Thursday, June 28, 2012

अष्टावक्र महागीता (हिन्दी) - अध्याय - 16 / प्रो बसन्त प्रभात जोशी


         अष्टावक्रगीता (हिन्दी)                      
            सोलहवाँ अध्याय

अनेक शास्त्र बहुविधि कहे और सुने हे तात
बिना विसारे नहिं कभी स्वास्थ्य शान्ति उपलब्ध.१.
साधे भोग समाधि को साध लेत तू कर्म
सकल आशय रहित चित अधिक लोभ मय जान.२.
सभी दुखी प्रयास से कोई इसे न जान
भाग्यवान उपदेश अस परम निवृत्ति को प्राप्त.३.
आँख मूदने खोलने का प्रयत्न दुःख जान
परम आलसी अति सुखी दूसर कोउ न जान.४.
यह किया यह नहीं किया मना मुक्त इस द्वन्द्व
उदासीन तत्काल वह धर्मार्थ काम अरु मोक्ष.५.
विषय द्वेषी विरक्त है विषया लोलुप रागि
ग्रहण त्याग से रहित जो ना विरक्त ना रागि.६.
त्याग ग्रहण जीवित रहें संसार वृक्ष के बीज
जब तक जीवित राग है जान दशा अविवेक.७.
राग जान प्रवृत्ति से निवृत्ति द्वेष को जन्म
द्वंद्व मुक्त बाल सम सदा यथावत धीर.८.
रागी तजता विश्व को जिससे दुःख विश्राम
वीतरागी विदेह हो नहीं खेद को प्राप्त.९.
जो अभिमानी मोक्ष का वैसे देह से प्रीति
ना ज्ञानी ना जोगि है केवल दुःख का भागि.१०.
 जो उपदेशक हरि हरो अथवा ब्रह्मा होय
सबके विस्मर होत बिन तुझे स्वास्थय न होय.११.

                  गीतामृत

मनुष्य शास्त्र के कितने ही वचन सुन ले अथवा कह ले परन्तु उनका विस्मरण किये बिना शान्ति कभी भी प्राप्त नहीं हो सकती है.
तू कितना ही भोग, कर्म अथवा समाधि को साध ले परन्तु यह चित्त जिसको तूने साधना के द्वारा निग्रह कर आशय रहित कर दिया है समय आने पर विषयों के प्रति अधिक लोभी होकर भागेगा.
प्रयास से सभी दुखी हैं इस रहस्य को कोई नहीं जानता है. कोई भाग्यवान ही प्रयास छोड़कर  मोक्ष को प्राप्त होता है.
जिस मनुष्य को आँख मूदने अथवा खोलने के प्रयत्न में कष्ट होता है वह परम आलसी  का ही सुख है, दूसरा कोई व्यक्ति इसे नहीं जान सकता है.
यह किया यह नहीं किया जब मन इस द्वन्द्व से मुक्त हो जाय तब वह धर्म अर्थ, काम और मोक्ष के प्रति उदासीन हो जाता है.
जो विषय से द्वेष कर्ता है वह विरक्त है और विषय लोलुप रागी है पर जो ग्रहण और त्याग से रहित है वह न विरक्त है न रागी है.
जब तक संसार में राग जीवित है जो अविवेक की दशा है तब तक त्याग और ग्रहण भी जीवित रहते हैं जो संसार वृक्ष के बीज हैं.
प्रवृत्ति से राग और निवृत्ति से द्वेष का जन्म होता है इसलये ज्ञानी बालक के समान द्वंद्व मुक्त होता है.
रागी संसार को दुःख से मुक्ति के लिए त्यागता है परन्तु वीतरागी दुःख मुक्त होकर संसार में रहता है.
जिसे मोक्ष के प्रति अहँकार है और साथ ही साथ देह से प्रीति है वह न ज्ञानी है न योगी है वह केवल दुःख का भागी है.
यदि उपदेशक ब्रह्मा विष्णु महेश भी हों तो भी सबके विस्मरण के बिना तुझे आत्म स्वभाव और शान्ति प्राप्त नहीं होगी.

