Sunday, March 31, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - आत्मा की आवाज - 53 - बसंत


प्रश्न-आत्म बोध का सरलतम उपाय क्या है?

उत्तर- परमात्मा की आवाज को सुनना आत्म बोध का सरलतम उपाय  है. आप जितना परमात्मा की आवाज सुनेंगे उतना आत्म बोध बड़ता जाएगा. निरंतर उसकी आवाज को  जब आप सुनने लगंगे तो सहज समाधि और बोध प्राप्त होगा.
इससे सरल दूसरा कोइ उपाय नहीं है. इसमें न समय का बंधन है न शुद्धि का, न तथाकथित धर्म का बंधन है न सम्प्रदाय का. न व्रत, उपवास बंधन है, न आसन प्राणायाम का बंधन है. कहने का अर्थ है कोई बंधन नहीं है. अपने बाथरूम, प्रसाधन, शयन, ऑफिस, बाहर, भीतर, पूजा गृह, मंदिर, मस्जिद. गिरजाघर. नदी, तालाब, रेगिस्तान, पहाड़, मैदान कहीं भी सुनते रहें.
परमात्मा की आवाज का उदाहरण बसंत नाम के व्यक्ति से परमात्मा की बातचीत के अंश से समझिये.

बसंत चाय पी रहे हो. बसंत खान खा रहे हो.बसंत पानी पी रहे हो. बसंत चल रहे हो. बसंत देख रहे हो. बसंत सुन रहे हो. बसंत गुस्सा कर रहे हो. बसंत मेरी पूजा कर रहे हो. बसंत लिख रहे हो. बसंत किताब खरीद रहे हो. बसंत स्वास ले रहे हो. बसंत नहा रहे हो. बसंत कुर्सी में बैठे हो. बसंत मेरा ध्यान कर रहे हो. बसंत अस्वस्थ हो. बसंत स्वस्थ हो. बसंत यात्रा कर रहे हो. बसंत मुझे याद कर रहे हो. बसंत नीद आ रही है. बसंत सो जाओ. बसंत उठो. बसंत टीवी देख रहे हो. बसंत कहाँ खो गए आदि. जीवन के प्रत्येक अच्छे बुरे क्षणों में परमात्मा की आवाज सुनें. वह प्रति पल आपको देख रहा है. प्रति पल आपसे बात कर रहा है.

यही परमात्मा की आवाज सार शब्द है.
"सार शब्द जाने बिना कागा हंस न होय."- कबीर
कोवा अज्ञान और जीव का प्रतीक है, हंस ज्ञान का. इसलिए हंस वही हो सकता है जिसे महसूस होने लगे की उसके अन्दर बैठकर परमात्मा उसे सुमिरन करने लगे हैं.
यही उलटा नाम है. इसलिए बाल्मीकि जी के लिए कहा जाता है-
उलटा नाम जपत जग जाना बाल्मीकि भये ब्रह्म समाना.
मरा मरा की तो कहानी बना दी लोगों ने.
तभी कबीर कहते हैं-
जब ते उलटि भए हैं राम
दुःख विन्से सुख कियो विश्राम.....
उलटि भी सुख सहज समाधी
आपु पछानै आपै आप
अब मनु उलटि सनातन हुआ.....
यदि तुम अपनी आत्मा की आवाज सुनते हो तो वही तुम्हारा परम गुरु है.
श्री भगवान भगवद्गीता में कहते हैं -
उपदृष्टानुमन्ता च 22-13.







Saturday, March 30, 2013

तेरी गीता मेरी गीता- 52 - बसंत


प्रश्न- चित्त किसे कहते हैं ?
उत्तर- अभिमानात्मिका, संशयात्मिका और विवेकात्मिका यथार्थ बुद्धि का समूह चित्त है.

प्रश्न- मनुष्य के चित्त की कितनी स्थिति हो सकती हैं?

