Thursday, May 30, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - गुरु किसे बनाना चाहिये? - 81 - बसंत

प्रश्न- गुरु किसे बनाना चाहिये?

उत्तर - जो ईधन रहित अग्नि के सामान शांत हो अर्थात जो अग्नि स्वरुप हो पर उसका तेज किसी को जलाने वाला न हो अपितु शांत हो, कल्याणकारी हो.
कोई भी कामना आसक्ति नहीं हो. जहाँ कोई शुल्क नहीं लिया जाता हो. जहाँ मन वाणी और कर्म से आपसे कोई उपहार और भेंट की कामना नहीं की जाती हो. जहाँ किसी भी वस्तु का व्यापार नहीं होता हो.
जो सदा ब्रह्म स्वभाव में स्थित रहते हों.
जहाँ बिना किसी कारण के कृपा और दया की जाती हो.
जिनका चित्त न डोलता हो.
जो आडम्बर विहीन हों. जो बनावटी श्रृंगार न करते हों.
जो साधू असाधू के लिए सम भाव रखते हों.
जो ज्ञान मार्ग का अनुसरण करते हों. जो जानते हों कि परमात्मा का प्रकृति से बंधन अज्ञान के कारण है. जो आत्म और अनात्म तत्त्व को भली भांति जानते हों.
जो निंदा स्तुति में सामान रहते हों.
जिन से आप बिना रोक टोक के सदा सरलता से मिल सकते हों. जो स्वयं में वी वी आई पी आडम्बर से दूर हों. जो उपाधि से व्याधि की तरह व्यवहार करते हों.
जिनका आचरण चोबीस घंटे खुला हो, जिनका क्रोध और शान्ति बच्चे की तरह हो.




Wednesday, May 29, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - प्रार्थना - 80- बसंत

प्रश्न- क्या प्रार्थना कबूल होती है?
उत्तर- हाँ प्रार्थना कबूल होती है.भिन्न भिन्न लोग अपनी अपनी प्रकृति के अनुसार देव, दानव, भूत, प्रेत, मनुष्य  आदि को को पूजते हैं  देव, दानव, भूत, प्रेत, मनुष्य आदि  सभी अपनी अपनी सामर्थ के अनुसार आपकी प्रार्थना पूरी करते हैं.

प्रश्न- प्रार्थना के पूरा होने का क्या सिद्धांत है?
उत्तर- संसार के सभी आस्तिक प्रार्थना को महत्व देते हैं और प्रार्थना पूरी भी होती है. श्री  भगवान भगवदगीता में कहते हैं जो मनुष्य जिस प्रकार मुझको जिस रूप में जिस विधि से भजता है, प्रार्थना करता है मैं उसी विधि से उसी प्रकार उसको भजता हूँ, उसकी प्रार्थना कबूल करता हूँ.
आप कैसे ही किसी प्रकार चलें सब ईश्वर के ही मार्ग हैं. आप देव, दानव, भूत, प्रेत, मनुष्य  जिस किसी को पूजते हैं आपकी श्रृद्धा के अनुसार और उस  देव, दानव, भूत, प्रेत, मनुष्य द्वारा अपनी अपनी सामर्थ के अनुसार उस प्रार्थना को कबूल किया जाता है.
एक आत्मतत्त्व जो सभी जड़ चेतन में व्याप्त है वह आपकी प्रार्थना आपके अन्दर स्थित हुआ सुनता है और पूरा करता है. चूंकि अदृश्य आत्मतत्त्व जो आपके अन्दर है उसे आप महसूस नहीं करते हैं इसलिए मानते हैं किसी अन्य ने आपकी प्रार्थना पूरी की.
श्री भगवान जो आपकी आत्मा हैं उन्होंने भगवद्गीता में प्रार्थना के पूरा होने के सिद्धांत को विस्तार से समझाया है. भगवद्गीता में श्री कृष्ण कहते हैं-
 येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः ।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्‌ ।23-09।
हे अर्जुन जो अन्य जन दूसरे देवताओं का पूजन करते हैं वे भी मुझको ही पूजते हैं क्योंकि मैं ही सर्व व्यापक हूँ तथा सभी देवी देवता मुझ परमेश्वर की विभूति हैं। उनका यह पूजन अज्ञान पूर्वक है अर्थात वह मुझ आत्मरूप को नहीं पहचानते अतः इधर उधर भटकते हैं।
इसी प्रकार अध्याय सात में कहते हैं -
कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः ।
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया ।20।
संसार में भिन्न भिन्न कामनाओं को लिए मनुष्य अनेक भोग और इच्छाओं के वशीभूत हैं, जिनका ज्ञान माया द्वारा हर लिया गया है, अपने अपने स्वभाव के वशी भूत हो भिन्न भिन्न नियमों का पालन करते हुए अर्थात पूजा विधि, पूजा सामग्री आदि से देवी देवताओं का भजन पूजन, प्रार्थना करते हैं।
यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति ।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्‌ ।21।
जो जो सकामी भक्त जिस जिस देवी देवता के स्वरूप का श्रद्धा से भजन पूजन प्रार्थना करना चाहता है उस उस भक्त की श्रद्धा मैं उसी देवी देवता के प्रति स्थिर कर देता हूँ।
स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते ।
लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान्‌ ।22।
वह मनुष्य  श्रद्धा से युक्त होकर जिस देवी देवता का भजन पूजन, प्रार्थना करते हैं और उस देवता से मेरे द्वारा ही विधान किए इच्छित भोगों को प्राप्त करते हैं अर्थात जिस फल की इच्छा वे रखते हैं, मेरे बनाये नियमानुसार उन्हें वह फल उस देव पूजन से प्राप्त होता
अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्‌ ।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि ।23।
परन्तु यह सभी मनुष्य अल्प बुद्धि के हैं तथा इनको देव पूजन से मिलने वाला फल भी नाशवान है। क्योंकि संसार की सभी वस्तु मरण धर्मा हैं। ये देव पूजन करने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं परन्तु जो मेरे भक्त हैं उन्हें मेरी पूजा और प्रार्थना का फल मैं अर्थात आत्मज्ञान प्राप्त होता है।

Thursday, May 23, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - चेतना एक विकृति है, शारीरिक विकार है - 79 - बसंत


प्रश्न- आप कहते हैं चेतना एक विकृति है जो प्रकृति में पैदा होती है क्या आप इसे प्रमाणित कर सकते हैं?

उत्तर- चेतना एक विकृति है यह शास्त्र द्वारा भी प्रमाणित है और प्रत्यक्ष भी प्रमाणित है.
पहले आप प्रत्यक्ष प्रमाण को जानिये.
संसार में अज्ञान युक्त चैतन्य के कारण जड़ प्रकृति में चेतना उत्पन्न होती है.
जाग्रत अवस्था में यह सिर से लेकर नाखून तक फैली रहती है और दिखाई देती है. किसी मृत और जीवित व्यक्ति को देखकर यह हम सरल और स्वाभाविक रूप से समझ सकते हैं.
नींद में यह स्पर्श, गंध, शब्द विहीन हो जाती है.
बेहोशी में यह केवल हृदय और प्राण और आवश्यक आतंरिक अंगों के कार्य संचालन तक सीमित हो जाती है. देह चेतना शून्य हो जाती है और कोई संवेदना महसूस नहीं करती है.
परन्तु इन तीनो अवस्थाओं में अज्ञान युक्त चैतन्य और शुद्ध चैतन्य सदा एकसा और एक अवस्था में रहता है.
इसी प्रकार मैं देह से अलग हूँ यह भी चैतन्य को सदा बोध रहता है.
मृत्यु में भी में मैं देह से अलग हो गया हूँ यह यह भी अज्ञान युक्त चैतन्य और शुद्ध चैतन्य को बोध होता है पर अज्ञान युक्त चैतन्य को देह आसक्ति और अज्ञान उसे सीमित रखता है इसलिए वह पुनः देह में आने जाने के लिए स्वतंत्र नहीं है.
शुद्ध चैतन्य असीमित शक्ति व दिव्यता युक्त है इसलिए देह से आना और जाना उसकी इच्छा पर निर्भर करता है. उसकी चेतना रुपी विकृति भी शुद्ध होकर दिव्यता के रूप में प्रकट होती है. ऐसे पुरुष अवतार कहलाते हैं. श्री राम और श्री कृष्ण शुद्ध चैतन्य के ऐसे ही सगुण अवतार हैं.
अब आप शास्त्र प्रमाण हेतु भगवद्गीता के अध्याय तेरहवें अध्याय का सन्दर्भ लीजिये. श्री भगवान् ने स्पष्ट रूप से चेतना को विकृति माना है, शरीर का विकार माना है.-
महाभूतान्यहङ्‍कारो बुद्धिरव्यक्तमेव च ।
इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः ।5।
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं सङ्‍घातश्चेतना धृतिः
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम्‌ ।6।
पाँच महाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश), अहंकार, बुद्धि, अव्यक्त त्रिगुणात्मक प्रकृति, इन्द्रियां (कान, नाक, आंख, मुख, त्वचा, हाथ, पांव, गुदा, लिंग, वाक), मन, इन्द्रियों की पाचं तन्मात्राएं (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध), इन्द्रियों के विषय (इच्छा द्वेष, सुख-दुःख, जो अनेक प्रकार के गुण दोष उत्पन्न कर देते हैं), स्थूल देह का पिण्ड और चेतना, यह सब शरीर के विकार हैं.

