As the all-pervasive being, I am the manifestation of
all Gods and Goddesses and merely manifestations of my true self. Those who
worship these deities are ignorant, for they fail to recognize their true self
and instead wander in the pursuit of worldly desires. However, those who are
devoted to the soul renounce these self-centred desires and remain focused on
being centred on the self. If they encounter any deficiencies in their
spiritual practice, I, as the divine, complete them with my pure essence. I am
the ultimate destination for all beings after death, where all expressed and
latent natures merge and regenerate. This entire creation is an extension of
the formless Brahman, transcending the virtues of the divine. The world has
arisen from the Supreme God and the unspoken divine spirit pervades everything,
much like water permeating through the ice. While ghosts, beings, and matter
are situated based on divine resolve, the Supreme Spirit is beyond their grasp
and remains unattainable to them.
श्रीभगवानुवाच
इदं तु
ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे ।
ज्ञानं विज्ञानसहितं
यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ।1।
idam tu te
guhyatamam pravakshyaamanasooyave .
gyaanan vigyaanasahitam
yajgyaatva mokshyaseshubhaat .1.
Bhagavan said, O, Arjuna! Your
disciple spirit is very praiseworthy, and your devotion to me is without false
vision. I tell you the most secret knowledge of yoga with science with all
fundamental elements, knowing that you will gain your self-truth and be
liberated from the bondage of Maya. You will have your destiny, knowing that,
you will not get grief ever in any situation of life.1.
परम गुहय विज्ञान मय, ज्ञान
जान निर्दोष।
जान जिसे तू मुक्त हो, दुख रूपी संसार।।1।।
श्री भगवान बोले- हे अर्जुन! तेरा शिष्य भाव अति
प्रशंसनीय है, तेरी मुझमें दोष दृष्टि
रहित भक्ति है, इसलिए मैं अत्यन्त
गोपनीय ज्ञान योग को विज्ञान सहित उसके प्रत्येक तत्व के साथ तुझे बताता हूँ जिसे
जानकर तू आत्म ज्ञान को प्राप्त होकर माया के बन्धन से मुक्त हो जायेगा, तू स्वयं अपना नियन्ता हो जायेगा तत्पश्चात तुझे कोई
दुःख, कभी और किसी स्थिति में
व्याप्त नहीं होगा।
राजविद्या राजगुह्यं
पवित्रमिदमुत्तमम् ।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं
कर्तुमव्ययम् ।2।
raajavidya raajaguhyam
pavitramidamuttamam .
pratyakshaavagaman dharmyan
susukhan kartumavyayam .2.
I am going to tell you this
jnana yoga with all the elements is very secretive and pure. It transforms
ignorance into knowledge through its holiness. That is excellent and the way to
achieve the ultimate truth. It has a direct result, and you can realize its
result. Because of its inherent nature, it is easiest to practice and
indestructible being a part of that Divine. I must reveal to you, Arjuna, this Jnana Yoga
with all its elements is extremely pure and secretive. It has the power to
transform ignorance into knowledge through its holiness, and it is the ultimate
way to achieve truth. This practice has a direct result that can be realized,
and due to its inherent nature, it is the easiest path to undertake. As a part
of the divine, it is indestructible and will lead you to the ultimate truth.
2.
नाश रहित उत्तम पवित्र, साध्य
सुगम यह ज्ञान।
धर्म युक्त प्रत्यक्ष फल, राज ज्ञान अतिगुहय।।2।।
यह ज्ञान योग जिसे मैं तुझे सम्पूर्ण तत्वों के साथ
बताने जा रहा हूँ यह अत्यन्त गोपनीय है, अत्यन्त पवित्र है। यह अपनी पवित्रता से अज्ञान को भी ज्ञान में
बदल देता है। यह अति उत्तम है क्योंकि इसी के माध्यम से सर्वोंत्तम स्थिति प्राप्त
होती है। यह प्रत्यक्ष फल देने वाला है। इसके परिणाम को तू स्वयं अनुभूत करेगा।
धर्म युक्त अर्थात आत्म स्वभाव का होने के कारण साधन करने में बड़ा सुगम है और यह
ज्ञान परमात्मा का स्वरूप होने के कारण अविनाशी है।
अश्रद्दधानाः पुरुषा
धर्मस्यास्य परन्तप ।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते
मृत्युसंसारवर्त्मनि ।3।
ashraddhadhaanaah purush
dharmasyaasy parantap.
apraapy maan nivartante
mrtyusansaaravartmani .3.