उत्तर- मनुष्य के चित्त की असंख्य स्थिति हो सकती हैं परन्तु जानने की दृष्टि से पांच अवस्थाओं में विभक्त कर सकते है. इसके बाद चित्त नष्ट हो जाता है.
1-तम प्रधान- इस अवस्था में तमोगुण की प्रधानता होती है. रजोगुण और सतोगुण गौण होते हैं. इस अवस्था में मनुष्य नीद, भ्रम, आलस्य, भय, मोह, ऊँघना, क्लेव्यता(दिमागी नपुंसकता) की स्थिति में रहता है.
2-रज प्रधान-  इस अवस्था में रजोगुण की प्रधानता होती है. तमोगुण और सतोगुण गौण होते हैं.इस अवस्था में मनुष्य अज्ञान ज्ञान, अधर्म धर्म, राग वैराग्य, अनेश्वर्य ऐश्वर्य की मिली जुली अवस्था में रहता है.
3-सत्व प्रधान-  इस अवस्था में सतोगुण की प्रधानता होती है. तमोगुण और रजोगुण गौण होते हैं. इस अवस्था में मनुष्य ज्ञान, धर्म,  वैराग्य, ऐश्वर्य की स्थिति में रहता है.
4-तटस्थ अवस्था- इस अवस्था में सतोगुण की प्रधानता होती है. तमोगुण और रजोगुण मात्र बीज रूप में होते हैं. मनुष्य एकाग्र स्थिति में रहता है इस अवस्था में वस्तु का यथार्थ ज्ञान होता है.
5-स्वरूप स्थिति- गुणों के परिणाम बंद हो जाते हैं. पूर्ण शुद्ध ज्ञान हो जाता  है. केवल कर्म संस्कार शेष रह जाते हैं.
6-अव्यक्त -  चित्त नष्ट हो जाता है. गुणों और कर्म संस्कार से परे अपने कारण का कारण हो जाता है.
7-अव्यक्त- गुणों और कर्म संस्कार से परे सब जड़ चेतन के कारण का कारण हो जाता है.

उक्त आधार पर प्रत्येक मनुष्य अपना मूल्यांकन कर सकता है.








Friday, March 29, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - 51- बसंत



प्रश्न - कुछ आर्य सत्य बताने का कष्ट करें.

उत्तर-1- यह संसार ईश्वर से परिपूर्ण है. सभी जड़ चेतन में विशुद्ध पूर्ण ज्ञान बीज रूप में स्थित है.
2- यह संसार तब तक सत्य है जब तक संसार के कारण का ज्ञान नहीं हो जाता.
3-ज्ञान का अर्थ बुद्धि ज्ञान से नहीं  है, इसका अर्थ है संसार के कारण हो जाना.
4- बुद्धि से जिसे आत्मा का ज्ञान है वह आत्म चिन्तक है.
5- जो आत्मा को अपने अन्दर मसूस करता है वह मुनि कहलाता है. भगवान् महावीर के वचन हैं- असुत्तो मुनि. जो जागा हुआ है वह मुनि है. आजकल आत्म चिन्तक और मुनि भी नगण्य संख्या में ही हैं. इन्हीं में से कुछ ने अपने को आत्मज्ञानी कुछ ने अपने को भगवान घोषित कर लिया है.
6- आत्मज्ञानी वह है जिसने अपने कारण को अपने वश में कर लिया है. जो अपना कारण हो गया है.
7- भगवान वह है जो सबके कारण का भी कारण है.
8- भगवान तुम्हरे अन्दर हैं वह कण कण में हैं पर न तुम भगवान हो न वह कण भगवान है. तुम जब अपने और उस कण के कारण हो जाओगे तब भगवान कहलाओगे.
9- आत्मज्ञानी होने के लिए पहले मुनि होना पडेगा.
10- भगवान बनने के लिए पहले आत्मज्ञानी होना होगा.
11- जो कहता है वह सच्चा, उसका ज्ञान सच्चा, उसका गुरु सच्चा, उसका नाम सच्चा  तो समझो वह  अच्छा आत्म चिन्तक भी नहीं है.
12- जो कहता है तू सच्चा तेरा नाम सच्चा उसका आत्म चिंतन सही दिशा में है.
13- नाम में क्या रखा है यह तो तुम्हारे दिए नाम हैं. रखा इसमें है की तुमने क्या पाया है. ईश्वर के सब नाम अच्छे हैं, बुरी है तुम्हारी सोच.
१४- यह महत्वपूर्ण नहीं की तुम ईश्वर का चिंतन करते हो, महत्वपूर्ण यह है की ईश्वर तुम्हारा चिंतन करें.

प्रश्न- कुछ दिशा निर्देश दें

उत्तर - 1- मन से दीन हो जाओ..
2- अपने सुख और दुःख, मान और अपमान के लिए तुम स्वयं जिम्मेदार हो.
3- अपने कर्मों के साक्षी हो जाओ अपने दृष्टा हो जाओ.
4- जो तुमसे गल्तियाँ हुई हैं उनके लिय मन ही मन उस व्यक्ति की आत्मा से क्षमा मांगो. अपनी आत्मा  से क्षमा मांगो.
5- दूसरे ने जो बुराई तुम्हारे साथ की है उसके लिए भी अपने कर्मों को दोषी मान ईश्वर से क्षमा मांगो.
६- ईश्वर की ओर से तुम्हारा सुमिरन हो रहा है उसे सुनो.

