Tuesday, November 26, 2013

तेरी गीता मेरी गीता -धर्म जागृति क्या है?-104- बसंत

 प्रश्न - धर्म जागृति क्या है?
उत्तर- मनुष्य जब यह विशवास करना प्रारम्भ कर देता है कि भगवान् है, परमात्मा है तब वह उसको पाने के लिए पागल हो जाता है.यह पागलपन धर्म जागृति है. इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है जब किसी व्यक्ति को यह विशवास हो जाता है कि मनुष्य से भी कोई उच्चतर  जीवन है तो उस जीवन को पाने की छपटाहट धर्म जागृति है.
प्रश्न - धर्म जागृति से पूर्व कितनी कक्षाएँ हैं?
उत्तर- धर्म जागृति से पूर्व साधक की योगयता के अनुसार भिन्न भिन्न कक्षाएँ हैं जिनमें वह प्रवेश लेता है अथवा ले सकता है.
1-प्राइमरी कक्षा - १- कथा सुनना
२-मंदिर जाना
३-तीर्थ यात्रा करना
४-अनुष्ठान अथवा कर्मकांड
2-माध्यमिक कक्षा - १- देव यज्ञ- आरती, प्रार्थना, साधू-संत, गुरु, ईश्वर की उपासना  २-ऋषि यज्ञ- धर्म शास्त्र सम्बन्धी पुस्तकों का अध्ययन जैसे गीता, वेद, बाइबिल, ग्रन्थ साहिब, जैन, बोद्ध साहित्य आदि  ३-पितृ यज्ञ - अपने माता पिता, पितरों, बड़ों के प्रति सम्मान और श्रद्धा   ४- मनुष्य यज्ञ - अथिति सेवा और अपने से निर्बल मनुष्य की सहायता ५-भूत यज्ञ - पशु,पक्षियों, कीटों के प्रति कर्त्तव्य और करुणा, उनको भोजन देना आदि सेवा.
3-उच्च कक्षा  - आहार- आपका भोजन जाति दोष, आश्रय दोष और निमित्त दोष से मुक्त हो. योगासन, नाड़ी शुद्धि, प्राणायाम,वाणी से जप करना.
4- उच्चतर कक्षा-  १-यम- अहिंसा,सत्य,अस्तेय( किसी के हक़ को न चुराना अथवा  छीनना),
२-नियम-पवित्रता- बाहरी और आतंरिक और संतोष. इस स्तर पर आतंरिक पवित्रता महत्वपूर्ण है.
३-प्रत्याहार- इंद्रियों के आहार को कम करना
४-धारणा- चित्त को एकाग्र करना
५-श्वास में नाम स्मरण
5-अति उच्चतर कक्षा- १-ध्यान, ध्यान धारणा की अगली स्थिति है.यहाँ बुद्धि निश्चिात्मक होने लगती है.
२-दृष्टा और साक्षी स्थिति. ३-मन से लगातार नाम स्मरण
परिणाम- धर्म, समाधि, स्वरुप स्थिति, ईश्वर प्रेम,मृत्युंजय, नियंता    

Monday, November 25, 2013

तेरी गीता मेरी गीता- धन्य हैं वे ?- 103 -बसंत

प्रश्न-धन्य कौन हैं?
उत्तर- 1.धन्य हैं वे जो बोध को प्राप्त हो गए हैं क्योंकि वे परमात्मस्वरूप हो गए हैं.
2.धन्य हैं वे जो बोधिसत्व हो गए हैं क्योंकि वे बोध को प्राप्त होंगें.
3.धन्य हैं वे जो आत्मरत हैं क्योंकि वे परम पद को पायंगे.
4.धन्य हैं वे जो स्वरुप अनुसंधान में लगे हैं वे स्वरुप अनुभूति को प्राप्त होंगें.
5.धन्य हैं वे जो प्रार्थना करते हैं क्योंकि उन पर कृपा की जायेगी.
6.धन्य हैं वे जिनका हृदय पवित्र हैं वह ईश्वर के दर्शन करेंगे.
7.धन्य हैं वे जो दया करते हैं क्योंकि उन पर दया की जायेगी.
8.धन्य हैं वे जो सत्य बोलते हैं क्योंकि वे सत स्वरुप को जानेंगें.
9.धन्य हैं वे जो अहिंसा को धारण करते हैं क्योंकि वह मृत्यु को जीत लेंगे.
10.धन्य हैं वे जो क्षमा करते हैं क्योंकि उनको क्षमा  दी जायेगी.
11.धन्य हैं वे जो प्रेम करते हैं क्योंकि उनको प्रेम प्राप्त होगा.
12.धन्य हैं वे जो दूसरे के दुःख से दुखी होते हैं क्योंकि वे श्रेष्ठता को प्राप्त होंगे.
13.धन्य हैं वे जो परोपकार में रत हैं क्योंकि वे दिव्यता को प्राप्त होंगें.
14.धन्य हैं वे जो सत्य की खोज में लगे हैं क्योंकि वे सत्य को जानेंगे.
15. धन्य हैं वे जिनके मन शुद्ध  हैं क्योंकि वे ईश्वर को जानेंगें.
16.धन्य हैं वे जो निष्काम हैं क्योंकि वे संसार को जीतेंगे.

Friday, November 22, 2013

Teri Gita/तेरी गीता मेरी गीता – धर्म - अपने वास्तविक स्वरुप को जानने का साधन -102 - बसंत

आप सब लोग धर्म को माननेवाले हैं परन्तु धर्म मानने की बात नहीं है धर्म जीने का तरीका है जैसे सत्य बोलना धर्म है, यह सब मानते और जानते हैं पर सत्य को जीवन में नहीं उतारते हैं. जैसा कि आपको पहले भी सुस्पष्ट किया गया है आपका स्वभाव आपका धर्म है यही नहीं आप स्वयं धर्म हो परन्तु आप धर्म को अपने से बाहर खोजते हो. आप अच्छे हैं अथवा बुरे आपका धर्म जो स्वयं आप हो सदा आपके साथ रहता है. बिना धर्म के आपका कोई  अस्तित्व ही नहीं है. दूसरे का बताया कोई भी रास्ता यदि आपके स्वभाव के अनुकूल होता है तभी आप उससे सहमत होते हैं, उसका अनुसरण करते हैं. मूल बात यह है हम सब दिव्यता चाहते हैं, श्रेष्ठता चाहते हैं और इसके लिए अपने को समझना और जानना आवश्यक है. यदि आप में अपने को जानने की समझ नहीं है तो आप कभी भी धर्म का आचरण नहीं कर सकते हैं.
आप सभी ने रावण का नाम सुना है, बड़ा प्रतापी राक्षस था जिसने तीनो लोक जीत लिए थे. ऋषि पुलत्स्य के कुल में उत्पन्न रावण चारों वेदों का पंडित होने के कारण धर्म को अवश्य ही जानता था परन्तु स्वयं के जीवन में उसका आचरण नहीं था, स्वयं के जीवन में धर्म नहीं था.
‘तामस तन कछु साधन नाहीं’
कहने का तात्पर्य यह है यदि आप विद्वान हैं बहुत कुछ जानते हैं पर जीवन में धर्म साधन नहीं है तो सब कुछ निरर्थक है. धर्म कहने की वस्तु नहीं है, धर्म तो जीना पड़ता है. आप यदि धर्म अर्थात अपने वास्तविक स्वरुप को जानने का साधन करते हैं तो आप धर्म को जानते हैं.
अतः स्पष्ट है स्वयं को (अपनी आत्मा) को जानने का प्रयत्न धर्म साधन है और स्वरुप स्थिति इसका पूर्णत्व है.



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Thursday, October 3, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - त्रिदेव का रहस्य -101 - बसंत

प्रश्न - परमात्मा के त्रिदेव रहस्य को एक बार फिर से समझाने का कष्ट करें?

\उत्तर- आपसे इस विषय में कई बार चर्चा हुई है, इस विषय को ध्यान पूर्वक फिर से सुनिए. परमात्मा जो विशुद्ध ज्ञानस्वरुप  है वह और उसकी शक्ति जिसे माया कहा जाता है उसी प्रकार अभिन्न हैं जिस प्रकार आप और आप की शक्ति. ब्रह्म की शक्ति के तीन स्वरुप हैं ज्ञान शक्ति जो शुद्ध मैं है, अज्ञान शक्ति जो जड़ है और इन दोनों को जोड़ने वाली, सतत गतिमान क्रिया शक्ति है. शुद्ध मैं को ही विराट ईश्वर, नारायण अथवा श्री हरि विष्णु कहा जाता है. अज्ञान को महादेव शंकर और क्रिया को ब्रह्मा जी कहा गया है. यह तीनों ब्रह्म शक्ति के तीन स्वरुप हैं इसलिए सदा परमात्म स्वरुप हैं.

इन तीन शक्तियों की भिन्न भिन्न मात्रा के मिलने से देव,यक्ष.गंधर्व,अप्सरा,राक्षस,पिशाच,भूत ,प्रेत, मनुष्य और पशु.पक्षी,कीट, वनस्पति. खनिज, पत्थर आदि भिन्न भिन्न योनियों का सृजन होता है.

एक बड़ा विवाद है कोई कहते हैं महादेव शंकर सर्व श्रेष्ठ हैं वही आदि देव हैं कोई श्री हरि विष्णु  को सर्व श्रेष्ठ कहते हैं उन्हीं को आदि देव मानते हैं. इस विषय में भी निश्चित मत  सुन लीजिये. जो जैसा होता है उसकी मूल शक्ति भी उसी की भांति होती है.परमात्मा जो विशुद्ध ज्ञान स्स्वरूप है उनकी ज्ञान शक्ति ही मूल शक्ति है जिसका प्रतिनिधत्व श्री हरि विष्णु करते हैं. दूसरा ज्ञान ही अज्ञान में बदल सकता है और बदलता है. अज्ञान ज्ञान के बिना ज्ञान में नहीं बदल सकता. क्रिया स्वाभाविक है, ज्ञान और अज्ञान के प्रतिनिधि श्री हरि विष्णु और महादेव हैं. शाक्तों ने इसे भगवती के तीन रूपों से जोड़ दिया, उद्भव, स्तिथ, संहारकारिणी. सब कुछ एक ही है. एक ही देव सब में भिन्न भिन्न रूप में परिलक्षित होता है. परन्तु उपलब्धि का विषय ज्ञान है, शुद्ध मैं है जो नारायण है. नारायण ही शिव  हैं वही ब्रह्माजी के पिता हैं. वही विराट पुरुष हैं.

Friday, September 6, 2013

तेरी गीता मेरी गीता / TERI GITA MERI GITA - मैं – 100 - बसंत

शून्य परे ही मैं सदा
मैं ही विश्व परिपूर्ण
आदि देव सब देव का
स्वयं सदा परिपूर्ण
मैं अविनाशी नित्य निरंजन
एक अखंड समर्थ जनार्दन
खुद ही उपजा खुद उपजाया
मैं से मैं का लघुतर रूप
मैं अनंत तो सीमित हूँ मैं
सब ही हैं मैं के प्रतिरूप
मैं ही बंधता मुक्त सदा मैं
मुक्ति बंध से सदा विमुक्त
मैं अज्ञान ज्ञान भी मैं हूँ
मैं ही जीवन मैं ही मृत्यु
भिन्न भिन्न जीवन के पहलू
सब होते मैं से परिपूर्ण.


Thursday, August 15, 2013

तेरी गीता मेरी गीता – पाप पुण्य - 99 - बसंत

प्रश्न- संसार में कई लोग पाप करते हैं परन्तु मजे करते दिखाई देते हैं और कई भले लोग अच्छाई करते हुए भी परेशान होते हैं, कष्ट पाते हैं ऐसा क्यों होता है?
उत्तर- यह संसार है, यहाँ कोई सुखी है तो कोई दुखी, कोई आज सुखी है तो भविष्य में दुखी इसी प्रकार कोई आज दुखी है तो कल सुखी दिखाई देता है. इस प्रकार भिन्न भिन्न सुख दुःख स्थितियों से गुजरते प्राणी हम सदा देखते आये हैं. प्रश्न यह है कि ऐसा क्यों होता है? इस संसार में जो भी देने वाला है वह हमारा कर्म है. हमने जो पहिले किया है जो आज कर रहे हैं सब उसका ही परिणाम है. जन्म जन्मान्तरों में जो कर्म किये हैं उसके कारण मुख्य रूप से छः प्रकार के मनुष्य दिखाई देते हैं.
१   1-     घोर पापी- पूर्व जन्मों के पाप किये हुए केवल पाप भोगते हैं – यह जन्म से ही बीमार, असाध्य रोगों से पीड़ित, अंग भंग हुए क्षीण आयु होते हैं.
2  2-  पापी- पूर्व जन्मों के पाप किये हुए केवल पाप करते हैं और पाप भोगते हैं.
3  3-   पुण्य क्षयी - पूर्व जन्मों के पाप पुण्य को लिए हुए पाप करते हैं पुण्य भोगते हैं. इस प्रकार पुण्य क्षय करते हैं. वर्तमान युग में इस प्रकार के मनुष्यों का बोलबाला अधिक है.
4      4- पाप पुण्य रता- पूर्व जन्मों के पाप पुण्य को लिए हुए पाप, पुण्य करते हैं और पाप पुण्य भोगते हैं. समाज में यह भी अधिक संख्या में होते हैं.
   5- पाप क्षयी पुण्यात्मा - पूर्व जन्मों के पाप पुण्य को लिए हुए पुण्य करते हैं पाप भोगते हैं. यह अपने आदर्शों से समझोता न करने वाले, इमानदार, समाज की भलाई के लिए प्रताड़ित होते हैं. इन पर आरोप भी लगते हैं परन्तु यह विकास की उच्च अवस्था के लोग हैं.
   6-  पुण्यात्मा- पूर्व जन्मों के पुण्य को लिए हुए पुण्य करते हैं और पुण्य भोगते हैं. श्रेष्ट महापुरुष इस श्रेणी में आते हैं. संसार में इस प्रकार का जन्म दुर्लभ है.
इन छ प्रकार के मनुष्यों के अलावा सौ दो सौ करोड़ों में कभी कोई निष्काम कर्म योगी भी मिलता है जो पुण्यात्मा पुरुष की अगली अवस्था है. कभी कभी जन्म से ही नित्य सिद्ध निष्काम कर्म योगी अवतारी पुरुष भी मिलते हैं.

Monday, August 12, 2013

तेरी गीता मेरी गीता – मैं तत्त्व परमात्मा है. - 98 - बसंत


प्रश्न- मैं तत्त्व को विस्तार से बताने का कष्ट करें.
उत्तर- मैं परमात्मा है. मैं आत्मा है. मैं जीव है. मैं ज्ञान है. मैं चैतन्य है. मैं ओंकार है. मैं नारायण है. मैं सदा शिव है. मैं अज्ञान है. मैं विष्णु है. मैं महादेव है. मैं ब्रह्मा है. मैं अहंकार है, मैं बुद्धि है. मैं मन है. मैं इंद्र है. मैं देह है. मैं देव है. मैं संसार है. मैं राक्षस है. मैं भूत है. मैं असुर है. मैं साधू है. मैं शैतान है. मैं अच्छा है. मैं बुरा है. मैं पशु है. मैं पक्षी है. मैं सर्प है. मैं कीट है. मैं जड़ है. मैं क्षुद्र है. मैं विराट है. मैं स्त्री है. मैं पुरुष है. मैं पत्ता है. मैं पत्थर है. सभी कुछ मैं है. मैं इन सभी अवस्थाओं में है. इन भिन्न भिन्न अवस्थाओं में मात्र अंतर उसकी पूर्णता का है उसकी दिव्यता का है. परमात्मा में मैं पूर्णता लिए है पर पत्थर में अत्यंत सीमित हो जाता है. मनुष्य में मैं सीमित और असीम के बीच की स्थिति में है. मनुष्य सीमित और असीम के बीच किस स्थिति में है यह वह अपना मूल्यांकन कर खुद जान सकता है. यदि शरीर के धरातल पर है तो मैं सीमित है. मन के धरातल पर मैं शरीर स्थिति से कई गुना बड़ा हो जाता है, वही बुद्धि के धरातल पर महान हो जाता है और आत्मा के धरातल पर पूर्ण हो असीम हो जाता है. मैं जितना अधूरा है उतना क्षुद्र है, जितना अधूरापन मिटता जाता है उतना मैं पूर्ण हो जाता है.