O Arjuna, you must understand that those who
lack reverence for self-realization and knowledge of the self are going against
their inherent nature. Such individuals will never realize the ultimate truth
and will continue to be born and die, trapped by their karmic bonds and
desires, perpetually undergoing the cycle of birth and rebirth.3.
जो नर श्रद्धाहीन है, हे अर्जुन इस धर्म।
मैं अप्राप्त विचरें सदा, जन्म मृत्यु संसार।।3।।
हे अर्जुन! तू यह जान ले जिन्हें आत्मतत्व में, आत्म ज्ञान में श्रद्धा नहीं है वह पुरुष अपने स्वभाव
के विपरीत चलते हुए मुझको न प्राप्त होकर विषय वासना एंव कर्मफलों के कारण इस
मृत्यु संसार में जन्म लेते हैं, मरते हैं और पुनः जन्म लेते हैं।
मया ततमिदं सर्वं
जगदव्यक्तमूर्तिना ।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं
तेषवस्थितः ।4।
maya tatamidam sarvam jagadavyaktamoortina
.
matsthaani sarvabhootaani na
chaahan teshavaspotah .4.
Sri Bhagavan eloquently teaches us, dear Arjuna, that
the very essence of this entire creation is an expansion of the formless divine
truth. This magnificent world we inhabit has emerged from that majestic Truth,
and its every aspect has been imbued with the ineffable divine spirit that
permeates it like water in ice. All ethereal beings, animate creatures, and
inanimate matter exists within that divine matrix, guided by the cosmic will.
However, it is crucial to remember that the Supreme Truth is not bound by them
but rather encompasses them all.4.
जगत समाया अव्यक्त में, स्थित
मम सब भूत।
अचरज यह तू जान ले, नहिं स्थित मैं भूत।।4।।
श्री भगवान कहते हैं हे अर्जुन! यह सम्पूर्ण सृष्टि
निराकार निर्गुण परमात्मा का साकार विस्तार है। यह जगत निर्गुण परमात्मा से विकसित
हुआ है। इस सृष्टि को सर्वत्र अव्यक्त परमात्मा ने परिपूर्ण किया है, वह सृष्टि में बर्फ में जल के समान व्याप्त है। सभी भूत
(प्राणी और पदार्थ) परमात्मा के संकल्प के आधार पर ही उनमें स्थित हैं परन्तु
परमात्मा उनमें स्थित नहीं है।
न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे
योगमैश्वरम् ।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा
भूतभावनः ।5।
na ch matsthaani bhootaani
pashy me yogamaishvaram.
bhootabhrnn ch bhootastho
mamaatma bhootabhaavanah .5.
Here, Lord Sri Krishna Chandra imparts a profound
understanding to us that may seem contradictory at first but is indeed true. He
explains that while all ghosts (matter) are an extension of the divine, they
are not all placed within it. The entire creation originates from the divine
and merges back into it. The divine and the universe are like the moon and its
light, or the sun and its brilliance - they are essentially the same. The
divine is the source of all creation, and nothing exists beyond it.
However, the divine is beyond the five elements and
is a non-doer, even though it is the ultimate doer. It is separate from all
ghosts and nature, and cannot be known by the body, mind, intellect, or ego.
The immortal nature of the soul is not retained in any ghost. The living
self and the divine self are both one and different at the same time.
Going deeper into the subject, Lord Krishna explains that even though the
living self creates and holds the ghosts with the help of divine yoga power, it
is not placed in them. Despite being the doer of the body, the individual soul
is beyond the five ghosts. One can come to realize that when ignorance and duality
are destroyed, only Brahman exists.
In essence, Lord Sri Krishna is teaching us that the
divine is the ultimate reality that permeates everything, but it transcends all
creation and is beyond our comprehension. It is only by shedding our ignorance and delusion that we can
realize the true nature of the divine and the unity of all things.5.
