Monday, December 24, 2012

तेरी गीता मेरी गीता - ६- बसंत प्रभात



प्रश्न- काम,क्रोध और लोभ के विषय में आप का क्या अभिमत है.
उत्तर- प्रत्येक प्राणी में काम,क्रोध और लोभ कम अथवा अधिक मात्र में सदा रहता है. कोइ भी जीव इनसे मुक्त नहीं है.पूर्णत्व प्राप्त होने पर ही  काम,क्रोध और लोभ  समाप्त होते हैं. इन्द्रियों से हठ पूर्वक काम,क्रोध और लोभ को रोकनेवाला मिथ्याचारी है.
प्रश्न- फिर  साधना  केसे  होगी क्योंकि काम,क्रोध और लोभ आत्मतत्त्व अथवा ईश साधन में बाधक हैं.
उत्तर- कामी के काम की तरह आत्मा की कामना करो अर्थात कामी जिस प्रकार रात दिन स्त्री का चिंतन करता है उसी प्रकार  आत्मा का चिंतन करो. लोभी के लोभ की तरह परमात्मा का लोभ करो क्योंकि परमात्मा  से बड़ा धन और कुछ नहीं है. परमतत्त्व  के लिए चोर की वृत्ति अपनाओ. क्रोध में जिस प्रकार मनुष्य अंधा हो जाता है अपना विवेक खो देता है उसे केवल अपना दुश्मन दिखाई देता है उसी प्रकार  क्रोधी की तरह परमात्मा को देखो, परमात्मा का चिंतन करो. क्रोधी जिस प्रकार अपना विवेक खो देता है उसी प्रकार अपने परिवार, समाज रुपी संसार को खो डालो. मूल बात यह है की आपको केवल काम, क्रोध, लोभ की धारा बदलनी है.

Saturday, December 22, 2012

तेरी गीता मेरी गीता - 5 - बसंत प्रभात




प्रश्न- आत्म ज्ञान कैसे पाया जा सकता है?
आत्म ज्ञान  सतत साधना का अंतिम परिणाम है. यह विकास की अनन्तिम अवस्था है. बुद्धि को सतत निश्चयात्मक करते हुए सूक्ष्म और सूक्षम्तर करना है. इसके लिए अपनी अपनी प्रकृति के अनुसार साधना अपनाई जा सकती हैं. एक साधना जो किसी के लिए सरल और रुचिकर है वह दूसरे के लिए कठिन और अरुचिकर हो सकती है.
प्रश्न- फिर भी कोई सरल उपाय बतायें.
१-श्वास में ॐ का जप करना सरल और लाभ प्रद है. श्वास लेते और श्वास छोड़ते हुए ॐ का जप करें.
२- साक्षी होने का प्रयास करें. जो हो रहा है जो कर रहें हैं उसे देखने का प्रयास करें.

Thursday, November 15, 2012

तेरी गीता मेरी गीता -४- बसंत प्रभात


प्रश्न -आत्मज्ञान क्या है?

उत्तर- अपने वास्तविक स्वरुप का ज्ञान आत्मज्ञान है.सरल शब्दों में इसे बोध कहते हैं.यही ब्रह्म ज्ञान भी कहा जाता है.
ज्ञान की पूर्णता को प्राप्त कर लेना जिससे बढकर कुछ भी न हो. जो सदा एक सा रहे, जिसका क्षय न हो जिसको कम या अधिक न किया जा सके, जो पूर्ण हो ऐसा ज्ञान आत्मज्ञान कहा जाता है.
कुछ मनीषियों का कथन है कि परम शांति को प्राप्त होना आत्मज्ञान है.परन्तु परम शांति उस बोध का परिणाम है.पूर्ण बोध को प्राप्त मनुष्य स्वाभाविक रूप से शांत हो जाता है. कबीर कहते हैं- शान्ति भई   जब गोविन्द जान्या अर्थात गोविन्द को जानने पर ही शान्ति होती है. गोविन्द कोन है? गो अर्थात इन्द्रियां,जो इन्द्रियों का स्वामी है अर्थात ज्ञान. बोध और ज्ञान एक ही तत्व के पर्याय हैं. इसे पूर्ण चेतन्य भी कहा जाता है. यह ज्ञान ही आपका वास्तविक मैं है.

प्रश्न- ज्ञान को विस्तार से सुस्पष्ट करें.

उत्तर- मैं ज्ञान हूँ. मैं प्रत्येक प्राणी की बुद्धि के अंदर रहता हूँ. मैं पदार्थ में सुप्त रहता हूँ परन्तु मेरी उपस्थिति से ही जड़ में चेतन का संचार होता है. मैं सर्वत्र हूँ, मैं सर्वोत्तम हूँ, परम पवित्र हूँ, मेरे स्पर्श मात्र से अपवित्र भी पवित्र हो जाता है. मैं सर्व शक्तिमान हूँ, मैं पूर्ण हूँ मुझसे कितना ही निकल जाये फिर भी मैं पूर्ण रहता हूँ. न मुझे कोई कम कर सकता है न कोई अधिक कर सकता है. मैं सदैव स्थिर सुप्रतिष्ठित रहता हूँ. न कोई मुझे मार सकता है, न जला सकता है. न गीला कर सकता है, न सुखा सकता है, मैं नित्य हूँ, अचल हूँ, सनातन हूँ.
मेरा न आदि है, न अंत है, मैं सृष्टि का कारण  हूँ, मेरे सुप्त होते ही पदार्थ जड़ हो जाता है, मेरी  जागृति ही जीवन है अर्थात ज्ञान सत्ता से ही जड़ में जीवन और जीवन जड़ होता है. मैं जीवन का कारण हूँ, जड़ भी मेरा विस्तार है. मेरे स्फुरण की मात्रा से भिन्न भिन्न बुद्धि और भिन्न भिन्न स्वरुप के प्राणी उत्पन्न होते हैं, अलग अलग स्वाभाव लिए  भिन्न भिन्न कर्म करते हैं, पर मैं तटस्थ और एकसा रहता हूँ.
मैं पृथ्वी में गंध, जल में रस, अग्नि में प्रभा, वायु में स्पर्श और आकाश में शब्द रूप में प्रकट होता हूँ, मेरे कारण ही यह ब्रह्माण्ड टिका है. मैं बर्फ में जल की तरह संसार में व्याप्त हूँ. सब चर अचर का मैं कारण हूँ, सभी भाव मुझसे ही उत्पन्न होते हैं. कोई जड़ तत्व मेरा कारण नहीं है. मेरे कारण ही जड़ चेतन का विस्तार होता है. मैं ही जड़ होता हूँ फिर उसमें चेतन रूप से प्रकट होता हूँ. जो मेरे शुद्ध रूप को प्राप्त हो जाता है वह सृष्टि के सम्पूर्ण रहस्यों को जान लेता है. सारा खेल मेरी मात्रा का है. मैं पूर्ण शुद्ध ज्ञान हूँ, मेरा दूसरा यथार्थ नाम महाबुद्धि है. परम बोध मेरा अस्तित्व है.