पूर्णता की स्थिति में केवल मैं होता है. उससे निचले स्तर पर मैं दृष्टा होता है पर वह दृश्य से अलग रहता है. तीसरी स्थिति में मैं दृश्य में सम्मलित हो जाता है और दृश्य में उलझ उलझ कर क्षुद्र होता जाता है. मैं पूर्ण शुद्ध रूप में जब ब्रह्मांडीय होता है तो उसे परमात्मा कहते हैं, जब वह विशुद्ध पूर्ण रूप में पूर्ण दिव्यता के साथसृष्टि के जन्म, स्थिति व लय का नियामक होता है तो ईश्वर और जब संसारी हो जाता है और अपने को किसी अस्मिता से बाँध लेता है तो जीव कहा जाता है. परिस्थिति के अनुसार यह भिन्न भिन्न रूपों में परिलक्षित होता है.

Wednesday, July 24, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - गुरु दक्षिणा शास्त्र सम्मत नहीं - 96 - बसंत

प्रश्न- गुरु दक्षिणा के विषय में आपके क्या विचार हैं.
उत्तर- गुरु दक्षिणा शास्त्र सम्मत नहीं है यह प्रथा कथा सम्मत है. वेद, उपनिषद, भगवद्गीता, अष्टावक्रगीता, पातंजलि योगसूत्र, ब्रह्मसूत्र, संख्या दर्शन, विवेक चूडामणि आदि प्रामाणिक एवं शास्त्रों में गुरु दक्षिणा का कोई उल्लेख नहीं है. ब्रह्म ज्ञानी गुरु को शिष्य की केवल श्रद्धा की दक्षिणा चाहिए पर आजकल न ब्रह्मज्ञानी गुरु हैं न शिष्य में श्रद्धा है.

प्रश्न- तो फिर गुरु पूजन किस प्रकार करें?
उत्तर- गुरु पूजन में शिष्य को गुरु की श्रद्धा पूर्वक जल, गंध, पुष्प, फल, अन्न और वस्त्र से पूजन करना चाहिए. अपने घर से श्रद्धा और प्रेम से बनाया भोजन लाकर प्रेम से खिलाना चाहिए. यह भी अपनी सामर्थ के अनुसार करना चाहिए. एक तुलसी का पत्ता अतवा एक बूँद जल पर्याप्त है. गुरु को धन देना न अपना भला करना है न गुरु का भला होना है. गुरु को धन देने से तो अच्छा है किसी जरूरतमंद की चुपचाप मदद कर दो. गुरु को मात्र तुम्हारा प्रेम चाहए तुम्हारी श्रद्धा चाहिए. यदि तुम्हारा गुरु सच्चा है तो वह शरीर नहीं है वह आत्म रूप में आपके अन्दर और अपनी देह और सर्वत्र विराजमान है.एक बात  सच्ची सच्ची सुन लो तुम जो धन अपने गुरु को देते हो वह अपने भय, लालच, लोक परलोक के टिकट के लिए दे रहे हो और तुम्हारे गुरु इस भय का फायदा उठा रहे हैं. सच्चा गुरु तुमसे कोइ अपेक्षा नहीं करता. भूख, बीमारी, प्राकृतिक आपदा से बिलखती मानवता की सेवा करो यह सबसे बड़ी गुरु सेवा होगी. गुरु पूजा पावन दिवस तो तुम्हारी लिए गुरु के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के लिए बनाया है और तुम लिफफा या चेक भेंट कर इस दिन का अपमान करते हो.

Monday, July 22, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - ऊँ तत् सत् (ॐ, ततोऽहं, सतोऽहं) - 95 -बसंत

प्रश्न- भगवद्गीता में ईश्वर के तीन नाम आये है ऊँ तत् सत्, इनका गूड रहस्य क्या है?  ॐ शब्द का तो स्वास के साथ जप किया जा सकता है पर तत्, सत्, का जप तो संभव नहीं है, यदि कोई करना चाहे तो किस प्रकार करे?

उत्तर- भगवद्गीता के सत्रहवें अध्याय में ऊँ तत् सत् विषय पर भगवान् श्री कृष्ण जी ने ॐ के साथ वेदान्त के चार महावाक्यों की और संकेत किया है. तत्वमसि – वह तुम हो, अहं ब्रह्मास्मि-मैं ही ब्रह्म हूँ, प्रज्ञानं ब्रह्म –परम ज्ञान ही ब्रह्म है, अयमात्मा ब्रह्म – यह आत्मा ही ब्रह्म है. श्री भगवान् कहते हैं-
ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा ।23।
आत्मतत्व रूपी परब्रह्म परमात्मा का नाम ‘ऊँ’ ‘तत्’ ‘सत्’ है। ऊँ परमात्मा का मूल नाम है। स्वर विज्ञानी जानते हैं कि शरीर में इसकी स्थिति भृकुटि के मध्य आज्ञा चक्र में है। परमात्मा सृष्टि से परे है अतः उसका दूसरा नाम तत् है। सत् अर्थात जिससे अज्ञान नष्ट होता है यह परमात्मा का तीसरा नाम है। अव्यक्त रूप में परमात्मा का कोई नाम नहीं है परन्तु उसको जानने, बताने के लिए उसे शब्द (नाम) से बांधा गया है। ऊँ तो परमात्मा का शुद्ध अहंकार है इसलिए वही उसका यथार्थ नाम है। परमात्मा के इन तीन नाम ऊँ तत् सत् को आधार मान धर्म के तत्व को जानने वाले ब्राह्मणों ने उपनिषद, वेद और परमात्मा के निमित्त कर्म का विधान किया है।
ॐ परमात्मा का शुद्ध अहंकार है. ॐ कोई ध्वनि नहीं है. ॐ शब्द पूर्ण विशुद्ध ज्ञान में हलचल की अवस्था को दिया गया नाम है. इस पूर्ण विशुद्ध ज्ञान में हलचल होते ही अव्यक्त अवस्था  जन्म, स्थिति और लय में रूपांतरित हो गयी. हिन्दुओं में जन्म, स्थिति और लय ही त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और शिव शंकर की द्योतक है. बाइबिल भी कहती है की जब सृष्टि नहीं थी तब शब्द था. यहाँ शब्द का अर्थ ध्वनि से न होकर ज्ञान है. इस ज्ञान में हलचल की अवस्था को ॐ ही नाम क्यों दिया गया. ॐ अ, उ, म तीन अक्षरों से बना है. अ की ध्वनि करते हुए मुंह खुलता है, उ की ध्वनि करते हुए ध्वनि का विस्तार होता है और मुंह खुला रहता है म की ध्वनि के साथ मुंह बंद हो जाता है. यह तीन अवस्था सृष्टि का जन्म, विस्तार जिसे स्थिति कहा है और अंत है. इसके अलावा ॐ में बिंदु भी लगा होता है जो अव्यक्त परमात्मा का द्योतक है.
ॐ शब्द परम ज्ञान जिसे परमात्मा कहते हैं के वास्तविक स्वरुप और विशेषताओं को पूर्ण रूप से स्पष्ट करता है इसलिए यह परमात्मा का वास्तविक नाम है. इसी कारण हिन्दू बच्चे का संस्कार करते समय गायत्री मंत्र  के साथ ॐ की दीक्षा देते हैं. वास्तव में ॐ ही गायत्री है. श्री भगवन भगवद गीता  में  कहते हैं -ओम इति एकाक्षरं ब्रह्म. ओम ही ब्रह्म है और इसे व्यवहार में स्वीकारते हुए सदा परमात्मा का चिंतन करना चाहिए.
तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपः क्रियाः।
प्रवर्तन्ते विधानोक्तः सततं ब्रह्मवादिनाम्‌ ।24।
इसलिए ईश्वर के लिए उच्चारण करने वाले जो शास्त्र विधि सम्मत ईश्वर के निमित्त कर्म दान और तप आदि करते हैं वह सदा ऊँ प्रणव का उच्चारण करके अपनी क्रिया आरम्भ करते हैं।
तदित्यनभिसन्दाय फलं यज्ञतपःक्रियाः।
दानक्रियाश्चविविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः ।25।
आत्म स्वरूप परब्रह्म परमात्मा इस जगत से परे है और सबका साक्षी है जो यह जानते हैं वह ‘तत्‘- ततोऽहं शब्द का उच्चारण करते हैं। ‘तत्‘ वेदान्त वाक्य तत्वमसि – वह तुम हो के लिए आया है. वह तत् स्वरूप परब्रह्म, को उसके निमित्त समस्त कर्म, तप, यज्ञ, दान आदि अर्पण कर निष्काम हो जाते हैं। इसे भाव से विचारते हुए चिंतन करना है, यदि आप जप करना चाहें तो ततोऽहं का स्वास के साथ उचारण करें. इसका अर्थ है वह मैं हूँ.
सद्भावे साधुभावे च सदित्यतत्प्रयुज्यते।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते ।26।
सत अर्थात जिससे अज्ञान नष्ट होता है, यथार्थ के दर्शन होते हैं, जिसमें कभी कोई परिवर्तन नहीं होता जो निश्चित है यह जानकर कल्याण के लिए, सरल आचरण करते हुए सत् का प्रयोग किया जाता है। वेदान्त के तीन वाक्य अहं ब्रह्मास्मि-मैं ही ब्रह्म हूँ, प्रज्ञानं ब्रह्म –परम ज्ञान ही ब्रह्म है, अयमात्मा ब्रह्म – यह आत्मा ही ब्रह्म है. एक सत को ही बताते हैं. इसे आप जप करना चाहें तो सतोऽहं का स्वास के साथ उचारण करें. इसका अर्थ है परम सत जो आत्मा है, ब्रह्म है, जो पूर्ण विशुद्ध ज्ञान है वह मैं हूँ.
यह  इसी प्रकार उत्तम कर्म अर्थात जो कर्म परमात्मा के लिए हैं, जिन कर्मों से परमात्मा में एकता का भाव प्राप्त होता है, के लिए सत् रूपी परमात्मा के सम्बोधन सतोऽहं का प्रयोग किया जाता है। ऊँ तत् सत् तीनो का अलग अलग अथवा एक साथ भाव चिंतन सर्वश्रेष्ठ एवं शीघ्र परिणामकारी है.


Thursday, July 18, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - धर्म- संत, सन्यासी होकर मृत्यु भय है तो फिर क्या पाया? - 94 - बसंत

हिन्दू समाज सदा सहिष्णु और विकासवादी रहा है. यहाँ धर्म को सनातन (जो सदा है) माना जाता है. धर्म सदा सनातन ही होता है अतः धर्म में धर्म गुरु का कोई स्थान नहीं है. भारत में आदि काल से गुरु शिष्य परम्परा रही है और गुरु शिष्य के अज्ञान को दूर करने का प्रयास करते हुए प्रतिबोध धरातल को पुष्ट करने का भरसक प्रयास  शिष्य के भिन्न भिन्न प्रश्नों का उत्तर देते हुए करते थे. इसी कारण अनेक मत मतान्तर प्रचलन में आये और आज भी हिन्दू समाज खुली सोच रखता है इसलिए हर व्यक्ति धर्म के विषय में स्वतंत्र है. वर्तमान में विज्ञान और सुविधा भोगी समाज में बहुत कुछ बदल गया है. लोग धन से सब कुछ खरीदना चाहते हैं, कुछ मूड़ता और गरीबी के मारे हैं. इस मनोवज्ञान को समझकर कुछ साधू एवं विचारक स्वयं अपने को धर्मगुरु घोषित कर ईश्वर से मिलाने का का दावा करते हैं पर धर्मगुरु शब्द ही शास्त्र सम्मत नहीं है. धर्म जो सदा सनातन है में स्वयं धर्म को गुरु माना जाता है. धर्म का कोई गुरु नहीं होता है, न हो सकता है.
धर्म का अर्थ है धारण करने वाला और धारण जिसने इस  सृष्टि  को किया है उसे आत्मा, परमात्मा अथवा ईश्वर कहते हैं. अतः अनादि तत्त्व आत्मा का न कोई गुरु है न कोई शिष्य इसलिए कोई भी धर्म गुरु नहीं हो सकता. हाँ धर्म पर विचार करने वाले, उसे दूसरे को बताने वाले को विचारक, प्रबोधक, दार्शनिक, आचार्य कहना उचित है. धर्म गुरु तो मीडिया का दिया हुआ नाम है. 
आदि शंकर कहते हैं-
न बन्धुर न मित्रं गुरुर नैव शिष्यः 
चिदानंद रूप  शिवोहम  शिवोहम 
अष्टावक्रगीता कहती है-
अयं सोऽहंमयं नाहं विभाग मिति संत्यज 
सर्वमात्मेति निश्चित्य निःसंकल्प सुखी भव.15-15
यह मैं हूँ यह मैं नहीं हूँ इस विषय को छोड़ दे. सभी आत्मा हैं यह निश्चय कर और कुछ भी न सोच, न संकल्प कर कि मैं गुरु हूँ मैं शिष्य हूँ. संकल्प मुक्त होने पर ही तू सुखी होगा.
आदि शंकर ने धर्म उपलब्धि के सिधान्तों की विकृति रोकने के लिए चार मठों की स्थापना की और आचार्य नियुक्त किये जो शंकर पीठाचार्य कहलाते थे और कालान्तर में शंकराचार्य हो गए. इनको आज अपने अपने सिंहासनो में बैठने से फुरसत मिले तभी तो वह धर्म उपलब्धि के सिधान्तों और सामाजिक विकृति की ओर देखंगे. जब शंकर के उताराधिकारी ही अपने को धर्मगुरु कहलाना पसंद करते हों तो फिर किसका ज्ञान किसका अज्ञान. यही नहीं आज  देश मैं 100 से अधिक स्वयंभू शंकराचार्य हो गए हैं तो कई जगत गुरु, इनमें से कई इतने संवेदनशील हैं कि कोई साधारण व्यक्ति श्रद्धावश इनके पाँव छूने चले जाय तो ऐसे उछलते हैं जैसे बिजली का करंट लग गया हो और यदि माल पानी वाला आसामी आ जाय तो इनकी मोहक दन्त छटा देखने लायक होती है.
तत्त्वज्ञानी योगी तो किसी में भेद नहीं करते पर जो अपने शरीर से ही चिपका है उसकी  गति का अंदाजा आप लगा सकते हैं. बड़े खेद से लिखना पद रहा है कि टीवी, मीडिया और धर्म में वी आई पी आडम्बर ने अच्छे संतों को जन समुदाय से दूर कर दिया है.
जो संत, साधू, जगत गुरु वी आई पी आडम्बर जैसे सिक्यूरिटी, गनर आदि के साथ रहते हों उनको तत्काल स्वांग छोड़कर दुनिया में एक सांसारिक  रूप से वापस हो जाना चाहिए क्योकि वहां अन्दर से सब गड़बड़ है.
सन्यासी अथवा संत हो तो तदनुसार आचरण आवश्यक है. यदि वर्णाश्रम मर्यादा का पालन नहीं कर सकते तो फिर सन्यासी क्यों बने.
संत, सन्यासी होकर मृत्यु भय है तो फिर क्या पाया?
उपाधि और सिंहासन तत्काल त्यागो. एक कुत्ते और ज्ञानी को सम भाव से देखो. सरल होकर सबसे सदा मिलो. मीडिया का लोभ छोडो, वी आई पी आडम्बर छोड़ो. 
जो सम्पति तुमने धर्म के नाम से अर्जित की है उसे जरूरत मंदों में बाँट दो यही नारायण सेवा होगी.
मंदिरों का धन राष्ट्र को समर्पित कर दो. अपनी मोह माया दूर करो तब दूसरों की मोह माया दूर कर पाओगे. अपना उद्धार करो दूसरे का ठेका मत लो. उसे केवल यह बताओ कि तू भी हमारी तरह ही है सदा शुद्ध है. तुझे स्वयं अपना उद्धार करना होगा.
यह जान लो अन्दर से गड़बड़ साधू की गति शोचनीय है. तुम्हारी आत्मा तुम्हारा कल्याण करे.