...........................................................................................................

Wednesday, June 20, 2012

अष्टावक्र गीता (हिन्दी) / अध्याय – 15 - प्रो बसन्त प्रभात जोशी


              
           पन्द्रहवाँ अध्याय


थोड़े से उपदेश से सत्त्व बुद्धि कृतकृत्य
आजीवन जिज्ञासु हो असत बुद्धि मोहित सदा.१.
विषय विरसता मोक्ष है बंध विषय रस जान
इतना ही विज्ञान है जस इच्छा तस कर.२.
तत्त्व बोध जड़ अलस कर वाचाल प्राज्ञ उद्योगी  
अभिलाषा जिन भोग की तत्त्व बोध है व्यक्त.३.
देह नहीं ना देह तव भोक्ता कर्ता नाहिं
चैतन्य निरपेक्ष साक्षी सदा, नित्य तू चर सुख यहाँ.४.
राग द्वेष मानस धरम, मन ना कभी न तू
निर्विकल्प बोधात्मा विकारहीन तू विचर सुख.५.
सब भूतों में आत्म को आत्म जान सब भूत
अहंकार ममता रहित सदा सुखी संसार.६.
जिससे जग उत्पन्न हो ज्यों सागर में तरंग
निसन्देह तू है वही  ज्वार रहित भव चैतन्य.७.
श्रृद्धा कर श्रृद्धा कर, नहीं मोह कर तात
ज्ञान रूप भगवंत तू प्रकृति परे तू आत्म.८.
लिप्त गुणों से देह यह आता जाता नित्य
आत्मा आता जात नहिं फिर क्यों करता सोच.९.
कल्प अन्त तक देह हो चाहे तुरत विनष्ट
चैतन्य रूप तव वृद्धि कुत कहाँ नाश चैतन्य.१०.
तुझ अनन्त अम्बोधि में उदय अस्त तरंग
विश्व तरंग स्वभाव से तोर वृद्धि न नाश.११.
तू चैतन्य रूप है तुझसे भिन्न न विश्व
हेय उपादेय कल्पना किसकी क्योंकर और कहाँ.१२.
तू अविनाशी अमल है चैतन्य शान्त आकाश
कहाँ जन्म कहँ कर्म हैं और कहाँ अहंकार.१३
जिसको तू है देखता प्रतिभासित तू जान
कंगन नूपुर बाजूबंद कहाँ भिन्न हैं स्वर्ण.१४.
यह मैं हूँ  मैं हूँ नहीं तज दे ऐसा भाव
निश्चय कर संकल्पगत सदा सुखी हो तात.१५.
तव अज्ञान विश्व है परम अर्थ तू एक
अन्य न कोई दूसरा लोक अलौकिक जान.१६.
विश्व जान भ्रम मात्र है और न कछु है निश्चयी
विगत वासना चैतन्य वह जान स्वाभाविक शान्ति.१७.
संसार महाअम्बोधि में भूत भवि एक तू
बंध मोक्ष तव है नहीं सुख विचरत कृतकृत्य.१८.
संकल्प विकल्प क्षोभित नहीं कर चित को चैतन्य
शान्त सुखी निज रूप में सुखपूर्वक स्थित चैतन्य.१९.
ध्यान त्याग सर्वत्र ही हृदि नहिं धारण कोय
तू आत्मा ही मुक्त है विमर्श प्राप्त केहि लब्ध.२०.
         