Monday, November 12, 2012

तेरी गीता मेरी गीता - ३ - बसंत प्रभात


प्रश्न- क्रिया से अक्रिय होने  को विस्तार से स्पष्ट करें.

उत्तर- क्रिया जीवन का चिन्ह है. बिना क्रिया के जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती. महत्वपूर्ण बात यह है कि यदि आपकी क्रिया सांसारिक है तो आप भोगी हैं, संसार में आसक्त हैं.यही कर्म बंधन है.इसके विपरीत यदि आपकी क्रिया ईश्वरोन्मुख है, आप आत्मरत हैं तो आप अक्रिय हैं. यही भगवदगीता का कर्मयोग है. श्री भगवान कहते हैं जो कर्म में अकर्म को देखता है और अकर्म में कर्म को देखता है वही योगी है. भगवदगीता के पांचवें अध्याय में श्री भगवान सुस्पष्ट करते हैं -

नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित्‌ ।
पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपंश्वसन्‌ ।8।
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्‌ ।9।

तत्व को जानने वाला योगी, मैं पन के अभाव से रहित हो जाता है और वह देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूघंता हुआ, भोजन करता, हुआ गमन, करता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ, बोलता हुआ, त्यागता हुआ, ग्रहण करता हुआ, आँख खोलता हुआ, मूँदता हुआ किसी भी शारीरिक कर्म में सामान्य मनुष्य की तरह लिप्त नहीं होता है। वह यह जानता है कि इन्द्रियाँ अपने अपने कार्यों को कर रही हैं अतः उसमें कर्तापन का भाव नहीं होता है।


प्रश्न- भगवदगीता में तीन शब्द आये हैं कर्म, अकर्म, विकर्म. कृपया इन्हें स्पष्ट करें. साथ ही यह भी विस्तार से  बताएं कि स्वाभाविक कर्म से क्या तात्पर्य है?

उत्तर-कर्म शब्द तात्पर्य सकाम कर्म से है, अकर्म वह हैं  जो क्रिया अथवा कर्म कर्तापन के अभिमान को छोड़कर  किये जाते हैं. विकर्म निंदनीय कर्म हैं जेसे अकारण हिंसा, अपशब्द, बलात्कार आदि.
आत्म तत्त्व के जिज्ञांसु साधक और आत्म  ज्ञानियों के लिए सकाम पूजन का निषेध है, यहाँ तक कि स्वर्ग की इच्छा भी त्याज्य है परन्तु यह भी यथार्थ है कि अनेक जन्मों का योग भ्रष्ट पुरुष ही आत्मज्ञान और निष्काम कर्म की ओर अग्रसर होता है. साधारण मनुष्य अनेक इच्छा लिए जीता है, इसलिए फल की इच्छा के साथ  ईश्वर और देव पूजा करता है. इसलिए साधारण मनुष्य के लिए उपदेश है अपने अपने स्वभाव के आधार पर कर्म करते हुए तुम वृद्धि को प्राप्त हो। अपनी उन्नति करो.
भगवद्गीता का अनासक्त कर्म योग जन सामान्य के लिए नहीं है श्री भगवान ने जन सामान्य लिए स्वाभाविक कर्म विधान बताया है.
स्वाभाविक कर्म का अर्थ है जैसी आपकी प्रकृति है वैसे कर्म में लगे रहें. जिसका खेती करना स्वभाव है उसे खेती ही करनी चाहिए वह अच्छा सैनिक या डाक्टर नहीं हो सकता. इसी प्रकार जिसका स्वभाव सैनिक का हो वह अच्छा कृषक नहीं हो सकता. शहरों और कस्बों में आजकल देखा देखी का जमाना है. पड़ोसी का लड़का इंजीनियर तो मेरा क्यों नहीं. बच्चे की रूचि और स्वभाव का कोई मूल्य इन आधुनिक माँ बाप की नजरों में नहीं है. बचपन से नम्बरों की मारा मारी का जमाना है, बच्चे स्वाभाविकता खोते जा रहे हैं. बचपन से तनाव है. चित्त उद्विग्न रहता है. अतःस्वाभाविक कर्म का ज्ञान होना, बच्चे की प्रकृति को जानना तदनुसार उसको शिक्षित करना जरूरी है. इससे चित्त की उद्विग्नता, तनाव  समाप्त हो जाता है. मन प्रसन्न और करुणामय होने लगता है. प्रोग्रेसिव होना अच्छी बात है परन्तु अपनी रूचि और स्वभाव से सम्बंधित होनी चहिये.
जन सामान्य के लिए भगवद्गीता में श्री भगवान स्वाभाविक कर्म का उपदेश देते हैं.

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्‌ ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ।35-3।

दूसरे के धर्म से गुण रहित अपना धर्म (स्वभावगत कर्म ) अति उत्तम है। दूसरे का धर्म (स्वभावगत कर्म ) यद्यपि श्रेष्ठ हो या दूसरे के धर्म (स्वभाव) को भली प्रकार अपना भी लिया जाय तो भी उस पर चलना अपनी सरलता को खो देना है क्योंकि हठ पूर्वक ही दूसरे के स्वभाव का आचरण हो सकता है, अतः स्वाभाविकता नहीं रहती। अपने धर्म (स्वभाव) में मरना भी कल्याण कारक है दूसरे का स्वभाव भय देने वाला है अर्थात तुम्हारे अन्दर सत्त्व, रज, तम की मात्रा के अनुसार तुम्हारा जो स्वाभाविक स्वभाव है उसका सरलता पूर्वक निर्वहन करो। तदनुसार कर्म करो.
सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते है अर्थात सत्त्व, रज, तम की मात्रा के अनुसार चेष्टा करते हैं। ज्ञानी भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है फिर इसमें किसी का हठ क्या करेगा। चेष्टाएं स्वाभाविक रुप से होनी हैं फिर उन्हें क्यों हठ पूर्वक बढ़ाया जाय। अतः अधिक परिश्रम करके दिन रात काम करते हुए भोग प्राप्त करने की विशेष चेष्टा (हठ) बुद्धिमानी नहीं है। विशेष चेष्टा से  तनाव बढ़ता है. चित्त उद्विग्न रहता है.
सहज स्वाभाविक कर्म जो उसे उसकी प्रकृति से मिले हैं को छोड़ दूसरे कर्मों में लगा मनुष्य कर्मों में बंधता है
अच्छा  जीवित शरीर अपने  उत्तम इन्द्रिय ज्ञान  के साथ अपने अंगों का उत्तम  प्रयोग कर ही अनुकूल परिस्थिति होने पर सर्वोत्तम परिणाम देता है.