Tuesday, July 16, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - साधू और संत - तपसी धनवंत दरिद्र गृही कलि कोतुक तात न जात कही.'- 93 - बसंत

प्रश्न- साधू और संत कितने प्रकार के होते हैं.
उत्तर- वास्तव में साधू और संत का कोई प्रकार नहीं होता, कोई किस्म और भेद नहीं होता. यथार्थ अनुभूत ज्ञान ही उनकी पहिचान है परन्तु ज्ञान और त्रिगुणात्मक प्रकृति के आधार पर चार प्रकार के साधू संत समाज में दिखाई देते हैं.
1 - परमहंस 
2-सतोगुणी साधू 
3- रजोगुणी साधू 
4- तमोगुणी साधू 
1 - परमहंस -आज के युग में परमहंस का मिलना कठिन है.जो कोई परम हंस के नाम से जाने जाते हैं वह गड़बड़ साधू हैं. परमहंस कोई डिग्री नहीं है वह तो दिव्य कमल की भांति सर्वत्र सभी को अपनी सुगंध से आकर्षित करता है. भगवद्गीता में परमहंस योगी के लक्ष्ण बताये गए हैं.
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः ।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ।56-2।
जिसका मन दुखः में उद्विग्नता को प्राप्त नहीं होता, जिसकी सुखों से कोई प्रीति नहीं है, दोनो अवस्थाओं में जो निस्पृह है, जिसके राग, क्रोध, भय समाप्त हो गये हैं, जो अनासक्त हो गया है, उसकी बुद्धि स्थिर कही जाती है।
यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्‌ ।
नाभिनंदति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।57-2।
जो इस संसार में उदासीन होकर विचरता है, सभी वस्तुओं में वह स्नेह रहित होता है शुभ और अशुभ की प्राप्ति होने पर उसे न हर्ष होता है न वह द्वेष रखता है, वह स्थित प्रज्ञ कहा जाता है।
नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित्‌ ।
पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपंश्वसन्‌ ।8-5।
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि ॥
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्‌ ।9-5।
तत्व को जानने वाला योगी, मैं पन के अभाव से रहित हो जाता है और वह देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूघंता हुआ, भोजन करता, हुआ गमन, करता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ, बोलता हुआ, त्यागता हुआ, ग्रहण करता हुआ, आँख खोलता हुआ, मूँदता हुआ किसी भी शारीरिक कर्म में सामान्य मनुष्य की तरह लिप्त नहीं होता है। वह यह जानता है कि इन्द्रियाँ अपने अपने कार्यों को कर रही हैं अतः उसमें कर्तापन का भाव नहीं होता है।
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्‍गं त्यक्त्वा करोति यः ।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ।।10-5।।
जो सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके आसक्ति का त्यागकर कर्म करता है और कभी भी कर्म बन्धन में लिप्त नहीं होता है, जैसे कमल का पत्ता जल में रहते हुए भी जल से लिप्त नहीं होता है।
युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्‌ ।
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ।12-5।
कर्म योगी कर्म फल की आसक्ति का पूर्णतया त्याग करके निरन्तर शान्ति को प्राप्त होता है। क्योंकि वह पूर्ण ज्ञान को प्राप्त हो जाता है; उस सम्पूर्ण ज्ञान की शान्तावस्था में निरन्तर रमण करता है और जो सकाम पुरुष हैं वह विभिन्न इच्छाओं के लिए फल में आसक्त होकर कर्म बन्धन में फॅसते हैं।
सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी ।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्‌ ।13-5।
जो मनुष्य नवद्वार वाले शरीर में सभी कर्मो को मन से त्यागकर अर्थात अकर्ता भाव से कर्म करते हुए फल की इच्छा त्याग देता है और शरीर में रहते हुए भी नहीं रहता है, ऐसा वशी पुरुष जिसने मन से इन्द्रियों का निग्रह कर लिया है; जिसकी बुद्धि स्थिर है, जो कर्म फल की इच्छा से मुक्त है, न करता हुआ, न करवाता हुआ आत्मानन्द में रहता
इससे आप यह न समझ लें कि पृथ्वी परमहंस योगी विहीन है. हाँ इनका दर्शन दुर्लभ है और इनकी स्थिति रमता जोगी बहता पानी की तरह है. 

2-सतोगुणी साधू - इस कोटि के साधू भी नगण्य हैं. इस कोटि के संत अपनी साधना में लगे रहते है. यह प्रचार प्रसार से दूर सरल हृदय पुरुष बड़े भाग्य से मिलते हैं. टीवी प्रसारित सत संग में जबरन विवश कर लाये हुए ही यदा कदा दिख सकते हैं.

3- रजोगुणी साधू  - यह दूरदर्शन के साधू हैं जो सदा प्रचार प्रसार में रहते हैं. आज कल इनका ही बोल बाला है. भीड़ इकठी करना, भिन्न भिन्न भेष धारण करना इनका स्वभाव होता है. इनके विषय में तुलसीदासजी लिख  गए हैं. 
'हरइ सिष्य धन सोक न हरई सो गुरु घोर नरक महुं परई.' 

'मिथ्यारंभ दंभ रत जोई ता कहुं संत कहइ सब कोई.'  '

तपसी धनवंत दरिद्र गृही कलि कोतुक तात न जात कही.' आदि.
यह सब वी आई पी साधू हैं. इनका पहनावा कुछ भी हो सकता है. यह आधे गड़बड़ साधू हैं. इनके अन्दर सब गड़बड़ है पर इनके बाहर सब अच्छा है.
इनके विषय में एक महात्मा प्रवचन देते हुए कह रहे थे सतयुग, त्रेता, द्वापर में जो असुर थे वह कहते थे मुझको पूजो, केवल मेरी बात मानो वही इस जन्म में रजोगुणी टीवी बाबा होकर जन्में हैं. आप खुद निर्णय करें  केमरे के सामने एक्टिंग तो हो सकती है पर सत्संग होना विलक्ष्ण ही कहा जाएगा. 
इनमें कुछ विरले साधुओं  में रज की मात्रा कम और सत अधिक होता है यह अच्छे चिन्तक और विद्वान् तो होते हैं पर उपाधि रुपी व्याधि से ग्रस्त लोकेषणा के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन गवां देते हैं. कोई कोई इस वृत्ति से विमुख हो सतोगुण की और बड़ते हैं. आजकल तो कथावाचक भी राष्ट्रीय संत कहलाने लगे हैं. वेश चाहे गेरुआ हो, सफेद हो या सामान्य गृहस्थ का उपाधि और लोकेषणा छोड़े बिना परम पद नहीं पाया जा सकता है.
वी आई पी आडम्बर छोड़ना होगा. सिंहासन त्यागने होंगे, अपने पीछे कट आउट लगाने और टीवी मोह को छोड़ना होगा. दूर दर्शन विद्वानों आचार्यों, कथावाचक और दार्शनिकों के लिए छोड़ दें. 

तमोगुणी साधू-  यह अधर्म को धर्म मानते हैं. शास्त्रों के विपरीत वचन बोलते हैं. भय दिखाते हैं.अशुभ वेश धारण करते हैं. भूत, प्रेत को पूजनेवाले, अपने को ईश्वर से बड़ा मानने वाले, भक्ष अभक्ष खाने वाले अपनी आत्मा से ही शत्रुता रखते हैं. 

Saturday, July 6, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - साधक और ज्ञान -92- बसंत

प्रश्न- हमारी साधना का क्या स्तर है यह हर साधक जानना चाहता है, क्या आप पहले बताये तरीकों के अलावा कोई सरल मूल्यांकन विधि बता सकते हैं?
उत्तर- मनुष्य का मन पिछली बातों को याद करता है, भविष्य की चिंता करता है और वर्तमान के सुख दुःख को अनुभव करता है. अब आप अपना निरीक्षण करें, आप पिछली बातों को कितना याद करते हैं, आप किस मात्रा में भविष्य की चिंता करते हैं और वर्तमान के सुख दुःख से आप कितने उदासीन हैं. यदि आप पिछली बातों को बहुत कम  अथवा नहीं के बराबर याद करते हैं तो आपका धरातल ऊँचा है, इसी प्रकार भविष्य की चिंता नहीं करते हैं तो आप श्रेष्ठ स्तर में हैं .यदि वर्तमान के सुख दुःख से आप जिस मात्रा में उदासीन हो गए हैं उतना उच्च स्तर आपका है.
यदि आप वर्तमान के सुख दुःख से पूर्णतया उदासीन हो गए हैं . भविष्य की कोई फिक्र नहीं करते, आपके जीवन में पिछली बातों का कोई स्थान नहीं है तो आप मुक्त पुरुष हैं.
जीवन को दृष्टा हाकर अथवा साक्षी होकर जियें. संसार के सभी कर्म दृष्टा भाव से निमित्त मात्र होकर करें इससे मन स्वाभाविक वैराग्य को प्राप्त होगा.

प्रश्न- विद्या और अविद्या के अंतर को सरल रूप से समझाने का कष्ट करें?
उत्तर- जो संसार की और ले जाए वह अविद्या है. संसार का ज्ञान अविद्या है. जो अपने स्वरुप का बोध कराये, जो सृष्टि के परम सत को अनुभूत कराये वह विद्या है.

प्रश्न - आप ने बताया था की गुरु केवल शिष्य के प्रतिबोध के धरातल को ही पुष्ट करता है शेष शिष्य को स्वयं करना होगा. क्या यह आपका मत है अथवा अन्य किसी ब्रह्मज्ञानी ने भी इस प्रकार कहा है?
उत्तर- आदि शंकराचार्य आत्म अनुभव के बारे में बताते हुए कहते हैं-
तटस्थिता बोधयन्ति गुरवः श्रुतयो यथा 
प्रज्ञयैव          तरेद्विद्वानीश्वरानुगृहीतया- 477- विवेक चूड़ामणि 
श्रुति अर्थात वेद, उपनिषद के सामान गुरु भी ब्रह्म का केवल तटस्थ रूप से ही बोध कराते हैं अर्थात शिष्य के प्रतिबोध के धरातल को ही पुष्ट करते हैं. बुद्धिमान को चाहिए की ईश्वर द्वारा दी हुयी बुद्धि का सहारा लेकर संसार से पार हो जाए.
इसी प्रकार श्लोक 480 में कहते हैं - गुरु के प्रमाण युक्त वचन और अपनी युक्तियों द्वारा परमात्मतत्त्व को जानकार जब चित्त और इन्द्रियाँ शांत हो जाती हैं तब बोध प्राप्त होता है.

Thursday, July 4, 2013

तेरी गीता मेरी गीता -91- मृत्यु का विज्ञान और महावीर का जन्म और पुनर्जन्म- बसंत

प्रश्न- क्या मृत्यु के विज्ञान को सरलता पूर्वक उदाहरण देकर समझाया जा सकता है?
उत्तर- हाँ. मृत्यु के विज्ञान को समझने के लिए स्वप्न और सुषुप्ति को समझना होगा. एक व्यक्ति  स्वप्न में देखता है कि वह  कार चला रहा है, कार एक पेड़ से टकरा जाती है और खाई में गिर जाती है. इसी प्रकार स्वप्न में देखता है कि उसकी किसी ने चाकू से ह्त्या कर दी आदि. इस घटना से उसकी मृत्यु हो जाती है. इसके बाद वह गहरी नींद में चले जाता है. यही मृत्यु में होता है आप गहरे तमस- अन्धकार-(अज्ञान) में खो जाते हैं. कभी कभी आप मृत्यु के बाद देखते हैं  आप को कोई देव दूत ले जा रहे हैं, कभी रथ में बैठा देखते हैं, तो कभी भयानक यम दूत बिखाई देते हैं, यह सब उसी प्रकार है जैसे स्वप्न म्रत्यु के बाद के बाद दूसरा स्वप्न का चालू हो जाना जैसे मृत्यु के स्वप्न के बाद आप अपने को दिव्य रथ मैं बैठा देखें, उड़ता हुआ देखें या कहीं गन्दगी में पड़ा देखें. यह सब मन की शरारत है. यह मन ही आप का भिन्न भिन्न रूप धारण करता है.
यह मन ही इस जिन्दगी में दुःख सुख का कारण है और यही स्वप्न में भी दुःख सुख का कारण है और मृत्यु के समय भी दुःख का कारण है. मृत्यु को प्राप्त कुछ जीव तात्कालिक रूप से सुषुप्ति के समान कुछ भी महसूस नहीं करते है, कुछ स्वप्नवत दुःख सुख महसूस करते हैं. कालांतर (जो कुछ मिनट से कई वर्षों का हो सकता है) में पुनः सुप्त ज्ञान के जाग्रत हो जाने पर वह जीवात्मा कहीं भी प्रारब्ध वश जन्म लेकर दुःख सुख को भोगता है. यह सुप्त ज्ञान का जागरण नींद खुलने जैसा होता है.

प्रश्न- हमें स्वप्न की बातें याद रहती हैं पर पूर्व जन्म की बातें याद नहीं रहती. ऐसा क्यों?
उत्तर-  पहली बात है हमें सब स्वप्न याद नहीं रहते. दूसरी बात यह है स्वप्न का कुछ भाग ही याद रहता है.  तीसरा स्वप्न पूरा याद रहता है. इसी प्रकार ज्यादातर को पूर्व जन्म की याद नहीं होती है किसी किसी को धुंधली याद आती है और कुछ को सारी बात याद रहती है. दूसरा प्रमुख कारण है समय. स्वप्न और जाग्रति में कुछ घंटे का अंतर होता है और जन्म और पिछले जन्म के  बीच कई वर्षों (शैशवावस्था) का अंतर होता है. बच्चा माँ के गर्भ में फिर १-२ साल के बीच नए वातावरण में सब भूल जाता है. यह स्मृति बोध जीवन मुक्त पुरुषों और सिद्धों में सदा बना रहता है. यहाँ में प्रमाण स्वरुप जैन ग्रंथों में उपलब्ध  तीर्थंकर महावीर स्वामी के केवल पृथ्वी में हुए कुछ जन्मों का विवरण देना चाहूँगा जो सिद्ध होने पर उनके द्वारा बताये गए हैं.