प्रश्न- कृपया और अधिक स्पष्टता से समझायें?
उत्तर- यह समझ लो वास्तविक रूप में तुम सूर्य के सामान ज्ञानवान प्रकाश पुंज हो और जीव रूप में तुम इस देह में परम ज्ञान का 1/4 अरबवां हिस्सा (सूर्य की ऊर्जा जो पृथ्वी में पहुचती है) हो और 1/4 अरबवां हिस्से से उत्पन्न तुम्हारी चेतना पृथ्वी के रात दिन, भिन्न भिन्न ऋतु, भिन्न भिन्न मोसम, आंधी, तूफान, वर्षा, गर्मी की तरह की तरह तुमको तुम्हारे स्वरुप तुमको प्रतिभासित करती है और तुम इस प्रतिभासित चेतना को सब कुछ मान बैठे हो.

Tuesday, May 21, 2013

तेरी गीता मेरी गीता -78 - चेतना से ऊपर - बसंत


प्रश्न - हम जब ईश्वर के अंश हैं तो फिर इतने अपूर्ण, इतने हताश और निराश क्यों हैं. हमारी ईश्वरी शक्तियां क्यों नहीं प्रकट होती हैं.

उत्तर- हम ज्ञान के दो तत्त्व ज्ञान और अज्ञान से मिलकर बने हैं. यह तत्त्व चैतन्य और जड़ के रूप में आभासित और दिखाई देते हैं. चैतन्य के हाथ पाँव  नहीं हैं और जड़ की आँखें या महसूस करने की शक्ति नहीं है, वह बिना शक्ति का है. उसे ज्ञान की चैतन्य शक्ति चाहिए तभी वह हिलडुल सकता है अथवा कार्य कर सकता है. जब इन दोनों का मिलन होता है तो जड़, चैतन्य के कारण चेतन हो जाता है.यह चेतन लगभग चैतन्य की तरह होता है पर यह वास्तविक नहीं है इसलिए शक्ति में सीमित और सीमाओं में बंधा होता है.यही नहीं यह अपनी शक्ति से अपना संसार स्थापित कर लेता है. अब जो परम शक्तिमान चैतन्य है वह खेल देखता है और आप अपनी चेतना में मगन हो जाते हैं आपकी चेतना आपका अहंकार बन जाती है, आपकी प्रकृति के अनुसार आपकी बुद्धि बन जाती है. मन का खेल शुरू हो जाता है. अब आप का अपना स्वरुप जो वास्तविक है ही नहीं उसमें वास्तविक की शक्तियां कहाँ और कैसे आयेंगी. 
यदि आप इस खेल को कायदे से समझ गए तो आप मुस्कुराने लगते हो पर अब भी वास्तविकता से कोसों दूर हो. आपको बुद्धि से नहीं यथार्थ में इस रहस्य को अनुभूत करना होगा. बोध होने पर जब जड़ का चैतन्य के साथ सीधा कनेक्सन (सम्बन्ध) हो जाता है तो आपकी चेतना, आपके अहंकार के लिए कोइ स्थान नहीं रहता. चैतन्य के साथ सीधा कनेक्सन (सम्बन्ध)  होते ही आपकी बुद्धि, आपका शरीर अप्रमित बलशाली और दिव्य विभूतियों से युक्त हो जाता है. वास्तव में ईश्वर आप में अंश के रूप में नहीं बल्कि पूर्ण रूप में अपनी दिव्यताओं के साथ विद्यमान है. परन्तु आपकी प्रकृति जो जड़ है उसके साथ उसका सम्बन्ध कटा हुआ है और आप नकली जड़ से उत्पन्न चेतना को असली मानकर इसके संसार में जी रहे हो.
इसे आप इस प्रकार समझसकते हैं सूर्य ज्ञान है, चैतन्य है और पृथ्वी जड़ है. सूर्य प्रकाश जो प्रथ्वी  तक आता है वह पृथ्वी तक पहुँचते पहुँचते 1/२अरबवें हिस्से का 52% रह जाता है. इसी पकार तुम में से किसी किसी को वास्तविक चैतन्य का कभी कभी अहसास इतना ही हो पाता है. जिस प्रकार सूर्य के उदय से अस्त और अस्त से उदय होने तक पृथ्वी के वायु, जल, थल मंडल में  निरंतर गतिविधियाँ चलती रहती हैं उसी प्रकार तुम्हारे  अन्दर भी अहंकार ,बुद्धि, मन के ज्वार उठते रहते है. तुम सदा अहंकार ,बुद्धि, मन के उठते ज्वार में खोये रहते हो. तब चैतन्य बोध कैसे होगा. तुमको अपनी चेतना के धरातल से ऊपर उठना पड़ेगा. तुम्हारी चेतना तुम्हारी प्रकृति की विकृति है. तुमको पूर्ण होने के लिए चैतन्य होना होगा जो विशुद्ध और पूर्ण ज्ञान स्वरुप है, जिसमें सभी दिव्यता हैं जहाँ कोई निराशा नहीं है, सभी शक्तिया है परम शान्ति और आनंद है.

Sunday, May 19, 2013

तेरी गीता मेरी गीता -क्या नरक होता है?- 77 - बसंत



प्रश्न- क्या नरक होता है?
उत्तर-  जो कहता है नर्क होता है वह झूट बोलता है. जिसने भी नरक के दंड बनाए, भय दिखाया उसने अपनी विक्षिप्तता से मानवजाति को भयाक्रांत कर विक्षिप्त बना दिया, शायद ही मानव जाति का उससे बड़ा कोई दुश्मन न है न होगा. आप स्वयं मूल्यांकन करें-
जीव ईश्वर का अंश है फिर वह नरक कैसे जा सकता है. जिसे जलाया नहीं जा सकता उसे अग्नि में जलाकर अथवा तेल के कड़ाहों में उबालकर कैसे दण्डित किया जा सकता है. जिसे काटा नहीं जा सकता उसे किस प्रकार नरक में आरों से काटा जा सकता है. जिसे कोई दर्द नहीं होता उसे साँपों,बिच्छू से डंक लगवाकर कैसे पीड़ा दी जा सकती है. जिसे कोई पीड़ा नहीं होती उसे किस प्रकार सूली में बिठाया जा सकता है.
भगवद्गीता के वचन इन बातों की पुष्टि करते हैं.

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ।23-2।
इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते हैं, इसे आग में जलाया नहीं जा सकता, जल इसे गीला नहीं कर सकता तथा वायु इसे सुखा नहीं सकती। यह निर्लेप है, नित्य है, शाश्वत है।

अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ।24-2।
आत्मा को छेदा नहीं जा सकता, जलाया नहीं जा सकता, गीला नहीं किया जा सकता, सुखाया नहीं जा सकता, यह आत्मा अचल है, स्थिर है, सनातन है।

दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि भिन्न भिन्न रूपों में ईश्वर ही नाटक कर रहा है वही राम है तो वही रावण है. वही पशु है तो वही पक्षी है. फिर वह दंड का भागी कैसे?
श्वेताश्वतरोपनिषद्  अध्याय चार में ऋषि कहते हैं-

तू नर है तू नारि तू
तू कुमार कुमारी
वृद्ध हो तू चले दण्ड संग
तू विराट तू विश्व मुख.३.

नील वर्ण कीट है
लाल हरित पक्षी भी
मेघ है ऋतु सभी
सप्त सागर तू हि है
विश्व भूत तुझसे हैं
आदि विभु वर्तमान.४.

इसी प्रकार भगवद्गीता कहती है-
विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ।18-5।
जिनका मन सम भाव में स्थित है जो ब्राह्मण कुत्ते व चाण्डाल में एक भाव अथवा ब्रह्म भाव रखता है; ऐसे पुरुष द्वारा वास्तव में संसार जीत लिया गया है अर्थात वह संसार बन्धन से ऊपर हो जाते हैं। ब्रह्म, दोष रहित और सम है और वह भी समभाव के कारण दोष रहित हो ब्रह्म स्वरूप हो जाते हैं। यही ब्राह्मी स्थिति है।
जो ब्राह्मण कुत्ते व चाण्डाल में एक भाव अथवा ब्रह्म भाव रखता है का तात्पर्य है कि सब ईश्वर के ही अंश हैं फिर नरक और नरक के ढंड मानसिक विक्षिप्तता नहीं तो क्या है.