भगवदगीता के अठारहवें अध्याय में कर्म का विज्ञान बताते हुए श्री भगवान कहते हैं-

कर्म सिद्धि के पांच हेतु कर्ता और आधार
विविध प्रथक चेष्टा करण और पांचवां देव।। 14।।

हे अर्जुन, तू कर्मों के पांच कारण को जान। अधिष्ठान ही जीव की देह है। इस देह में जीव (भोक्ता) इस देह को भोगता है अतः दूसरा तत्व जीव कर्ता है। प्रकृति में आत्मा का प्रतिबिम्ब जीव है, आत्मा का देह भाव जीव है। जीव देह में कर्ता, भोक्ता रूप में रहता है। तीसरा तत्व है करण अर्थात भिन्न भिन्न इन्द्रियों का होना और चौथा है चेष्टा जिससे अंग संचालित हों। ज्ञान जब जीभ से से बाहर आता है तो वाणी, नेत्र से बाहर आता है तो दृश्य, पांव से चलना फिरना आदि अर्थात नाना प्रकार की चेष्टाएं। पांचवां दैव अर्थात परिस्थिति अनुकूल है, इन्द्रियां अनुकूल हैं, चित्त भी अनुकूल हो। सभी तत्व अनुकूल हों, यह प्रारब्ध वश होता है। इन हेतुओं से कर्म की रचना होती है।

कोई भी कर्म होने के लिए 05 हेतु आवश्यक है.
1-शरीर
2-जीवात्मा
3-इन्द्रियाँ
4-चेष्टा
5- दैव- अनुकूलता
बिना शरीर के कर्म नहीं हो सकता. मृत शरीर से  कर्म नहीं हो सकता.
इन्द्रिय ज्ञान  के बिना कर्म नहीं हो सकता.जैसे दृश्य ज्ञान  के बिना आँखों के देखा नहीं जा सकता. श्रवण ज्ञान  के बिना सुना नहीं जा सकता.
कर्मेन्द्रियों की कार्य प्रणाली ठीक  होनी चाहिए.
परिस्थितियां, इन्द्रियां, चित्त भी अनुकूल होने चाहिए इसे दैव कहा है. इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि यह देह पूर्व जन्मों के किन कर्मों के भोग के लिए प्राप्त हुआ है. यदि तदनुकूल परिस्थिति हो तो व्यक्ति सफल होगा.



Saturday, November 10, 2012

तेरी गीता मेरी गीता -2- बसंत प्रभात


प्रश्न-  आपने कहा कि केवल कहना कि मैं आत्मा हूँ अपने को धोबी का कुत्ता बनाना है जो न घर का रहता है न घाट का. इससे आपका क्या तात्पर्य है?
उत्तर- मैं आत्मा हूँ,  मैं परमात्मा हूँ यह ब्राह्मी  स्थिति है अतः उपलब्धि का विषय है. क्या कोइ डॉक्टर डॉक्टर  कहने से डॉक्टर हो सकता है. कोई भी शिक्षा क्रिया द्वारा ही प्राप्त हो सकती है  केवल कहने से कुछ भी सिद्ध नहीं होता. विचार, क्रिया और अनुभूति से ही इस ओर बड़ा जा सकता है. अक्रिय होने के लिए भी क्रिया करनी होगी. अनासक्त होने अथवा संसार से उदासीन होने के लिए भी क्रिया आवश्यक है. बुद्धि से आत्मा में रमण करने के लिए भी क्रिया आवश्यक है. उच्च स्तर में पहुँचने तक यह नियम आवश्यक है.
प्रश्न- गुरु का क्या प्रयोजन है?
उत्तर- शिष्य के प्रतिबोध धरातल को पुष्ट करना ही गुरु का कार्य है.
प्रश्न- क्या गुरु का कार्य बोध कराना नहीं है?
उत्तर- इससे ईश्वर  के कर्म सिद्धांत का विरोध होता है. श्री भगवन भगवद गीता में कहते हैं  कि इस संसार में कर्म से बड़ा कोई भी देने वाला नहीं है.
प्रश्न- शिष्य के कर्म क्षय होने पर भी क्या यही नियम लागू होगा.
उत्तर- कर्म क्षय होते ही शिष्य स्वयं अथवा गुरु कृपा से बोध को प्राप्त हो जाएगा. तुम स्वयं जान जावोगे की तुम, तुम्हारी आत्मा, तुम्हारे गुरु तीनों एक हैं.
प्रश्न- फिर कई लोगों को बाल्यावस्था में बोध बिना कुछ किये केसे हुआ.
उत्तर- यह पूर्व जन्म की साधना का परिणाम होता है.

Friday, November 9, 2012

तेरी गीता मेरी गीता .१.- बसंत प्रभात




प्रश्न -क्या मैं शरीर हूँ ?
उत्तर- यह समझना कि मैं शरीर हूँ जीवन  की महानतम भूल है. मृत्यु के बाद यह शरीर संसार में रह जाता है पर क्या वह तुम होते हो.
प्रश्न -क्या मैं आत्मा हूँ ?
उत्तर- केवल यह कहना कि मैं आत्मा हूँ अपने को धोबी का कुत्ता बनाना है जो न घर का रहता है न घाट का.
कहने से कुछ नहीं बनेगा उसे समझना होगा, जानना होगा, व्यवहार में लाना होगा. विचार को  निरंतर अभ्यास और वैराग्य से पुष्ट करना होगा.
प्रश्न -फिर  मैं कोन हूँ ?
उत्तर- निरंतर इस प्रश्न की खोज करते रहो तब उत्तर अपने आप मिल जायेगा.
प्रश्न - क्या कोई अन्दर से आवाज आएगी.
उत्तर- अन्दर की आवाज से केवल तुम्हारी खोज को बल मिलेगा.
प्रश्न - क्या  कोई प्रकाश दिखाई देगा?
उत्तर- कोई भी दृश्य अथवा प्रकाश वास्तविकता नहीं होगी.
प्रश्न - फिर क्या होगा?
उत्तर - तुम्हारा वास्तविक स्वरूप प्रगट होगा. कोई प्रश्न कोई विचार शेष नहीं रहेगा.तुम पूर्ण ज्ञानमय हो जावोगे.