1-पुरुरवा भील - विदेहक्षेत्र की पुन्डरिकिणी नगरी से श्रावको का संघ तीर्थयात्रा पर जा रहा था. इस यात्रा में सागरसेन नाम के मुनि भी थे. जंगल मार्ग से जा रहे थे.  पुरुरवा भील डाकुओ की टोली ने  मुनि व  श्रावको को मारने के लिए बाण चढाए. पत्नी ने रोका. मुनि की तेजस्वी मुद्रा से मन बदल गया.भील ने मुनिराज को वन मे से बाहर का रास्ता बताया. मुनि ने अहिंसा धर्मं को बताया पुरुरवा भील ने क्रूरता छोड़ दी.
2- मरीचि कुमार - मरीचि ऋषभ देव के पुत्र भरत के पुत्र थे. ऋषभ देव से  दीक्षा ली.  मुनि मार्ग छोड़ दिया और अलग होकर अलग वर्तन  सांख्यमत का प्रवर्तन किया.
3-प्रियमित्र ब्राह्मण 
4- पुष्पमित्र ब्राह्मण - बाल्यकाल मे संन्यासी होकर तप किया
5-अग्निसह ब्राह्मण -   संन्यासी होकर तप किया.
6-अग्निमित्र ब्राह्मण - युवावस्था मे गृह त्यागकर संन्यासी हुए.
7-भारद्वाज ब्राह्मण - इस जीवन में भी संन्यासी.
8-त्रस पर्याय - अनेक बार मनुष्य और देव गति मे भ्रमण अर्थात गर्भ में ही अनेक बार मृत्यु को प्राप्त हुए.
9-स्थविर ब्राह्मण - राजग्रुही मे जन्मे फिर संन्यासी हुए.  
10-विश्वनंदी - राजग्रुही नगरी मे विश्व भूति राजा के पुत्र हुए - विश्वभूति ने विशाखभुती को राज्य और विश्वनंदी को युवराज पद दिया.विश्वनंदी ने सुंदर उद्यान बनाया जिसमें उनका ममत्व अधिक था. विशाखनंदी ने उद्यान पर अधिकार  किया. इस कारण विश्वनंदी और विशाखनंदी के बीच युद्ध. विशाखनंदी शरण मे आकर क्षमा याचना करने लगा. विश्वनंदी का क्रोध शांत हुआ साथ ही भाई के साथ युद्ध करके लज्जित हुए. दीक्षा ली और अनेक उपवास, तप किए मुनि हो गए.  मथुरा में बैल ने सींग मारा, विश्वनंदी धरती पर गिर पड़े. विशाखानंदी ने इनके बल के बारे मे कटाक्ष किया. विश्वनंदी मुनि क्रोध मे बोलने लगे मैं तप के प्रभाव से भविष्य मे सबके सामने छेद डालूँगा.....
11-त्रिपुष्ठ वासुदेव - प्रजापति राजा के पुत्र के रूप मे जन्म लिया. गाँव मे एक सिंह ने लोगो की हिंसा करके भयभीत कर रखा था. त्रिपुष्ठ ने सिंह को स्वयं मारने की इच्छा प्रकट की. सिंह से युद्ध कर पछाड़ दिया. विद्याधर के राजा की पुत्री स्वयंप्रभा का विवाह त्रिपुष्ठ के साथ हुआ. प्रतिस्पर्धी राजा अश्वग्रीव अपमान करने लगा. दोनों के बिच युद्ध हुआ. क्रोध पूर्वक त्रिपुष्ठ ने अश्वग्रीव को मार डाला. 
12-सिंह - निर्दय सिंह 
13-सिंह - बलवान सिंह हुआ जिसकी गर्जना सुनकर जंगल के पशु कांप उठते थे. अमितकिर्ती और अमितप्रभ नाम के मुनि आकाशमार्ग से  सिंह को प्रतिबोध करने नीचे उतरे   मुनि की वाणी से पूर्व जन्मों का स्मरण हुआ. मुनि  ने बताया की भरत क्षेत्र के चौबिसवें  तीर्थंकर बनोगे. सिंह योनी में सम्यग्दर्शन  हुआ. एक ही करवट बैठा रहा शरीर शांत हो गया. 
14-कनकध्वज - विदेह्क्षेत्र मे कनकप्रभ राजा के पुत्र हुए. सुंदरवन मे यात्रा करने गए, वहां तेजस्वी मुनि इनको को देखकर अति प्रसन्न हुये और दीक्ष्ह लेने को कहा. यह जीवन  वैराग्यपूर्वक बीता.
हरिषेण-व्रजधर राजा के पुत्र के रूप मे जन्म हुआ. इस जन्म में श्रावक के १२ व्रत धारण किए तथा दीक्षा लेकर वन मे जाकर  मग्न हो गए और समाधि पूर्वक शरीर त्याग किया.
15-प्रियमित्र- विदेह्क्षेत्र मे धनंजय राजा के पुत्र के रूप मे जन्मे. राजा ने राज्य इनको सौंप दिया.यह  राज्य के साथ साथ अणुव्रतों का भी पालन करते थे. कालान्तर में चित्त संसार से विरक्त हुआ और  जिन दीक्षा ली और पालन किया.
16-नंदन- भरतक्षेत्र के पूर्व भाग मे श्वेतनगरी मे राजा नन्दिवर्धन के पुत्र के रूप मे जन्म हुआ. पिता के बाद नन्द   ने राज्य का भार संभाल लिया. प्रौष्ठल नाम के श्रुतकेवली मुनि श्वेतपुरी में आए थे  जिनके  उपदेश  से  जातिस्मरण हुआ  पूर्व जन्म याद आ गए. मुनि ने दीक्षा लेने को कहा.  दीक्षा अंगीकार की. इस जन्म में तीर्थंकर नामकर्म बंधना प्रारम्भ हो गया. इनमें सोलह प्रकार की मंगल भावना जागृत हुई और सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ. इस जन्म में समाधि मरण को प्राप्त हुए.
17- तीर्थंकर  महावीर स्वामी

Tuesday, July 2, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - बोधिसत्त्व - 90 -बसंत

प्रश्न- कुछ मत्वपूर्ण बाते बताने की कृपा करें.

उत्तर-१- यह महत्वपूर्ण नहीं है कि बूँद सागर में मिल जाए, महत्वपूर्ण यह है कि सागर बूँद में समा जाए. यह महत्वपूर्ण नहीं है कि तुम परमात्मा में विलीन हो जाओ, महत्वपूर्ण यह है कि परमात्मा तुम में समा जाए. 
२- शान्ति, आनंद, प्रेम पूर्णता न होकर पूर्णता का प्रसाद हैं.
3- जब तक आप अपने नियंता नहीं हो जाते तब तक सब व्यर्थ है.
४- नियंता का प्रसाद ही शान्ति, आनंद और प्रेम है.
५- पूर्ण विशुद्ध ज्ञान की प्राप्ति से ही मनुष्य अपना नियंता हो सकता है.
६- तुम्हारे अन्दर ही सम्पूर्ण अस्तित्व छिपा है.
७- तुम नित्य शुद्ध बुद्ध हो.
८- जो यह सृष्टि है वह मैं हूँ जो सृष्टि से परे है वह भी मैं हूँ.
९- सृष्टि जब तक तुम्हारे बाहर है तुम सृष्टि की जेल में कैद हो जैसे ही तुम इस जेल को तोड़ डालते हो, तुम मुक्त हो जाते हो और तुम इतने विराट हो जाते हो कि सृष्टि तुम्हारे अन्दर आ जाती है.
१०- जड़ और चेतन दोनों परमात्मा से ही उपजे हैं. 
११- कुछ भी कर लो यथार्थ ज्ञान अनुभूति के बिना कोई तुमको मुक्त नहीं कर सकता.
१२- सृष्टि के प्रत्येक परमाणु में उसका अस्तित्व छिपा है जिसे कोई नष्ट नहीं कर सकता.

Monday, July 1, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - सोऽहं - 89 - बसंत

प्रश्न- कई महात्मा सोऽहं के जप को बड़ा महत्व देते हैं. आपका इस विषय में क्या अभिमत है?
उत्तर- पहले आप सोऽहं को समझिये. सोऽहं  का अर्थ है मैं वही हूँ. वही अर्थात परमात्मा. वैदिक एवं उत्तर वैदिक मंत्र अहम् ब्रह्मास्मि, अयमात्मा ब्रह्म, शिवोहम, नारायणोहम को ही ध्वनित करने वाला शब्द सोऽहं है. यह ॐ (ओंकार) ही है. सोऽहं का तात्पर्य है जो ॐ स्वरुप परमात्मा है वह मैं हूँ. 

प्रश्न- यह ॐ (ओंकार) ही सोऽहं कैसे है.
उत्तर- ॐ समस्त सृष्टि और सृष्टि से परे का सूचक है. यह शब्द ब्रह्म भी कहा गया है. अध्यात्म में शब्द का वास्तविक अर्थ है यथार्थ पूर्ण ज्ञान अर्थात पूर्ण वास्तविकता. ॐ परमात्मा का नाम है. यह परमात्मा का अहंकार है. ॐ कोई ध्वनि नहीं है. ॐ शब्द पूर्ण विशुद्ध ज्ञान में हलचल की अवस्था को दिया गया नाम है. इस पूर्ण विशुद्ध ज्ञान में हलचल होते ही अव्यक्त अवस्था जन्म, स्थिति और लय में रूपांतरित हो गयी साथ ही अपने मूल स्वरुप में भी स्थित रही. हिन्दुओं में जन्म, स्थिति और लय  ही त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और शिव शंकर की द्योतक ॐ को ही प्रतिध्वनित करती है. बाइबिल भी कहती है की जब सृष्टि नहीं थी तब शब्द था. यहाँ शब्द का अर्थ ध्वनि से न होकर ज्ञान (यथार्थता) है.
प्रश्न- ज्ञान में हलचल की अवस्था को ॐ ही नाम क्यों दिया गया?
ॐ अ, उ, म तीन अक्षरों से बना है. अ की ध्वनि करते हुए मुंह खुलता है, उ की ध्वनि करते हुए ध्वनि का विस्तार होता है और मुंह खुला रहता है म की ध्वनि के साथ मुंह बंद हो जाता है. यह तीन अवस्था सृष्टि का जन्म, विस्तार जिसे स्थिति कहा है और अंत है. इसके अलावा ॐ में बिन्द्दु भी लगा होता है जो सृष्टि से परे परम सत्य का परमात्मा का द्योतक है.
ॐ शब्द परम ज्ञान जिसे परमात्मा कहते हैं के वास्तविक स्वरुप और विशेषताओं को पूर्ण रूप से स्पष्ट करता है इसलिए यह परमात्मा का वास्तविक नाम है. श्री भगवन भगवद गीता  में  कहते हैं -ओम इति एकाक्षरं ब्रह्म. ओम ही ब्रह्म है और इसे व्यवहार में स्वीकारते हुए सदा परमात्मा का चिंतन करना चाहिए.

प्रश्न- क्या सोऽहं बोध की अवस्था है?
उत्तर- हाँ सोऽहं  बोधावस्था है. ॐ तत्त्व जब अनुभूत हो जाता है तो साधक स्वयं जानता है कि वह, प्रकृति और पुरुष सब एक ही हैं. कहीं भी द्वैत नहीं है. जो परमात्मा है वह स्वयं है तब वह स्वतः ही कहता है सोऽहं, अहम् ब्रह्मास्मि, शिवोहम, नारायणोहम. इसलिए बिना ॐकार को अनुभूत किये सोऽहं से कोइ लाभ नहीं होता क्योकि जब तक मिथ्यात्मा है तब तक सोऽहं जो बोध स्वरुप है कैसे और किस प्रकार कोई जान सकता है. इसलिए 'एक ॐकार सत नाम' जानकार ॐ का ही जप, व्यवहार में स्मरण करना चाहिए. सोऽहं खुद प्रगट होगा.

Monday, June 24, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - जीवात्मा का क्या स्वरुप है?- 87- बसंत

प्रश्न- जीवात्मा का क्या स्वरुप है?
उत्तर- जीवात्मा जब जहाँ होता है वैसा स्वरुप धारण कर लेता है.

प्रश्न- कृपया इसे स्पष्ट करें.
उत्तर - यह कुत्ते में है तो कुत्ता, तितली में है तो तितली, बिल्ली में है तो बिल्ली, मोहन नाम के आदमी में है तो मोहन, सविता नाम की स्त्री में  है तो सविता, बच्चे में है तो बच्चा, बूड़े में है तो बूड़ा. यही नहीं यह पेड़ में है तो पेड़, पत्थर में है तो पत्थर, मिट्टी में है तो मिट्टी के कण  का आकार ले लेता है. इसी प्रकार सूर्य में यह सूर्य है तो पृथ्वी में पृथ्वी के आकर का है, वायु में यह वायु हो जाता है तो आकाश में आकाश. यह जब जिस पदार्थ की कल्पना करता है तत्क्षण उस स्वरुप को धारण कर लेता है. इसका कोई आकार नहीं है यह सूक्ष्म से भी सूक्ष्म और विराट से भी अधिक विराट है. यह स्वयं ब्रह्म है. 

प्रश्न- एक व्यक्ति मोहन है तो यह मोहन है पर यदि वह कल्पना करे तो वह सविता कैसे हो सकता है?
उत्तर- जितनी देर मोहन अपने अस्तित्व प्रतीति को सवितामय करेगा वह उतनी देर सविता हो जाएगा. जैसे एक  व्यक्ति पुत्री के सामने पिता, माता के सामने पुत्र और पत्नी के सामने पति हो जाता है.शरीर  नहीं बदला पर जीव स्वरुप बदल गया. शरीर की भावना, क्रिया, सोच सब बदल गयी.यह भावना जितने समय स्थिर होगी यह भी वैसा ही होने लगेगा, चूँकि हम अपनी अस्मिता प्रतीति से इतने अटूट रूप से बंधे होते हैं की देह रूपांतरण नहीं हो पाता और यदि अस्मिता प्रतीति नष्ट हो जाय तो यह तत्क्षण दूसरा हो जाता है.
    

Wednesday, June 19, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - ब्रह्म सत्यम जगत मिथ्या - 86 - बसंत


प्रश्न- शंकाराचार्य के इस सूत्र 'ब्रह्म सत्यम जगत मिथ्या जीवो ब्रह्मेव नापराह' का क्या मतलब है? जब से यह सिद्धांत आया है तबसे इस विषय में  कोई स्पष्टता से कुछ नहीं कह सका है, कुछ विद्वानों और आचार्यों ने तो इसके  जगत मिथ्या विषय में संशोधन कर डाला है.

उत्तर-शंकाराचार्य के इस सूत्र 'ब्रह्म सत्यम जगत मिथ्या जीवो ब्रह्मेव नापराह' (ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है और जीव ही ब्रह्म है) को दो ही मनुष्य सही रूप में सरलता से बता सकते हैं. एक वह जिसको बोध हो गया हो दूसरा जिसका प्रतिबोध प्रभु के कृपा से पुष्ट हो गया हो. 

प्रश्न- क्या आप हमें बताने का कष्ट करंगे?