             गीतामृत

सत्व बुद्धि वाला मनुष्य थोड़े से उपदेश से कृतकृत्य हो जाता है और असत बुद्धि आजीवन जिज्ञासु रहकर भी सदा भ्रमित रहता है.
विषयों में अरुचि मोक्ष है और विषय रस बंधन है.
तत्त्व बोध, वाचाल बुद्धिमान और प्रबल उद्योगी पुरुष को जड़ और आलसी कर जाता है. इसलिए जिन लोगों को भोग की अभिलाषा है उनके द्वारा तत्त्व बोध व्यक्त है. बोध पुरुष कुछ नहिं कहता. शास्त्रार्थ, प्रवचन भोग की अभिलाषा रखने वाले ही करते हैं.
तू शरीर नहीं है, यह शरीर तेरा नहीं है तू भोक्ता कर्ता भी नहीं है तू नित्य, चैतन्य, निरपेक्ष, साक्षी है इसलिए तू सुख पूर्वक रह.
राग द्वेष मन के  धर्म हैं तू कभी मन नहीं है तू निर्विकल्प विकारहीन बोधात्मा है अतः तू सुख पूर्वक इस संसार में विचरण कर.
सब भूतों में आत्मा को और सब भूतों को आत्मा जानकर अहंकार ममता रहित होकर सदा सुख पूर्वक संसार में विचरण कर.
सागर में तरंग के सामान जिससे यह संसार उत्पन्न होता है तू वही है इसलिए तू ज्वार रहित हो.
हे तात तू श्रृद्धा कर श्रृद्धा कर तू मोह मत कर. तू ज्ञान रूप भगवान है, तू ही प्रकृति से परे आत्मा है.
गुणों से लिप्त यह देह सदा आता जाता है, जन्म मृत्यु को प्राप्त होता है पर  आत्मा आता जाता नहीं है फिर क्यों सोच करता है.
यह देह हो सृष्टि के अन्त तक रहे या तुरन्त विनष्ट हो जाये इससे क्या फर्क पड़ता है क्योंकि तू चैतन्य रूप है तेरी वृद्धि और नाश कहाँ है.
तुझ महासमुद्र में अपने स्वभाव से लहर उदय अस्त होती रहती हैं किन्तु तेरी वृद्धि और नाश कहाँ है.
तू चैतन्य रूप है यह विश्व तुझसे भिन्न नहीं है इसलिए त्याग और ग्रहण की कल्पना किसकी क्योंकर और कहाँ हो सकती है.
तू अविनाशी निर्मल चैतन्य शान्त रूप आकाश में कहाँ जन्म है, कहाँ कर्म है, कहाँ अहंकार है.
जिसको तू देखता है उसमें तू ही प्रतिभासित होता है क्या कंगन, नूपुर, बाजूबंद सोने से भिन्न हैं?
यह मैं हूँ अथवा यह मैं हूँ नहीं हूँ इस भाव को त्याग दे. सब आत्मतत्त्व है ऐसा निश्चय करके तू संकल्प रहित हो सुखी हो.
तेरे ही अज्ञान से यह विश्व है परमार्थतः तू एक है. तेरे अतरिक्त दूसरा कोई नहीं है न संसारी न असंसारी.
यह विश्व भ्रम मात्र है और कुछ नहीं है.निश्चय पूर्वक जो इस तथ्य को जनता है वह वासना रहित चैतन्य स्वाभाविक शान्ति को प्राप्त है.
संसार रुपी महासागर में तू एक ही था और होगा. तेरा बंधन और  मोक्ष नहीं है तू कृतकृत्य होकर सुखपूर्वक  विचर.
हे चैतन्य तू चित्त को संकल्प विकल्प से क्षोभित मत कर. तू शान्त सुखी होकर अपने स्वरूप में सुखपूर्वक स्थित हो.
सदा ध्यान को त्यागकर हृदय में कुछ भी धारण मत कर. तू मुक्त आत्मा है तू विमर्श करके क्या प्राप्त करेगा.



........................................................................................................