भगवदगीता के  प्रथम अध्याय के श्लोक संख्या 44में विषादयुक्त अर्जुन के नर्क भय को देख श्री कृष्ण  मंद मंद मुस्कुराते हैं.
अर्जुन का नर्क भय-
उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्यणां जनार्दन।
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम।44।
हे द्वारिका नाथ, हे जनार्दन, जिन मनुष्यों का कुल धर्म नष्ट हो जाता है उस कुल के पितर और स्वयं वह मृत्यु के पश्चात अनिश्चित काल तक नरक में रहते हैं, यह बात  हम सुनते आये हैं।

तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्‌ ।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः। 1।
युद्ध भूमि में करुणा से भरा हुआ जिसके आंखों से आंसू बह रहे थे व्याकुल नेत्र वाला, विषाद युक्त अर्जुन के प्रति मंद मंद मुस्कराते हुए श्री भगवान बोले।

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः ।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्‌ ।12।
आत्मा की नित्यता बतायी गयी है। आत्मा नित्य है, अजर है, अमर है। उसका कभी नाश नहीं होता है। जीव भी आत्मा का ही स्वरुप है अतः वह भी नित्य है। जीव तत्व को कोई नष्ट नहीं कर सकता। सृष्टि के सभी जीव पहले भी थे, आज भी हैं और कल भी रहेंगे।

वही भगवान् श्री कृष्ण भगवदगीता के  सोलहवें अध्याय के श्लोक संख्या 21 में नरक शब्द का प्रयोग करते है पर यहाँ  नरक शब्द अधोगति का सूचक है. भगवान् कहते हैं मनुष्य के अन्दर व्याप्त  काम क्रोध और लोभ को नरक के द्वार हैं अर्थात जिस मनुष्य में काम क्रोध और लोभ की जितनी अधिक मात्रा होगी वह उतना अशांत और विक्षिप्त होगा. यही नरक है.

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्‌ ।21।
काम, क्रोध और लोभ यह तीन नरक के द्वार हैं अर्थात जहाँ काम क्रोध और लोभ होगा वहाँ मूढ़ता की अधिकता होगी और मूढ़ता (तमस) अधोगति की ओर ले जाती है। इन तीनों से आत्मा का स्वरूप आच्छादित हो जाता है। जीव अपनी स्वरूप स्थिति को पूर्णतया भूल जाता है और अधोगति की ओर चल देता है उसका पतन हो जाता है। अतः आत्म स्वरूप को विस्मृत करने वाले इन तीनों मूढ़ता के स्वजनों को हमेशा के लिए त्याग देना चाहिए।

इसी प्रकार सोलहवें अध्याय के श्लोक संख्या 15 & 16 में नरक शब्द का प्रयोग करते है
आढयोऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया।
यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः ।15।
अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः।
प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ ।16।
मैं बड़ा धनी हूँ, कुबेर से ज्यादा धन मेरे पास है, मैं बड़े कुटुम्ब वाला हूँ, मेरे समान दूसरा कोई नहीं है। जो हूँ मैं ही हूँ, मैं यज्ञ करूंगा, दान दूँगा, आमोद प्रमोद करूंगा, ऐसी कभी खत्म नहीं होने वाली कामनाओं को लिए हुए रहते हैं। इनका हृदय सदा जलता रहता है। इनकी बुद्धि अज्ञान से मोहित व भ्रमित रहती है। यह जमीन, धन, परिवार, झूठी प्रतिष्ठा के मोह से घिरे रहते हैं। सदा विषय भोग में लगे अत्यन्त कामी आसुरी वृत्ति के यह लोग घोर नरक को प्राप्त होते हैं यहाँ घोर नरक घोर अशांति ,मूड़ता, विक्षिप्तता का सूचक है. ऐसे लोगों का चित्त सदा ईर्षा की आग मैं जलता रहता है यही नरक है.

जो कुछ भी आप को दंड, कष्ट, दुःख, नरक भोगना है या आप भोगेंगे वह शरीर में जाग्रत अवस्था में  ही अथवा स्वप्न में ही भोगंगे और इसका कारण है काम, क्रोध और लोभ. इन वचनों में आप पूर्ण विशवास कर सकते हैं कि मरने के बाद आपको जलाया नहीं जाएगा, अथवा तेल के कड़ाहों में उबालकर दण्डित नहीं किया जाएगा, किसी भी प्रकार नरक में आरों से काटा नहीं जाएगा, साँपों,बिच्छू से डंक लगवाकर पीड़ा नहीं दी जायेगी, न सूली में बिठाया जाएगा.  हाँ स्वप्नवत कष्ट अनुभूति हो सकती है.
मरने के बाद आपको उठाया जाएगा अर्थात आपको जगाया जाएगा और आप अपनी आसक्ति के कारण जन्म लेकर प्रारब्धवश अज्ञान से काम क्रोध लोभ के वशीभूत होकर जो मानसिक और शारीरिक कष्ट भोगेंगे वही आपका नरक होगा.

Saturday, May 18, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - धर्म बोध - 76 -बसंत


प्रश्न- कृपया सरल रूप से बतायें की भक्ति क्या है?
उत्तर-  अपनी वास्तविकता की खोज करना भक्ति है. इसे अपनी आत्मा की खोज भी कह सकते है. अपने वास्तविक मैं को जानने की आतुरता और प्रयास भक्ति साधना है. पूर्णता की और चलने की साधना भक्ति है.  इस भक्ति की अंतिम परिणिति अनन्यता है.

प्रश्न - साधना क्या है?
उत्तर- जिस किसी अनुभव व् कार्य से अपूर्णता दूर हो वह साधना है. हम हर समय कुछ न कुछ अनुभव करते हैं, सीखते हैं यह अनुभव जिस किसी घटना और प्रभाव से हमें प्राप्त होता है वह क्रिया और अनुभूति साधना है.

प्रश्न- ईश्वरी साधना क्या है?
उत्तर- सभी कार्य ईश्वर का अनुभव कराते हैं अतः सभी कार्य साधना हैं.

प्रश्न - क्या बुरे कार्य भी साधना है?
उत्तर- हाँ. बुरे से बुरे कार्य और उसके परिणाम से भी सम्बंधित कर्ता कुछ न कुछ सीखता है. उस कार्य और परिणाम से हम सभी कुछ न कुछ सीखते हैं. विकास का यही सिद्धांत है परन्तु यह श्रेय नहीं है क्योंकि यह कर्ता  के चित्त को सदा जलाते रहते है.

प्रश्न- सबसे उपयुक्त साधना क्या है?
उत्तर नित्य प्रति दृष्टा भाव में रहने का प्रयास करो, स्वयं अपने साक्षी हो जाओ. आप जब अपनी  चेष्टाओं को देखते हैं तो वह धीमी होने लगती हैं, धीमी होने के साथ वह ठहरने लगती हैं. आप हर समय अपने प्रत्येक कार्य के दृष्टा हो जाते हो और इसकी अंतिम परिणिति है आप अपनी मृत्यु के भी दृष्टा हो जाते हो. जो मृत्यु का दृष्टा हो गया वह अमरत्व को पा लेता है.

प्रश्न- तीर्थ यात्रा और कथा सुनने का क्या लाभ होता है?
उत्तर- तीर्थ यात्रा और कथा सुनने से अनुभव वृद्धि होती है. कथा से अपने मन के अनुकूल श्रृद्धा का विकास होता है.

प्रश्न- गंगा नहाने से क्या होता है?
उत्तर- अनुभव के साथ शरीर को ठण्ड लगती है.

प्रश्न- सदग्रंथ किस प्रकार सहायक होते है?
उत्तर- आपकी श्रृद्धा के अनुसार प्रतिबोध का धरातल विकसित करते हैं.

प्रश्न- माता,पिता. गुरु, मनुष्य, पशु, पक्षी की सेवा से क्या लाभ होता है.
उत्तर- यदि आप बिना किसी अपेक्षा के सेवा करते है तो आप की अपूर्णता कम होने लगती है.

प्रश्न- प्रवचन सुनने से क्या होता है?
उत्तर- आपका मन संतुष्ट अथवा असंतुष्ट होता है.

प्रश्न- मंदिर जाने से क्या होता है?
उत्तर- आपकी अपनी श्रृद्धा के अनुसार अपूर्णता कम होती है.

प्रश्न- देव पूजन, मंत्र जप, कर्मकाण्ड, वैदिक पूजा, अग्नि प्रज्वलित कर द्रव्य यज्ञ का क्या लाभ होता है?
उत्तर- यह आपकी बुद्धि को निर्मल करने में सहायक होते हैं. मनुष्य को पवित्र करते है, अपूर्णता कम होती है.

प्रश्न-संस्कारों का क्या महत्व है?
उत्तर- संस्कार आपको समाज और परिवार से जोड़ते हैं केवल उपनयन और अंतेष्टि संस्कार आपकी अपूर्णता कम करने में सहायक होते हैं.
संक्षेप में जीवन के सभी शुभ अशुभ कार्य अपूर्णता को भरने या बढाने की चेष्टा करते है, इसलिए दृष्टा होक्रर अथवा साक्षी होकर इन शुभ अशुभ कार्य को होने दो.





