्ष, उत्तरायण, के छह माह में देह त्यागते हैं अर्थात जिन पुरूषों और योगियों में आत्म ज्ञान का प्रकाश हो जाता है, वह ज्ञान के प्रकाश से ज्योर्तिमय, अग्निमय, शुक्ल पक्ष की चांदनी के समान प्रकाशमय और उत्तरायण के छह माहों के समान परम प्रकाशमय हो जाते हैं अर्थात जिन्हें आत्मज्ञान हो जाता है (उनके ज्ञान की तुलना प्रकाश की मात्रा से की है)। ऐसे आत्मवान विश्वात्मा परमात्मा हुए पुरुष, अव्यक्त हो जाते हैं। स्वयं परम ब्रह्म हो जाते हैं।यहाँ बोध की भिन्न भिन्न मात्रा को प्रकाश की भिन्न भिन्न की मात्रा से बताया गया है साथ ही यह भी बताया है कि बोध प्राप्त योगियों की स्थिति भी प्रकाश की मात्रा की तरह भिन्न भिन्न होती है.
धूमो रात्रिस्तथा कृष्ण षण्मासा दक्षिणायनम् ।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते ।25-8।
धुंआ, रात्रि, कृष्ण पक्ष एवं दक्षिणायन के छह माहों में जो देह त्यागते हैं, वह चन्द्रमा की ज्योति को प्राप्त करके पुनः लौटते हैं अर्थात जिन पुरुषों व योगियों को आत्म ज्ञान नहीं होता उनके अन्दर अज्ञान की स्थिति धुएं, रात्रि, कृष्ण पक्ष एवं दक्षिणायन के छःमाह जैसी तमस युक्त (अज्ञान मय) होती है। वह तमस के कारण अन्ध लोकों अर्थात अज्ञान में भटकते रहते हैं, कालान्तर में उनके सतकर्मों के कारण जो उन्हें चन्द्र ज्योति अर्थात ज्ञान का प्रकाश मिलता है उसके परिणाम स्वरूप इस संसार में पुनः जन्म लेते हैं।यहाँ अज्ञान की भिन्न भिन्न मात्रा को अन्धकार की भिन्न भिन्न की मात्रा से बताया गया है साथ ही यह भी बताया है जिन पुरुषों व योगियों को आत्म ज्ञान नहीं होता उनमें अज्ञान की स्थिति अन्धकार की मात्रा की तरह भिन्न भिन्न होती है तदनुसार लौट कर उन्हें कर्म फल भोगने पड़ते हैं.
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शुक्ल कृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते ।
एकया यात्यनावृत्ति मन्ययावर्तते पुनः ।26-8।
इस जगत में दो प्रकार के मार्ग हैं 1 - शुक्ल मार्ग अर्थात ज्ञान मार्ग जहाँ ज्ञानी देह छोड़ने से पहले आत्म स्थित हो जाता है।
2 - कृष्ण मार्ग जहाँ सकामी योगी व पुरुष शुभ और अशुभ कर्मों के कारण अज्ञान के मार्ग में जाता है तथा ज्ञान का अंश प्राप्त होने पर कर्मानुसार पुनः इस संसार में जन्म लेता है।
प्रश्न -फिर भीष्म पितामह ने देह त्याग के लिए छः माह उत्तरायण की प्रतीक्षा क्यों की.
उत्तर- युद्ध में घायल होकर निरंतर एकांत में बोध को प्राप्त करने की चेष्टा की और सफल हुए. तप का कठिन व्रत ही उनकी शर शय्या था. यही उनका उत्तरायण में देह त्याग था.
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