Wednesday, June 13, 2012

अष्टावक्र गीता (हिन्दी) - अध्याय 13 & 14 / प्रो बसन्त प्रभात जोशी


                अष्टावक्रगीता (हिन्दी)                      
                    तेरहवाँ अध्याय
राजा जनक अपनी स्थिति को बताते हैं-
कुछ भी नहीं अस स्वास्थ्य से दुर्लभ अपि सन्यासि
त्याग ग्रहण को छोडकर सुखपूर्वक स्थित सदा.१.
कहीं खेद है देह का कहीं दुखी मन, जीभ
इन त्रय को तजते हुए सुख स्थित पुरुषार्थ.२.
किया हुआ जो कर्म है नहीं आत्मकृत जान
जो आयाति कर्म है कर उसको सुखी सदा.३.
कर्म निष्कर्म बंध से जुड़े देह अस योगि
संयोग वियोग अस देह से मुक्त सुखी अस जान.४.
चलने सोने ठहरने अर्थ अनर्थ न जान
एहि कारण मैं ठहरता सोता जाता सुखी सदा.५.
निद्रा से नहिं हानि है यत्न नहीं है सिद्धि
हानि लाभ को त्यागकर सुखपूर्वक स्थित सदा.६.
बहुत जन्म देखे सुने सुख दुःख सदा अनित्य
शुभाशुभ को छोड़कर सुखपूर्वक स्थित सदा.७.

                   गीतामृत
राजा जनक अपनी स्थिति को बताते हैं- मेरे लिए कुछ भी नहीं है, ऐसे भाव से मैं चित्त की स्थिरता को प्राप्त हो गया हूँ ऐसा स्वभाव कोपीन को धारण करने वाले सन्यासी में भी दुर्लभ है. मेरे लिए त्याग और ग्रहण दोनों सामान हैं इसलिए इन्हें छोड़कर मैं सुख पूर्वक स्थित हूँ.
कहीं शरीर का दुःख है कहीं वाणी और मन का दुःख है. इसलिए इन तीनों को त्यागकर मैं सुख पूर्वक स्थित हूँ.
कोई भी किया हुआ कर्म आत्म कृत नहीं होता है ऐसा विचार करके जो कुछ कर्म उपस्थित हो जाता है उसे करके मैं सुख पूर्वक स्थित हूँ.
अनेक योगी कर्म और निष्कर्म के बंधन को रखने वाले हैं परन्तु मैं संयोग वियोग से सर्वथा अलग होने के कारण सुख पूर्वक स्थित हूँ.
चलने सोने ठहरने आदि क्रियाओं में कुछ भी अर्थ अनर्थ नहीं दिखायी देता है. इस कारण मैं ठहरता सोता जाता सदा सुख पूर्वक स्थित हूँ.
सोते  हुए मुझे हानि नहीं है न यत्न करते हुए मुझे सिद्धि की इच्छा है. इसलिए हानि  लाभ को त्यागकर मैं सुख पूर्वक स्थित हूँ.
बहुत से जन्मों  और अनेक परिस्थितियों में सुख दुःख की अनित्यता को देखकर शुभाशुभ को छोड़कर मैं सुख पूर्वक स्थित हूँ.

                       
                  चौदहवाँ अध्याय
राजा जनक कहते हैं-
जो चित शून्य स्वभाव है प्रमाद विषय कर ध्यान
निद्रा पर बोधित सदा मुक्त पुरुष संसार.१.
कहाँ मित्र अरु धन गया विषया रुपी चोर
इच्छा जब से नष्ट मम कहाँ शास्त्र कहँ ज्ञान.२.
जब से जाना परमात्मा को साक्षी ईश्वर जान
बंध मोक्ष नैराश्य नहिं मुक्ति न चिन्ता मोहि.३.
अंतर विकल्प शून्य है स्वछन्द बाह्य से भास
वैसी वैसी दशा को जान पुरुष तद्रूप.४.