 


Friday, May 17, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - भक्ति योग - 75 - बसंत



प्रश्न-  परमेश्वर के अनन्य प्रेमी जो उनको हृदय में धारण कर उनसे जुड़े रहते हैं। उन में मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार स्थापित कर अनन्य प्रेम करते हैं, जिनके समस्त कर्म परमेश्वर के लिए होते हैं अथवा जो अविनाशी अव्यक्त परम परमात्मा का अपनी आत्मा में सदा ध्यान चिन्तन मनन करते हैं, उन दोनों भक्तों में कौन भक्त श्रेष्ठ है।

उत्तर- इस तत्त्व ज्ञान को भगवद्गीता में श्री भगवान ने विस्तार पूर्वक समझाया है. श्री भगवान ने बताया  कि जो मन को सदा आत्मा में लगाकर निरन्तर आत्मा से जुडे़ रहते हैं अर्थात व्यवहार में परमेश्वर का स्मरण करते हैं; परम श्रद्धा से युक्त होकर जो निरन्तर आत्म रुपी परमेश्वर का  भजन करते हैं, वह योगी परम उत्तम हैं। जो भक्त (ज्ञानी) इन्द्रियों को अष्टांग योग विधि द्वारा अथवा सभी बन्ध यथा मूल बन्ध, उड्यान बन्ध, जालन्धर बन्ध आदि या अन्य प्रकार से भली भांति वश में करके सर्वव्यापी परमात्मा, जिसे कोई नहीं जानता, कोई नहीं बता सकता, सदा शुद्ध परम शान्त अवर्णनीय अवस्था में सदा एकरस रहने वाले, नित्य, अचल, निराकार, अविनाशी आत्मतत्त्व रुपी परमात्मा को अनुभूत करने वाले हैं, जो सब प्राणियों में सम भाव रखते हैं; स्वयं आत्म स्वरूप विश्वात्मा हुए, परमात्मा को प्राप्त होते हैं।  उस अव्यक्त जिसे इन्द्रिय, मन, बुद्धि, अहंकार के द्वारा नहीं जाना जा सकता जो महत् से भी महत् है अर्थात अपरा परा प्रकृति का भी आदि कारण हैं, के साधन और अनुभूति में मनुष्यों को देह बुद्धि के कारण अत्याधिक परिश्रम करना पड़ता है क्योंकि जीव की देह आसक्ति अत्याधिक प्रबल है, यह छूटे  नहीं छूटती। अतः अव्यक्त की उपासना अत्याधिक कठिन है। इस में चलना कुल्हाड़ी की धार पर चलना है।
परन्तु जो भक्त सदा स्वयं आत्म स्वरूप विश्वात्मा का चिन्तन करते हैं, अपने स्वाभाविक कर्मों को करते हुए कर्म और उनके फलों को परमात्मा को अर्पित कर देते हैं, उनका उठना, बैठना, सोना, खाना-पीना, व्यवसाय आदि सभी कर्म स्वयं आत्म स्वरूप विश्वात्मा लिए होते हैं। जो न डिगने वाले अर्थात एक निष्ठ रूप से आत्मा से जुड़े रहते हैं, आत्म ध्यान करते हैं, सदा आत्मा के समीप रहते हैं, स्मरण करते हैं, ऊँ स्वरुप आत्मा का ही ध्यान करते हैं।
ईश्वर की सगुण-निर्गुण उपासना को अच्छी प्रकार समझना होगा। सगुण उपासना का अर्थ है सभी गुणों में परमात्मा का चिन्तन करना। अपने स्वभाव में रहते हुए अपने प्रत्येक कार्य को परमात्मा का कार्य समझते हुए उसे अर्पण करते हुए देखना। दूसरे रूप में साक्षी भाव से अपने शरीर को, मन, बुद्धि, अहंकार, इन्द्रियों व उनके कार्यों को देखना सगुण उपासना है। चिन्तन से परमात्मा से जुड़ना। अपने में आत्मरूप परमात्मा के दर्शन करना और सभी भूतों में विश्वात्मा के दर्शन करना। जगत (सगुण) में ब्रह्म देखना। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश आदि सभी जगह जड़ चेतन में परमात्मा को महसूस करना “घट-घट रमता राम रमैया“ मन वाणी कर्म से महसूस करना सगुण भक्ति है। यही व्यवहार में स्मरण करना है। अव्यक्त जिसके बारे में न कुछ कहा जा सकता, न समझा जा सकता, न जाना जा सकता, वह अव्यक्त परब्रह्म एक स्थिति है, परमगति है। वहाँ स्मरण भी नहीं रहता, निराकार स्थिति भी बिना सहारे के हो जाती है। उसे तुरीयातीत अवस्था कहा गया है। वहाँ शून्य समाप्त हो जाता है, ज्ञान समाप्त हो जाता है अर्थात ज्ञान की क्रिया शक्ति शून्य होकर शान्त हो जाती है, अनहद् भी समाप्त हो जाता है अर्थात परमात्मा का संकल्प भी स्थित हो जाता है; केवल अव्यक्त परब्रह्म परमतत्व ही स्थित रहता है। इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए सभी इन्द्रियों को मन सहित अष्टांग योग विधि द्वारा विषयों की ओर जाने से रोक कर अथवा सभी प्रकार के बन्ध सिद्ध करके जैसे मूल बन्ध, उड्यान बन्ध, जालन्धर बन्ध आदि लगाकर कुण्डली जागरण द्वारा अथवा श्री भगवान के उपदेशानुसार शुद्ध स्थान में आसन जो न अधिक ऊँचा हो न नीचा लगाकर, सिर, गरदन, शरीर को एक सीध में करके नासिका के अग्र भाग को देखता हुआ तथा अन्य दिशाओं को न देखकर, प्राण वायु को रोककर, प्रशान्त मन होकर, परमात्मा के नाम ऊँ को प्राणों के साथ भौहों के मध्य में स्थापित करे तथा निरन्तर सतत् अभ्यास और वैराग्य से सिद्ध हुआ परम ज्ञानी अव्यक्त स्थिति को प्राप्त होता है । वीतरागी पुरुष इन्द्रियों के व्यवहार से उदासीन हो विचरता है जबकि सगुण उपासक सभी कार्योँ को परमात्मा को अर्पण करते हुए सदा उसका स्मरण करता है।
आत्म स्वरूप विश्वात्मा में  चित्त लगाने वाले प्रेमी भक्त जो हैं, वह बोध प्राप्त कर मृत्यु रूपी संसार से परे हो जाते हैं। जब भी कोई परमेश्वर  में अपना चित्त अर्पण करता है उसमें  स्थित हुआ परमेश्वर  विराट होता जाता है और एक दिन सम्पूर्ण चित्त को आत्मा अपने में समाहित कर लेता हूँ।श्री भगवान् के वचन हैं मैं आत्म स्वरूप विश्वात्मा अपने भक्त का योगक्षेम वहन करता हूँ अतः भक्त को बोध अवश्य होता है।
आत्म स्वरूप विश्वात्मा में मन लगा, बुद्धि लगा। जीव व इन्द्रियों के बीच में जो ज्ञान है वह मन कहलाता है। आत्मा और जीव के बीच जो ज्ञान है वह बुद्धि कहलाती है। दूसरे शब्दों में संशयात्मक ज्ञान मन है, निश्चयात्मक ज्ञान बुद्धि है। अतः मन और बुद्धि को आत्मा में लगा। मन की दिशा बाहर की जगह आत्मा की ओर मोड़ दे तथा बुद्धि की दिशा भी जीव से आत्मा की ओर मोड़। इस प्रकार मन बुद्धि आत्म स्वरूप विश्वात्मा में लगाने से आत्मरूप परमात्मा में स्थित होकर उस अव्यक्त स्थिति को प्राप्त होगा।
यदि मन को आत्म स्वरूप विश्वात्मा में लगाने में असमर्थ है और यह समझते हो कि हर समय मन आत्म चिन्तन में नहीं लगाया जा सकता, साक्षी भाव में स्थित नहीं रहा जा सकता, ध्यान नहीं किया जा सकता आदि तो  मन लगाने का मुझमें अवश्य अभ्यास करो इससे मन की बाहर की दिशा रूकने लगेगी। उसकी आदत बदल जायेगी। वह विषयों से छूट कर आत्मा की ओर जाने लगेगा और धीरे-धीरे अभ्यास से इसका भटकना रुक जायेगा और यह आत्मा में विलीन हो जायेगा।
यदि अभ्यास करने में भी असमर्थ हो, मन और इन्द्रियों को विषयों की ओर भटकने से रोकने में असमर्थ हो, ध्यान, साधन आदि नहीं कर सकते हो , साक्षी भाव में स्थित नहीं रह सकते हो, अहंकार नहीं छोड़ सकते हो  तो भी आत्म योग के लिए सरल उपाय बताता हूँ। तू अपने स्वाभाविक धर्म के आधार पर अर्थात जिस कुल में तुम्हारा जन्म हुआ है तथा तुम्हारे जन्मगत जो स्वाभाविक कर्म हैं उनको सरलता पूर्वक करो और सभी कर्म आत्म स्वरूप विश्वात्मा को अर्पण कर दो। तुम्हारा उठना-बैठना, खाना-पीना, व्यवसाय आत्म स्वरूप विश्वात्मा के प्रति हो। सब कर्म आत्म स्वरूप विश्वात्मा को अर्पित करते हुए तुम्हारी मन, बुद्धि परमेश्वर में  एक निष्ठ हो जायेगी परिणामस्वरूप तुम  परम स्थिति को प्राप्त होगे.
यदि आत्म स्वरूप विश्वात्मा के निमित्त कर्म भी तुमसे  नहीं हो सकते अथवा तुम अपने कर्म परमेश्वर को अर्पित नहीं कर सकते हो, तो यत्नशील होकर सभी कर्मों के फल परमेश्वर को दे दो । जब तुम कोई काम करो तो उस समय आत्म स्वरूप विश्वात्मा का चिन्तन करो तथा जब वह कर्म समाप्त हो तो भी आत्म स्वरूप विश्वात्मा का चिन्तन करो और उसका जो भी परिणाम हो उसे  परमात्मा की इच्छा समझो । धीरे-धीरे इस अभ्यास से तुम निष्काम होने लगोगे और तुम्हारा योग सिद्ध हो जायेगा।
अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है, ज्ञान से ध्यान श्रेष्ठ है, ध्यान से सब कर्मों के फल का त्याग श्रेष्ठ है। त्याग से बुद्धि द्वारा परमेश्वर को जानना व जुड़ना श्रेष्ठ है, तत्पश्चात उसका चिन्तन, मनन, ध्यान, श्रेष्ठ है, उससे भी अधिक सभी कर्मों को परमात्मा को अर्पित करते हुए अथवा इन्द्रिय दमन कर अनासक्त होकर निष्काम कर्म श्रेष्ठ है। निष्काम कर्म होने से चित्त की उद्विग्नता जाती रहती है और स्वाभाविक रूप से शान्ति प्राप्त होती है।
जो सभी प्राणियों से द्वेष भाव रहित हैं, सबका मित्र है अर्थात अपना पराया का भाव नहीं है, स्वाभाविक करुणा जिसमें है, जो ममता रहित है अर्थात संसार की मोह माया से उदासीन है, अहंकार रहित है और सुख दुख में समान है, क्षमावान है, जो अपने में सदा संतुष्ट रहता है जिसने यत्न करके मन इन्द्रियों को वश में कर लिया है, जिसका निश्चय परमात्मा के प्रति अडिग है, जिसने अपने मन बुद्धि को आत्म स्वरूप विश्वात्मा में सदा सदा के लिए लगा दिया है, इस प्रकार निज स्वरूप को खोजने व जानने वाला  परमेश्वर को परम प्रिय है। वह परमात्मा का प्रिय  परम गति का अधिकारी है।
जिससे संसार को त्रास नहीं होता और जो संसार से उद्विग्न नहीं होता अर्थात अच्छे-बुरे, सरल-दुष्ट आदि सभी के प्रति कल्याण की भावना रखता है ऐसा योगी जो किसी प्रिय वस्तु की प्राप्ति से प्रसन्न नहीं होता, दूसरे की उन्नति से जिसे जलन नहीं होती, जिसे किसी भी प्राणी से भय और त्रास नहीं है, ऐसा आत्म स्वरूप में रमण करने वाला परमेश्वर को अति प्रिय है।
जिसमें कामना का अभाव हो गया हो वह सदा आत्म तृप्त रहता है, वह महात्मा परम पवित्र होता है, उसका सानिध्य पवित्र होता है। सभी के लिए सदा समभाव रखने वाला पक्षपात रहित होता है। उसे लोक परलोक के कष्ट नहीं व्यापते हैं, क्योंकि वह निष्काम है, उदासीन है। सभी कर्मों को जिसने प्रभु अर्पण कर दिया है, इस प्रकार जो कर्मों के प्रारम्भ का त्यागी है वह स्वरूप स्थित महात्मा परमेश्वर को  परम प्रिय है।
जो आत्मरत आत्मानन्द से अधिक कुछ नहीं मानता अतः संसार की कोई भी वस्तु उसके हर्ष का कारण नहीं होती, न किसी से द्वेष करता है क्योंकि सदा मानता है कि मैं और वह एक ही हैं। जिसे न कोई चिन्ता है, जिसकी न कोई कामना है, जिसने अपने सभी कर्म प्रभु अर्पण कर दिए हैं, ऐसा निष्काम कर्म योगी जो स्वरूप स्थित है वह परमेश्वर को अत्यन्त प्रिय है।
अद्वैत महात्मा जो सदा ब्रह्मानन्द में स्थित हैं, उनके लिए शत्रु और मित्र समान हो जाते हैं। सरदी-गरमी, सुख-दुःख की ओर उसका ध्यान भी नहीं जाता अतः सभी परिस्थितियाँ जिसके लिए समान हैं, जिसकी आसक्ति का बीज नष्ट हो गया है वह परमेश्वर को अति प्रिय है।
जिस समत्व योगी के लिए निन्दा और संस्तुति एक समान है अर्थात निन्दा होने पर जिसे क्रोध नहीं आता और प्रशंसा होने पर प्रसन्न नहीं होता, जो वासना रहित मौन में स्थित है। जिस भांति भी शरीर निर्वाह हो, सभी स्थिति में संतुष्ट है। जो किसी स्थान विशेष से लगाव नही रखता अर्थात घर में रहते हुए घर को सराय समझ कर रहता है। बुद्धि जिसकी सूक्ष्म होकर निश्चित हो गयी है ऐसा स्वरूप स्थित महात्मा परमेश्वर को अति प्रिय है।
जो श्रद्धा युक्त पुरुष परमेश्वर में अपना मन बुद्धि स्थापित करके इस परम आत्म ज्ञान का सेवन करते हैं, उन्हें आत्मरूपी अमृत स्वाभाविक रूप से प्राप्त होता है और आत्म स्थित ऐसे पुरुष परमेश्वर को अति प्रिय हैं।