Thursday, September 6, 2012

अष्टावक्र गीता - अध्याय 19 & 20 -बसंत प्रभात जोशी

       अध्याय उन्नीसवां

राजा जनक बोले -
तत्व ज्ञान की  लिये हृदय उदर को चीर
नाना विधि से जानकर शल्य किया उद्धार।।1।।
कहाँ धर्म कहँ काम है कहाँ अर्थ विवेक
कहाँ द्वैत अद्वैत है महिमा स्थित आप।।2।।
कहाँ भूत भवितव्यता और कहाँ है आज
निज स्वरूप स्थित स्वयं मुझको कहाँ है देश ।।3।।
कहाँ आत्म अनात्म है कहाँ अशुभ शुभ व्याप्त
कहँ चिंता चिंता नहीं महिमा स्थित आप।।4।।
कहाँ स्वप्न कहँ सुषुप्ति है कहाँ जागरण बोध
कहाँ तुरिया भय गया निजी में स्थित आप।।5।।
कहाँ दूर कहँ पास है कहाँ वाह्य भीतर कहां
कहाँ सूक्ष्म स्थूल है महिमा स्थित आप ।।6।।
कहाँ मृत्यु कहँ जीवनम् कहाँ लोक व्यवहार
कहाँ समाधि लय है कहाँ निज में स्थित आप।।7।।
त्रिवर्ग कथा पर्याप्त है योग कथा पर्याप्त
विज्ञान कथा पर्याप्त है स्व में स्थित आप।।8।।


       अध्याय बीसवां

राजा जनक बोले-
कहाँ भूत है देह कहँ कहाँ इन्द्रियां मन
कहाँ शून्य नैरास्य है मेरा रूप निरंज।।1।।
कहाँ आत्म विज्ञान है विषय हीन मन शास्त्र
कहाँ तृप्ति तृष्णा कहाँ सदा द्वन्द गत जान।।2।।
कहँ विद्या अविद्या कहाँ और कहाँ मैं यह
कहाँ बन्ध कहँ मोक्ष है स्व स्वरूप कहँ रूपिता।।3।।
कहाँ प्रारब्ध कर्म है जीवन मुक्ति किस ओर
कहाँ विदेह कैवल्य है र्निविषेश में हूँ सदा।।4।।
कहँ करता कहँ भोगता निष्क्रिय स्फुरण है कहाँ
कहां अपरोक्ष ज्ञान है निज स्वभाव मैं हूँ सदा।।5।।
कहाँ लोक है मुमुक्षु कित कहँ योगी कहँ ज्ञान
कहाँ बद्ध अरु मुक्त है अद्वय स्वरूप हॅू सदा।।6।।
कहाँ सृष्टि संहार है कहँ साधन है साध्य
कहँ साधक कहँ सिद्धियां अद्वय स्वरूप मैं सदा।।7।।
कहाँ प्रमाता प्रमाण है कहाँ प्रमेय प्रमाण
कहँ किंचित अकिंचित कहाँ सदा विमल हॅू जान।।8।।
कहँ विक्षेप एकाग्रता कहँ बोध कहँ मूढ़
कहाँ हर्ष विषाद है निश्क्रिय सदा ही जान।।9।।
व्यवहार कहाँ परमार्थ कहाँ
मुझ र्निविकार रूप में सुख है कहाँ दुख है कहाँ ।।10।।
कहँ माया संसार है कहाँ विरति कहँ प्रीति
कहाँ जीव है ब्रहम कहँ विमल रूपमय जान।।11।।
कहाँ प्रवृत्ति निवृत्ति कहँ मुक्ति कहाँ कहँ बन्ध
विभाग रहित कूटस्थ में सदा स्वस्थ्य मम जान।।12।।
कहाँ शास्त्र उपदेश हैं कहाँ शिष्य गुरु जान
और कहाँ पुरुषार्थ है उपाधि रहित शिव जान।।13।।
कहँ अस्ति कहँ नास्ति है कहाँ एक अरु द्वैत
बहुत कथन का मोल क्या कुछ नहिं अंदर भार।।14।।


                .........................................