                     गीतामृत
राजा जनक कहते हैं जो चित्त स्वभाव से शून्य है पर आलस्य से विषयों की भावना करता हैजो सोता हुआ भी जगाता है ऐसा पुरुष संसार से मुक्त है.
जब मेरी इच्छा ही नष्ट हो गयी तब धन, मित्र, विषय शास्त्र ज्ञान निरर्थक है.
साक्षी पुरुष, परमात्म,ईश्वर आशा मुक्ति,बंधन मुक्ति को जान लेने पर मुझे मुक्ति की चिन्ता नहीं है.
जिसका चित्त विकल्पों से शून्य है परन्तु बाहर से अज्ञानी अथवा माया से भ्रमित व्यक्ति की तरह स्वछन्द है ऐसे पुरुष की दशा को वैसी दशा वे बोध पुरुष ही जानते हैं.
 ................................................................................................................................

Sunday, June 3, 2012

अष्टावक्र गीता (हिन्दी) -अध्याय 11 & 12 / प्रो बसन्त प्रभात जोशी

अष्टावक्र गीता (हिन्दी) / प्रो बसन्त प्रभात जोशी                       
              ग्यारहवाँ अध्याय

अष्टावक्र ऋषि कहते हैं
विकृति भाव आभाव की निश्चय जान स्वाभाव
क्लेश रहित निर्विकार वह सुखम् शान्ति उपलब्ध.१.
सबका कारण ईश है नहीं अन्य कोउ जान  
आशा जड़ से मिट गयी अनासक्त वह शान्त.२.
आपद सम्पद प्राप्त हो भाग्य समय पर जान 
तृप्त स्वस्थ इन्द्रिय पुरुष नहीं काम नहिं शोक.३.
जन्म मृत्यु सुख दुःख सदा सकल देव वश जान
साध्य कर्म को देखता निरायास नहिं लिप्त.४.
दुःख देती चिन्ता सदा ऐसा निश्चय जान
चिंता गयी सुख शान्त है गलित सकल इच्छा सदा.५.
नहीं देह हूँ देह न मोरी बोध रूप निश्चय सदा
मोक्ष प्राप्त अस पुरुष जो नहीं स्मर कृत कर्म.६.
त्रण से लेकर ब्रह्म तक मैं हूँ ऐसा जान  
निर्विकल्प शुचि शान्त हो प्राप्त अप्राप्त निवृत्त.७.
विविध आश्चर्य जग कुछ नहीं निश्चय ऐसा जान
आश रहित सो बुद्ध वह शान्ति प्राप्त स्वभाव.८.


गीतामृत

अष्टावक्र ऋषि कहते हैं
भाव आभाव का विकार स्वभाव के कारण होता है जो यह जान लेता है वह क्लेश मुक्त होकर आनन्द और शान्ति को उपलब्ध होता है.
ईश्वर सभी जड़ चेतन का कारण है उसके अलावा अन्य कोई कारण नहीं है. इच्छा का समाप्त होना ही अनासक्ति है.
सम्पत्ति विपत्ति भाग्य से समय पर आती है जिसका ऐसा निश्चय है उस पुरुष को कोई कमाना होती है वह सदा तृप्त रहता है अतः उसे कोई दुःख नहीं होता.
जन्म मृत्यु सुख दुःख सदा भाग्य से समय पर आते  हैं वह साक्षी भव से सभी कर्त्तव्य कर्म करता हुआ लिप्त नहीं होता.
चिन्ता सदा दुःख का कारण है चिन्ता मुक्त ही सुखी और शान्त है. इच्छा  नष्ट होते ही चिन्ता नष्ट हो जाती है.
मैं शरीर नहीं हूँ यह शरीर मेरा नहीं है. मैं बोध स्वरूप हूँ. ऐसा पुरुष ही मोक्ष को प्राप्त होता है. ऐसे पुरुष के कर्म संस्कार नहीं होते.
तिनके से लेकर ब्रह्म तक मैं ही हूँ. ऐसा मनुष्य ही निर्विकार शुद्ध शान्त और सम होता है. प्राप्त अप्राप्त की चिन्ता से मुक्त हो जाता है.
अनेक आश्चर्य वाला संसार वास्तव में कुछ भी नहीं है जो यह जानता है वह इच्छा रहित बोध स्वरूप पुरुष स्वाभाविक शान्ति को प्राप्त होता है.

