Monday, August 20, 2012

प्राण - प्रो.बसन्त प्रभात जोशी

                           प्राण
                 
प्राण वह जीवन शक्ति जिससे कोई मनुष्य, जंतु अथवा वनस्पति जिन्दा रहती है. वह जो साँस लेता है उससे वृद्धि होती है, प्रजनन आदि क्रिया होती हैं उसे प्राण कहते हैं.
हिन्दू योग एवम दर्शन ग्रंथों में मुख्य प्राण पांच बताए गए हैं इसके आलावा उपप्राण भी पाँच बताये गए है  पाँच प्राणों के नाम इस प्रकार हैं
१. प्राण
२. अपान
३. समान
४. उदान
५. व्यान
             प्राण का जन्म
यह  प्राण क्या है यह कहाँ से आया, यह कैसे पैदा हुआ? जब जल और पृथ्वी तत्त्व, गंध और रस  साथ मिलकर एक आकार ले लेते हैं तो बीज बन जाता है. इस अवस्था में ज्ञान निष्क्रिय अवस्था  में रहता है. अग्नि और वायु तत्त्व सुप्तावस्था में रहते हैं.
बीज में जब ज्ञान क्रियाशील हो जाता है तो ज्ञान के क्रियाशील होते ही biochemical (रसायनिक) क्रिया प्रारंभ हो जाती है बीज में ऊर्जा (गर्मी) पैदा हो जाती है और बीज फूलने लगता है अथवा उसकी वृद्धि होने लगती है. इस गर्मी को बनाये रखने के लिए बीज में वायु का संचरण और फैलाव होने लगता है. इस वायु का संचरण और फैलाव को प्राण कहते हैं. इस प्रकार बीज शरीर का आकार  लेता है जिसके लिए प्राण आवश्यक है.
जब शरीर में ज्ञान अक्रिय हो जाता है तो प्राण रुक जाते हैं क्योंकि शरीर का विकास समाप्त हो जाता है इसलिए गर्मी की आवश्यकता नहीं रहती, शरीर की गर्मी खत्म (70Fन्यूनतम तक हो जाती) है. शरीर की गर्मी खत्म होने से अंग कार्य करना बंद कार देते हैं. इसे ORGANS DROPS DOWN कहा जाता है.
कभी कभी ताप १०८ फ़ के कारण ज्ञान को धारण करने वाला ज्ञान शरीर छोड़ देता है और शरीर में प्राण क्रिया रुक जाती है.

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Saturday, August 18, 2012

अष्टावक्र गीता/ ashtavakra gita - सत्रहवां अध्याय - प्रो बसंत प्रभात जोशी


           अष्टावक्र गीता

सत्रहवां अध्याय 

अष्टावक्र कहते हैं-

तृप्त शुद्ध इन्द्रिय हुआ विचरे जो एकाकी
योगाभ्यास ज्ञान का उसको ही फल प्राप्त.१.
नहीं खेद को प्राप्त हो तत्व ज्ञानि जग माहि
उसी एक से पूर्ण है ब्रह्मअंड सम्पूर्ण.२.
साल पर्ण में प्रीती गज नीम पर्ण नहिं हर्ष
आत्म तत्व में प्रीती जिमि ताहि विषय नहिं हर्ष.३.
जो नहिं रखता प्रीति को भुक्त भोग फिर भोग
अभुक्त भोग की कामना जग दुर्लभ अस योगि.४.
इच्छा रखते भोग की और मोक्ष की चाह
भोग मोक्ष इच्छा नहीं दुर्लभ जन संसार.५.
धर्म अर्थ काम मोक्ष जीवन मरण का भाव
कोई उदार नहिं धारता  त्याग ग्रहण लवलेश.६.
विश्व विलय इच्छा नहीं निज स्थिति ना द्वेष
यथा प्राप्त आजीविका धन्य पुरुष सुख जीव.७.
ज्ञान कृतार्थ अनुभूति से गलित हुई जिन बुद्धि
देखे सुने खाते हुए स्पर्श सूंघ कृतकृत्य.८.
कर्म चेष्टा इन्द्रिय विफल दृष्टि हुयी है शून्य
ना तृष्णा ना विरक्ति है क्षीण हुआ संसार.९.
ना जागे ना सोत है पलक खोल नहिं बंद
परम दशा कैसे हुयी मुक्त चित्त संसार.१०.
सर्वत्र शांत  शुद्ध आशय मुक्त पुरुष अस दृश्य
सकल वासना  मुक्त हो  मुक्त राज सर्वत्र.११.
देखे सुने खाते ग्रहण स्पर्श सूंघ चल बोल
हित अनहित से मुक्त वह मुक्त पुरुष है मुक्त.१२.
ना निंदा स्तुति नहीं, नहीं हर्ष अरु क्रोध
ना देता ना लेत है नीरस मुक्त सर्वत्र.१३.
अति अनुरागी नारि को, मृत्यु उपस्थित देख
अविचल मन स्वस्थ जो निश्चय मुक्त पुरुष.१४.
सुख दुःख में नर नारि में सम्पति विपत्ति न भेद
धीर पुरुष समदर्शी वह सब नहिं देखत भेद.१५.
हिंसा नहिं करुणा नहीं ना उदंडता दीन
आश्चर्य क्षोभ से मुक्त वह क्षीण हुआ संसार.१६.
विषय लोलुप द्वेष नहिं मुक्त पुरुष वह जान
अनासक्त वह नित्य ही प्राप्त अप्राप्त उपभोग.१७.
समाधानसमाधान हित अनहित के विकल्प
शून्य चित्त नहिं जानता स्थित सम कैवल्य.१८.
कुछ भी नहीं है निश्चय हुआ ममता अहं से शून्य
जिसकी आशा गल गयीं कर्म लिप्त नहिं होत.१९.
कर्म मोह जड़ स्वप्नगत गलित हुआ जेहि चित्त
दशा प्राप्त जेहि वचन नहिं मुक्त पुरुष उपलब्ध.20


