Friday, May 11, 2012

अष्टावक्रगीता (हिन्दी) - अध्याय 9 &10/ प्रो बसन्त प्रभात जोशी


             अध्याय  9

अष्टावक्र ऋषि कहते हैं
शान्त हुए कब द्वन्द्व अरु कृताकृते सब कर्म
उदासीन जग से हुआ अवृती त्यागी ज्ञेय.१.
कोई ऐसा धन्य है लोक चेष्टा अवलोक
जीवन भोग की वासना और अविद्या चाह.२.
जान सकल अनित्य है त्रिविध ताप दूषित सदा
असार निन्दित हेय है जान शान्ति निश्चय परम.३.
काल अवस्था कौनसी जिसमें द्वन्द्व न होय
करे उपेक्षा संतोष प्रिय सिद्धि प्राप्त वह ज्ञानि.४
भिन्न भिन्न मति साधु की योगी ऋषि की जान
देख उपेक्षा प्राप्त नर कौन शान्ति नहिं प्राप्त.५.
समता युक्ति उपेक्षा ले जान सत्य चैतन्य
निज स्वरूप को जानकर मुक्ति प्राप्त गुरु सोइ.६.
देख विकार सब भूत के, यथार्थ भूत में देख
बंध मुक्त तत्क्षण हुआ निज स्वरूप को प्राप्त.७.
जान वासना जग सदा सकल वासना त्याग
त्याग वासना जग तज्या जस इच्छा तस वास.८.

गीतामृत
आत्मज्ञानी पुरुष के द्वंद्व और अगले पिछले कर्म समाप्त हो जाते हैं. ऐसा पुरुष संसार से उदासीन रहता है. इस प्रकार बिना किसी बंधन के त्यागी हो जाता है.
ऐसा आत्मज्ञानी पुरुष धन्य है जो संसार में रहते हुए संसार की चेष्टाओं से अलग रहता है. उसे जीवन में भोग की इच्छा और सांसारिक विद्या की चाह नहीं रहती.
वह जानता है कि संसार अनित्य है तथा तीनों प्रकार के ताप से सदा दूषित है. इस संसार का कोई अस्तित्व नहीं है. इस प्रकार जानकर उसे निश्चय ही परम शान्ति उपलब्ध होती है.
वह अवस्था कोन सी है जिसमें कोई द्वंद्व न हो .आत्मज्ञानी संसार की उपेक्षा करता हुआ संतोषी द्वन्द्वातीत होकर परम सिद्धि को प्राप्त होता है.
इस संसार में अनेक मत धर्म सम्प्रदाय और उनके मानने वाले हैं. बोध को प्राप्त पुरुष इन सब में उपेक्षा का भाव रखते हुए शान्ति को प्राप्त रहता है.
समता, युक्ति और उपेक्षा द्वारा सत्य स्वरूप चैतन्य को जानकर अपनी अस्मिता को पहचानकर जो मोक्ष को प्राप्त होता है वह ही गुरु है.
जब ज्ञानी भिन्न भिन्न भूतों के भिन्न भिन्न विकारों को यथार्थतः भूतों में देखता है तत्क्षण भूतों के बंधन से मुक्त हुआ अपने स्वरूप को पहचान लेता है.
यह संसार वासना मात्र है अतः सभी वासनाओं का त्याग कर जिसने संसार की वासना त्याग दी तो फिर वह अपनी मर्जी का शहंशाह है.

             अध्याय  10
अष्टावक्र ऋषि कहते हैं

बैर रूप सम काम को अनर्थ मूल धनधान्य
त्याग उभय के धर्म को आदर नहिं संसार.१.
मित्र क्षेत्र धन भवन अरु सम्पति दारा भ्रात
तीन पांच दिन जग मिलें इंद्रजाल सम जान.२.
जहाँ जहाँ तृष्णा मिले जान वहाँ संसार
प्रोढ़ वैराग्य आश्रित हुआ तृष्णा लय सुख पाय.३.
तृष्णा बंधन आत्म की नाश मोक्ष है जान
अनासक्त जग वास कर प्राप्ति तुष्टि सो जान.४.
शुद्ध चैतन्य तू सदा प्राकृत जग को जान
जान अविद्या असत् है किमि इच्छा फिर जान.५.
देह राज स्त्री सुता और पुत्र सुख तोर
जन्म जन्म से काल मुख यद्यपि तू आसक्त.६.
अर्थ काम अरु पुण्य बहु किये बहुत तू काल
मन विश्रांत नहीं हुआ भटका जग जंजाल.७.
मन वाणी अरु देह से कोटि जन्म कृत कर्म
श्रम दुःख से वह युक्त थे अब तू कर विश्राम.८.