Thursday, March 28, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - मृत्यु - 50 - बसंत



प्रश्न- मृत्यु क्या है?
उत्तर- ज्ञान के बीज रूप में अपने कारण ज्ञान में लय होने पर शरीर को धारण करने वाली क्रिया समाप्त हो जाती है और हमारे शरीर के अंग यहाँ तक की प्रत्येक cell  निष्क्रिय होते  जाते हैं
एक तत्व शरीर में तीन तरीके से कार्य करता है.
1-जन्म की तैयारी से लेकर जन्म.
2- स्थिति - धारण करने वाली क्रिया.
3- लय - मृत्यु की तैयारी से लेकर मृत्यु.
मृत्यु होते ही जन्म की  तैयारी प्रारम्भ हो जाती है जैसे जन्म होते ही मृत्यु की तैयारी प्रारम्भ हो जाती है. स्थिति सीमा बद्ध है,काल बद्ध है.

प्रश्न- क्या म्रत्यु से पर विजय नहीं पायी जा सकती?
उत्तर- म्रत्यु पर विजय पायी जा सकती है और उसके लिए जन्म स्थिति और लय के कारण को खोजना और पाना होगा और वह एक मात्र कारण है ज्ञान. जब आप जन्म स्थिति और लय के दृष्टा हो जाएँ तब न जन्म है न संसार है न मृत्यु है.

प्रश्न- ज्ञान प्राप्त कैसे हो.
उत्तर- ज्ञान आपके अन्दर है. इसे जाग्रत करना है.\

प्रश्न- जाग्रत करने से आपका क्या तात्पर्य है?
उत्तर- अपने अज्ञान की परतों को हटाते जाइये.

प्रश्न- अज्ञान कैसे हटेगा?
उत्तर- सब कुछ देखने का प्रयास करें. सब बातो के साक्षी हो जाएँ. चूंकि आप स्थिति में दिखाई देते हैं, आपके कार्य व्यवहार स्थिति में होते हैं इसलिए स्थिति के प्रत्येक व्यवहार को देखें. यदि देखने की आदत बन गयी तो जन्म की प्रक्रिया और जन्म भी दिखाई देगा और मृत्यु भी दिखाई देगी.

प्रश्न-मृत्यु के बाद क्या होता है.
आप का मैं बोध न टूटने वाली गहरी नींद में चले जाता है.

प्रश्न- फिर क्या होता है?
उत्तर- आप स्वप्नवत अवस्था में दुःख सुख भोगते हैं. यही स्वर्ग और नरक है.

प्रश्न- फिर क्या होता है?
उत्तर- आप के जाग्रत होने की तैयारी शुरू हो जाती है.

प्रश्न- उसके बाद क्या होता है?
उत्तर- आपका जन्म

प्रश्न- मनुष्य का अगले जन्म में किस शरीर को प्राप्त करता है?
उत्तर- मनुष्य का अगले जन्म में मनुष्य का शरीर प्राप्त करता है. क्योंकि यह ज्ञान के मैं की अनन्त जीवन  यात्रा है.

प्रश्न-  क्या बुरा से बुरा मनुष्य भी अगले जन्म में मनुष्य शरीर को प्राप्त करता है?
उत्तर -हाँ

प्रश्न- क्या तत्काल जन्म हो जाता है.
उत्तर- अगला जन्म तत्काल भी हो सकता है, दस पचास, हजार साल बाद भी हो सकता है अर्थात कभी भी हो सकता ही. यह ज्ञान के मैं बोध पर निर्भर करता है.

प्रश्न- पशु के विषय मैं आप क्या कहते है?
उत्तर- पशु लगातार विकास करते जाते हैं और फिर मानव देह में अल्प बुद्धि के साथ जन्म लेते हैं.

Wednesday, March 27, 2013

तेरी गीता मेरी गीता- 49 - बसंत



प्रश्न- परा,पश्यन्ति आदि वाणी क्या हैं?
उत्तर- वाणी चार प्रकार की होती है. परा, पश्यन्ति, मध्यमा और बैखरी
हमारे शरीर में ज्ञान के चार केंद्र हैं

आत्मा- विशद्ध ज्ञान - की आवाज जो वाणी से निकलती है परा कहलाती है. यह वास्तविक सत्य होती है.

बुद्धि - निश्चयात्मक ज्ञान-की आवाज जो वाणी से निकलती है पश्यन्ति कहलाती है. यह तात्कालिक रूप से निश्चयात्मक सत्य होती है.

