प्रश्न - क्या ज्ञान प्राप्ति के लिए गुरु आवश्यक हैं.
उत्तर- सबसे पहले गुरु को समझना आवश्यक है. गुरु शब्द का अर्थ है भारी अर्थात जो सृष्टि और सृष्टि से परे सबसे भारी हो. जिससे विशिष्ट अन्य कुछ न हो. ऐसा तत्त्व केवल परमात्मा अथवा आत्मा है और वह आत्म रूप में तुम्हारे अन्दर है. यदि तुम अपनी आत्मा की आवाज सुनते हो तो वही तुम्हारा परम गुरु है.
श्री भगवान् भगवद्गीता में कहते हैं -
उपदृष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेस्मिन पुरुषः परः ..२२-१३..
इस देह में स्थिति आत्मा (पुरुष) ही परमात्मा है। वह साक्षी होने के कारण उपदृष्टा, यथार्थ सम्मति देने के कारण अनुमन्ता, सबका पालन पोषण करने वाला, सभी कुछ भोगने वाला, सबका स्वामी और परमात्मा है। प्रकृति के विलक्षण प्रभाव के बाद भी पुरुष (आत्मतत्व) सदा स्थित रहता है। उसी के प्रभाव से प्रकृति का जन्म होता है और उस प्रकृति का विलक्षण प्रभाव यह है कि वह उस पुरुष को भ्रम में डाल देती है। फिर भी उसकी सत्ता देह में सदा स्थित रहती है और वह साक्षी, अनुमन्ता, भोक्ता, महेश्वर रूप से सदा स्थित रहता है।
स्पष्ट है कि आत्मा अनुमन्ता और उपदृष्टा है. अनुमन्ता का अर्थ है यथार्थ सम्मति देने वाला.जो यथार्थ सम्मति दे वह गुरु है. उपदृष्टा का अर्थ है साक्षी. जो तुम्हारा साक्षी हो वह ही तुम्हारा सर्व समर्थ गुरु हो सकता है.
इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि आप की आत्मा से अन्य दूसरा जिसने परमात्मा को पा लिया हो जो पूर्ण ज्ञानमय हो, जो तुम्हारा साक्षी हो वही तुम्हारा गुरु हो सकता है और ऐसा गुरु ही यथार्थ सम्मति दे सकता है.इसलिए उसी गुरु को स्वीकार करना चाहिए जो तुम्हरे बारे में वह सब जानता हो जिसको संसार में दूसरा कोई नहीं जानता. गुरु को ठोक बजाकर स्वीकार करना आवश्यक है तभी श्रद्धा और पूर्ण विश्वास हो सकता है जो आत्मज्ञान के लिए आवश्यक है.
No comments:
Post a Comment