अष्टावक्र गीता –ASHTAVAKRA GITA- अठारहवां अध्याय-बसंत प्रभात जोशी


                  अठारहवां अध्याय

अष्टावक्र  बोले -
बोध होत ही स्वप्न सम सकल भ्रांति हो नष्ट
तेज शांति सुख रूप को बारम्बार प्रणामि।।1।।
सकल साधन जोड़ नर अतिशय पाता भोग
सकल त्याग बिन भोग के क्वचित सुखी नहीं होत।।2।।
कर्तव्य दुःख मारतंड से जिसका मन है दग्ध
अमृत रूप वर्षा बिना कैसे सुख नर पाय।।3।।
भाव मात्र संसार है परम अर्थ कछु नाहिं
भाव अभाव पदार्थ में नहिं अभाव स्वभाव।।4।।
नहिं दूर है आत्म यह ना संकोच से प्राप्त
र्निविकल्प निरायास र्निविकार और निरजंन जान ।।5।।
मोह मात्र निर्वत्त हो निजस्वरूप ग्रह मात्र
वीत शोक निरावरण, शोभित नर अस दृष्टि ।।6।।
जगत मात्र है कल्पना आत्म सनातन् मुक्त
धीर जान इस सत्य को सदा बालवत चेष्ट।।7।।
आत्म ब्रहम है जान ले कल्पित भाव अभाव
निश्चय जान निष्काम नर कहे करे क्या जान।।8।।
यह मैं हूँ यह मैं नहीं क्षीण कल्पना योगि
सब कुछ है यह आत्मा निश्चय होता शान्त।।9।।
नहिं बोध नहिं मूढ़ता न विक्षेप न एकाग्र
ना सुख ना दुःख है योगी जो उपशान्त।।10।।
राज भीख अरु लाभ में हानि लोग वन एक
जो योगी र्निविकल्प है नहिं विशेष कुछ जान।।11।।
कहां धर्म है काम है कहाँ  अर्थ विवेक
यह किया है अनकिया द्वन्द्व युक्त है योगि।।12।।
कर्तव्य कर्म कुछ भी नहीं नहीं हृदय अनुराग
यथा प्राप्त जीवन जिये योगी जीवन मुक्त।।13।।
कहाँ मोहि संसार है कहाँ ध्यान कहं मुक्ति
सर्व संकल्प सीमा परे विश्रांत हुआ है योगि।।14।।
जिसने देखा जगत को कैसे कर इंकार
काम रहित जो पुरुष है करे देख अनदेख ।।15।।
जिसने देखा ब्रहम को सोहम् ब्रहम् विचार
जो नहिं देखे ब्रहम को क्या विचार निश्चिंत ।।16।।
विक्षेप देखता आत्म में निरोध चित्त केहि काज
उदार विक्षेप मुक्त जो साध्य अभाव केहि काज।।17।।
जो बरते संसार सम अपितु भिन्न संसार
ना समाधि विक्षेपना नहीं बन्ध में दृष्टि  ।।18।।
जो ज्ञानी संतृप्त है भाव अभाव से हीन
लोक दृष्टि से कर्मरत यद्यपि कुछ नहिं कर्म।।19।।
धीर पुरुष  नहिं धारता आग्रह वृत्ति निवृत्ति
कर्म उपस्थित होत जब सुख से करता कर्म ।।20।।
काम हीन आलम्ब हीन बन्ध रहित स्वच्छन्द्
संसार वायु प्रेरित हुआ शुष्क पर्ण सम चेष्ट ।।21।।
नहिं हर्ष  विषाद है मुक्त पुरुष संसार
शान्त मना विदेह वह सदा शोभते जान।।22।।
नहिं इच्छा है त्याग की नहिं ग्रहण की आश
आत्माराम धीर वह शीतल चित्त शोभाय।।23।।
प्राकृत चित शून्य है सहज करे जो कर्म
कहां मान अपमान है प्राकृत जन सम धीर।24।।
कर्म देह से है किया नहीं शुद्ध मम रूप
अस चिंतन जिनका हुआ कर्म करे नहिं कर्म।।25।।
प्राकृत सम है कर्मरत मुक्त जीव शोभाय
कहता कुछ है कर्म कुछ मूढ़ नहीं संसार।।26।।
बहु विचार से श्रमित हो धीर शान्ति उपलब्ध
नहिं सुनता नहिं जानता दृष्य कल्पना नाहिं।।27।।
विक्षेप हीन असमाधि में  मुक्त अमुक्त न बद्ध
देख विश्व कल्पित दृढ़ सदा ब्रहमवत् जान ।।28।।
सदा अहं है चित्त में कर्म नहिं कृत कर्म
अहंकार से हीन जो करता पर नहिं कर्म।।29।।
उद्वेग कर्तव्य सम्पद रहित और रहित संतोष
आस नहीं संदेह नहिं सदा चित्त शोभाय।।30।।
मुक्त न राजति ध्यान में और नहीं कुछ चेष्ट
निमित्त हेतु से हीन वह ध्यान करे अरु कर्म।।31।।
यथार्थत्व श्रवण मन बुद्धि से तद्पि मूढ़ता प्राप्त
पर कोउ ज्ञानी मूढ़वत परम बोध को प्राप्त।।32।।
ध्यान निरोध चित्त का करे मूढ़ अभ्यास
मुक्त पुरुष सम धीर नहिं रहे आत्म स्वभाव।।33।।
श्रम से नहिं विश्राम नहिं मूढ़ निर्वत्त न प्राप्त
ज्ञानी जाने तत्व को निश्चय जान निर्वत्त।।34।।
शुद्ध बुद्ध प्रिय पूर्ण है माया रहित अशोक 
जो नितरत अभ्यास में आत्म न जानति सोय।।35।।
मोक्ष प्राप्त नहिं मूढ़ को श्रम से करता कर्म
क्रिया रहित ज्ञानी पुरुष  ज्ञान मुक्त स्थित सदा।।36।।
मूढ़ इच्छित ब्रहम को ब्रहम को नहिं प्राप्त
धीर न इच्छिति ब्रहम की सदा भजति वह ब्रहम।।37।।
आधारहीन दुराग्रही जग पोषक है मूढ़
इस अनर्थ के मूल को ज्ञानी करता नष्ट ।।38।।
शान्ति चाहता मूढ़ पर नहिं शान्ति को प्राप्त
धीर जानता तत्व को सदा चित हो शान्त।।39।।
जिसका दर्शन दृश्य है आत्म सदा है दूर
धीर न देखत दृश्य को सदा आत्म को दृष्ट।।40।।
जो चित रोके हठ लिये चित्त न होत निरोध
जो रमता है आत्म में सहज धीर का चित्त ।।41।।
कोई मानी भाव को कोई कछु नहिं भाव
कोई मान अभाव को स्वस्थ्य चित्त नहिं दोउ।।42।।
शुद्ध अद्वय आत्म को मूढ़ भावना ध्याय
मोही न जानति मूढ़ नर जीवन आनन्द निर्वृत्त।।43।।
मोक्ष बुद्धि को चाहिए सदा आलम्ब स्तम्भ
निरालम्ब निष्काम मय बुद्धि सदा ही मुक्त।।44।।
विषय बाघ को देखकर भय से शरणागत् हुआ
चित्त रोध एकाग्रता सिद्ध गुहा गिरि पैठ।।45।।
निर्वासन नरसिंघ को देख भाग गज विषय
दीन हुए असमर्थ वह चाटव सम सेवति हरिं।।46।।
मुक्त चित्त निशंक नर मुक्तिकारी न धारयेत
सुन देखे स्पर्श कर सूंघ खात सुख लाभ।।47।।
यथार्थ ज्ञान के श्रवण से शुद्ध बुद्धि चित स्वस्थ्य
अनाचार आचार को उदासीन सम दर्श ।।48।।
जो कुछ आता कर्म का सहज साथ कुरु धीर
शुभ हो या फिर अशुभ हो बालक सम व्यवहार।।49।।
सुख पाता स्वातंत्र से परम् लाभ को प्राप्त
नित्य सुखी स्वातंत्र में और पदम पद प्राप्त।।50।।