गीतामृत

अष्टावक्र कहते हैं-

जो पुरुष तृप्त है शुद्ध इन्द्रिय है और जो  एकाकी रमण करता है उसी को योगाभ्यास और ज्ञान का  फल प्राप्त होता है .१.
तत्व ज्ञानी इस संसार में कभी भी खेद को प्राप्त हो नहीं होता है क्योंकि उसी  से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड पूर्ण है.२.
जिस प्रकार हाथी को साल के पत्ते में  प्रीती होती है उसे  नीम के पत्ते  हर्षित नहीं करते उसी प्रकार जिनकी आत्मतत्व में प्रीती होती है उसे  विषय हर्षित नहीं करते हैं.३.
जो मनुष्य भुक्त  भोग फिर भोगने की इच्छा नहीं करता और  अभुक्त भोग की कामना  भी जिसे नहीं होती इस प्रकार का योगी जग में दुर्लभ है.४.
साधारण मनुष्य भोग की इच्छा रखते हैं और मोक्ष की चाह भी परन्तु भोग और मोक्ष की जिसे इच्छा नहीं है ऐसा मनुष्य दुर्लभ संसार में दुर्लभ है.५.
धर्म अर्थ काम मोक्ष जीवन मरण आदि का भाव कोई उदारचित्त ही  हृदय में धारण नहीं करता. उसके लिए इनका त्याग ग्रहण सामान है.६.
जिसमें विश्व विलय की इच्छा नहीं है और अपनी वर्तमान स्थिति से  द्वेष नहीं है अर्थात संतुष्ट है, यथा प्राप्त आजीविका में संतुष्ट ही  धन्य पुरुष सुखपूर्वक जीता है .७.
जिसकी बुद्धि ज्ञान  अनुभूति से गलितहो गयी है अर्थात जिसके सब संशय मिट गए हों वह देखते सुनते खाते हुए स्पर्श करते हुए सूंघ  हुए सदा कृतकृत्य रहता है.८.
जिसका संसार क्षीण हो गया है उसे न तृष्णा है न विरक्ति है उसकी कर्म चेष्टा और इन्द्रियाँ विफल हो जाती हैं और दृष्टि शून्य हो जाती है अर्थात वह कर्म और इन्द्रियों के आधीन नहीं होता.९.
ऐसा मनुष्य  न जागता है  ना सोता  है यहाँ तक की आँख की पलक खोल और बंद नहीं करता अर्थात शरीर के प्रति विरक्त हो जाता है संसार से मुक्त चित्तपुरुष की कैसी परम दशा है.१०.
मुक्त पुरुष सर्वत्र शांत  शुद्ध आशय दिखाई देता है. वह सकल वासना  मुक्त होकर  सर्वत्र सुशोभित रहता है.११.
देखते, सुनते, खाते, ग्रहण करते हुए, स्पर्श करते हुए, सूंघतेचलतेबोलते  हित, अनहित से मुक्त हुआ मुक्त पुरुष सदा मुक्त है.१२.
मुक्त पुरुष  को ना निंदा है ना स्तुति है, उसे  हर्ष और क्रोध भी नहीं है वह न देता है न  लेता  है  वह सदा नीरस रहता है.१३.
अति अनुरागी नारी और  मृत्यु उपस्थित देखकर भी जिसका मन  अविचल रहता है जो शांत है वह  निश्चय ही मुक्त पुरुष है.१४.
धीर पुरुष  सुख दुःख में, नर नारी में और सम्पति व विपत्ति में  भेद नहीं देखता. वह सदा समदर्शी रहता है .१५.
उसमें न हिंसा है न करुणा है, न उदंडता है न दीनता है वह आश्चर्य क्षोभ से मुक्त है उसका संसार क्षीण हो जाता है..१६.
मुक्त पुरुष विषय लोलुप  नहीं होता न उसमें द्वेष होता है.वह सदा अनासक्त हुआ  नित्य ही प्राप्त अप्राप्त उपभोग करता है.१७.
मुक्त पुरुष समाधान असमाधान, हित अनहित के विकल्प को नहीं जानता है. वह सदा शून्य चित्त हुआ  कैवल्य सम स्थित रहता है.१८.
वह जानता है की वास्तव में कुछ भी नहीं है इसलिए ममता अहं से शून्य हो जाता है.उसकी सभी आशाएँ नष्ट  हो गयीं  हैं वह कर्म में लिप्त नहीं होता है. १९.
जिसका चित्त नष्ट  हो गया है जिसके कर्म, मोह, जड़ता, स्वप्न समाप्त हो गए हैं  वह मुक्त पुरुष कैसी दशा को  प्राप्त होता है जिसके लिए शब्द उपलब्ध नहीं हैं .20




 




















BHAGAVAD-GITA FOR KIDS

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