भूत न स्थित मोहि में, देख योग ऐश्वर्य।
भूत भावन मम आत्मा, नहिं स्थित हैं भूत।।5।।
यहाँ भगवान श्री कृष्ण चन्द्र कह रहे हैं सब भूत
(पदार्थ) मुझ परमात्मा में स्थित नहीं हैं और इससे पहले कह चुके हैं कि सब भूत
मुझमें स्थित हैं। परस्पर विरोधी कथन है फिर भी दोनों बातें सत्य हैं। सब भूत
मुझमें स्थित हैं अर्थात परमात्मा का ही विस्तार सब भूत हैं। सम्पूर्ण सृष्टि
परमात्मा से उत्पन्न होकर परमात्मा में ही लीन हो जाती है। जैसे चन्द्रमा और
चाँदनी, सूर्य और उसकी प्रभा एक
ही हैं इसी प्रकार परमात्मा और भूत (जगत) एक ही हैं। सभी सृष्टियां परमात्मा में
ही कल्पित है। सब भूत मुझमें स्थित नहीं हैं अर्थात आत्मा,
पंच महाभूतों से परे है। परमात्मा कर्ता होते हुए भी
अक्रिय हैं, अक्रिय होने के कारण वह
सभी भूतों और प्रकृति से अलग है। जब सब कुछ एक ही है ‘एकोहम् द्वितीयो नास्ति’ तो फिर कौन किसमें स्थित है,
कौन किसमें नहीं है। शरीर,
मन, बुद्धि, अहंकार द्वारा परमात्मा को नहीं जाना जा सकता कोई भी भूत आत्मा के
अविकारी और अमर स्वरूप को नहीं रखता है। जीव तत्व और परमात्म तत्व एक होते भी अलग
अलग हैं। इस विषय को और अधिक गहराई से बताते हुए कहते हैं;
मेरी ईश्वरीय योग शक्ति के प्रभाव को देख, भूतों का धारण करने वाला और भूतों को उत्पन्न करने वाला
जीवात्मा (परा प्रकृति) भी भूतों में स्थित नहीं है। जीवात्मा भी शरीर में कर्ता
भोक्ता होते हुए भी भूतों में स्थित नहीं है। जीव तत्व पंच भूतों से परे है। इसे
इस प्रकार भी जान सकते हैं कि अज्ञान है तो जगत है,
अज्ञान नष्ट हो गया तो द्वैत नष्ट हो जाता है केवल
ब्रह्म ही रहता है।
यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः
सर्वत्रगो महान् ।
तथा सर्वाणि भूतानि
मत्स्थानीत्युपधारय ।6।
yathaakaashasthito nityan
vaayuh sarvatrago mahaan .
tatha sarvaani bhootaani
matsthaaneetyupadhaaray .6.
Just as the ethereal air wanders endlessly throughout
the boundless expanse of the sky, so do all spectres find their abode within
me. And just as the undulating movement of the air creates various sensations
in the sky above, so too does the vast cosmos rest within the divine essence of
Brahman, whose tangible manifestation is perceivable through our daily experiences.6.
सर्वत्र विचरता
वायु ज्यों, है स्थित आकाश।
वैसे ही सब भूत हैं, मम स्थित तू जान।।6।।
जिस प्रकार सर्वत्र विचरने वाला वायु आकाश में ही रहता
है, उसी प्रकार सभी भूत
मुझमें स्थित हैं। वायु जब डोलता है तब आकाश में अलग आभास होता है, इसी प्रकार जगत ब्रह्म में स्थित है, व्यवहार में ही जगत दिखायी देता है।
सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं
यान्ति मामिकाम् ।
कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ
विसृजाम्यहम् ।7।
sarvabhootaani kauntey
prakrtin yaanti maamikaam .
kalpakshaye punastaani
kalpaadau visrjaamyaham .7.
Oh, Arjuna! During the great dissolution of the
universe, all beings, including the ghosts, are absorbed into my latent nature.
And it is from this same latent nature that they are once again reborn at the
dawn of creation.7.
