प्रश्न - श्री कृष्ण भगवद्गीता के नवें अध्याय के श्लोक संख्या 32 में कहते हैं, मेरे लीला मय स्वरूप में अनुरक्त शरण में आये स्त्री, वैश्य, शूद्र तथा पापयोनि के अन्य प्राणी और मनुष्य भी आत्मतत्व को प्राप्त होते हैं. उन्होंने स्त्री,वैश्य, शूद्र इन तीनो को आत्मज्ञान के लिए अन्य मनुष्यों की तुलना में क्यों कमजोर माना है.
उत्तर- श्री कृष्ण भगवद्गीता के नवें अध्याय के श्लोक संख्या 32 में कहते मेरे लीला मय स्वरूप में अनुरक्त शरण में आये स्त्री, वैश्य, शूद्र तथा पापयोनि के अन्य प्राणी और मनुष्य भी आत्मतत्व को प्राप्त होते हैं. यहाँ स्त्री, वैश्य, शूद्र तीनो शब्द महत्वपूर्ण हैं.इन तीनो के लिए बोध का मार्ग कठिन माना गया है. स्त्री में पुरुष की अपेक्षा रज प्राकृतिक रूप से अधिक होता है, उसमें ममता मोह अधिक होता है. वह अपने घर परिवार से आसक्ति अधिक रखती है. इसी प्रकार प्राकृतिक रूप से वह हर माह रजस्वला होती है इस कारण उन्हें पुरुष की अपेक्षा योग सिद्ध करने में दोगुना पुरुषार्थ करना पड़ता है. वैश्य की धन में प्रबल आसक्ति होती है. धन के प्रति अत्याधिक लोभ होता है इसलिए रुपये पैसे का मोह और लोभ छोड़ना बहुत कठिन है. धन में आसक्ति रखने वाले को वेश्य कहा जाता है. इस आसक्ति के कारण वेश्य का योग सिद्ध करना दोगुना - तिगुना पुरुषार्थ का काम है. शूद्र उसे कहते हैं जो बुद्धि से जड़ हो इसलिए कहा जाता है 'जन्मने जायते शूद्र संस्कारेण जायते द्विजः' जन्म से सभी शूद्र होते हैं और संस्कार से उनका दूसरा जन्म होता है अर्थात विद्या से उनकी बुद्धि की जड़ता नष्ट होती है. परन्तु जो बुद्धि से हीन रहता है उस शूद्र का योग सिद्ध होना निसंदेह कठिन है. यहाँ श्री भगवान् कहते है कि स्त्री, वैश्य, शूद्र जिनमें मोह-माया, अज्ञान अधिक है अथवा वे जीव जो किसी कर्म फल के कारण किसी कुबुद्धि अथवा दुर्बुद्धि से युक्त परिवारों में जन्म ले लेते हैं मेरी शरण में आने पर वह भी मेरे प्रभाव से, मेरी कृपा से उस परम बोध के मार्ग की और बड़ते हैं उनका स्वभाव ज्ञान की ओर बढ़ता है और उनका रज, तम कम होने लगता है और वह आत्म स्वरूप को जानकर आत्मवान हो जाते हैं।
प्रश्न- श्री कृष्ण भगवद्गीता के दसवें अध्याय के श्लोक संख्या 36 में कहते हैं, मैं छल करने वालों में जुआ हूँ, इसका क्या अर्थ है?
उत्तर- यहाँ श्री कृष्ण बता रहे हैं कि मनुष्य का जीवन पासे की तरह है जो कभी छह देता है कभी पांच कभी एक, जो निरंतर बदल रहा है, यह ताश के पत्तो की तरह रंग -बदरंग होता है, निरंतर बदलता है. कभी जीत है कभी हार है और जो और जिसके कारण हार जीत हो रही है, दुःख सुख हो रहे हैं, ऊँच नीच हो रही है, नित्य परिवर्तन हो रहा है. हार -जीत महसूस करते हुए और यह भी जानते हुए कि मैं छला जा रहा हूँ मैं बर्बाद हो रहा हूँ जुआरी जुआ नहीं छोड़ता है.
इसी प्रकार हम देखते हैं मनुष्य निरंतर माया द्वारा छला जा रहा है. जो कुछ हो रहा है वह असत होते हुए सत दिखाई देता है. देह निरंतर मृत्यु की ओर जा रहा है फिर भी नाशवान देह और सम्बन्धों से जुआरी की तरह हमें प्रबल आसक्ति होती है इसलिए सबसे बड़ा छल जुआ है जो जीवन सत्य को उजागर करता है जो प्रतिपल घटित हो रहा है. इस कारण श्री भगवान् अपनी दिव्या विभूतियों को बताते हुए कहते है कि मैं छल करने वालों में जुआ हूँ,
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