गीतामृत
काम को सदा अपना बैरी जानते हुए धन संपदा को अनर्थ का कारण जान. दोनों के मूल स्वाभाव को त्याग दे और इस संसार को कोई आदर मत दे.
मित्र, खेत, धन, भवन, सम्पति. पत्नी, भाई को इंद्रजाल के समान जान. यह रिश्ते और आसक्ति मात्र भ्रम है और यह कुछ दिन के ही हैं.
जहाँ जहाँ तृष्णा हो उसे संसार जान. लगातार साधन से प्राप्त  वैराग्य से तृष्णा समाप्त कर ही सुख प्राप्त होता है.
तृष्णा आत्मा का बंधन है और इसका नाश मोक्ष है. इसलिए इस संसार में अनासक्त होकर वास कर. तुझे आत्मतुष्टि स्वतः ही होगी.
तू सदा शुद्ध चैतन्य है और संसार जड़ है. सांसारिक ज्ञान असत् है इसलिए इस सांसारिक ज्ञान को जानने की इच्छा क्यों?
तेरा शरीर राज्य स्त्री पुत्री और पुत्र सुख जिनमें तू जन्म जन्म से आसक्त था म्रत्यु को प्राप्त हुए.
तूने धर्म अर्थ काम आदि पुण्य बहुत बार किये परन्तु तेरे मन को शान्ति नहीं मिली वह स्थिर नहिं हुआ वह सदा संसार के जंजाल में भटकता रहा है.
इसी प्रकार मन वाणी और शरीर से  अनेक जन्मों  में तूने अनेक कर्म किये हैं वह सब श्रम और दुःख से युक्त थे इसलिए अब इन कर्मो से अनासक्त होकर तू विश्राम कर.
..................................................................................................................
    

Sunday, May 6, 2012

अष्टावक्र गीता (हिन्दी) – अध्याय 4 - 8 / प्रो बसन्त प्रभात जोशी



            अध्याय – 4
राजा जनक उत्तर देते हैं
आत्मज्ञानी खेलता जग के भोग  विलास
कैसे तुलना मूढ़ से ढ़ोये जग निज शीश.१.
जिस पद की इच्छा लिए इन्द्रादि देव हैं दीन
आश्चर्य योगी स्थित वहाँ नहीं हर्ष को प्राप्त.२.
पाप पुण्य स्पर्श ना जो जाने वह पाद
भासित धूम आकाश सः नहीं धुएँ के साथ.३.
जिसने जाना आत्म को, जगत आत्म सम जान
कौन बद्ध अस ज्ञानि को  निज इच्छा व्यवहार.४.
ब्रह्मलोक पर्यन्त तक चार जीव जग व्याप्त
काम अकाम निग्रह नहीं विज्ञ समर्थ है जान.५.
विरला जानत आत्म को जगदीश्वर अद्वैत
करना जिसको मानता उसको करता जान.६.

गीतामृत
आत्मज्ञानी  अनासक्त होकर सामान्य मनुष्य की तरह जग के भोग  विलास के साथ खेलता है जबकि अज्ञानी सदा संसार में आसक्त हुआ संसार को सिर में ढ़ोता है.
जिस पद प्रतिष्ठा के लिए इन्द्रादि देव निरन्तर व्याकुल रहते हैं ज्ञानी उस स्थान को पाकर भी उदासीन रहता है.
जिस प्रकार आकाश में धुआं आकाश की तरह दिखई देता है पर आकाश धुएँ से अलग रहता है इसी प्रकार ज्ञानी को पाप पुण्य नहीं व्यापते हैं.
जिस ज्ञानी ने आत्मा को जान लिया है जो ज्ञानी संसार में अपने को देखता है ऐसे ज्ञानी को कोई भी कार्य करने से कौन रोक सकता है.
समूर्ण सृष्टि में सभी जीव काम के दास हैं केवल ज्ञानी ही अकाम होता है.
कोई विरला ज्ञानी ही जनता है कि भगवान एक है और वह और भगवान दो नहीं एक ही हैं. ऐसा ज्ञानी जिस कार्य को उचित समझता है उसे करता है.


    अध्याय5
अष्टावक्र ऋषि कहते हैं
नहीं किसी से संग है शुद्ध जान केहि त्याग
त्याग देह अभिमान को और मोक्ष को प्राप्त.१.
तुझसे उद्भव विश्व है जैसे बुदबुद सिंधु
विज्ञ आत्म को एही सदा और मोक्ष को प्राप्त.२.
दृश्य जगत प्रत्यक्ष है नहीं तोर हे शुद्ध
रज्जू सर्प भासित जगत अतः मोक्ष को प्राप्त.३.
सम सुख दुःख जिसके लिए आश निराशा एक
जीवन मृत्यु समान है प्राप्त मोक्ष उपलब्ध.४.
गीतामृत
अष्टावक्र ऋषि कहते हैं
आत्मज्ञानी पुरुष का किसी भी वस्तु से लगाव नहीं होता है तो फिर वह किसे शुद्ध जाने किसे त्यागे. जिसने देहाभिमान त्याग दिया वह मोक्ष को उपलब्ध हो जाता है.
हे जनक, तुझ आत्मस्वरूप से इस विश्व का जन्म समुद्र में बुलबुले के सामान ही हुआ है.
यह जगत जो प्रत्यक्ष दिखायी देता है वह वास्तव में तेरा नहीं है. भ्रम के कारण जगत की प्रतीति होती है.
जिसके लिए सुख दुःख सामान हैं आशा निराशा सामान है इसी प्रकार जीवन मृत्यु समान है ऐसा विरला आत्मज्ञानी पुरुष मोक्ष को उपलब्ध होता है.
    अध्याय6
राजा जनक कहते हैं
मैं अनन्त आकाशवत प्राकृत घट घट जान
नहीं त्याग नहिं गृहण लय यही सत्य है ज्ञान.१.
मैं उदधि सम हूँ सदा जग तरंग सम जान
नहीं त्याग नहिं गृहण लय यही सत्य है ज्ञान.२.
मैं सीपी सम सत्य हूँ कल्पित रजत जग जान
नहीं त्याग नहिं गृहण लय यही सत्य है ज्ञान.३.
मैं निश्चित सब भूत में सकल भूत मम जान
नहीं त्याग नहिं गृहण लय यही सत्य है ज्ञान.४.