मन- संशयात्मक ज्ञान - की आवाज जो वाणी से निकलती है मध्यमा कहलाती है. यह सदा संशयात्मक होती है.

ज्ञानेन्द्री- शरीर की संवेदना- की आवाज जो वाणी से निकलती है बैखरी कहलाती है. यह शरीर की संवेदना, क्रिया प्रक्रिया पर निर्भर करती है.

प्रश्न-आप भक्ति को दुर्लभ मानते हैं तो फिर क्या करना चाहिए?
उत्तर- आप ज्ञान के लिए अपने अन्दर शुभ इच्छा और विचारणा को व्यवहार में लायें.

प्रश्न-शुभेच्छा क्या है?
उत्तर- अपने अज्ञान अथवा जड़ता नष्ट करने की इच्छा शुभेच्छा  है.

प्रश्न-विचारणा क्या है?
उत्तर- तत्त्व दर्शन का अध्ययन, मनन करना विचारणा है. तत्त्व ज्ञानियों का संग और इस प्रकार अपने  प्रतिबोध धरातल को पुष्ट करना विचारणा है.

प्रश्न-प्रतिबोध के धरातल के पुष्ट होने पर क्या करें?
उत्तर- अपने स्वास के आने जाने को देखें. आप अपनी क्रियाओं को, संवेदनाओं के दृष्टा होने का प्रयास करें.
मन से दीन होने का प्रयास करें.
अपने अस्मिता के सांसारिक फैलाव को कम करें.




Tuesday, March 26, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - 48 - बसंत


प्रश्न- आप कहते हैं की नवधा भक्ति के तीन अंग श्रवण, कीर्तन और स्मरण संभावित है पर इसके आगे पाद सेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य. आत्मनिवेदन आत्मज्ञान या उसी समकक्ष ऊँची अवस्था में पहुंचे बिना नहीं हो सकता. पहले तीन  चरण स्वरुप अनुसंधान से सम्बंधित हैं इसलिए कम अधिक मात्रा में हो सकते हैं. श्रवण कीर्तन और स्मरण में भी आप संभावना की कमी मानते है. ऐसा क्यों?

उत्तर- श्रवण -ईश्वर और उनके भक्तों का चरित्र को सुनना, ईश्वर का नाम सुनना और पढ़ना श्रवण भक्ति कही जाती है. अब आप चरित्र सुन या पढ़ रहे हैं, आपकी बुद्धि तर्क वितर्क करने लगती है ऐसा कैसे हो सकता है. सब हो गया गुड़ गोबर. आप ईश्वर का नाम सुन रहे हैं और ध्यान घरवाली, बाहरवाली, धन व्यवसाय, बैर आदि आदि में लगा है. अब खुद सोचें श्रवण से कितनी देर आप परमात्मा के नजदीक रहे. यदि क्षण दो क्षण रस आ भी गया तो थोड़ी साधना हो गयी. यही स्थिति कीर्तन में होती है. मुंह में नाम और मन में काम, कैसे बनेगा काम? स्मरण और कठिन है यह भी स्वास में मन से होना है. कबीर कहते हैं-
माल फेरत जग गया गया न मन का फेर.
फिर भी जो शरीर से किया है उसका हानि लाभ मिलता है और मिलेगा. शरीर से की क्रिया कर्म है. कर्म गुण दोषमय होते है. इसलिए वह श्रृद्धा के अनुरूप फल देते हैं इसलिए पहले तीन  चरण स्वरुप अनुसंधान से सम्बंधित हैं इसलिए कम अधिक मात्रा में हो सकते हैं,  मन कितना लगा, श्रृद्धा कितनी थी  इस पर भक्ति फलित होगी.

प्रश्न- पाद सेवन तो सरलता से हो सकता है उसे तो कर सकते हैं?
उत्तर-जीव स्वभाव संशयात्मक होता है. आप के गुरु या कोई महात्मा जिन को आप दंडवत प्रणाम करते हैं उनके विषय में आपके हृदय में दसियों बार संशय उठता होगा. आप तो किसी  के कहने से किसी की देखा देखी पाद वंदन करते हैं. फिर यदि संशय नहीं हुआ तो सांसारिक लोभ, कामना जोर मारेगी. फिर गुरु गोबर हुआ तो, सब भगवान मालिक है. यही स्थिति अर्चन, वंदन की भी है. विग्रह पूजा, अर्चन वंदन और भी कठिन है. पहिले तो मन साथ नहीं देता फिर विग्रह में प्राण स्वीकार कर अपने इष्ट को स्वीकारना कितना कठिन है.