उत्तर- ब्रह्म सत्य है इसे सभी स्वीकार करते हैं पर ब्रह्म को ठीक प्रकार से जानते नहीं हैं कि ब्रह्म क्या है? पहले ब्रह्म को समझो. ब्रह्म पूर्ण शुद्ध ज्ञान की अवस्था है जहाँ कोई हलचल नहीं है. यह सृष्टि और सृष्टि से परे जो भी है उसका मूल तत्त्व है. सम्पूर्ण सृष्टि इससे ही प्रकट होती है, इसमें ही स्थित रहती है और इसमें ही समा जाती है. यह आदि कारण ही सत्य है, यह सदा एकसा रहता है, यही परम अस्तित्त्व है जिससे अस्तित्व और अज्ञान प्रकट होते हैं और फिर अज्ञान से अस्तित्व दुबारा जीव रूप में प्रकट होता है.
जगत मिथ्या का अर्थ है जो पदार्थ अथवा गुण अभी है, आज है पर कुछ क्षण बाद अथवा कल उस रूप में नहीं होता है. संसार सदा परिवर्तनशील है. कोई वस्तु विकास को प्राप्त हो रही है तो कोई वस्तु विनाश को प्राप्त हो रही है, जो वस्तु आज सुख है वही कल दुःख है और जो आज, अभी दुःख है वह कल सुख है. कोई भी वस्तु सदा एक सम नहीं रहती. यहाँ तक की पृथ्वी, सूर्य सभी की निश्चित आयु है. 

प्रश्न-  ब्रह्म सत्य है तो फिर इससे मिथ्या जगत कैसे पैदा हुआ?

ब्रह्म पूर्ण शुद्ध ज्ञान की अवस्था है, ज्ञान में अस्तित्व बोध स्वाभाविक है .इसी कारण ब्रह्म में अस्तित्व 'मैं हूँ' बोध हुआ. यह अस्तित्व बोध शुद्ध था. जब भी कोई क्रिया होगी कोई दूसरा विपरीत अथवा अन्य  तत्त्व अस्तित्व में आयेगा और पूर्ण शुद्ध अस्तित्व के विपरीत अज्ञान अस्तित्व में आया. चूँकि  यह मूल नहीं है इसलिए असत कहा गया. इसे जड़ भी जाना जाता है. इसे आप इस प्रकार भी जान सकते है जैसे पदार्थ वैज्ञानिक के आधार पर ऊर्जा शुद्ध स्वरुप है और उससे निर्मित भिन्न भिन्न तत्त्व ऊर्जा के अशुद्ध अथवा असत रूप हैं, जिनमें ऊर्जा अन्दर छिपी बैठी है इसी प्रकार यह जगत ब्रह्म का असत रूप सर्वत्र स्थित है जहां ब्रह्म जीव रूप में छिपा बैठा है.. 
जीव का अर्थ है पूर्ण विशुद्ध ज्ञान का अंश. यह अज्ञान से मिला जुला अवश्य है पर ज्ञान होने से मूल रूप में शुद्ध है. इसे अज्ञान के संग रहने से उसमें आसक्ति हो गयी है, यह जगत अज्ञान-पदार्थ जो जड़ है से उत्पन्न और परिवर्तनशील होने के कारण असत है, से आसक्ति के कारण शुद्ध ज्ञानमय जीव बंध जाता है. इसलिए परमात्मा से उत्पन्न  संसार हर परमाणु में जीव उपस्थिति के कारण असत होते हुए भी सत भासित होता है. जीव ही ब्रह्म है. ब्रह्म की बंधनमय अवस्था जीव कहलाती है. जीव अज्ञान का सीना फाड़ कर बाहर आता है और यही जगत को स्थान देता है. इसे इस प्रकार भी कहना उचित होगा कि यह प्रकृति के गर्भ से उत्पन्न होता दिखाई देता है और उसे जीवन देता है.
अब इसे सरल रूप से समझें अ- परमात्मा  के दो भाग हुए १- शुद्ध बोध २- अज्ञान. अज्ञान परमात्मा से ही उत्पन्न है इसलिए वह परमात्मा अज्ञान में भी छिपा रहता है. बोध का जन्म अज्ञान के अन्दर से दुबारा होता है. 
ज्ञान अज्ञान का मिलाजुला स्वरुप यह जगत है और विलक्षणता यह है कि दूसरी बार अज्ञान के अन्दर से जन्मा जो बोध है वह सृष्टि में परमात्मा का अंश होकर सर्वत्र व्याप्त है और अज्ञान भी सर्वत्र व्याप्त है. यह अज्ञान में स्थित और बाहर प्रकट होने वाला बोध सृष्टि को धारण किये हुए है. यदि जगत अथवा सृष्टि से ज्ञान निकल जाए तो  पदार्थ बिना आधार का हो जाएगा और सृष्टि तत्काल नष्ट हो जायेगी. 
रात को आप नींद में चले जाते हैं. नींद में दो तत्त्व रहते है नींद और नींद का बोध करने वाला. यही सृष्टि का रहस्य है. इसे आप ज्ञान और अज्ञान समझ लें. अब इस अज्ञान रुपी नींद के सीने से स्वप्न उदय होता है यह ही जगत है जो असत है पर जो नींद और स्वप्न में जो एक सा था जिसे बोध कहते हैं वह सत है. इन दोनों ज्ञान अज्ञान की एक स्थिति अव्यक्त ब्रह्म कही जाती है. इस अज्ञान के साथ रहते हुए इसके गुणों से आकर्षित हुआ बोध इनकी कामना करने लगता है और वह शुद्ध चैतन्य 'मैं' इस के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ लेता है और अपने ब्रह्म स्वरुप को भूल जाता है और जीव कहलाता है. वह इस जगत से  आकर्षित हुआ अपनी आसक्ति में मस्त अपने शुद्ध स्वरुप को भूल जाता है. इस जीव को चेताने के लिए शंकर कहते हैं 'ब्रह्म सत्यम जगत मिथ्या' 

Friday, June 7, 2013

तेरी गीता मेरी गीता- मृत्यु का कारण क्या कर्म हैं? क्या हम कर्म के लिए स्वतंत्र हैं अथवा परवश हैं?-85- बसंत

प्रश्न- क्या हम कर्म के लिए स्वतंत्र हैं अथवा परवश हैं?
उत्तर- हम कर्म के लिए स्वतंत्र दिखाई देते हैं, वास्तविकता में हम कर्म के लिए परवश हैं. कर्म का सिद्धांत बहुत जटिल है. असल में हर कर्म के पीछे कोई न कोई कारण और उसका प्रभाव है. यह दोनों कारण और प्रभाव अदृश्य  होकर किसी भी घटना और कर्म के लिए उत्तरदायी हैं. इस  संसार में छोटी से लेकर बड़ी घटना जो भी घटित हो रही है उसके पीछे कोई न कोई कारण अवश्य है. हम सोचते हैं मैं शायद यह न करता तो ऐसा न होता पर आप उस कर्म को करने के लिए प्रतिबद्ध है इसी प्रकार दूसरा जो कर्म का निमित्त बना वह भी प्रतिबद्ध है. आपके साथ जो भी होता है या होने जा रहा है प्रकृति उस घटना के लिए परिस्थिति पैदा कर देती है.
पदार्थ और प्राणी के साथ सदा तीन स्थितियां रहती है. जन्म, जीवन और मृत्यु इन तीनो स्थितियों के लिए दृश्य और अदृश्य रूप आप और दूसरा प्रतिबद्ध है. हम जाने अनजाने में अनेक प्राणियों की  ह्त्या करते हैं कालान्तर में किसी न किसी रूप में वह जीव ही हमारी मृत्यु का कारण बनते हैं. अनजाने में हुई हिंसा उस जीव का प्रारब्ध था. हम उसकी मृत्यु का कारण बने और जान कर हुई ह्त्या उसके प्रारब्ध वश और उस कर्म के साथ साथ हमारा प्रारब्ध जुड़ जाता है. कालान्तर में किसी न किसी रूप में संयोग और परिस्थिति उत्पन्न होकर हमें कर्म फल भोगना पड़ता है.
श्री भगवान् भगवदगीता के अठारहवें अध्याय में बताते हैं-
सब प्राणी की देह में बैठे हैं भगवान
यन्त्र आरूढ़ सब भूत को, प्रकृति नचाती नाच।। 61-18।।बसंतेश्वरी गीता
मैं आत्मा सभी प्राणियों के हृदय में सम्पूर्ण ईश्वरीय शक्तियों के साथ स्थित रहता हूँ, प्रकृति (माया) का सहारा लेकर सभी भूतों को उसके कर्मों के अनुसार जिससे जैसा कराना है कराता हूँ। उसे भ्रम में डाल अथवा वैसी परिस्थितियाँ उत्पन्न कर नियत कर्म के लिए परवश देता हूँ।
इस संसार में जो भी हो रहा है वह कर्म बंधन है.इसे आप क्रिया प्रतिक्रया कह सकते है. प्रतिक्रया तात्कालिक भी हो सकती है और लम्बे समय के बाद परिणाम भी दे सकती है. यही कर्म बीज है और यह कर्म ही मृत्यु का कारण हैं.

प्रश्न- कर्म मृत्यु का कारण कैसे हैं?
उत्तर- कर्म अथवा क्रिया चाहे कितनी ही शुभ हो या अशुभ आप के द्वारा जड़ और चेतन प्रभावित होते हैं इसी क्रम में आप जाने अनजाने कई की मृत्यु का कारण बनते हैं, उनको नष्ट करते हैं और वही आपकी मृत्यु का कारण होते हैं. केवल स्वरुप परिवर्तन के कारण सब को कारण अलग अलग दिखाई देता है. इसी प्रकार हम जो भी अच्छा अथवा बुरा कार्य कर रहे हैं और हमारे साथ जो भी अच्छा और बुरा होता है, हो रहा है और होयेगा यह सब केवल संयोग का परिणाम है जिसके लिए हम अथवा हमारे कर्म उत्तरदायी हैं.

प्रश्न - फिर अमरत्व कैसे प्राप्त हो सकता है?
उत्तर- जब तक कर्म हैं तब तक अमरत्व नहीं हो सकता. कर्म ही मृत्यु का कारण हैं. कर्म चाहे शुभ हो अतवा अशुभ, यह हमें मृत्यु की और ले जाते हैं और यही हमारे जन्म का कारण हैं.

प्रश्न-  क्या अमरत्व झूठी बात है? क्या अमरत्व नहीं है/
उत्तर- अमरतत्व पाया जा सकता है  इसके लिए कर्म छोड़ने होंगे.

प्रश्न- यह कैसे संभव है?
उत्तर- आपको 100% दृष्टा अथवा साक्षी होना होगा. उससे पहले आप कोई भी जतन कर लें मृत्यु अवश्य आयेगी. 100% दृष्टा अथवा साक्षी स्थिति में आप बोध के साथ शरीर से बाहर हो जायेंगे, तब न कोई कर्म होगा न कर्म बंधन और परिणाम.
कर्म की दृष्टि से तुम किसी के काल हो तो कोई तुम्हारा काल है, तुम किसी के रक्षक हो तो कोई तुम्हारा रक्षक है, किसी ने तुमको जन्म दिया तो किसी को तुम जन्म देते हो.यही प्रकृति बंधन है, यही कर्म बंधन है और अनादि है. जब तुम इन सभी कर्मों को देखने लग जाते हो तो यह प्रकृति रुक जाती है, यही अमृत की घड़ी है.इसकी पूर्णता तुम्हारी पूर्णता है.

Wednesday, June 5, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - असुर - कल के असुर आज के असुर - 84 - बसंत


प्रश्न- असुर किसे कहतेहैं?  क्या वे होते थे?

उत्तर- असुर पहले भी होते थे, आज भी है तथा कल भी रहंगे. असुर का अर्थ है बिना सुर का. जिसके जीवन में कोइ सुर न हो, जिसका जीवन संगीत मर गया हो उसे असुर कहते है. किस्से कहानियों में असुर बड़े बड़े दांत वाले, सर में सींग, बड़े बड़े नाखून वाले दिखाए जाते हैं पर ऐसा नहीं है. असुर एक स्वभाव है जो सदा रहा है और सदा रहेगा. भगवदगीता के सोलहवें अध्याय में आसुरी स्वभाव की विस्तार से चर्चा हुयी है.
वास्तविकता छिपाकर मिथ्या रूप दिखाना, ईश्वर भक्ति का गर्व पूर्वक बाजार में प्रचार करना, दर्प, सबको नीचा दिखाने की आदत, आधा जल भरा हुआ गागर जिस प्रकार छलकता है उसी प्रकार जो प्रभुता को नहीं पचा पाता, अभिमान अर्थात अपने को, अपने ज्ञान को श्रेष्ठ मानना, क्रोध, कठोर वाणी से दूसरे को जलाना, अपमान करना, मूढ़ता जो शुभ और अशुभ में फर्क नहीं कर सकता, आसुरी सम्पदा को लेकर उत्पन्न पुरुष के लक्षण हैं।
आसुरी स्वभाव वाले नहीं जानते कि किस कर्म को करना चाहिए किस कर्म से दूर रहना चाहिए, किस कार्य से स्वयं उनकी हानि होगी तथा किसी कार्य से उन्हें फायदा होगा इस विषय में वह मूढ़ होते हैं क्योंकि अत्याधिक तम और रज का प्रभाव उनमें होता है। न उनका अन्तःकरण शुद्ध होता है न वह शारीरिक रूप से पवित्र होते हैं, उनका कोई आचरण श्रेष्ठ नहीं होता, वह दूसरे को अपमानित करने वाले, कष्ट देने वाले गलत मार्ग में डालने वाले होते हैं। सत्य से कोई प्रीति अर्थात अज्ञान का नष्ट करने के लिए उनका कोई कार्य नहीं होता, ज्ञान के लिए वह कभी लालायित नहीं रहते। वे आसुरी वृत्ति वाले जगत को आश्रय रहित, असत्य और बिना ईश्वर के मानते हैं। यह संसार स्त्री पुरुष के संयोग से उत्पन्न हुआ है और काम ही इसका कारण है, इसके सिवा और कुछ भी नहीं है। वह यह मानकर चलते हैं जो आज है वही सब कुछ है। भोग ही उनका जीवन है। शास्त्र उनके लिए मिथ्या है। दैवी सम्पदा मूर्खता है। देह ही उनके लिए सर्वोपरि है। उनके अनुसार पाप-पुण्य,  स्वर्ग-नरक, ज्ञान, ईश्वर सब कल्पना है। इस प्रकार मिथ्या दृष्टि को आधार मानकर चलने वाले जिनका ज्ञान नष्ट हो गया है, जिन की बुद्धि अल्प है, ऐसे आसुरी वृत्ति के लोग सबका अपकार करने वाले कठोर और निन्दनीय कर्म (विकर्म) में लगे रहते हैं। ऐसे मनुष्य से जड़ चेतन सभी त्रास पाते है। जगत के अहित के लिए ही इनका जन्म होता है। ये दम्भ, मान, मद से युक्त मनुष्य किसी भी प्रकार से पूर्ण न होने वाली कामनाओं का आश्रय लेकर संसार में विचरते हैं। यही नहीं उनमें अज्ञान के कारण अनेक भ्रान्ति पूर्ण बातें मस्तिष्क में भरी रहती है, जिसके कारण उनका आचरण भ्रष्ट रहता है। जगत के प्राणियों को पीड़ित करने वाले, उन्मत्त मनमाना पापाचरण करते हैं। उनका केवल एक ही विचार रहता है, कैसे ही भोग करें, कैसे सुख मिले। इसके लिए कुछ भी करना पड़े, इस कारण मृत्यु होने तक अनेक चिन्ताओं को पाले रखते हैं। कैसे भी जमीन जायदाद बढ़ानी है, ऐशो-आराम की वस्तुएं जुटानी हैं, भोग करना है, इस व्यक्ति को नष्ट करना है आदि आदि सदा विषय भोग में लगे, उसे ही सुख मानने वाले होते हैं।
विभिन्न आशाओं के जाल में फंसे हुए आसुरी वृत्ति के मनुष्य सदा काम और क्रोध में रहते हैं। नित नई कामना करते हैं। हर कामना पूरी नहीं हो सकती और कामना में विघ्न होने से क्रोध उत्पन्न होता है। विषय भोग ही इनका जीवन है जिसके लिए अन्याय पूर्वक धन आदि का संग्रह करने का प्रयत्न करते हैं।
अपने समाज में यह कहते फिरते हैं मैंने यह प्राप्त कर लिया है, अब इस मनोरथ को प्राप्त कर लूंगा जैसे एक कारखाना लगा दिया है, दो और लगाने हैं, इस साल इतना कमाना है अगले वर्ष दुगना करना है, मेरे पास इतना धन है फिर इतना हो जायेगा। इस शत्रु को मैंने मार डाला है या नष्ट कर दिया कल दूसरे को भी मटियामेट कर दूंगा मैं मालिक हूँ, मैं ही ईश्वर हूँ, मैं ही बलवान हूँ, मैं ही सिद्ध हूँ, मैं ही भोगने वाला हूँ, सब मेरे आधीन हैं, मैं ही पृथ्वी का राजा हूँ, यह सब मेरा ही ऐश्वर्य है आदि। मैं बड़ा धनी हूँ, कुबेर से ज्यादा धन मेरे पास है, मैं बड़े कुटुम्ब वाला हूँ, मेरे समान दूसरा कोई नहीं है। जो हूँ मैं ही हूँ, मैं यज्ञ करूंगा, दान दूँगा, आमोद प्रमोद करूंगा, ऐसी कभी खत्म नहीं होने वाली कामनाओं को लिए हुए रहते हैं। इनका हृदय सदा जलता रहता है। इनकी बुद्धि अज्ञान से मोहित व भ्रमित रहती है। यह जमीन, धन, परिवार, झूठी प्रतिष्ठा के मोह से घिरे रहते हैं। सदा विषय भोग में लगे अत्यन्त कामी, घोर अशांत अपने बनाये हुए नरक में जलते रहते हैं.
यह सदा दूसरों से अपने को हर बात में श्रेष्ठ मानने वाले घमण्डी पुरुष धन और झूठे मान मद से युक्त होकर दिखावे का यज्ञ पूजन करते हैं और जिसमें शास्त्र की बतायी विधि का पालन नहीं किया जाता केवल अपनी वाहवाही के लिए पाखण्ड पूजन आदि करते हैं। यह आसुरी वृत्ति के पुरुष अहंकार, बल, घमण्ड, कामना, क्रोध आदि के आश्रित रहते हैं। सदा दूसरों की निन्दा करते हैं, इस प्रकार अपने शरीर में तथा दूसरे के शरीर में स्थित परमात्मा से अहंकार और मूढ़ भाव के कारण द्वेष करते हैं।
इस स्वभाव की अधिकता संसार को विनाश की और ले जाती है.