सकल भूत कल्पान्त में, लीन
प्रकृति मम जान।
कल्प आदि में पुन:, मैं रचता हे पार्थ।।7।।
हे अर्जुन! कल्पान्त (महाप्रलय) में सब भूत मेरी
अव्यक्त प्रकृति में लीन होते हैं कल्प के आदि (प्रारम्भ) में उस अव्यक्त प्रकृति
से पुन: उनकी रचना होती है।
प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि
पुनः पुनः ।
भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं
प्रकृतेर्वशात् ।8।
prakrtin svaamavashtabhy
visrjaami punah punah .
bhootagraamamiman
krtsnamavashan prakrtervashaat .8.
As the divine spirit takes on the manifested forms
through his latent nature, the world begins to take on diverse shapes and
forms. The very act of creation causes beings to arise, expand and evolve. Even
though I am a non-doer and have no direct relationship with them, the realm of
ghosts is also repeatedly brought into existence as part of this ongoing cosmic
cycle.8.
भूत प्रकृति बल अवश हो, रचता बारम्बार।
मैं निज प्रकृति स्वीकार कर, भूत रचे संसार।।8।।
परमात्मा जब व्यक्त प्रकृति को अपनी अव्यक्त (परा)
प्रकृति द्वारा स्वीकार करते हैं तब सृष्टि भिन्न भिन्न आकार ग्रहण करने लगती हैं।
प्राणी मात्र का विस्तार होने लगता है और भूत समुदाय बार बार मेरे द्वारा अक्रिय
तथा कोई सम्बन्ध न रखने पर भी रचा जाता है।
न च मां तानि कर्माणि
निबध्नन्ति धनञ्जय।
उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु
।9।
na ch maan taani karmaani
nibadhnanti dhananjay.
udaaseenavaadaseenamasaktan teshu karmasu .9.
Likewise, as the divine spirit, I am also the source
of karma, as it arises from my mere presence and influence. However, I am not
bound by the actions resulting from karma, for they have no direct relationship
to me, and I remain detached and indifferent to their outcomes. The processes
of creation, destruction and all other actions are a harmonious blend of my
transcendent and non-transcendent nature and I remain ever-neutral in their
unfolding. One may understand that the power of knowledge and the power of
creation is the very foundation of the entire universe, and the divine spirit
remains ever-inert and impartial in its infinite wisdom.9.
कर्म करूं निष्काम मैं, उदासीन
मोहि जान।
पार्थ कर्म बांधे नहीं, यही कर्म का ज्ञान।।9।।
इसी प्रकार कर्मों की उत्पत्ति का कारण भी मैं
(परमात्मा) हूँ क्योंकि मेरे (परमात्मा के) विक्षोभ के कारण ही कर्म उदय होते हैं।
परन्तु उन कर्मों से न मेरा कोई सम्बन्ध है,
उन कर्मों से सम्बन्ध न होने के कारण वे कर्म मुझे नहीं
बांधते हैं क्योंकि उनमें मेरी कोई आसक्ति नहीं है। उनके प्रति मैं सदा उदासीन
हूँ। उत्पत्ति, लय, स्थिति, सभी कर्म मेरी परा प्रकृति व अपरा प्रकृति के संयोग का खेल है। मैं
तटस्थ रहता हू, इसे इस प्रकार भी जाना
जा सकता है कि परमात्मा की ज्ञान शक्ति व किय्रा शक्ति ही समस्त जगत का कारण है।
परमात्मा सदा अक्रिय व तटस्थ है।
मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते
सचराचरं ।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ।10
mayadhykshen prakrtih sooyate
sacharaacharan .
hetunanen kauntey
jagadviparivartate .10.
Oh, Arjuna! Under my supreme authority, nature
creates and sustains all the myriad manifestations in the universe. It is the
transcendent and non-transcendent nature of God that serves as the very source
and foundation of all beings and substances within creation. A deeper
understanding of this truth reveals that Jnana and action are responsible for
the existence and evolution of all things. It is this eternal interplay between
Jnana and action that drives the perpetual cycle of movement and change that
animates the universe.10.