   ............................................................................................................

अष्टावक्रगीता (हिन्दी) / प्रो बसन्त प्रभात जोशी                      
              बारहवाँ अध्याय

राजा जनक कहते हैं
पहले रोके देह के फिर वाणी के काम  
मानस कर्म निरोध कर स्थित हूँ मैं आत्म.१.
इन्द्री शब्द विषयादि में प्रीती भाव आभाव
आत्म अज्ञान विक्षोभ से मुक्त चित्त एकाग्र.२.
सम्यक अध्यास विक्षोभ हो करे समाधि व्यवहार 
देख इसे स्थित हुआ रहित समाधि व्यवहार.३.
हर्ष विषाद प्राप्त हो हेय उपादेय वियोग
बीते उनके जस  हुआ तस मैं स्थित जान.४.
आश्रम ध्यान अनाश्रम है चित्त स्वीकार वर्जनम्
उनसे उद्भव निज विकल्प देख मुक्त स्थित स्वयं.५.
कर्म होत अज्ञान से त्याग जान अज्ञान  
कर्म अकर्म से मुक्त हो स्थित हूँ मैं जान.६.
अचिन्त्य चिन्त्य रत हो सदा भजे चिंत दिन रात
भाव त्याग भव मुक्त हो स्थित हूँ निज आप.७. 
अक्रिय रूप अर्जित किया जिस साधन से ज्ञानि
इह स्वभाव कृतकृत्य है नहीं शेष कुछ अन्य.८

गीतामृत

राजा जनक कहते हैं
शरीर के कर्म रोककर फिर क्रमशः वाणी और मन के कर्म रोककर अथवा उनको विस्मृत कर मैं आत्मस्थित हूँ.
शब्द आदि इन्द्री विषयों में प्रीति का आभाव से और आत्म अज्ञान विक्षोभ से मुक्त चित्त होकर मैं आत्मस्थित हूँ.
आत्म ज्ञान के लिए समाधि की आवश्यकता कोई जरूरी नहीं है अज्ञान के कारण विक्षोभ उत्पन्न होते हैं इसलिए समाधि का व्यवहार किया जाता है. जिसे बोध नहीं उसे ध्यान धारणा और समाधि की आवश्यकता होती है अन्यथा यह आवश्यक नहीं है. ऐसा निश्चय हुआ मैं, समाधि रहित आत्मस्थित हूँ.
अच्छे बुरे के संयोग और वियोग से जो हर्ष और विषाद होता है उसके आभाव से मैं जैसा हूँ वेसा स्थित हूँ.
आश्रम ध्यान अनाश्रम आदि अनेक व्यवस्थाएँ हैं इसी प्रकार चित्त का स्वीकार और त्यागना है उन सबसे उत्पन्न अपने विकल्प को देखकर मैं मुक्त हुआ स्वरूप स्थित हूँ.
सभी कर्मो का कारण अज्ञान है इसी तरह  त्याग का कारण भी अज्ञान है. इस तत्त्व को जानकर कर्म अकर्म से मुक्त हुआ मैं स्वरूप स्थित हूँ.
अचिन्त्य परमात्म के चिन्तन में लगा मनुष्य चिन्ता रत रहता है. इसलये उस भाव को त्यागकर भावना मुक्त मैं स्थित हूँ.
जिस मनुष्य ने साधनों से अक्रिय रूप अर्जित किया वह धन्य है. ऐसा स्वभाव वाला ही मनुष्य वास्तव में कृतकृत्य है.

............................................................................................................






BHAGAVAD-GITA FOR KIDS

    Bhagavad Gita   1.    The Bhagavad Gita is an ancient Hindu scripture that is over 5,000 years old. 2.    It is a dialogue between Lord ...