अब प्रेमा भक्ति या समर्पण भक्ति को समझें.
तैतरीय उपनिषद् का वचन है- रसंह्येवायं लाब्ध्वानन्दी भवति
ईश्वर रस स्वरुप है उस रस को पाकर जीव आनंदित हो जाता है.
प्रेम हरी को रूप है त्यों हरि प्रेम रूप
इसीलिये भक्ति जो प्रेमा भक्ति या समर्पण भक्ति कहलाती है वह अत्याधिक कठिन है.
वह रस रुपी सागर है
रसो वै सः

चैतन्य देव महारास का वर्णन आते ही भाव में चले जाते थे. उनकी समाधि लग जाती थी.
चैतन्य देव,रामकृष्ण परमहंस तो स्वाभाविक रूप से योग सिद्ध पुरुष थे, इसलिए वह  प्रेमा भक्ति या समर्पण भक्ति कर सके. इसलिए सर्व प्रथम स्वाभाविक होने का प्रयास करें. जीव सेवा करें. हिंसा से दूर रहें. अपने अपने कर्मों अतवा ड्यूटी को निपुणता से करें. अपने प्रत्येक कार्य में और हानि लाभ में ईश्वर को धन्यवाद दें. ईसा मसीह का यह वचन सदा याद रखना 
धन्य हैं वह जो मन के दीन हैं.
अपनी खोज में लग जाएँ. खोज पूरी होने पर ही भक्ति मिलेगी. श्रवण कीर्तन और स्मरण,सेवन, अर्चन, आत्मनिवेदन भी जैसे तैसे करते रहें पर जान लीजिये यह आपके कर्म माने जायंगे, यह भक्ति तब होगी जब बोध हो जाएगा तभी राम से प्रेम  होगा और आप का अंतिम लाभ होगा -
राम सनेही ना मरे 


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तेरी गीता मेरी गीता - 47 - बसंत



प्रश्न-भक्ति के विषय में आप का क्या अभिमत है.
उत्तर-जिसे लोग भक्ति जानते हैं उस समर्पण भक्ति अथवा प्रेमा भक्ति  का मार्ग बहुत कठिन है. इसलिए सभी भक्त और भक्ति को प्रणाम करते हुए उनकी कृपा की कामना करता हूँ.