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Tuesday, May 14, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - आत्म बोध - 74 - बसंत



प्रश्न- कृपया एक सूत्र बताएं जिससे ज्ञात हो सके हमारी अथवा किसी अन्य की आध्यात्मिक स्थिति क्या है?
उत्तर- जिस व्यक्ति को सुख और दुःख जितना व्यापे वह उतना संसारी, जिसको जितना कम व्यापे वह उतना आध्यात्मिक. जिसे सुख और दुःख बिलकुल न व्यापे वह आत्मज्ञानी है, बुद्ध पुरुष है..

प्रश्न- न चाहते हुए भी हमारी बुद्धि भिन्न भिन्न विषयों का क्यों चिंतन करती है.
उत्तर - हमारी प्रकृति सत्व, रज और तम से युक्त है इसलिए तीनो प्रकार के पदार्थों की ओर उसका आकर्षण होता है. आत्म के संयोग से प्रकृति क्रियाशील हो जाती है और अपने स्वभाववश भिन्न भिन्न विषयों के प्रति आकर्षित होत्ती है यही बुद्धि का भिन्न भिन्न विषयों में प्रकाशित होना है. .

प्रश्न- आत्मा सर्व शक्तिमान है, अहंकार का जन्म भी आत्मा से होता है फिर अहंकार कैसे प्रभावशाली हो जाता है और आत्म तत्त्व को ढक देता है?
उत्तर- आत्मा सूर्य की तरह है. सूर्य के कारण बादल उत्पन्न होते हैं और वह इतने घने हो जाते हैं की सूर्य बिलकुल नहीं दिखाई देता है यहाँ तक कि सूर्य का आभास करना भी मुश्किल हो जाता है उसी प्रकार आत्मा से उत्पन्न अहंकार हमारी आत्मा को इस प्रकार पूर्ण रूप से ढक देता है और हमें यह भी आभास नहीं रहता कि हमारी वास्तविकता अहंकार  के कारण छिपी हुई है. हम तो अपने अहंकार को ही अपना सर्वस्व मानते हैं. हम सदा उसी में रहते हैं, उसी में खाते हैं उसी में सोते हैं, उसी में जागते हैं.

प्रश्न- आत्मा के होते हुए सुख दुःख क्यों होता है?
उत्तर- आप ने तो अस्मिता प्रतीति से अपनी आत्मा को ढक लिया है. आप जीवन या विनोद या सदानंद होते हैं. आप किसी के पुत्र, किसी के पति, किसी पद में आसीन आदि आदि कई अस्मिताओं में विभक्त रहते हैं. उसी को अपना अस्तित्व मानते हैं. यह अस्मिता (अहंकार) बंधन ही आपका अज्ञान है. यह अहंकार आवरण रुपी अज्ञान इतना फैल जाता है कि बुद्धि विक्षिप्त हो जाती है, इसी विक्षिप्त बुद्धि से जब आपका अहंकार तुष्ट होता है तो सुख और जब असंतुष्ट होता है तो दुःख होता है.

प्रश्न- सुख दुःख का अंत कैसे होगा ?
उत्तर- आत्म बोध से.

प्रश्न- आत्म बोध कैसे होगा?
उत्तर- आत्मा से आत्मा का बोध होता है. ज्ञान से ही ज्ञान होता है. चैतन्य से ही चैतन्य होता है. आत्मा से ही ब्रह्मलाभ होता है. तेरा बोध तेरे अन्दर है.