मैं अध्यक्ष साकाश मम, प्रकृति रचा संसार।
इसी हेतु इस चक्र में, घूमे जीव सजीव।।10।।
हे अर्जुन! मेरी अध्यक्षता में प्रकृति सभी चर अचर की
रचना करती है। सभी प्राणी सृष्टि के पदार्थों का कारण,
परमात्मा की परा और अपरा प्रकृति का परिणाम हैं। यही और
भी गहराई से जाने तो ज्ञान शक्ति और क्रिया शक्ति ही सबके लिए उत्तरदायी है। इस
कारण ही समस्त जगत का आवागमन चक्र निरन्तर चल रहा है।
अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं
तनुमाश्रितम्।
परं भावमजानन्तो मम
भूतमहेश्वरम् ।11।
avajaananti maan moodha
maanusheem tanumaashritam.
param bhaavamajaananto mam
bhootamaheshvaram .11.
Unaware of my true essence as the eternal,
indestructible divinity latent in all creation, humans remain ignorant of my
omnipresence as the cosmic soul, the ultimate cause of all existence, and
beyond the realm of the mind. Though my human form may appear to be ordinary,
it is merely a manifestation of my divine majesty. Alas, so many mistake me for
a mere mortal, failing to recognize my true nature. In ages past, even great kings and common folk alike failed to
discern the true nature of Lord Krishna, mistaking him for an ordinary man.
Even today, the ignorant view on divine saints as ordinary mortals, for their
vision, has not yet been blessed by the grace of yoga and enlightenment, like
that bestowed upon Arjuna by the great Lord Krishna Chandra. Yet, there is no fault in the eyes of
those who have not yet awakened to the reality of my true nature, for it, is
only through the grace of a yogi that one can come to know the self and attain
knowledge of the divine nature of Brahman and all creation.11.
परम भाव मम ज्ञान नहिं, मूढ़ जना हे पार्थ।
भूत महेश्वर जगत का, देह धरूं संसार ।।11।।
अज्ञानी मनुष्य मेरे परम भाव कि मैं ही अव्यक्त अक्षर
परमात्मा, आत्म रूप में सब में
स्थित हूँ, विश्वात्मा हूँ, मन बुद्धि से परे हूँ,
सबका आदि कारण हूँ,
को नहीं जानते हैं। मुझे साधारण देह धारी मुनष्य समझते
हैं जबकि मेरा मानवीय शरीर मेरे ऐश्वर्य की लीला मात्र है। यह शरीर मैंने धारण
किया है परन्तु अज्ञानी मुझे, सब भूतों के ईश्वर को सामान्य मनुष्य समझ कर मेरे वास्तविक स्वरूप
को नहीं जानते । भगवान श्री कृष्ण चन्द्र को उस युग में अनेक अज्ञानी राजा-प्रजा
साधारण मनुष्य समझते रहे। आज भी ब्रह्मज्ञानी विश्वात्मा संत को साधारण मनुष्य की
तरह ही अज्ञानी पुरुष द्वारा देखा जाता है। इसमें उस मनुष्य का भी दोष नहीं, क्योंकि जब तक जीव भाव रहता है तब तक परमात्म दर्शन
नहीं हो सकता। ब्रह्मज्ञानी ही ब्रह्म के स्वरूप को जान पाता है अथवा जिस जीव पर
ब्रह्मज्ञानी की कृपा हो जाय जैसे अर्जुन पर महायोगी भगवान श्री कृष्ण चन्द्र की
कृपा हुयी।
मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना
विचेतसः ।
राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं
मोहिनीं श्रिताः ।12।
mohasha moghakarmaano moghagyaana
vichetasah .
raakshaseemaasureen chaiv
prakrtin mohineen shritaah .12.
Oh, Arjuna! Beware of those with demonic tendencies
who are plagued with ego, arrogance, and hypocrisy. Such individuals cling to
futile hopes, and their actions and knowledge are ultimately in vain. Their
minds are plagued with confusion, and they remain ignorant of the divine nature
and the attainment of self-realization. 12.