प्रश्न- क्या कोई दूसरी भक्ति भी है.
उत्तर- आदि शंकराचार्य  कहते  हैं स्वरुप अनुसंधान ही भक्ति है.
यह भक्ति समर्पण भक्ति  की तुलना में बहुत सरल है. बुद्धि योग से स्वरुप अनुसंधान करना ज्यादा सरल और श्रेयस्कर है.
समर्पण बहुत कठिन है. यह स्वरुप ज्ञान के बाद तो हो सकता है पर उससे पहले यह असंभव है. सुनने सुनाने में भक्त चरित्र बड़ा सुखदाई और रोचक है पर यथार्थ में भक्त होना हिमालय को उंगली में उठाने जैसे कार्य से भी कठिन है. भक्त प्रहलाद, राधाजी, ब्रज गोपियां, हनुमान होना आत्मज्ञान से पहले असंभव है.
भगवद गीता का भक्ति योग, कबीर की भक्ति तो संभावित है इसी प्रकार नवधा भक्ति के तीन अंग श्रवण कीर्तन और स्मरण संभावित है पर इसके आगे पाद सेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य. आत्मनिवेदन आत्मज्ञान या उसी समकक्ष ऊँची अवस्था में पहुंचे बिना नहीं हो सकता. पहले तीन चरण स्वरुप अनुसंधान से सम्बंधित हैं इसलिए कम अधिक मात्रा में हो सकते हैं.
इसलिए जब आत्मज्ञान हुए बिना जब वास्तविक समर्पण भक्ति नहीं हो सकती  तो क्यों  न  पहले आत्मज्ञान का प्रयास किया जाय. अर्जुन जैसा योगी भगवान् के विराट स्वरुप को देखकर भी समर्पण भक्ति को प्राप्त नहीं हो सका.
अब  भगवदगीता के बारहवें अध्याय की विस्तार से चर्चा करूंगा.श्री भगवान् ने भक्ति के विषय में यहाँ बताया है.
श्री भगवान बताते हैं जो मन को सदा मुझमें लगाकर निरन्तर मुझसे जुडे़ रहते हैं, व्यवहार में मेरा स्मरण करते हैं; परम श्रद्धा से युक्त होकर जो निरन्तर मेरा भजन करते हैं, मेरी दृष्टि में वह योगी परम उत्तम हैं।
जो भक्त (ज्ञानी) इन्द्रियों को अष्टांग योग विधि द्वारा या अन्य प्रकार से भली भांति वश में करके सर्वव्यापी परमात्मा, जिसे कोई नहीं जानता, कोई नहीं बता सकता, सदा शुद्ध परम शान्त अवर्णनीय अवस्था में सदा एकरस रहने वाले, नित्य, अचल, निराकार, अविनाशी परमात्मा को अनुभूत करने वाले, जो सब प्राणियों में सम भाव रखते हैं; स्वयं आत्म स्वरूप विश्वात्मा हुए, मुझ परमात्मा को प्राप्त होते हैं।
उस अव्यक्त जिसे इन्द्रिय, मन, बुद्धि, अहंकार के द्वारा नहीं जाना जा सकता जो महत् से भी महत् है अर्थात अपरा और परा प्रकृति का भी आदि कारण हैं, के साधन, अनुभूति में शरीर धारी मनुष्यों को देह बुद्धि के कारण अत्याधिक परिश्रम करना पड़ता है क्योंकि जीव की देह आसक्ति अत्याधिक प्रबल है, यह छूटे  नहीं छूटती है। अतः अव्यक्त की उपासना अत्याधिक कठिन है। इस में चलना कुल्हाड़ी की धार पर चलना है।
परन्तु जो भक्त सदा मेरा चिन्तन करते हैं, अपने स्वाभाविक कर्मों को करते हुए कर्म और उनके फलों को परमात्मा को अर्पित कर देते हैं, उनका उठना, बैठना, सोना, खाना-पीना, व्यवसाय आदि सभी कर्म मेरे लिए होते हैं। जो न डिगने वाले अर्थात एक निष्ठ रूप से मुझसे जुड़े रहते हैं, मेरा ध्यान करते हैं, सदा मेरे समीप रहते हैं, स्मरण करते हैं, ऊँ का ही ध्यान करते हैं।
ईश्वर की सगुण-निर्गुण उपासना को अच्छी प्रकार समझना होगा। सगुण उपासना का अर्थ है सभी गुणों में परमात्मा का चिन्तन करना। अपने स्वभाव में रहते हुए अपने प्रत्येक कार्य को परमात्मा का कार्य समझते हुए उसे अर्पण करते हुए देखना। दूसरे रूप में साक्षी भाव से अपने शरीर को, मन, बुद्धि, अहंकार, इन्द्रियों व उनके कार्यों को देखना सगुण उपासना है। चिन्तन से परमात्मा से जुड़ना। अपने में आत्मरूप परमात्मा के दर्शन करना और सभी भूतों में विश्वात्मा के दर्शन करना। जगत (सगुण) में ब्रह्म देखना। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश आदि सभी जगह जड़ चेतन में परमात्मा को महसूस करना “घट-घट रमता राम रमैया“ मन वाणी कर्म से महसूस करना सगुण भक्ति है। यही व्यवहार में स्मरण करना है। अव्यक्त जिसके बारे में न कुछ कहा जा सकता, न समझा जा सकता, न जाना जा सकता, वह अव्यक्त परब्रह्म एक स्थिति है, परमगति है। वहाँ स्मरण भी नहीं रहता, निराकार स्थिति भी बिना सहारे के हो जाती है। उसे तुरीयातीत अवस्था कहा गया है। वहाँ शून्य समाप्त हो जाता है, ज्ञान समाप्त हो जाता है अर्थात ज्ञान की क्रिया शक्ति शून्य होकर शान्त हो जाती है, अनहद् भी समाप्त हो जाता है अर्थात परमात्मा का संकल्प भी स्थित हो जाता है; केवल अव्यक्त परब्रह्म परमतत्व ही स्थित रहता है। इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए सभी इन्द्रियों को मन सहित अष्टांग योग विधि द्वारा विषयों की ओर जाने से रोक कर अथवा श्री भगवान के उपदेशानुसार शुद्ध स्थान में आसन जो न अधिक ऊँचा हो न नीचा लगाकर, सिर, गरदन, शरीर को एक सीध में करके नासिका के अग्र भाग को देखता हुआ तथा अन्य दिशाओं को न देखकर, प्राण वायु को रोककर, प्रशान्त मन होकर, परमात्मा के नाम ऊँ को प्राणों के साथ भौहों के मध्य में स्थापित करे तथा निरन्तर सतत् अभ्यास और वैराग्य से सिद्ध हुआ परम ज्ञानी अव्यक्त स्थिति को प्राप्त होता है । वीतरागी पुरुष इन्द्रियों के व्यवहार से उदासीन हो विचरता है जबकि सगुण उपासक सभी कार्योँ को परमात्मा को अर्पण करते हुए सदा उसका स्मरण करता है।
जब भी कोई भक्त मुझमें अपना चित्त अर्पण करता है मैं उसमें प्रवेश कर जाता हूँ, वहाँ विराट होता जाता हूँ और एक दिन सम्पूर्ण चित्त को अपने में समाहित कर लेता हूँ। मेरा यह निश्चय भी है कि मैं अपने भक्त का योगक्षेम को वहन करूंगा। अतः भक्त का उद्धार अवश्य होता है।
मुझमें मन लगा, मुझमें बुद्धि लगा। जीव व इन्द्रियों के बीच में जो ज्ञान है वह मन कहलाता है। आत्मा और जीव के बीच जो ज्ञान है वह बुद्धि कहलाती है। दूसरे शब्दों में संशयात्मक ज्ञान मन है, निश्चयात्मक ज्ञान बुद्धि है। अतः मन और बुद्धि को मुझमें लगा। मन की दिशा बाहर की जगह मेरी ओर मोड़ दे तथा बुद्धि की दिशा भी जीव से आत्मा की ओर मोड़। इस प्रकार मन बुद्धि मुझमें लगाने से तू मुझ आत्मरूप परमात्मा में स्थित होकर उस अव्यक्त स्थिति को प्राप्त होगा।
यदि तू मन को मुझमें (आत्मरूप) लगाने से असमर्थ है अर्थात तू यह समझता है कि हर समय मन आत्म चिन्तन में नहीं लगाया जा सकता, साक्षी भाव में स्थित नहीं रहा जा सकता, ध्यान नहीं किया जा सकता आदि तो तू मन लगाने का मुझमें अवश्य अभ्यास कर। इससे मन की बाहर की दिशा रूकने लगेगी। उसकी आदत बदल जायेगी। वह विषयों से छूट कर आत्मा की ओर जाने लगेगा और धीरे-धीरे अभ्यास से इसका भटकना रूक जायेगा और यह आत्मा में विलीन हो जायेगा।
यदि अभ्यास करने में भी असमर्थ है, मन और इन्द्रियों को विषयों की ओर भटकने से रोकने में असमर्थ है, ध्यान, साधन आदि नहीं कर सकता, साक्षी भाव में स्थित नहीं रह सकता, अहंकार नहीं छोड़ सकता आदि तो भी मैं तुझे आत्म योग के लिए सरल उपाय बताता हूँ। तू अपने स्वाभाविक धर्म के आधार पर अर्थात जिस कुल में तेरा जन्म हुआ है तथा तेरे जन्मगत जो स्वाभाविक कर्म हैं उनको सरलता पूर्वक कर और सभी कर्म मुझे अर्पण कर दे। तेरा उठना-बैठना, खाना-पीना, व्यवसाय मेरे प्रति हो। मुझे सब कर्म अर्पित करते हुए तेरा मन, बुद्धि मुझमें एक निष्ठ हो जायेगी परिणामस्वरूप तू परम स्थिति को प्राप्त होगा।
यदि मेरे निमित्त कर्म भी तुझसे नहीं हो सकते अथवा तू अपने कर्म मुझे अर्पित नहीं कर सकता, तो यत्नशील होकर सभी कर्मों के फल को मुझे दे दे। जब तू कोई काम करे तो उस समय मेरा चिन्तन करे तथा जब वह कर्म समाप्त हो तो भी मेरा चिन्तन कर और उसका जो भी परिणाम हो उसे मुझ परमात्मा की इच्छा समझ। धीरे-धीरे इस अभ्यास से तू निष्काम होने लगेगा और तेरा योग सिद्ध हो जायेगा।
अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है, ज्ञान से ध्यान श्रेष्ठ है, ध्यान से सब कर्मों के फल का त्याग श्रेष्ठ है। त्याग से बुद्धि द्वारा परमेश्वर को जानना व जुड़ना श्रेष्ठ है, तत्पश्चात उसका चिन्तन, मनन, ध्यान, श्रेष्ठ है, उससे भी अधिक सभी कर्मों को परमात्मा को अर्पित करते हुए अथवा इन्द्रिय दमन कर अनासक्त होकर निष्काम कर्म श्रेष्ठ है। निष्काम कर्म होने से चित्त की उद्विग्नता जाती रहती है और स्वाभाविक रूप से शान्ति प्राप्त होती है।