बसंतेश्वरी गीता pdf -83 - बसंत

https://drive.google.com/file/d/0BxOeSNbZ8XHxblBqZFlMWVl0c2c/view?usp=sharing

Saturday, June 1, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - आत्म जिज्ञासु शिष्य कैसा होना चाहिए?- 82 - बसंत

प्रश्न- आत्म जिज्ञासु शिष्य कैसा होना चाहिए?

उत्तर- 1- जो तीक्ष्ण बुद्धि वाला हो.
2- जो बुद्धिमान हो और जिसकी स्मृति अच्छी हो.
3- जो वेदान्त, भगवद्गीता और अष्टावक्र गीता के वाक्यों के अर्थ पर निरंतर विचार करता हो.
4- जो तर्क वितर्क कर सकता हो. शिष्य और गुरु के बीच तब तक तर्क वितर्क शांत नहीं होने चाहिए जब तक संशय नष्ट होकर प्रतिबोध का धरातल पुष्ट न हो जाय. केवल एक प्रश्न पूछ लिया गुरु जी ने उत्तर दे दिया, तालियाँ बज गयी फिर बगल झाकने लगे, यह आत्मघाती स्वभाव और स्थिति है.
गुरु शिष्य के बीच संशय नष्ट होने तक निरंतर सत्संग, स्वाध्याय, चिंतन, तर्क वितर्क होने अनिवार्य हैं.  आत्मज्ञान की अमूल्य निधि उपनिषद, भगवद्गीता और विवेक चूडामणि यही सन्देश देते है.
इसके साथ अथवा इसके पश्चात ही सही साधना हो सकती है, बाकी तो टाइम पास है.
देखादेखी गुरु बनाने वाले शिष्य का कल्याण कठिन है. जब तक संशय नष्ट नहीं होगा तब तक श्रद्धा नहीं होगी और विश्वास सदा डगमगाते रहेगा.

प्रश्न- किस संदेह को नष्ट होना है?
उत्तर- आत्मा और मिथ्यात्मा का भली भाँती विवेक हो जाना है. इसी का विवेचन करना है. इसी से अस्मिता प्रतीति के संशय मिट जाते है.

Thursday, May 30, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - गुरु किसे बनाना चाहिये? - 81 - बसंत

प्रश्न- गुरु किसे बनाना चाहिये?

उत्तर - जो ईधन रहित अग्नि के सामान शांत हो अर्थात जो अग्नि स्वरुप हो पर उसका तेज किसी को जलाने वाला न हो अपितु शांत हो, कल्याणकारी हो.
कोई भी कामना आसक्ति नहीं हो. जहाँ कोई शुल्क नहीं लिया जाता हो. जहाँ मन वाणी और कर्म से आपसे कोई उपहार और भेंट की कामना नहीं की जाती हो. जहाँ किसी भी वस्तु का व्यापार नहीं होता हो.
जो सदा ब्रह्म स्वभाव में स्थित रहते हों.
जहाँ बिना किसी कारण के कृपा और दया की जाती हो.
जिनका चित्त न डोलता हो.
जो आडम्बर विहीन हों. जो बनावटी श्रृंगार न करते हों.
जो साधू असाधू के लिए सम भाव रखते हों.
जो ज्ञान मार्ग का अनुसरण करते हों. जो जानते हों कि परमात्मा का प्रकृति से बंधन अज्ञान के कारण है. जो आत्म और अनात्म तत्त्व को भली भांति जानते हों.
जो निंदा स्तुति में सामान रहते हों.
जिन से आप बिना रोक टोक के सदा सरलता से मिल सकते हों. जो स्वयं में वी वी आई पी आडम्बर से दूर हों. जो उपाधि से व्याधि की तरह व्यवहार करते हों.
जिनका आचरण चोबीस घंटे खुला हो, जिनका क्रोध और शान्ति बच्चे की तरह हो.




Wednesday, May 29, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - प्रार्थना - 80- बसंत

प्रश्न- क्या प्रार्थना कबूल होती है?
उत्तर- हाँ प्रार्थना कबूल होती है.भिन्न भिन्न लोग अपनी अपनी प्रकृति के अनुसार देव, दानव, भूत, प्रेत, मनुष्य  आदि को को पूजते हैं  देव, दानव, भूत, प्रेत, मनुष्य आदि  सभी अपनी अपनी सामर्थ के अनुसार आपकी प्रार्थना पूरी करते हैं.

प्रश्न- प्रार्थना के पूरा होने का क्या सिद्धांत है?
उत्तर- संसार के सभी आस्तिक प्रार्थना को महत्व देते हैं और प्रार्थना पूरी भी होती है. श्री  भगवान भगवदगीता में कहते हैं जो मनुष्य जिस प्रकार मुझको जिस रूप में जिस विधि से भजता है, प्रार्थना करता है मैं उसी विधि से उसी प्रकार उसको भजता हूँ, उसकी प्रार्थना कबूल करता हूँ.
आप कैसे ही किसी प्रकार चलें सब ईश्वर के ही मार्ग हैं. आप देव, दानव, भूत, प्रेत, मनुष्य  जिस किसी को पूजते हैं आपकी श्रृद्धा के अनुसार और उस  देव, दानव, भूत, प्रेत, मनुष्य द्वारा अपनी अपनी सामर्थ के अनुसार उस प्रार्थना को कबूल किया जाता है.
एक आत्मतत्त्व जो सभी जड़ चेतन में व्याप्त है वह आपकी प्रार्थना आपके अन्दर स्थित हुआ सुनता है और पूरा करता है. चूंकि अदृश्य आत्मतत्त्व जो आपके अन्दर है उसे आप महसूस नहीं करते हैं इसलिए मानते हैं किसी अन्य ने आपकी प्रार्थना पूरी की.
श्री भगवान जो आपकी आत्मा हैं उन्होंने भगवद्गीता में प्रार्थना के पूरा होने के सिद्धांत को विस्तार से समझाया है. भगवद्गीता में श्री कृष्ण कहते हैं-
 येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः ।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्‌ ।23-09।
हे अर्जुन जो अन्य जन दूसरे देवताओं का पूजन करते हैं वे भी मुझको ही पूजते हैं क्योंकि मैं ही सर्व व्यापक हूँ तथा सभी देवी देवता मुझ परमेश्वर की विभूति हैं। उनका यह पूजन अज्ञान पूर्वक है अर्थात वह मुझ आत्मरूप को नहीं पहचानते अतः इधर उधर भटकते हैं।
इसी प्रकार अध्याय सात में कहते हैं -
कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः ।
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया ।20।
संसार में भिन्न भिन्न कामनाओं को लिए मनुष्य अनेक भोग और इच्छाओं के वशीभूत हैं, जिनका ज्ञान माया द्वारा हर लिया गया है, अपने अपने स्वभाव के वशी भूत हो भिन्न भिन्न नियमों का पालन करते हुए अर्थात पूजा विधि, पूजा सामग्री आदि से देवी देवताओं का भजन पूजन, प्रार्थना करते हैं।
यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति ।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्‌ ।21।
जो जो सकामी भक्त जिस जिस देवी देवता के स्वरूप का श्रद्धा से भजन पूजन प्रार्थना करना चाहता है उस उस भक्त की श्रद्धा मैं उसी देवी देवता के प्रति स्थिर कर देता हूँ।
स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते ।
लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान्‌ ।22।
वह मनुष्य  श्रद्धा से युक्त होकर जिस देवी देवता का भजन पूजन, प्रार्थना करते हैं और उस देवता से मेरे द्वारा ही विधान किए इच्छित भोगों को प्राप्त करते हैं अर्थात जिस फल की इच्छा वे रखते हैं, मेरे बनाये नियमानुसार उन्हें वह फल उस देव पूजन से प्राप्त होता
अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्‌ ।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि ।23।
परन्तु यह सभी मनुष्य अल्प बुद्धि के हैं तथा इनको देव पूजन से मिलने वाला फल भी नाशवान है। क्योंकि संसार की सभी वस्तु मरण धर्मा हैं। ये देव पूजन करने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं परन्तु जो मेरे भक्त हैं उन्हें मेरी पूजा और प्रार्थना का फल मैं अर्थात आत्मज्ञान प्राप्त होता है।

Thursday, May 23, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - चेतना एक विकृति है, शारीरिक विकार है - 79 - बसंत


प्रश्न- आप कहते हैं चेतना एक विकृति है जो प्रकृति में पैदा होती है क्या आप इसे प्रमाणित कर सकते हैं?

उत्तर- चेतना एक विकृति है यह शास्त्र द्वारा भी प्रमाणित है और प्रत्यक्ष भी प्रमाणित है.
पहले आप प्रत्यक्ष प्रमाण को जानिये.
संसार में अज्ञान युक्त चैतन्य के कारण जड़ प्रकृति में चेतना उत्पन्न होती है.
जाग्रत अवस्था में यह सिर से लेकर नाखून तक फैली रहती है और दिखाई देती है. किसी मृत और जीवित व्यक्ति को देखकर यह हम सरल और स्वाभाविक रूप से समझ सकते हैं.
नींद में यह स्पर्श, गंध, शब्द विहीन हो जाती है.
बेहोशी में यह केवल हृदय और प्राण और आवश्यक आतंरिक अंगों के कार्य संचालन तक सीमित हो जाती है. देह चेतना शून्य हो जाती है और कोई संवेदना महसूस नहीं करती है.
परन्तु इन तीनो अवस्थाओं में अज्ञान युक्त चैतन्य और शुद्ध चैतन्य सदा एकसा और एक अवस्था में रहता है.
इसी प्रकार मैं देह से अलग हूँ यह भी चैतन्य को सदा बोध रहता है.
मृत्यु में भी में मैं देह से अलग हो गया हूँ यह यह भी अज्ञान युक्त चैतन्य और शुद्ध चैतन्य को बोध होता है पर अज्ञान युक्त चैतन्य को देह आसक्ति और अज्ञान उसे सीमित रखता है इसलिए वह पुनः देह में आने जाने के लिए स्वतंत्र नहीं है.
शुद्ध चैतन्य असीमित शक्ति व दिव्यता युक्त है इसलिए देह से आना और जाना उसकी इच्छा पर निर्भर करता है. उसकी चेतना रुपी विकृति भी शुद्ध होकर दिव्यता के रूप में प्रकट होती है. ऐसे पुरुष अवतार कहलाते हैं. श्री राम और श्री कृष्ण शुद्ध चैतन्य के ऐसे ही सगुण अवतार हैं.
अब आप शास्त्र प्रमाण हेतु भगवद्गीता के अध्याय तेरहवें अध्याय का सन्दर्भ लीजिये. श्री भगवान् ने स्पष्ट रूप से चेतना को विकृति माना है, शरीर का विकार माना है.-
महाभूतान्यहङ्‍कारो बुद्धिरव्यक्तमेव च ।
इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः ।5।
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं सङ्‍घातश्चेतना धृतिः
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम्‌ ।6।
पाँच महाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश), अहंकार, बुद्धि, अव्यक्त त्रिगुणात्मक प्रकृति, इन्द्रियां (कान, नाक, आंख, मुख, त्वचा, हाथ, पांव, गुदा, लिंग, वाक), मन, इन्द्रियों की पाचं तन्मात्राएं (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध), इन्द्रियों के विषय (इच्छा द्वेष, सुख-दुःख, जो अनेक प्रकार के गुण दोष उत्पन्न कर देते हैं), स्थूल देह का पिण्ड और चेतना, यह सब शरीर के विकार हैं.

प्रश्न- कृपया और अधिक स्पष्टता से समझायें?
उत्तर- यह समझ लो वास्तविक रूप में तुम सूर्य के सामान ज्ञानवान प्रकाश पुंज हो और जीव रूप में तुम इस देह में परम ज्ञान का 1/4 अरबवां हिस्सा (सूर्य की ऊर्जा जो पृथ्वी में पहुचती है) हो और 1/4 अरबवां हिस्से से उत्पन्न तुम्हारी चेतना पृथ्वी के रात दिन, भिन्न भिन्न ऋतु, भिन्न भिन्न मोसम, आंधी, तूफान, वर्षा, गर्मी की तरह की तरह तुमको तुम्हारे स्वरुप तुमको प्रतिभासित करती है और तुम इस प्रतिभासित चेतना को सब कुछ मान बैठे हो.

Tuesday, May 21, 2013

तेरी गीता मेरी गीता -78 - चेतना से ऊपर - बसंत


प्रश्न - हम जब ईश्वर के अंश हैं तो फिर इतने अपूर्ण, इतने हताश और निराश क्यों हैं. हमारी ईश्वरी शक्तियां क्यों नहीं प्रकट होती हैं.

