वेदांत दर्शन मानता है की ब्रह्म जिससे सृष्टि का उद्भव हुआ वह संपूर्ण सृष्टि में सर्वत्र व्याप्त है. वह छोटे से छोटे कण में भी विद्यमान है. वह किसी भी परमाणु के अंदर भी है और बाहर भी. उससे अलग कुछ भी नहीं है. इसलिए कहा जाता है केवल ब्रह्म ही सत्य है और ब्रह्म से अलग जो कुछ भी है वह सब मिथ्या है. फिर आगे कहा गया है कि यह जो जगत है यह भी ब्रह्म ही है.
इस कारण वेदांत प्रत्येक व्यक्ति को ही नहीं अपितु प्रत्येक जीव को यह स्वतंत्रता देता है कि वह कहे मैं ब्रह्म हूं. मैं वह हूं. यह स्वतंत्रता प्रत्येक मनुष्य को है वह गरीब हो, अमीर हो, छोटा हो, बड़ा हो, सज्जन हो, दुर्जन हो, सबको स्वतंत्रता है. यहां तक कि गाय, घोड़े, कुत्ते. बिल्ली. कीट आदि सब स्वतंत्र हैं कि वह कह सकें कि वह ब्रह्म है. वास्तव में सब ब्रह्म का ही स्वरूप है. आत्मज्ञानी भी ब्रह्म है और अज्ञानी भी ब्रह्म है.
परंतु वह यह नहीं कह सकता कि ब्रह्म वह है.
अष्टावक्रगीता में ऋषि राजा जनक से कहते हैं,
जो कहता मैं जानता नहीं जानत है ब्रह्म.
जो कहता नहीं जानता जानत है ब्रह्म.
अष्टावक्रगीता में ऋषि राजा जनक से कहते हैं,
जो कहता मैं जानता नहीं जानत है ब्रह्म.
जो कहता नहीं जानता जानत है ब्रह्म.
मैं ब्रह्म हूं. मैं वह हूं. इस कारण वर्तमान समय में कुछ लोग वेदांत दर्शन को सही ढंग से न समझने के कारण अपने को ईश्वर कहलाने लगते हैं. आपको अच्छा बोलना आता है, थोड़ा बहुत वेदांत दर्शन का ज्ञान है, मनुष्य के मनोविज्ञान को यदि आप भली-भांति समझते हैं तो आप अपने को भगवान घोषित कर देते हैं, ईश्वर घोषित कर देते हैं. यह लोग समझते हैं वेदांत कहता है सब कुछ ब्रह्म है तो मैं ब्रह्म का अर्थ वह भगवान समझते हैं, ईश्वर समझते हैं.
सामान्य चर्चा में हम ब्रह्म, ईश्वर भगवान, परमात्मा, आत्मा इन सबको एक ही समझते हैं. परंतु यथार्थ में ब्रह्म अलग है और भगवान और ईश्वर अलग हैं.
इसके लिए आपको यह समझना आवश्यक है कि ब्रह्म, आत्मा अथवा परमात्मा की अनेक अवस्थाएं हैं वह जिस अवस्था में होता है वैसा होता है उदाहरण के लिए पत्थर में वह पत्थर है, पेड़ में वह पेड़ है, कीट में वह कीट है, पशु में वह पशु है, मनुष्य में वह मनुष्य है, राक्षस में वह राक्षस है, यक्ष में वह यक्ष है, गंधर्व में गंधर्व है, देवता में देवता है, देवी में देवी है, पुरुष में पुरुष है, स्त्री में स्त्री है, बच्चे में बच्चा है, बूढ़े बूढ़ा है, जवान में जवान है, इसी प्रकार वह भगवान में या ईश्वर में ईश्वरहै.
ईश्वर किसे कहते हैं? यह समझना भी आवश्यक है. ब्रह्म जब प्रकृति को स्वीकार कर लेता है और अपनी पूर्ण दिव्यता के साथ चमकता है तो उसे ईश्वर, भगवान या गॉड कहा जाता है.
1- जो व्यक्ति जड़ को चेतन कर सके और चेतन को जड़ कर सके.
2- उसका अवतार हो और अपनी इच्छा से उसकी मृत्यु हो, अपनी इच्छा से उसका जन्म हो. वह जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्त हो.
3-उसमें कोई विकृति नहीं होती है. संपूर्ण प्रकृति पूछते उसके अनुसार चलती है.
4- वह अपना नियंता होता है.
5-वह दूसरे का नियंता होता है.
प्रश्न-उसको कैसे पहचाना जाए ?
उत्तर-1-वह जब भी अवतरित होता है संपूर्ण प्रकृति बदल जाती है. उसका दर्शन अमोघ होता है. इसको समझना आवश्यक है. किसी भी मानवीय रूप में अवतरित ईश्वर के पास जो भी शुभेच्छा से जाता है उसका अज्ञान नष्ट हो जाता है उसको संसार का मोह प्राप्त नहीं होता और वह आत्मज्ञान की ओर लालायित हो जाता है.
2- जो उसके पास दुर्भावना से जाता है उसका भी कल्याण होता है. परंतु तत्काल उसके अंदर द्वेष की भावना या उसके अंदर जो बुराइयां हैं वह अधिक पनपती हैं. जो उसको तत्काल पतन के रास्ते पर ले जाती हैं जहां उसको पश्चाताप होता है और कालांतर में उसका रूपांतरण हो जाता है.
3- मुर्दे को जिंदा और जिंदा को मुर्दा कर सकता है.
4-- वह कहीं भी तत्काल आ और जा सकता है.
5-- वह अनेक रूपों प्रगट में हो सकता है.
6-उसके शरीर से सुगंध निकलती है.
7- वह सदा जवान रहता है.उसे बुढ़ापा नहीं आता है. रोग और शोक उसे व्याप्त नहीं होते.
8- वह सृष्टि को बना सकता है और मिटा सकता है.
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उसकी दिव्यता का कोई अंत नहीं है जिस मनुष्य में अनेक दिव्यता हों वह मनुष्य भगवान है ईश्वर है.
हां आत्मज्ञानी अपना भगवान हो जाता है, अपना नियंता हो जाता है. आत्मज्ञानी का अर्थ है जिसमें सत्य को ग्रहण करने की शक्ति आ जाती है जिसकी बुद्धि ऋतम्भरा हो जाती है.
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