प्रकृति मोहिनी आसुरी, लिये व्यर्थ का ज्ञान।
व्यर्थ आस विक्षिप्त चित्त, व्यर्थ कर्म अज्ञान।।12।।
हे अर्जुन! आसुरी वृत्ति के पुरुष व्यर्थ आशा लिये होते
हैं। उनके कर्म व्यर्थ हैं, उनका ज्ञान व्यर्थ है, उनका चित्त सदा भ्रमित रहता है। वह कभी भी ईश्वरीय स्वरूप अथवा
आत्मतत्व के बारे में नहीं जान पाते।
महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं
प्रकृतिमाश्रिताः ।
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा
भूतादिमव्यम् ।13।
mahatmanastu maam paarth
daiveem prakrtimaashritaah .
bhajantyananyamanaso gyaatva
bhootaadimavyam .13.
Those who are dependent on the divine nature, the
great souls, possess the capacity to perceive my virtuous and divine essence,
as well as the awareness of their selfhood. They remain steadfastly
focused on me, recognizing that I am the origin of all creation and the
eternal, imperishable God. Therefore, always keep your mind firmly fixed on me.
Cultivate a deep sense of self-respect and reverence for my incarnations, and
recognize my divine grace in all things. By doing so, you will be able to
perceive my presence in your life, and you will attain the true
realization of your divine nature.13.
देव प्रकृति के आश्रित, सदा भजे मम पार्थ।
आदि कारण भूत का, नाश रहित मोहि जान।।13।।
दैवी प्रकृति के आश्रित जो महात्माजन हैं वही मेरे सगुण
ईश्वरीय स्वरूप और आत्मतत्व के बारे में जान पाते हैं तथा मुझे सब भूतों का आदि
कारण, नाश रहित अक्षर जानकर
निरन्तर मन से मुझे भजते हैं। अपना मन सदा मुझ विश्वात्मा में लगाये रखते हैं। सदा
आत्मरत रहते हुए मेरे अवतारी स्वरूप में श्रद्धा रखते हैं और मुझे मेरी कृपा से
पहचानते हैं।
सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढ़व्रताः ।
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या
नित्ययुक्ता उपासते ।14।
satatam keertayanto maan
yatantashch drkvrataah.
namasyantashch maam bhaktya
nityayukta upaasate .14.
Those who remain steadfast in their spiritual
practice, diligently striving towards detachment, and constantly remind
themselves of my exclusivity, are truly the ones who chant my name. For them,
the constant recitation of Om is a genuine act of devotion. Such
individuals worship the true self that resides within them, while humbly bowing
down to the physical body as a mere vessel. Through this continuous worship of
the self, they remain closely connected to me, always maintaining their
focus on remembrance and contemplation. By practising in this manner, they can
transcend the limitations of the physical world, and attain a state of
spiritual enlightenment. Thus, they can experience the profound bliss and
eternal peace that comes from being in my divine presence.14.
दृढ़व्रता भजेत सदा, यत्न कर करते नमः।
ध्यान से जो युक्त हैं, नित्य प्रेम उपासते।।14।।
दृढ़व्रती जो हैं,
जो सतत साधन यत्न और अभ्यास करते हैं, वैराग्य जिनका स्वभाव है,
वह निरन्तर अनन्यता से मुझे स्मरण करते हैं, सदा ऊँ को व्यवहार में लाते हैं, यही कीर्तन है। मुझ आत्म रूप शरीर धारी को बार-बार
प्रणाम करते हुए, स्वयं
अपने आत्म स्वरूप को प्रणाम करते हुए अनन्यता से मेरी उपासना करते हैं; इस प्रकार स्मरण चिन्तन करते हुए सदा मेरे समीप रहते
हैं।
ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ते यजन्तो
मामुपासते।
एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा
विश्वतोमुखम्।15।
gyaanayagyen chaapyante
yajanto maamupaasate.
ekatven prthakatven bahudha
vishvatomukham.15.
Some practice jnana yoga and they approach me with a
profound understanding of the jnana yajna. These seekers anchor themselves in
the very core of their being, recognizing that the essence of their true selves
is identical to my own. Such self-righteous yogis, always imbued with the
consciousness of Shiva, always see themselves as Brahman, and thus worship me
with this deep, abiding sentiment. Furthermore, numerous Jnana yogis worship me
in the guise of the cosmic soul. They perceive me as existing within every
manifestation of the world, and they accept both the phenomenal world and
Brahman as an indivisible whole. In this way, these practitioners of jnana yoga
remain forever connected to me, seeing my presence in every form and every
facet of existence.15.
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