उत्तर- हम ज्ञान के दो तत्त्व ज्ञान और अज्ञान से मिलकर बने हैं. यह तत्त्व चैतन्य और जड़ के रूप में आभासित और दिखाई देते हैं. चैतन्य के हाथ पाँव  नहीं हैं और जड़ की आँखें या महसूस करने की शक्ति नहीं है, वह बिना शक्ति का है. उसे ज्ञान की चैतन्य शक्ति चाहिए तभी वह हिलडुल सकता है अथवा कार्य कर सकता है. जब इन दोनों का मिलन होता है तो जड़, चैतन्य के कारण चेतन हो जाता है.यह चेतन लगभग चैतन्य की तरह होता है पर यह वास्तविक नहीं है इसलिए शक्ति में सीमित और सीमाओं में बंधा होता है.यही नहीं यह अपनी शक्ति से अपना संसार स्थापित कर लेता है. अब जो परम शक्तिमान चैतन्य है वह खेल देखता है और आप अपनी चेतना में मगन हो जाते हैं आपकी चेतना आपका अहंकार बन जाती है, आपकी प्रकृति के अनुसार आपकी बुद्धि बन जाती है. मन का खेल शुरू हो जाता है. अब आप का अपना स्वरुप जो वास्तविक है ही नहीं उसमें वास्तविक की शक्तियां कहाँ और कैसे आयेंगी. 
यदि आप इस खेल को कायदे से समझ गए तो आप मुस्कुराने लगते हो पर अब भी वास्तविकता से कोसों दूर हो. आपको बुद्धि से नहीं यथार्थ में इस रहस्य को अनुभूत करना होगा. बोध होने पर जब जड़ का चैतन्य के साथ सीधा कनेक्सन (सम्बन्ध) हो जाता है तो आपकी चेतना, आपके अहंकार के लिए कोइ स्थान नहीं रहता. चैतन्य के साथ सीधा कनेक्सन (सम्बन्ध)  होते ही आपकी बुद्धि, आपका शरीर अप्रमित बलशाली और दिव्य विभूतियों से युक्त हो जाता है. वास्तव में ईश्वर आप में अंश के रूप में नहीं बल्कि पूर्ण रूप में अपनी दिव्यताओं के साथ विद्यमान है. परन्तु आपकी प्रकृति जो जड़ है उसके साथ उसका सम्बन्ध कटा हुआ है और आप नकली जड़ से उत्पन्न चेतना को असली मानकर इसके संसार में जी रहे हो.
इसे आप इस प्रकार समझसकते हैं सूर्य ज्ञान है, चैतन्य है और पृथ्वी जड़ है. सूर्य प्रकाश जो प्रथ्वी  तक आता है वह पृथ्वी तक पहुँचते पहुँचते 1/२अरबवें हिस्से का 52% रह जाता है. इसी पकार तुम में से किसी किसी को वास्तविक चैतन्य का कभी कभी अहसास इतना ही हो पाता है. जिस प्रकार सूर्य के उदय से अस्त और अस्त से उदय होने तक पृथ्वी के वायु, जल, थल मंडल में  निरंतर गतिविधियाँ चलती रहती हैं उसी प्रकार तुम्हारे  अन्दर भी अहंकार ,बुद्धि, मन के ज्वार उठते रहते है. तुम सदा अहंकार ,बुद्धि, मन के उठते ज्वार में खोये रहते हो. तब चैतन्य बोध कैसे होगा. तुमको अपनी चेतना के धरातल से ऊपर उठना पड़ेगा. तुम्हारी चेतना तुम्हारी प्रकृति की विकृति है. तुमको पूर्ण होने के लिए चैतन्य होना होगा जो विशुद्ध और पूर्ण ज्ञान स्वरुप है, जिसमें सभी दिव्यता हैं जहाँ कोई निराशा नहीं है, सभी शक्तिया है परम शान्ति और आनंद है.

Sunday, May 19, 2013

तेरी गीता मेरी गीता -क्या नरक होता है?- 77 - बसंत



प्रश्न- क्या नरक होता है?
उत्तर-  जो कहता है नर्क होता है वह झूट बोलता है. जिसने भी नरक के दंड बनाए, भय दिखाया उसने अपनी विक्षिप्तता से मानवजाति को भयाक्रांत कर विक्षिप्त बना दिया, शायद ही मानव जाति का उससे बड़ा कोई दुश्मन न है न होगा. आप स्वयं मूल्यांकन करें-
जीव ईश्वर का अंश है फिर वह नरक कैसे जा सकता है. जिसे जलाया नहीं जा सकता उसे अग्नि में जलाकर अथवा तेल के कड़ाहों में उबालकर कैसे दण्डित किया जा सकता है. जिसे काटा नहीं जा सकता उसे किस प्रकार नरक में आरों से काटा जा सकता है. जिसे कोई दर्द नहीं होता उसे साँपों,बिच्छू से डंक लगवाकर कैसे पीड़ा दी जा सकती है. जिसे कोई पीड़ा नहीं होती उसे किस प्रकार सूली में बिठाया जा सकता है.
भगवद्गीता के वचन इन बातों की पुष्टि करते हैं.

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ।23-2।
इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते हैं, इसे आग में जलाया नहीं जा सकता, जल इसे गीला नहीं कर सकता तथा वायु इसे सुखा नहीं सकती। यह निर्लेप है, नित्य है, शाश्वत है।

अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ।24-2।
आत्मा को छेदा नहीं जा सकता, जलाया नहीं जा सकता, गीला नहीं किया जा सकता, सुखाया नहीं जा सकता, यह आत्मा अचल है, स्थिर है, सनातन है।

दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि भिन्न भिन्न रूपों में ईश्वर ही नाटक कर रहा है वही राम है तो वही रावण है. वही पशु है तो वही पक्षी है. फिर वह दंड का भागी कैसे?
श्वेताश्वतरोपनिषद्  अध्याय चार में ऋषि कहते हैं-

तू नर है तू नारि तू
तू कुमार कुमारी
वृद्ध हो तू चले दण्ड संग
तू विराट तू विश्व मुख.३.

नील वर्ण कीट है
लाल हरित पक्षी भी
मेघ है ऋतु सभी
सप्त सागर तू हि है
विश्व भूत तुझसे हैं
आदि विभु वर्तमान.४.

इसी प्रकार भगवद्गीता कहती है-
विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ।18-5।
जिनका मन सम भाव में स्थित है जो ब्राह्मण कुत्ते व चाण्डाल में एक भाव अथवा ब्रह्म भाव रखता है; ऐसे पुरुष द्वारा वास्तव में संसार जीत लिया गया है अर्थात वह संसार बन्धन से ऊपर हो जाते हैं। ब्रह्म, दोष रहित और सम है और वह भी समभाव के कारण दोष रहित हो ब्रह्म स्वरूप हो जाते हैं। यही ब्राह्मी स्थिति है।
जो ब्राह्मण कुत्ते व चाण्डाल में एक भाव अथवा ब्रह्म भाव रखता है का तात्पर्य है कि सब ईश्वर के ही अंश हैं फिर नरक और नरक के ढंड मानसिक विक्षिप्तता नहीं तो क्या है.

भगवदगीता के  प्रथम अध्याय के श्लोक संख्या 44में विषादयुक्त अर्जुन के नर्क भय को देख श्री कृष्ण  मंद मंद मुस्कुराते हैं.
अर्जुन का नर्क भय-
उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्यणां जनार्दन।
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम।44।
हे द्वारिका नाथ, हे जनार्दन, जिन मनुष्यों का कुल धर्म नष्ट हो जाता है उस कुल के पितर और स्वयं वह मृत्यु के पश्चात अनिश्चित काल तक नरक में रहते हैं, यह बात  हम सुनते आये हैं।

तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्‌ ।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः। 1।
युद्ध भूमि में करुणा से भरा हुआ जिसके आंखों से आंसू बह रहे थे व्याकुल नेत्र वाला, विषाद युक्त अर्जुन के प्रति मंद मंद मुस्कराते हुए श्री भगवान बोले।

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः ।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्‌ ।12।
आत्मा की नित्यता बतायी गयी है। आत्मा नित्य है, अजर है, अमर है। उसका कभी नाश नहीं होता है। जीव भी आत्मा का ही स्वरुप है अतः वह भी नित्य है। जीव तत्व को कोई नष्ट नहीं कर सकता। सृष्टि के सभी जीव पहले भी थे, आज भी हैं और कल भी रहेंगे।

वही भगवान् श्री कृष्ण भगवदगीता के  सोलहवें अध्याय के श्लोक संख्या 21 में नरक शब्द का प्रयोग करते है पर यहाँ  नरक शब्द अधोगति का सूचक है. भगवान् कहते हैं मनुष्य के अन्दर व्याप्त  काम क्रोध और लोभ को नरक के द्वार हैं अर्थात जिस मनुष्य में काम क्रोध और लोभ की जितनी अधिक मात्रा होगी वह उतना अशांत और विक्षिप्त होगा. यही नरक है.

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्‌ ।21।
काम, क्रोध और लोभ यह तीन नरक के द्वार हैं अर्थात जहाँ काम क्रोध और लोभ होगा वहाँ मूढ़ता की अधिकता होगी और मूढ़ता (तमस) अधोगति की ओर ले जाती है। इन तीनों से आत्मा का स्वरूप आच्छादित हो जाता है। जीव अपनी स्वरूप स्थिति को पूर्णतया भूल जाता है और अधोगति की ओर चल देता है उसका पतन हो जाता है। अतः आत्म स्वरूप को विस्मृत करने वाले इन तीनों मूढ़ता के स्वजनों को हमेशा के लिए त्याग देना चाहिए।

इसी प्रकार सोलहवें अध्याय के श्लोक संख्या 15 & 16 में नरक शब्द का प्रयोग करते है
आढयोऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया।
यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः ।15।
अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः।
प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ ।16।
मैं बड़ा धनी हूँ, कुबेर से ज्यादा धन मेरे पास है, मैं बड़े कुटुम्ब वाला हूँ, मेरे समान दूसरा कोई नहीं है। जो हूँ मैं ही हूँ, मैं यज्ञ करूंगा, दान दूँगा, आमोद प्रमोद करूंगा, ऐसी कभी खत्म नहीं होने वाली कामनाओं को लिए हुए रहते हैं। इनका हृदय सदा जलता रहता है। इनकी बुद्धि अज्ञान से मोहित व भ्रमित रहती है। यह जमीन, धन, परिवार, झूठी प्रतिष्ठा के मोह से घिरे रहते हैं। सदा विषय भोग में लगे अत्यन्त कामी आसुरी वृत्ति के यह लोग घोर नरक को प्राप्त होते हैं यहाँ घोर नरक घोर अशांति ,मूड़ता, विक्षिप्तता का सूचक है. ऐसे लोगों का चित्त सदा ईर्षा की आग मैं जलता रहता है यही नरक है.

जो कुछ भी आप को दंड, कष्ट, दुःख, नरक भोगना है या आप भोगेंगे वह शरीर में जाग्रत अवस्था में  ही अथवा स्वप्न में ही भोगंगे और इसका कारण है काम, क्रोध और लोभ. इन वचनों में आप पूर्ण विशवास कर सकते हैं कि मरने के बाद आपको जलाया नहीं जाएगा, अथवा तेल के कड़ाहों में उबालकर दण्डित नहीं किया जाएगा, किसी भी प्रकार नरक में आरों से काटा नहीं जाएगा, साँपों,बिच्छू से डंक लगवाकर पीड़ा नहीं दी जायेगी, न सूली में बिठाया जाएगा.  हाँ स्वप्नवत कष्ट अनुभूति हो सकती है.
मरने के बाद आपको उठाया जाएगा अर्थात आपको जगाया जाएगा और आप अपनी आसक्ति के कारण जन्म लेकर प्रारब्धवश अज्ञान से काम क्रोध लोभ के वशीभूत होकर जो मानसिक और शारीरिक कष्ट भोगेंगे वही आपका नरक होगा.

Saturday, May 18, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - धर्म बोध - 76 -बसंत


प्रश्न- कृपया सरल रूप से बतायें की भक्ति क्या है?
उत्तर-  अपनी वास्तविकता की खोज करना भक्ति है. इसे अपनी आत्मा की खोज भी कह सकते है. अपने वास्तविक मैं को जानने की आतुरता और प्रयास भक्ति साधना है. पूर्णता की और चलने की साधना भक्ति है.  इस भक्ति की अंतिम परिणिति अनन्यता है.

प्रश्न - साधना क्या है?
उत्तर- जिस किसी अनुभव व् कार्य से अपूर्णता दूर हो वह साधना है. हम हर समय कुछ न कुछ अनुभव करते हैं, सीखते हैं यह अनुभव जिस किसी घटना और प्रभाव से हमें प्राप्त होता है वह क्रिया और अनुभूति साधना है.

प्रश्न- ईश्वरी साधना क्या है?
उत्तर- सभी कार्य ईश्वर का अनुभव कराते हैं अतः सभी कार्य साधना हैं.

प्रश्न - क्या बुरे कार्य भी साधना है?
उत्तर- हाँ. बुरे से बुरे कार्य और उसके परिणाम से भी सम्बंधित कर्ता कुछ न कुछ सीखता है. उस कार्य और परिणाम से हम सभी कुछ न कुछ सीखते हैं. विकास का यही सिद्धांत है परन्तु यह श्रेय नहीं है क्योंकि यह कर्ता  के चित्त को सदा जलाते रहते है.

प्रश्न- सबसे उपयुक्त साधना क्या है?
उत्तर नित्य प्रति दृष्टा भाव में रहने का प्रयास करो, स्वयं अपने साक्षी हो जाओ. आप जब अपनी  चेष्टाओं को देखते हैं तो वह धीमी होने लगती हैं, धीमी होने के साथ वह ठहरने लगती हैं. आप हर समय अपने प्रत्येक कार्य के दृष्टा हो जाते हो और इसकी अंतिम परिणिति है आप अपनी मृत्यु के भी दृष्टा हो जाते हो. जो मृत्यु का दृष्टा हो गया वह अमरत्व को पा लेता है.

प्रश्न- तीर्थ यात्रा और कथा सुनने का क्या लाभ होता है?
उत्तर- तीर्थ यात्रा और कथा सुनने से अनुभव वृद्धि होती है. कथा से अपने मन के अनुकूल श्रृद्धा का विकास होता है.

प्रश्न- गंगा नहाने से क्या होता है?
उत्तर- अनुभव के साथ शरीर को ठण्ड लगती है.

प्रश्न- सदग्रंथ किस प्रकार सहायक होते है?
उत्तर- आपकी श्रृद्धा के अनुसार प्रतिबोध का धरातल विकसित करते हैं.

प्रश्न- माता,पिता. गुरु, मनुष्य, पशु, पक्षी की सेवा से क्या लाभ होता है.
उत्तर- यदि आप बिना किसी अपेक्षा के सेवा करते है तो आप की अपूर्णता कम होने लगती है.

प्रश्न- प्रवचन सुनने से क्या होता है?
उत्तर- आपका मन संतुष्ट अथवा असंतुष्ट होता है.

प्रश्न- मंदिर जाने से क्या होता है?
उत्तर- आपकी अपनी श्रृद्धा के अनुसार अपूर्णता कम होती है.

प्रश्न- देव पूजन, मंत्र जप, कर्मकाण्ड, वैदिक पूजा, अग्नि प्रज्वलित कर द्रव्य यज्ञ का क्या लाभ होता है?
उत्तर- यह आपकी बुद्धि को निर्मल करने में सहायक होते हैं. मनुष्य को पवित्र करते है, अपूर्णता कम होती है.