गीतामृत
राजा जनक कहते हैं
मुझे सत्य का ज्ञान हो गया है मैं आकाश की तरह सर्वत्र व्याप्त हूँ. मैं न कुछ त्याग करता हूँ न स्वीकार करता हूँ न मेरा कहीं कोई अन्त है. समुद्र के समान मेरी स्थिति है और यह संसार मुझ समुद्र में उठने वाली तरंग है. मैं जान गया हूँ कि मैं सभी भूतों में हूँ और सब  भूत मुझ में हैं. यही नहीं यह भी जान गया हूँ कि यह संसार मुझ में ही कल्पित है.
     अध्याय7
राजा जनक कहते हैं
मुझ अगाध अम्बोधि में विश्वपोत बलखात
डोलत प्राकृत वायु निज मैं तटस्थ हूँ जान.१.
मुझ अगाध अम्बोधि में जग तरंग स्वभाव
उद्भव लय हो स्वतः ही मेरी वृद्धि न हानि २.
मुझ अगाध अम्बोधि में जग है कल्पित मात्र
शान्त निराकार सदा, स्थित हूँ एही भांति.३.
आत्म नहीं है विषय में, विषय नहीं हैं आत्म
अनासक्त स्प्रहा रहित, स्थित हूँ एही भांति.४.
मैं चैतन्य मात्र हूँ इंद्रजाल जग जान

उपादेय अरु हेय में कैसे कल्पित होय.५.

गीतामृत
राजा जनक कहते हैं
मुझ महा समुद्र में संसार रूपी जहाज हिलता रहता है.संसार अपनी प्रकृति से चंचल रहता है परन्तु मैं सदा तटस्थ हूँ. मेरी न वृद्धि होती है न मेरा क्षय होता है.
मुझ महा समुद्र में यह संसार  मात्र कल्पना है  मैं सदा शान्त और निराकार हूँ, सदा शान्त और निराकार  रूप में स्थित हूँ. संसार के किसी भी विषय में आत्मतत्व नहीं है और आत्मतत्व कोई संसार का विषय नहीं है. मैं आत्मतत्व अनासक्त स्प्रहा रहित होकर स्थित हूँ. मैं आत्मतत्व चैतन्य मात्र हूँ और यह संसार इंद्रजाल (भ्रम) है उपादेय अरु हेय में मुझ आत्मतत्व की कैसे कल्पना हो सकती है?


     अध्याय8
अष्टावक्र ऋषि कहते हैं
चित्त चाहता सोचता जान तभी तक बंध
त्याग गृहण सुख दुःख तथा, करे द्वेष अरु क्रोध.१.
नहीं चाहता सोचता नहीं त्याग अरु लेत
चित्त न सुख दुःख जानता तभी मोक्ष का हेतु.२.
चित्त देखे विषयी हुआ जान तभी है बंध
अनासक्त सब दृष्टि से तभी जान है मोक्ष.३.
जब मैं है तब बंध है मैं नहिं तब है मोक्ष
ना सोचे इच्छा नहीं, गृहण नहीं, नहिं त्याग.४.
गीतामृत
अष्टावक्र ऋषि कहते हैं
जब तक चित्त किसी वस्तु को चाहता है और उसके बारे में सोचता है तभी तक बंधन  है
तभी तक त्याग गृहण सुख दुःख द्वेष और क्रोध क्रियाएँ होती हैं.
जब चित्त किसी वस्तु को नहीं चाहता है और उसके बारे में नहीं सोचता है  त्यागने, लेनदेन  
सुख दुःख की क्रिया नहीं करता न जानता है तभी मोक्ष है.
चित्त जब देखकर विषयी होता है तभी है तक  बंधन है अनासक्त दृष्टि होते ही है मोक्ष हो जाता है. जब तक मैं, मेरा है तब तक बंधन है मेरा के समाप्त होते ही मोक्ष हो जाता है. तब आत्मज्ञानी पुरुष न सोचता है न इच्छा करता है न किसी वस्तु को स्वीकार करता है न त्याग करता है.


.......................................................................................................................





BHAGAVAD-GITA FOR KIDS

    Bhagavad Gita   1.    The Bhagavad Gita is an ancient Hindu scripture that is over 5,000 years old. 2.    It is a dialogue between Lord ...