Sunday, May 12, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - बोध - 73 - बसंत



प्रश्न- आत्म तत्व का बोध हो गया है यह कैसे समझ में आयेगा?
उत्तर- आपका नाम बिनोद  है, इस ज्ञान के लिए किसी नियम अथवा सिद्धांत की आपको आवश्यकता नहीं होती उसी प्रकार आत्मज्ञानी जान लेता है कि वह आत्मा है अथवा वह ब्रह्म है उसके लिए भी किसी नियम अथवा सिद्धांत की आवश्यकता नहीं होती.

प्रश्न- यदि हम जीव स्वभाव में रहना चाहें तो क्या कोई हर्ज है?
उत्तर- कोई हर्ज नहीं है ईश्वर ने स्वयं अपनी इच्छा से जीव स्वभाव स्वीकार किया है. जीव भी उसी का ही स्वरुप है परन्तु यहाँ अपना बोध, अस्मिता प्रतीति और विषयों में भटक जाने से आप सीमाओं में बंध जाते हैं. इसी कारण थोड़ा सा सुख और ज्यादा अशांति भोगते हैं. आपका अपना कुछ नहीं है आप की स्थिति हलके विक्षिप्त के सामान है जो क्या पाना चाहता है क्या ढूंड़ता है उसे खुद पता नहीं है. आप कुछ भी प्राप्त कर लें आप सदा डरे डरे रहते हैं फिर भी जीव स्वभाव आपको रुचिकर लगता है तो उसमें मगन रहें. जीव स्वभाव में रहना कोई बुराई नहीं है. जीव भी शुद्ध है और अविनाशी है बस अज्ञान के कारण पूरा मजा नहीं ले पाता.

प्रश्न- फिर ईश्वर को कैसे पाया जाएगा?
उत्तर- ईश्वर को क्या पाना है बस एक जगह से अपने स्वभाव को उखाड़ना है और दूसरी जगह लगाना है.

प्रश्न- किस स्वभाव को उखाड़ना है?
उत्तर- जीव स्वभाव को उखाड़ना है. अपने अज्ञान को उखाड़ना है. अस्मिता प्रतीति को उखाड़ना है.

प्रश्न- कहाँ लगाना है?
उत्तर-  ईश्वरी स्वभाव में लगाना है. बोध अनुभूत करना है.

Saturday, May 11, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - अज्ञानी जीव की सोलह कला - 72 - बसंत



प्रश्न- क्या अज्ञान से बद्ध जीवात्मा की  भी सोलह कला होती हैं ?

उत्तर - हाँ .शुक्ल पक्ष की तरह चन्द्रमा के कृष्ण पक्ष की भी  पन्द्रह कला होती है+पूर्णिमा = सोलह कला. परन्तु पूर्णिमा पूर्णता के लिए प्रयुक्त होती है इसलिए सोलहवीं अज्ञान की अवस्था को दक्षिणायन से कहा गया है. श्री भगवान् ने भगवद्गीता में इससे पहले धुंआ, रात्रि दो शब्दों का उल्लेख किया है. इस प्रकार कुल अठारह अवस्था अज्ञान की हैं.

धूमो रात्रिस्तथा कृष्ण षण्मासा दक्षिणायनम्‌ ।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते ।25=8।

धुंआ, रात्रि, कृष्ण पक्ष एवं दक्षिणायन के छह माहों में जो देह त्यागते हैं, वह चन्द्रमा की ज्योति को प्राप्त करके पुनः लौटते हैं अर्थात जिन पुरुषों व योगियों को आत्म ज्ञान नहीं होता उनके अन्दर अज्ञान की स्थिति धुएं, रात्रि, कृष्ण पक्ष एवं दक्षिणायन के छःमाह जैसी तमस युक्त (अज्ञान मय) होती है। वह तमस के कारण अन्ध लोकों अर्थात अज्ञान में भटकते रहते हैं, कालान्तर में उनके सतकर्मों के कारण जो उन्हें चन्द्र ज्योति अर्थात ज्ञान का प्रकाश मिलता है उसके परिणाम स्वरूप इस संसार में पुनः जन्म लेते हैं।
मनुष्य रूपी जीव् की भी 18 अज्ञान की अवस्थाएं-
धुएं, रात्रि की स्थिति के समान जीवात्मा की पहली अज्ञानमय दो स्थितियां हैं जो बड़े बड़े साधकों, विद्वानों और योगभ्रष्टपुरुषों, महान पुरुषों में भी मिलती हैं.
1-- चेतना और संघात - देहासक्ति - जिसके कारण संवेदना महसूस होती है उसे प्रमुख समझते हुए देहासक्ति के कारण अपने वास्तविक चैतन्य स्वरुप को भूल जाना और संसारी हो जाना.
2-धृति- धारण करने का वह अज्ञान जिससे जीव जुड़ा है उसे अपना मानना.

सोलह अज्ञान की कलाएँ
1-शब्द- आवाज के प्रति आकर्षण एवं विकर्षण
2-स्पर्श -के प्रति आकर्षण एवं विकर्षण
3-रूप के प्रति आकर्षण एवं विकर्षण
4-रस के प्रति आकर्षण एवं विकर्षण
5-गंध के प्रति आकर्षण एवं विकर्षण
6-सुख के प्रति आकर्षण
7-दुःख से अशांति
8-राग के प्रति आकर्षण
9-द्वेष - दूसरे के प्रति विपरीत भावना
10-मन - संशयात्मक ज्ञान
11-बुद्धि - भिन्न भिन्न बुद्धि
12-अहंकार- अस्मिता की प्रतीति, मैं और मेरा का बंधन
13-तम- अज्ञान की अधिकता के कारण अधर्म को धर्म मानना
14-रज- अभिमान, दर्प, पाखण्ड
15-सत- संसार और परमार्थ के ज्ञान का अहंकार
16-भय- मृत्यु भय, अनिष्ट भय
मनुष्य इन सभी अज्ञान के आवरणों में रहता है और इनको अच्छा या बुरा मानकर कुछ भी हासिल नहीं होना है. अज्ञान से ज्ञान की ओर का जो साधक हो वह इन सब अच्छे या बुरे का दृष्टा होकर ही  अपने स्वरुप को पा सकता है.उपनिषद के वचन महत्वपूर्ण हैं-
तेन त्यक्तेन भुञ्जिथा -इस संसार को त्यागते हुए भोगो
ज्ञान का अभिमानी विद्वान् मृत्यु के बाद घोर अंध लोकों में जाता है.

Thursday, May 9, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - श्री कृष्ण की सोलह कलाएँ - 71 - बसंत



प्रश्न- श्री कृष्ण की सोलह कला क्या हैं? आत्मा की सोलह कलाओं के बारे में भिन्न भिन्न बातें बतायी गयी हैं जो समझ में नहीं आती. कृपया सरल शब्दों में सोलह कलाओं को बताने का कष्ट करें.
जगह जगह भिन्न भिन्न सोलह कलाओं का वर्णन आता है जैसे  अन्नमया, प्राणमया, मनोमया, विज्ञानमया, आनंदमया, अतिशयिनी, विपरिनाभिमी, संक्रमिनी, प्रभवि,  कुंथिनी,विकासिनी, मर्यदिनी, सन्हालादिनी, आह्लादिनी, परिपूर्ण,स्वरुपवस्थित
इसी प्रकार *चन्द्रमा की सोलह कला : अमृत, मनदा, पुष्प, पुष्टि, तुष्टि, ध्रुति, शाशनी, चंद्रिका, कांति, ज्योत्सना, श्री, प्रीति, अंगदा, पूर्ण और पूर्णामृत का उल्लेख है ।
अन्यत्र  श्री, भू, कीर्ति, इला, लीला, कांति, विद्या, विमला, उत्कर्शिनी, ज्ञान, क्रिया, योग, प्रहवि, सत्य, इसना और अनुग्रह तो कहीं प्राण ,श्रधा ,आकाश ,वायु ,तेज ,जल ,पृथ्वी ,इन्द्रिय ,मन ,अन्न ,वीर्य ,तप ,मन्त्र ,कर्म ,लोक और नाम आदि  सोलह कला बतायी गयी हैं, आदि यह सब क्या है.

उत्तर - वास्तव में सोलह कला जो विशुद्ध आत्मा अथवा श्री कृष्ण के लिए प्रयुक्त होती हैं वह बोध अर्थात अनुभूत यथार्थ ज्ञान की सोलह अवस्थाएं हैं. आपने चांदनी रात देखी होंगी.अमावास्या+ प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा तक चन्द्रमा के प्रकाश की1+15=16 अवस्था हैं.इन सोलह अवस्थाओं से 16कला का चलन हुआ. आपको यह पहले भी स्पष्ट किया जा चका है की दर्शन में प्रकाश शब्द अनुभूत यथार्थ ज्ञान अथवा  बोध के लिए आया है. अब आप विस्तार से बोध प्राप्त योगी की भिन्न भिन्न स्थितियों को जानिये.बोध की अवस्था के आधार पर आत्मा के लिए  प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा तक चन्द्रमा के प्रकाश की15 अवस्थाएं  ली गयी हैं.अमावास्या अज्ञान का प्रतीक है. भगवदगीता में श्री भगवान् ने
आत्म तत्व प्राप्त योगी के बोध की उन्नीस स्थितियों को प्रकाश की भिन्न भिन्न मात्रा से बताया है. इसमें अग्निर्ज्योतिरहः बोध की तीन प्रारंभिक स्थिति हैं.और शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्‌ 15 कला शुक्ल पक्ष + 01 उत्तरायण कला  =16  आत्मा की कलाएं हैं. आत्मा की सबसे पहली कला ही विलक्ष्ण है. इस पहली अवस्था या उससे पहली की तीन स्थिति होने पर भी योगी अपना जन्म और मृत्यु का दृष्टा हो जाता है और मृत्यु भय से मुक्त हो जाता है.

अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्‌ ।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ।24- 8।

श्री भगवान् कहते हैं जो योगी अग्नि,ज्योति, दिन, शुक्ल पक्ष, उत्तरायण, के छह माह में देह त्यागते हैं अर्थात जिन पुरूषों और योगियों में आत्म ज्ञान का प्रकाश हो जाता है, वह ज्ञान के प्रकाश से अग्निमय,ज्योर्तिमय, दिन के सामान, शुक्ल  पक्ष की चांदनी के समान प्रकाशमय और उत्तरायण के छह माहों के समान परम प्रकाशमय हो जाते हैं अर्थात जिन्हें आत्मज्ञान हो जाता है (उनके ज्ञान की तुलना प्रकाश की मात्रा से की है)। ऐसे आत्मवान विश्वात्मा परमात्मा हुए पुरुष, अव्यक्त हो जाते हैं। स्वयं परम ब्रह्म हो जाते हैं।

1-अग्नि- बुद्धि सतोगुणी हो जाती है दृष्टा एवं साक्षी स्वभाव विकसित होने लगता है.
2-ज्योति- ज्योति के सामान आत्म साक्षात्कार की प्रबल इच्छा बनी रहती है. दृष्टा एवं साक्षी स्वभाव ज्योति के सामान गहरा होता जाता है.
3-अहः -दृष्टा एवं साक्षी स्वभाव दिन के प्रकाश की तरह स्थित हो जाता है
16 कला - 15कला शुक्ल पक्ष + 01 उत्तरायण कला  = 16
1- बुद्धि निश्चयात्मक हो जाना है.
2-अनेक जन्मो की सुधि आने लगती है.
3- चित्त वृत्ति नष्ट हो जाती है.
4-अहंकार नष्ट हो जाता है.
5-संकल्प विकल्प समाप्त हो जाते है. स्वरुप बोध होने लगता है.
6-आकाश तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है..कहा हुआ प्रत्येक शब्द सत्य होता है.
7-वायु तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है. स्पर्श मात्र से रोग मुक्त कर देता है.
8-अग्नि तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है. दृष्टि मात्र से कल्याण करने की शक्ति आ जाती है.
9-जल तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है. जल स्थान दे देता है. नदी, समुद्र आदि कोई बाधा नहीं रहती.
10-पृथ्वी तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है. हर समय  देह से सुगंध आने लगती है, नीद, भूख प्यास नहीं लगती.
11-जन्म, मृत्यु, स्थिति अपने आधीन हो जाती है.
12-समस्त भूतों से एक रूपता हो जाती है और सब पर नियंत्रण हो जाता है. जड़ चेतन इच्छानुसार कार्य करते हैं.
13-समय पर नियंत्रण हो जाता है. देह वृद्धि रुक जाती है अथवा अपनी इच्छा से होती है.
14-सर्व व्यापी हो जाता है .एक साथ अनेक रूपों में प्रकट हो सकता है. पूर्णता अनुभव करता है. लोक कल्याण के लिए संकल्प धारण कर सकता है.
16- कारण का भी कारण हो जाता है. यह अव्यक्त अवस्था है.
15 -उत्तरायण कला  -अपनी इच्छा अनुसार समस्त दिव्यता के साथ अवतार रूप में जन्म लेता है जैसे राम, कृष्ण . यहाँ उत्तरायण  के प्रकाश की तरह उसकी दिव्यता फैलती है.
( जानकार सोलहवीं कला पहले और पन्द्रहवीं को बाद में स्थान दिया है. इससे निर्गुण सगुण स्थिति भी सुस्पष्ट हो जाती है.) सोलह कला युक्त पुरुष में व्यक्त अव्यक्त की सभी कलाएँ होती हैं. यही दिव्यता है.
विस्तार से दी गयी यह जानकारी आपका मार्ग दर्शन करेगी और इस तत्त्व ज्ञान के आधार पर आप किसी भी ज्ञानी, संत, योगी, परमहंस, सिद्ध, बुद्ध, भगवान् को पहचान सकते हैं साथ ही यह जानकारी साधक के ईश्वरी ज्ञान में अपनी स्थिति  जानने में भी सहायक होगी.

Friday, May 3, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - कर्म योग - 70- बसंत



प्रश्न- हम सदा कोई न कोई कर्म करते हैं. क्या कर्म करते हुए भी ईश्वर अथवा बोध को पाया जा सकता है?

उत्तर- कर्म के विषय में बड़े बड़े विद्वान् भ्रमित हैं, क्या करना चाहिए क्या नहीं करना चाहिए, शकाराचार्य विवेक चूड़ामणि में कहते हैं- कार्य के बढने से बीज की वृद्धि देखी जाती है और कार्य का नाश हो जाने से बीज भी नष्ट हो जाता है; इसलिए कार्य का ही नाश कर देना चाहिए. आगे कहते हैं-
वासना के बदने से कार्य बढता है और कार्य बढने से वासना बढती है.
क्रिया नष्ट हो जाने से चिंता का नाश होता है और चिंता नष्ट होने से वासना नष्ट होती हैं.
यह अद्भुत सूत्र है और जिस साधक ने मोक्ष अपना हेतु बना लिया है उसे तत्काल इस सूत्र का पालन प्रारम्भ कर देना चाहिए. पर यह सिद्धांत हर मनुष्य नहीं अपना सकता.
कर्म के विषय में भगवद गीता में श्री कृष्ण ने विस्तार से चर्चा की है. भगवद गीता बताती है कि सभी कर्म दोषवत हैं और मनुष्य अथवा कोई भी प्राणी बिना कर्म के क्षण मात्र भी नहीं रह सकता है इसलिए किस कर्म को करना चाहिए और किसे नहीं करना चाहिए इस विषय में  विस्तार से सभी प्रश्नों का उत्तर दिया गया है.
1- निषिद्ध कर्म नहीं करने चाहिए  जैसे दूसरे प्राणी को सताना, निंदा करना, चुगली, कपट, छल
2- स्वाभाविक कर्म करते हुए मनुष्य सिद्धि को प्राप्त हो सकता है. वह कर्म जो स्वभाव से तुम्हें रुचिकर लगते हों जिनको कर आपका चित्त प्रसन्न होता हो. दुसरे के गुणी स्वभाव को को अपनाकर अपना मूल स्वभाव खो देना बड़ा भयकारी है. यह अशांति का कारण हो जाता है.
3- कर्म के लिए अधिक परिश्रम और व्यर्थ चेष्टा का अभाव होना चाहिए.
4- कर्म निमित्त मात्र होना चाहिए.
5- श्रेठ पुरुषों के बताये मार्ग का अनुसरण करना चाहिए.
6- ईश्वर निमित्त कर्म अवश्य करने चाहिए. यह मनुष्य को पवित्र करते हैं.
7- सभी कर्म ईश्वर को अर्पित कर करना ही कर्म बंधन से मुक्ति देता है.
8- यदि कर्म ईश्वर को अर्पित नहीं कर सकते तो कर्म फल ईश्वर को अर्पित कर करना चाहिए.
9-कर्म इन्द्रियों के द्वारा हो रहा है मेरा किसी भी शुभ अशुभ कर्म से कोई वास्ता नहीं है यह धारणा पुष्ट करते हुए निष्काम होने का प्रयास करना चाहिए.
उपरोक्त सूत्रों का परिणाम अनासक्त योग है जिसे निष्काम कर्म योग कहा गया है. अनासक्त होने पर कोई भी कर्म कर्म नहीं रह जाता है और जीव कर्म बंधन से मुक्त हो जाता है.