प्रश्न-संस्कारों का क्या महत्व है?
उत्तर- संस्कार आपको समाज और परिवार से जोड़ते हैं केवल उपनयन और अंतेष्टि संस्कार आपकी अपूर्णता कम करने में सहायक होते हैं.
संक्षेप में जीवन के सभी शुभ अशुभ कार्य अपूर्णता को भरने या बढाने की चेष्टा करते है, इसलिए दृष्टा होक्रर अथवा साक्षी होकर इन शुभ अशुभ कार्य को होने दो.





 


Friday, May 17, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - भक्ति योग - 75 - बसंत



प्रश्न-  परमेश्वर के अनन्य प्रेमी जो उनको हृदय में धारण कर उनसे जुड़े रहते हैं। उन में मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार स्थापित कर अनन्य प्रेम करते हैं, जिनके समस्त कर्म परमेश्वर के लिए होते हैं अथवा जो अविनाशी अव्यक्त परम परमात्मा का अपनी आत्मा में सदा ध्यान चिन्तन मनन करते हैं, उन दोनों भक्तों में कौन भक्त श्रेष्ठ है।

उत्तर- इस तत्त्व ज्ञान को भगवद्गीता में श्री भगवान ने विस्तार पूर्वक समझाया है. श्री भगवान ने बताया  कि जो मन को सदा आत्मा में लगाकर निरन्तर आत्मा से जुडे़ रहते हैं अर्थात व्यवहार में परमेश्वर का स्मरण करते हैं; परम श्रद्धा से युक्त होकर जो निरन्तर आत्म रुपी परमेश्वर का  भजन करते हैं, वह योगी परम उत्तम हैं। जो भक्त (ज्ञानी) इन्द्रियों को अष्टांग योग विधि द्वारा अथवा सभी बन्ध यथा मूल बन्ध, उड्यान बन्ध, जालन्धर बन्ध आदि या अन्य प्रकार से भली भांति वश में करके सर्वव्यापी परमात्मा, जिसे कोई नहीं जानता, कोई नहीं बता सकता, सदा शुद्ध परम शान्त अवर्णनीय अवस्था में सदा एकरस रहने वाले, नित्य, अचल, निराकार, अविनाशी आत्मतत्त्व रुपी परमात्मा को अनुभूत करने वाले हैं, जो सब प्राणियों में सम भाव रखते हैं; स्वयं आत्म स्वरूप विश्वात्मा हुए, परमात्मा को प्राप्त होते हैं।  उस अव्यक्त जिसे इन्द्रिय, मन, बुद्धि, अहंकार के द्वारा नहीं जाना जा सकता जो महत् से भी महत् है अर्थात अपरा परा प्रकृति का भी आदि कारण हैं, के साधन और अनुभूति में मनुष्यों को देह बुद्धि के कारण अत्याधिक परिश्रम करना पड़ता है क्योंकि जीव की देह आसक्ति अत्याधिक प्रबल है, यह छूटे  नहीं छूटती। अतः अव्यक्त की उपासना अत्याधिक कठिन है। इस में चलना कुल्हाड़ी की धार पर चलना है।
परन्तु जो भक्त सदा स्वयं आत्म स्वरूप विश्वात्मा का चिन्तन करते हैं, अपने स्वाभाविक कर्मों को करते हुए कर्म और उनके फलों को परमात्मा को अर्पित कर देते हैं, उनका उठना, बैठना, सोना, खाना-पीना, व्यवसाय आदि सभी कर्म स्वयं आत्म स्वरूप विश्वात्मा लिए होते हैं। जो न डिगने वाले अर्थात एक निष्ठ रूप से आत्मा से जुड़े रहते हैं, आत्म ध्यान करते हैं, सदा आत्मा के समीप रहते हैं, स्मरण करते हैं, ऊँ स्वरुप आत्मा का ही ध्यान करते हैं।
ईश्वर की सगुण-निर्गुण उपासना को अच्छी प्रकार समझना होगा। सगुण उपासना का अर्थ है सभी गुणों में परमात्मा का चिन्तन करना। अपने स्वभाव में रहते हुए अपने प्रत्येक कार्य को परमात्मा का कार्य समझते हुए उसे अर्पण करते हुए देखना। दूसरे रूप में साक्षी भाव से अपने शरीर को, मन, बुद्धि, अहंकार, इन्द्रियों व उनके कार्यों को देखना सगुण उपासना है। चिन्तन से परमात्मा से जुड़ना। अपने में आत्मरूप परमात्मा के दर्शन करना और सभी भूतों में विश्वात्मा के दर्शन करना। जगत (सगुण) में ब्रह्म देखना। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश आदि सभी जगह जड़ चेतन में परमात्मा को महसूस करना “घट-घट रमता राम रमैया“ मन वाणी कर्म से महसूस करना सगुण भक्ति है। यही व्यवहार में स्मरण करना है। अव्यक्त जिसके बारे में न कुछ कहा जा सकता, न समझा जा सकता, न जाना जा सकता, वह अव्यक्त परब्रह्म एक स्थिति है, परमगति है। वहाँ स्मरण भी नहीं रहता, निराकार स्थिति भी बिना सहारे के हो जाती है। उसे तुरीयातीत अवस्था कहा गया है। वहाँ शून्य समाप्त हो जाता है, ज्ञान समाप्त हो जाता है अर्थात ज्ञान की क्रिया शक्ति शून्य होकर शान्त हो जाती है, अनहद् भी समाप्त हो जाता है अर्थात परमात्मा का संकल्प भी स्थित हो जाता है; केवल अव्यक्त परब्रह्म परमतत्व ही स्थित रहता है। इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए सभी इन्द्रियों को मन सहित अष्टांग योग विधि द्वारा विषयों की ओर जाने से रोक कर अथवा सभी प्रकार के बन्ध सिद्ध करके जैसे मूल बन्ध, उड्यान बन्ध, जालन्धर बन्ध आदि लगाकर कुण्डली जागरण द्वारा अथवा श्री भगवान के उपदेशानुसार शुद्ध स्थान में आसन जो न अधिक ऊँचा हो न नीचा लगाकर, सिर, गरदन, शरीर को एक सीध में करके नासिका के अग्र भाग को देखता हुआ तथा अन्य दिशाओं को न देखकर, प्राण वायु को रोककर, प्रशान्त मन होकर, परमात्मा के नाम ऊँ को प्राणों के साथ भौहों के मध्य में स्थापित करे तथा निरन्तर सतत् अभ्यास और वैराग्य से सिद्ध हुआ परम ज्ञानी अव्यक्त स्थिति को प्राप्त होता है । वीतरागी पुरुष इन्द्रियों के व्यवहार से उदासीन हो विचरता है जबकि सगुण उपासक सभी कार्योँ को परमात्मा को अर्पण करते हुए सदा उसका स्मरण करता है।
आत्म स्वरूप विश्वात्मा में  चित्त लगाने वाले प्रेमी भक्त जो हैं, वह बोध प्राप्त कर मृत्यु रूपी संसार से परे हो जाते हैं। जब भी कोई परमेश्वर  में अपना चित्त अर्पण करता है उसमें  स्थित हुआ परमेश्वर  विराट होता जाता है और एक दिन सम्पूर्ण चित्त को आत्मा अपने में समाहित कर लेता हूँ।श्री भगवान् के वचन हैं मैं आत्म स्वरूप विश्वात्मा अपने भक्त का योगक्षेम वहन करता हूँ अतः भक्त को बोध अवश्य होता है।
आत्म स्वरूप विश्वात्मा में मन लगा, बुद्धि लगा। जीव व इन्द्रियों के बीच में जो ज्ञान है वह मन कहलाता है। आत्मा और जीव के बीच जो ज्ञान है वह बुद्धि कहलाती है। दूसरे शब्दों में संशयात्मक ज्ञान मन है, निश्चयात्मक ज्ञान बुद्धि है। अतः मन और बुद्धि को आत्मा में लगा। मन की दिशा बाहर की जगह आत्मा की ओर मोड़ दे तथा बुद्धि की दिशा भी जीव से आत्मा की ओर मोड़। इस प्रकार मन बुद्धि आत्म स्वरूप विश्वात्मा में लगाने से आत्मरूप परमात्मा में स्थित होकर उस अव्यक्त स्थिति को प्राप्त होगा।
यदि मन को आत्म स्वरूप विश्वात्मा में लगाने में असमर्थ है और यह समझते हो कि हर समय मन आत्म चिन्तन में नहीं लगाया जा सकता, साक्षी भाव में स्थित नहीं रहा जा सकता, ध्यान नहीं किया जा सकता आदि तो  मन लगाने का मुझमें अवश्य अभ्यास करो इससे मन की बाहर की दिशा रूकने लगेगी। उसकी आदत बदल जायेगी। वह विषयों से छूट कर आत्मा की ओर जाने लगेगा और धीरे-धीरे अभ्यास से इसका भटकना रुक जायेगा और यह आत्मा में विलीन हो जायेगा।
यदि अभ्यास करने में भी असमर्थ हो, मन और इन्द्रियों को विषयों की ओर भटकने से रोकने में असमर्थ हो, ध्यान, साधन आदि नहीं कर सकते हो , साक्षी भाव में स्थित नहीं रह सकते हो, अहंकार नहीं छोड़ सकते हो  तो भी आत्म योग के लिए सरल उपाय बताता हूँ। तू अपने स्वाभाविक धर्म के आधार पर अर्थात जिस कुल में तुम्हारा जन्म हुआ है तथा तुम्हारे जन्मगत जो स्वाभाविक कर्म हैं उनको सरलता पूर्वक करो और सभी कर्म आत्म स्वरूप विश्वात्मा को अर्पण कर दो। तुम्हारा उठना-बैठना, खाना-पीना, व्यवसाय आत्म स्वरूप विश्वात्मा के प्रति हो। सब कर्म आत्म स्वरूप विश्वात्मा को अर्पित करते हुए तुम्हारी मन, बुद्धि परमेश्वर में  एक निष्ठ हो जायेगी परिणामस्वरूप तुम  परम स्थिति को प्राप्त होगे.
यदि आत्म स्वरूप विश्वात्मा के निमित्त कर्म भी तुमसे  नहीं हो सकते अथवा तुम अपने कर्म परमेश्वर को अर्पित नहीं कर सकते हो, तो यत्नशील होकर सभी कर्मों के फल परमेश्वर को दे दो । जब तुम कोई काम करो तो उस समय आत्म स्वरूप विश्वात्मा का चिन्तन करो तथा जब वह कर्म समाप्त हो तो भी आत्म स्वरूप विश्वात्मा का चिन्तन करो और उसका जो भी परिणाम हो उसे  परमात्मा की इच्छा समझो । धीरे-धीरे इस अभ्यास से तुम निष्काम होने लगोगे और तुम्हारा योग सिद्ध हो जायेगा।
अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है, ज्ञान से ध्यान श्रेष्ठ है, ध्यान से सब कर्मों के फल का त्याग श्रेष्ठ है। त्याग से बुद्धि द्वारा परमेश्वर को जानना व जुड़ना श्रेष्ठ है, तत्पश्चात उसका चिन्तन, मनन, ध्यान, श्रेष्ठ है, उससे भी अधिक सभी कर्मों को परमात्मा को अर्पित करते हुए अथवा इन्द्रिय दमन कर अनासक्त होकर निष्काम कर्म श्रेष्ठ है। निष्काम कर्म होने से चित्त की उद्विग्नता जाती रहती है और स्वाभाविक रूप से शान्ति प्राप्त होती है।
जो सभी प्राणियों से द्वेष भाव रहित हैं, सबका मित्र है अर्थात अपना पराया का भाव नहीं है, स्वाभाविक करुणा जिसमें है, जो ममता रहित है अर्थात संसार की मोह माया से उदासीन है, अहंकार रहित है और सुख दुख में समान है, क्षमावान है, जो अपने में सदा संतुष्ट रहता है जिसने यत्न करके मन इन्द्रियों को वश में कर लिया है, जिसका निश्चय परमात्मा के प्रति अडिग है, जिसने अपने मन बुद्धि को आत्म स्वरूप विश्वात्मा में सदा सदा के लिए लगा दिया है, इस प्रकार निज स्वरूप को खोजने व जानने वाला  परमेश्वर को परम प्रिय है। वह परमात्मा का प्रिय  परम गति का अधिकारी है।
जिससे संसार को त्रास नहीं होता और जो संसार से उद्विग्न नहीं होता अर्थात अच्छे-बुरे, सरल-दुष्ट आदि सभी के प्रति कल्याण की भावना रखता है ऐसा योगी जो किसी प्रिय वस्तु की प्राप्ति से प्रसन्न नहीं होता, दूसरे की उन्नति से जिसे जलन नहीं होती, जिसे किसी भी प्राणी से भय और त्रास नहीं है, ऐसा आत्म स्वरूप में रमण करने वाला परमेश्वर को अति प्रिय है।
जिसमें कामना का अभाव हो गया हो वह सदा आत्म तृप्त रहता है, वह महात्मा परम पवित्र होता है, उसका सानिध्य पवित्र होता है। सभी के लिए सदा समभाव रखने वाला पक्षपात रहित होता है। उसे लोक परलोक के कष्ट नहीं व्यापते हैं, क्योंकि वह निष्काम है, उदासीन है। सभी कर्मों को जिसने प्रभु अर्पण कर दिया है, इस प्रकार जो कर्मों के प्रारम्भ का त्यागी है वह स्वरूप स्थित महात्मा परमेश्वर को  परम प्रिय है।
जो आत्मरत आत्मानन्द से अधिक कुछ नहीं मानता अतः संसार की कोई भी वस्तु उसके हर्ष का कारण नहीं होती, न किसी से द्वेष करता है क्योंकि सदा मानता है कि मैं और वह एक ही हैं। जिसे न कोई चिन्ता है, जिसकी न कोई कामना है, जिसने अपने सभी कर्म प्रभु अर्पण कर दिए हैं, ऐसा निष्काम कर्म योगी जो स्वरूप स्थित है वह परमेश्वर को अत्यन्त प्रिय है।
अद्वैत महात्मा जो सदा ब्रह्मानन्द में स्थित हैं, उनके लिए शत्रु और मित्र समान हो जाते हैं। सरदी-गरमी, सुख-दुःख की ओर उसका ध्यान भी नहीं जाता अतः सभी परिस्थितियाँ जिसके लिए समान हैं, जिसकी आसक्ति का बीज नष्ट हो गया है वह परमेश्वर को अति प्रिय है।
जिस समत्व योगी के लिए निन्दा और संस्तुति एक समान है अर्थात निन्दा होने पर जिसे क्रोध नहीं आता और प्रशंसा होने पर प्रसन्न नहीं होता, जो वासना रहित मौन में स्थित है। जिस भांति भी शरीर निर्वाह हो, सभी स्थिति में संतुष्ट है। जो किसी स्थान विशेष से लगाव नही रखता अर्थात घर में रहते हुए घर को सराय समझ कर रहता है। बुद्धि जिसकी सूक्ष्म होकर निश्चित हो गयी है ऐसा स्वरूप स्थित महात्मा परमेश्वर को अति प्रिय है।
जो श्रद्धा युक्त पुरुष परमेश्वर में अपना मन बुद्धि स्थापित करके इस परम आत्म ज्ञान का सेवन करते हैं, उन्हें आत्मरूपी अमृत स्वाभाविक रूप से प्राप्त होता है और आत्म स्थित ऐसे पुरुष परमेश्वर को अति प्रिय हैं।

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BHAGAVAD-GITA FOR KIDS

    Bhagavad Gita   1.    The Bhagavad Gita is an ancient Hindu scripture that is over 5,000 years old. 2.    It is a dialogue between Lord ...