नहिं करता नहिं भोगता जानत आत्म को धीर
चित्त वृत्ति सब नाश हो तद् क्षण सो मति धीर।।51।।
उत्छ्रंखलता राजती धीर पुरुष स्वभाव  
कृत्रिम शान्ति न शोभित मूढ़ पुरुष चित काम।।52।।
महाभोग क्रीड़ा करत कभी वसे गिरि पेंठ
निरति कल्पना बन्धगत मुक्ति बुद्धि नर धीर।।53।।
श्रोत्रि तीर्थ अरु देवता पूजन् कर मति धीर
राजा प्रिय अरु नारी को देख न काम शरीर।।54।।
पुत्र भृत्य दौहित्र से दारा से अरु  बन्धु
नहिं विकार को प्राप्त हो हास धिकारा योगी।।55।।
नहिं संतुष्ट होत है यद्यपि धीर संतुष्ट
दुखी हुआ भी दुख नहीं आश्चर्य दशा तद् ज्ञानी।।56।।
कर्तव्य ही संसार है नहीं देखते सूर
शून्य निरामय र्निविकार निराकार चित ज्ञानि।।57।।
नहीं कर्म करता हुआ सकल क्षोभ से मूढ़
सभी कर्म करता हुआ शान्त चित्त है धीर।।58।।
शान्त बुद्धि सुख आत है सुख बैठे सुख जात
सुख बोले सुख भोजन करे व्यवहार सभी हो शान्त।।59।।
प्राकृत जन व्यवहार नहिं निज स्वभाव व्यवहार
महा जलधि विक्षोभ गत क्लेश रहित शोभित सदा।।60।।
मूढ़ निवृत्ति परिवर्तित प्रवृत्ति रूप हो जात
धीर प्रवृति फल राजति उसे निवृत्ति सब जान।।61।।
मूढ़ वैराग्य प्राकट्य हो परिग्रह उसको जान
देह गलित जिसका हुआ कहां राग वैराग।।62।।
भावना अभावना दृष्टि मूढ़ की सदा
भाव अभावना से युक्त स्वच्छ दृष्टि मुक्ति हो।।63।।
मुनि बालक व्यवहार सम निष्काम कर्म आरम्भ
किये कर्म भी लिप्त नहीं शुद्ध स्वरूप चैतन्य ।।64।।
आत्मज्ञानी धन्य हो मन से जो हो पार
देख सुन स्पर्श कर भोज सकल एक भाव।।65।।
कहां जगत आभास है कहं साधन कहं साध्य
आकाश  हुआ र्निविकल्प जो धीर वही है जान।।66।।
संन्यासी सो है वही पूर्णानन्द स्वरूप
सहज समाधी अनवछिन्नमय सदा विद्य सर्वत्र।।67।।
क्या कह सकते हैं बहुत तत्व ज्ञानी की बात
भोग मोक्ष निरकांक्षि जो राग रहित सर्वत्र।।68।।
महद् आदि जो द्वैत जग नाम मात्र से भिन्न
त्यागा जिसने शुद्ध बुद्धि कौन कार्य अवशेष।।69।।
सकल जगत भ्रम मात्र रूप है निश्चय जान प्रपंच
अलक्ष्य स्फुरण शुद्ध नर सहज शान्त हो जात।।70।।
दृष्य भाव से विगत हो शुद्ध स्फुरण अनुभूत
कहं विधि कहँ वैराग्य है कहाँ त्याग कहँ मुक्ति।।71।।
विविध रूप स्फुरित प्रकृति जो नहीं देखे विज्ञ
कहाँ बन्ध कहँ मोक्ष है कहाँ हर्ष कहँ शोक ।।72।।
बुद्धि पर्यन्त संसार में माया मात्र विराज
र्निहंकार निष्काम हो निरमम् ज्ञानि विराज।।73।।
संतापहीन अक्षय सदा आत्म तत्व मुनि देख
कहँ विद्या कहँ विश्व है कहां देह कहं मोर।।74।।
निरोध कर्म को छोड़ता जड़ धी जिसकी होय
सकल मनोरथ अरु प्रलाप तत्क्षण होत प्रवृत्त।।75।।
नहिं त्यागता मूढ़ता धी जड़ तत्व को जान
बाह्य प्रयत्न र्निविकल्प हो मन मैं लालस ठान।।76।।
मन गलित कर्म जेहिं लोक दृष्ट कृत कर्म
अवसर ना कछु कर्म का और ना अवसर बोल।।77।।
कहाँ तिमिर है धीर को सदा अभय र्निविकार
कहाँ प्रकाश कहँ त्याग है कहीं भी कुछ भी नाहिं।।78।।
कहाँ धीरता विवेक है कहाँ निडरता जान
अर्निवाच्य स्वभाव जो निःस्वभाव है योगी।।79।।
नहिं स्वर्ग नहिं नरक है जीवन मुक्त है नाहिं
बहुत प्रयोजन नहिं विषय योग दृष्टि कछु नाहिं।। 80।।
नहिं लाभ की प्रार्थना नहिं हानि की चिन्त
चित्त अमृत पूरित हुआ शीतल धीर का चित्त।।81।।
स्तुति नाहीं शांत की नहीं दुष्ट की निन्द
सुख दुख सम जो तृप्त है नहीं कर्म कर कृत्य।।82।।
नहिं द्वेष संसार से नहिं आत्म का लाभ
हर्ष शोक से मुक्त धीर ना मृत जीवन नाहिं।।83।।
नहिं स्नेह सुत दारादि से रहित काम विषयादि
नहिं चिंत निज देह की आशा मुक्त शोभाय ।।84।।
धीर सदा संतुष्ट है यथा प्राप्य संसार
निर्भय हो विचरण करे शयन जहां दिव अस्त।।85।।
निज स्वभाव विश्राम रत जेहि संसार विस्मृत
नहिं चिन्ता रत विज्ञ जो देह रहे या जाय।।86।।
द्वन्द रहित संशय रहित स्वच्छंद अकिंचन बुद्ध
आसक्ति रहित एकाकी भाव रमण वह बुद्ध।।87।।
जिसकी ममता है गई कनक धूल सम जान
हृदय ग्रन्थि जेहि टूट गई रज तम से र्निधूत।।88।।
नहिं वासना हृदय में मुक्त हुआ व्यवधान
पूर्ण तृप्त मुक्त आत्मा किमि तुलना अस विज्ञ।।89।।
जो जानत नहिं जानता देखे जो नहिं देख
बोलत जो नहिं बोलता काम रहित को अन्य।।90।।
भूपति हो या भिक्षु हो शोभित जो निष्काम
सभी काम में गल गई शोभ अशोभन बुद्धि।।91।।
कहाँ संकोच स्वच्छंदता कहाँ तत्व का बोध
सहल सरल निष्कपट जो यर्थाथचारी योगि।।92।।
आत्मा में विश्राम तृप्त इच्छा रहित गत शोक
अंन्तस में अनुभूत जो कैसे वर्णन होय।।93।।
सोता पर सोता नहीं और स्वप्न में नींद
जागृत है जागा है क्षण क्षण तृप्त वो धीर।।94।।
चिंता है चिंता रहित इन्द्री सहित निरीन्द्रिय
बुद्धि सहित निरिबुद्धि है अहं सहित निरहं।।95।।
सुखी नहिं ना दुखी है ना विरक्ति ना रागि
ना मुमुक्षु ना मुक्त है किंच अंकिचन नाहिं।।96।।
नहिं विक्षिप्त विक्षेप में नहिं समाधि समाधि
जड़ता में भी जड़ नहीं पाडित्य न पंडित धन्य।।97।।
मुक्त स्वस्थ्य सब रूप में कृत कर्तव्य निवृत्त
सम सर्वत्र स्मरण नहीं तृष्णागत कृत कर्म।।98।।
नहीं प्रीयते वंदना निंदति में ना क्रुद्ध
ना उद्विग्न हो मृत्यु में ना जीवन में हर्ष।।99।।
शान्त न धावत नगर को और न वन की ओर
सब स्थित वह सम हुआ सर्वत्र एक सब जान।।100।।