Thursday, May 2, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - अहँकार - 69 - बसंत

प्रश्न - सारा संसार अहंकार को साधना मार्ग में ही नहीं जीवन में भी बुरा समझता है. कबीर कहते हैं - 'जब मैं था तब हरि नहीं ' और आप कहते हैं अहंकार  से भी योग हो सकता है. आप अहंकार योग की वकालत  करते हैं. यह कैसे संभव है?
उत्तर- अहँकार आत्मा से प्रकट होता है, परम बोधमय आत्मा को तमोगुणी आवरण शक्ति जब पूर्णतया ढक लेती है और आत्मा के ढक जाने से आत्म तेज से व्याप्त यह अहँकार स्वयं आच्छादित हो जाता है. आत्मतत्व के छिप जाने से जीव शरीर को अज्ञान से मैं हूँ ऐसा मानाने लगता है. परन्तु जो इसको जान लेता है इसके द्वारा स्वरुप अनुभूति को प्राप्त होता है.
यह सारी दुनियां अहँकारी है. एक दूसरे को अहँकारी समझता है और मजे की बात यह है कि किसी को अहँकारी कह दिया जाय तो वह तिलमिला उठता है.
यह अहँकार आत्मा के तेज से उत्पन्न होता है. इसी के कारण मैं कर्ता हूँ, मैं भोगने वाला हूँ इसका अभिमान होता है. यह हमारी बुद्धि में,मन में, इन्द्रियों में स्थित होकर सदा मैं हूँ का अभिमान करता है. यही सुखी होता है यही दुखी होता है.यह बहुत ही निपुण है, पुराणों में इसे दक्ष प्रजापति कहा है, जिसका बध परम बुद्धि शिव -शंकर द्वारा हुआ फिर भी यह अमर है. अमर होने के कारण यह सभी जीवों में व्याप्त रहता है.
अतः अहँकार से दुश्मनी छोड़ दोस्ती कर लें. इसको जाने, इसको पहचाने क्योकि यह आत्मतत्व के सबसे नजदीक है. इसके द्वारा आत्मा को जाने. इसे योग बना लें.अहँकार योग सबसे सरल सबसे व्यवहारिक है.
मैं कौन हूँ का निरन्तर चिन्तन अहँकार को परम पूर्ण शुद्ध ज्ञान में बदल देगा और स्व अर्थात आत्म अनुभूति उपलब्ध होगी.
अहंकार तीन प्रकार का होता है.
1- मैं पूर्ण विशुद्ध ज्ञान हूँ , मैं सत चित आनंद स्वरुप शुद्ध चेतन्य परमात्मा हूँ यह समझते हुए इसे व्यवहार मैं उतारने का प्रयत्न करता है, जो निरंतर चिंतन करता है की मैं एक और अकेला हूँ मेरे अलावा दूसरा कोई नहीं है, मैं ही विश्व और विश्वात्मा हूँ. यह अहंकार का शुद्ध स्वरुप है.इसे शुद्ध अहंकार भी कहते हैं. यह मोक्ष का कारण है.साधक को यह अहंकार करना चाहिए.
2-मैं अत्यंत सूक्ष्म, परमाणु से भी अति सूक्ष्म जीवात्मा हूँ जो इस देह मैं स्थित है.मैं बिना शरीर का इस शरीर से भिन्न हूँ. मैं अधिदेव रूप मैं इस शरीर मैं स्थित हूँ. मेरे कारण ही यह देह है. यह दूसरी श्रेणी का  अहंकार है. यह भी शुभ अहंकार है और आत्म बोध का कारण बनता है.
3-  मैं आँख, नाक कान, हाथ, पैर वाला काला, गोरा शरीर हूँ, मैं किसी का पुत्र हूँ, किसी का पिता हूँ, मैं डाक्टर, प्रोफेसर, अधिकारी, मंत्री, राजा, सन्यासी, धनी, निर्धन, गुरु, शिष्य  हूँ. यह मैं मेरा करता रहता है. यह सब मिथ्या अहंकार है. इसमें कुछ अहंकार निम्न हैं, कुछ मध्यम निम्न और कुछ अधम निम्न हैं. यह  अस्मिता की प्रतीति ही बंधन और दुःख का कारण है और इन मैं फँस कर आत्मा अपने स्वरुप को भूल जाता है. संसार इसी अहंकार से ग्रस्त रहता है.

Wednesday, May 1, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - शिव - 68 - बसंत


प्रश्न- शिव स्वरुप बड़ा अद्भुत है जो सिर से लेकर पैर तक अजीबो गरीबी लक्षणों से युक्त है जैसे सिर में गंगा विराजमान है तो माथे में चन्द्रमा आदि यह सब क्या है?

उत्तर-  निसंदेह शिव स्वरुप बड़ा अद्भुत है  यह एक सिद्ध योगी के लक्ष्ण हैं जो शिव रूप में चित्रित किये हैं.सिर में विराजमान गंगा जी हैं, इसका तात्पर्य है जिनकी बुद्धि हर स्थिति में शांत शीतल है, जो कभी उद्विग्न नहीं होती है, इसे सिर में विराजमान गंगा की शीतलता से चित्रित किया है. माथे में चन्द्रमा निर्मल विशुद्ध ज्ञान का द्योतक है. गले में सर्प बताता है की उन्होंने अपने अहंकार को सर्प की भांति वश में कर गले में धारण कर लिया है, वह अपने गले में संसार का समस्त  विष अर्थात अशुभ धारण किये हुए सृष्टि का कल्याण करते हैं इसलिए नीलकंठ हैं, नग्न रहने वाले शिव इस बात का प्रतीक है कि वह  परमात्मा का निराकार स्वरुप है जिसकी दिशाएँ ही वस्त्र हैं, आकाश ही शिव वस्त्र है और शरीर में राख  यह परिलक्षित करती है कि जिसे शरीर से कोई मोह नहीं है. शिव सगुण रूप में देह भान से परे और निर्गुण रूप में दिगंबर हैं. शिव के गण कोई बिना मुख का, कोई  मुख वाला तो कोई बहुत मुख वाला अर्थात सभी शुभ अशुभ, अच्छे बुरे शिव के लिए सामान हैं. सभी मनुष्य, देव, गंधर्व, भूत, जिन्न, राक्षस, असुर, बेताल आदि सभी उनको प्रिय हैं अर्थात जो सबके लिए सामान है. बैल की सवारी करते  हैं. बैल अज्ञान और बल का प्रतीक है अर्थात जो अज्ञान रुपी बली बैल को वश में कर उस पर सदा सवार रहते हैं. गणेश जीव के प्रतीक हैं  जीव जिनका पुत्र है. माता पार्वती आदि शक्ति जिन में सदा समाई रहती हैं. यही अर्धनारीश्वर रूप है. कोई घर नहीं अर्थात सर्व समर्थ होने पर भी संसार से विरक्त यह स्वरुप पूर्णत्व प्राप्त शुद्ध योगी का है जो केवल शिव अर्थात कल्याणकारी ही होता है. भीख मांग के भोजन करना  उनकी अनासक्ति स्थिति और वर्तमान में संतुष्टि की परिचायक है.जो यह शिक्षा देता है कि सन्यासी, संत, योगी  को घर बार, आश्रम, महल न बनाकर जहाँ जो मिल जाय उसी में संतुष्ट रहना चाहिए. सग्रह योग विरुद्ध है. यह शिव स्वरुप संत, योगी, सन्यासी को शिक्षा देता है कि यदि परमतत्त्व पाना है तो उनके समान सदा शांत और विरक्त रहकर ही पाया जा सकता है.

प्रश्न- शिव लिंग क्या है और यह क्यों पूजा जाता है?

शिव शब्द कल्याणकारी अव्यक्त परमात्मा जिसे आत्मा भी कहते हैं और लिंग सूक्ष्म शरीर के लिए आया है. शिव लिंग व्यक्त अव्यक्त परमात्मा का विग्रह है.
ब्रह्म सूत्र के चौथे अध्याय  के पहले पाद का दूसरा सूत्र है-            
                                       'लिंगाच्च'
उत्तर- लिंग का अर्थ होता है प्रमाण. वेदों और वेदान्त में लिंग शब्द सूक्ष्म शरीर के लिए आया है. सूक्ष्म शरीर 17 तत्त्वों से बना है. शतपथ ब्राह्मण-5-2-2-3 में इन्हें सप्तदशः प्रजापतिः कहा है. मन बुद्धि पांच ज्ञानेन्द्रियाँ पांच कर्मेन्द्रियाँ पांच वायु. इस लिंग शरीर से आत्मा की सत्ता का प्रमाण मिलता है. वह भासित होती है. आकाश वायु अग्नि जल और पृथ्वी के सात्विक अर्थात ज्ञानमय अंशों से पांच ज्ञानेन्द्रियाँ और मन बुद्धि की रचना होती है. आकाश सात्विक अर्थात ज्ञानमय अंश  से श्रवण ज्ञान, वायु से स्पर्श ज्ञान, अग्नि से दृष्टि ज्ञान जल से रस ज्ञान और  पृथ्वी से गंध ज्ञान उत्पन्न होता है. पांच कर्मेन्द्रियाँ हाथ, पांव, बोलना. गुदा और मूत्रेन्द्रिय के कार्य सञ्चालन करने वाला ज्ञान.
प्राण अपान,व्यान,उदान,सामान पांच वायु हैं. यह आकाश वायु, अग्नि, जल. और पृथ्वी के रज अंश से उत्पन्न होते हैं. प्राण वायु नाक के अगले भाग में रहता है सामने से आता जाता है. अपान गुदा आदि स्थानों में रहता है. यह नीचे की ओर जाता है. व्यान सम्पूर्ण शरीर में रहता है. सब ओर यह जाता है. उदान वायु गले में रहता है. यह उपर की ओर जाता है और  उपर से निकलता है. सामान वायु भोजन को पचाता है.
हिन्दुओं का लिंग पूजन परमात्मा के प्रमाण स्वरूप सूक्ष्म शरीर का पूजन है.
 

BHAGAVAD-GITA FOR KIDS

    Bhagavad Gita   1.    The Bhagavad Gita is an ancient Hindu scripture that is over 5,000 years old. 2.    It is a dialogue between Lord ...