 ...........................................................................................................

Monday, August 20, 2012

प्राण - प्रो.बसन्त प्रभात जोशी

                           प्राण
                 
प्राण वह जीवन शक्ति जिससे कोई मनुष्य, जंतु अथवा वनस्पति जिन्दा रहती है. वह जो साँस लेता है उससे वृद्धि होती है, प्रजनन आदि क्रिया होती हैं उसे प्राण कहते हैं.
हिन्दू योग एवम दर्शन ग्रंथों में मुख्य प्राण पांच बताए गए हैं इसके आलावा उपप्राण भी पाँच बताये गए है  पाँच प्राणों के नाम इस प्रकार हैं
१. प्राण
२. अपान
३. समान
४. उदान
५. व्यान
             प्राण का जन्म
यह  प्राण क्या है यह कहाँ से आया, यह कैसे पैदा हुआ? जब जल और पृथ्वी तत्त्व, गंध और रस  साथ मिलकर एक आकार ले लेते हैं तो बीज बन जाता है. इस अवस्था में ज्ञान निष्क्रिय अवस्था  में रहता है. अग्नि और वायु तत्त्व सुप्तावस्था में रहते हैं.
बीज में जब ज्ञान क्रियाशील हो जाता है तो ज्ञान के क्रियाशील होते ही biochemical (रसायनिक) क्रिया प्रारंभ हो जाती है बीज में ऊर्जा (गर्मी) पैदा हो जाती है और बीज फूलने लगता है अथवा उसकी वृद्धि होने लगती है. इस गर्मी को बनाये रखने के लिए बीज में वायु का संचरण और फैलाव होने लगता है. इस वायु का संचरण और फैलाव को प्राण कहते हैं. इस प्रकार बीज शरीर का आकार  लेता है जिसके लिए प्राण आवश्यक है.
जब शरीर में ज्ञान अक्रिय हो जाता है तो प्राण रुक जाते हैं क्योंकि शरीर का विकास समाप्त हो जाता है इसलिए गर्मी की आवश्यकता नहीं रहती, शरीर की गर्मी खत्म (70Fन्यूनतम तक हो जाती) है. शरीर की गर्मी खत्म होने से अंग कार्य करना बंद कार देते हैं. इसे ORGANS DROPS DOWN कहा जाता है.
कभी कभी ताप १०८ फ़ के कारण ज्ञान को धारण करने वाला ज्ञान शरीर छोड़ देता है और शरीर में प्राण क्रिया रुक जाती है.

...............................................................................










Saturday, August 18, 2012

अष्टावक्र गीता/ ashtavakra gita - सत्रहवां अध्याय - प्रो बसंत प्रभात जोशी


           अष्टावक्र गीता

सत्रहवां अध्याय 

अष्टावक्र कहते हैं-

तृप्त शुद्ध इन्द्रिय हुआ विचरे जो एकाकी
योगाभ्यास ज्ञान का उसको ही फल प्राप्त.१.
नहीं खेद को प्राप्त हो तत्व ज्ञानि जग माहि
उसी एक से पूर्ण है ब्रह्मअंड सम्पूर्ण.२.
साल पर्ण में प्रीती गज नीम पर्ण नहिं हर्ष
आत्म तत्व में प्रीती जिमि ताहि विषय नहिं हर्ष.३.
जो नहिं रखता प्रीति को भुक्त भोग फिर भोग
अभुक्त भोग की कामना जग दुर्लभ अस योगि.४.
इच्छा रखते भोग की और मोक्ष की चाह
भोग मोक्ष इच्छा नहीं दुर्लभ जन संसार.५.
धर्म अर्थ काम मोक्ष जीवन मरण का भाव
कोई उदार नहिं धारता  त्याग ग्रहण लवलेश.६.
विश्व विलय इच्छा नहीं निज स्थिति ना द्वेष
यथा प्राप्त आजीविका धन्य पुरुष सुख जीव.७.
ज्ञान कृतार्थ अनुभूति से गलित हुई जिन बुद्धि
देखे सुने खाते हुए स्पर्श सूंघ कृतकृत्य.८.
कर्म चेष्टा इन्द्रिय विफल दृष्टि हुयी है शून्य
ना तृष्णा ना विरक्ति है क्षीण हुआ संसार.९.
ना जागे ना सोत है पलक खोल नहिं बंद
परम दशा कैसे हुयी मुक्त चित्त संसार.१०.
सर्वत्र शांत  शुद्ध आशय मुक्त पुरुष अस दृश्य
सकल वासना  मुक्त हो  मुक्त राज सर्वत्र.११.
देखे सुने खाते ग्रहण स्पर्श सूंघ चल बोल
हित अनहित से मुक्त वह मुक्त पुरुष है मुक्त.१२.
ना निंदा स्तुति नहीं, नहीं हर्ष अरु क्रोध
ना देता ना लेत है नीरस मुक्त सर्वत्र.१३.
अति अनुरागी नारि को, मृत्यु उपस्थित देख
अविचल मन स्वस्थ जो निश्चय मुक्त पुरुष.१४.
सुख दुःख में नर नारि में सम्पति विपत्ति न भेद
धीर पुरुष समदर्शी वह सब नहिं देखत भेद.१५.
हिंसा नहिं करुणा नहीं ना उदंडता दीन
आश्चर्य क्षोभ से मुक्त वह क्षीण हुआ संसार.१६.
विषय लोलुप द्वेष नहिं मुक्त पुरुष वह जान
अनासक्त वह नित्य ही प्राप्त अप्राप्त उपभोग.१७.
समाधानसमाधान हित अनहित के विकल्प
शून्य चित्त नहिं जानता स्थित सम कैवल्य.१८.
कुछ भी नहीं है निश्चय हुआ ममता अहं से शून्य
जिसकी आशा गल गयीं कर्म लिप्त नहिं होत.१९.
कर्म मोह जड़ स्वप्नगत गलित हुआ जेहि चित्त
दशा प्राप्त जेहि वचन नहिं मुक्त पुरुष उपलब्ध.20


गीतामृत

अष्टावक्र कहते हैं-

जो पुरुष तृप्त है शुद्ध इन्द्रिय है और जो  एकाकी रमण करता है उसी को योगाभ्यास और ज्ञान का  फल प्राप्त होता है .१.
तत्व ज्ञानी इस संसार में कभी भी खेद को प्राप्त हो नहीं होता है क्योंकि उसी  से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड पूर्ण है.२.
जिस प्रकार हाथी को साल के पत्ते में  प्रीती होती है उसे  नीम के पत्ते  हर्षित नहीं करते उसी प्रकार जिनकी आत्मतत्व में प्रीती होती है उसे  विषय हर्षित नहीं करते हैं.३.
जो मनुष्य भुक्त  भोग फिर भोगने की इच्छा नहीं करता और  अभुक्त भोग की कामना  भी जिसे नहीं होती इस प्रकार का योगी जग में दुर्लभ है.४.
साधारण मनुष्य भोग की इच्छा रखते हैं और मोक्ष की चाह भी परन्तु भोग और मोक्ष की जिसे इच्छा नहीं है ऐसा मनुष्य दुर्लभ संसार में दुर्लभ है.५.
धर्म अर्थ काम मोक्ष जीवन मरण आदि का भाव कोई उदारचित्त ही  हृदय में धारण नहीं करता. उसके लिए इनका त्याग ग्रहण सामान है.६.
जिसमें विश्व विलय की इच्छा नहीं है और अपनी वर्तमान स्थिति से  द्वेष नहीं है अर्थात संतुष्ट है, यथा प्राप्त आजीविका में संतुष्ट ही  धन्य पुरुष सुखपूर्वक जीता है .७.
जिसकी बुद्धि ज्ञान  अनुभूति से गलितहो गयी है अर्थात जिसके सब संशय मिट गए हों वह देखते सुनते खाते हुए स्पर्श करते हुए सूंघ  हुए सदा कृतकृत्य रहता है.८.
जिसका संसार क्षीण हो गया है उसे न तृष्णा है न विरक्ति है उसकी कर्म चेष्टा और इन्द्रियाँ विफल हो जाती हैं और दृष्टि शून्य हो जाती है अर्थात वह कर्म और इन्द्रियों के आधीन नहीं होता.९.
ऐसा मनुष्य  न जागता है  ना सोता  है यहाँ तक की आँख की पलक खोल और बंद नहीं करता अर्थात शरीर के प्रति विरक्त हो जाता है संसार से मुक्त चित्तपुरुष की कैसी परम दशा है.१०.
मुक्त पुरुष सर्वत्र शांत  शुद्ध आशय दिखाई देता है. वह सकल वासना  मुक्त होकर  सर्वत्र सुशोभित रहता है.११.
देखते, सुनते, खाते, ग्रहण करते हुए, स्पर्श करते हुए, सूंघतेचलतेबोलते  हित, अनहित से मुक्त हुआ मुक्त पुरुष सदा मुक्त है.१२.
मुक्त पुरुष  को ना निंदा है ना स्तुति है, उसे  हर्ष और क्रोध भी नहीं है वह न देता है न  लेता  है  वह सदा नीरस रहता है.१३.
अति अनुरागी नारी और  मृत्यु उपस्थित देखकर भी जिसका मन  अविचल रहता है जो शांत है वह  निश्चय ही मुक्त पुरुष है.१४.
धीर पुरुष  सुख दुःख में, नर नारी में और सम्पति व विपत्ति में  भेद नहीं देखता. वह सदा समदर्शी रहता है .१५.
उसमें न हिंसा है न करुणा है, न उदंडता है न दीनता है वह आश्चर्य क्षोभ से मुक्त है उसका संसार क्षीण हो जाता है..१६.
मुक्त पुरुष विषय लोलुप  नहीं होता न उसमें द्वेष होता है.वह सदा अनासक्त हुआ  नित्य ही प्राप्त अप्राप्त उपभोग करता है.१७.
मुक्त पुरुष समाधान असमाधान, हित अनहित के विकल्प को नहीं जानता है. वह सदा शून्य चित्त हुआ  कैवल्य सम स्थित रहता है.१८.
वह जानता है की वास्तव में कुछ भी नहीं है इसलिए ममता अहं से शून्य हो जाता है.उसकी सभी आशाएँ नष्ट  हो गयीं  हैं वह कर्म में लिप्त नहीं होता है. १९.
जिसका चित्त नष्ट  हो गया है जिसके कर्म, मोह, जड़ता, स्वप्न समाप्त हो गए हैं  वह मुक्त पुरुष कैसी दशा को  प्राप्त होता है जिसके लिए शब्द उपलब्ध नहीं हैं .20




 




















BHAGAVAD-GITA FOR KIDS

    Bhagavad Gita   1.    The Bhagavad Gita is an ancient Hindu scripture that is over 5,000 years old. 2.    It is a dialogue between Lord ...