उपरोक्त स्थिति प्राप्त होने के बाद-
जो श्रद्धा युक्त पुरुष मुझमें अपना मन बुद्धि स्थापित करके इस परम आत्म ज्ञान का सेवन करते हैं, उन्हें आत्मरूपी अमृत स्वाभाविक रूप से प्राप्त होता है और आत्म स्थित ऐसे पुरुष मुझे अति प्रिय हैं।
यहाँ मुझे प्रिय है का अर्थ है सदा आत्मरूप परमात्मा को प्रिय हैं। यहाँ से समर्पण भक्ति प्रारम्भ होती है.



Monday, March 25, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - 46 - बसंत



प्रश्न - हमारे ज्ञान के लिए ब्रह्म की अवस्थाओं को संक्षेप मैं बताने का कष्ट करें जिससे इधर उधर का संशय न हो.
उत्तर- देखो जी परमात्मा एक है जैसे तुम जागते ,सोते ,स्वप्न में , नीद में, समाधी में आदि आलग अलग बरताव करते हो उसी प्रकार ब्रह्म की अवस्थाएं हैं.

1- अव्यक्त
2- अ -जीव (ईश्वर)-अव्यक्त- नारायण - माया मुक्त. ब- प्रकृति -मूल अवस्था में

                                                                            ब -माया – व्यक्त अव्यक्त- तीन गुणों वाली


अ -1- जीव (ईश्वर) - 1-ब्रह्मा 2-विष्णु  3-महेश –मायायुक्त और मायामुक्त
अव्यक्त जीव रूप में जन्म का जब कारण होता है तो उसे ब्रह्मा कहा जाता है. जब वह स्थिति अर्थात जीवन का कारण होता है तो  विष्णु और जब मृत्यु का कारण होता है तो शंकर- महेश कहा जाता है. एक ही तत्त्व की अलग अलग स्थितियां है. यहाँ से लेकर अव्यक्त(1) में केवल विद्वानों की दृष्टि खेल का अंतर है. जिसने तत्त्व जान लिया उसे इन सब में  केवल एक स्वरुप ही भासित होता है.

अ -2- जीव - अव्यक्त -माया बद्ध- मनुष्य आदि
अ -3- जड़ चेतन सृष्टि- व्यक्त

प्रश्न- तत्व ज्ञान क्या है?
उत्तर- आप किस तत्त्व से बने हैं, इस सृष्टि का कारण कोन सा तत्त्व है तत्व ज्ञान  है. जिस तत्त्व को पाकर पूर्णता प्राप्त हो, जिसे जानकार कुछ भी जानना शेष न रह जाय उसे तत्त्व ज्ञान कहते हैं.

प्रश्न- क्या मनुष्य तत्व ज्ञान प्राप्त कर सकता है?
उत्तर- हाँ

प्रश्न- किस अवस्था में उसे तत्व ज्ञान प्राप्त होता है?
उत्तर- निर्बीज अवस्था में, इसे तुरीयातीत अवस्था कहा गया है. इसे ही बोध कहा जाता हैं. यहाँ आप अपनी स्वरुप स्थिति को प्राप्त होते हैं. अव्यक्त की पहली अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं.

प्रश्न-  तुरीयातीत अवस्था क्या है?
उत्तर- आपका अपने अस्तित्व में समाहित हो जाना. अपने अस्तित्व को पा लेना तुरीयातीत अवस्था है. आपके मन बुद्धि,चित्त आदि सभी उस आदि अव्यक्त में समाहित हो जाते हैं. आप ही कारण से परे सृष्टि के कारण हो जाते हैं.

तेरी गीता मेरी गीता- 45- बसंत



प्रश्न- आजकल संत मत के कुछ प्रचारकों में घमासान मचा हुआ है. परमात्मा के नाम का अर्थ अनर्थ करके कुछ का कुछ सिद्ध किया जा रहा है. इस विषय में आपका क्या अभिमत है?
उत्तर- देखो किसी की निंदा नहीं करनी चाहिए. जिसकी जैसी श्रृद्धा होती है तदनुरूप वह व्यवहार करता है. त्रिगुणात्मक प्रकृति का खेल बड़ा निराला है. सत्वगुण ज्ञान देता है पर ज्ञान के साथ ज्ञान का अहंकार भी देता है. जो जिस प्रकार ईश्वर को भजता है ईश्वर उसी प्रकार उसे भजते हैं.
संतमत में गुरु को ईश्वर मान पूजा की जाती है फिर जो अपने गुरु को जैसा ईश्वर मानना चाहे, यह उसकी श्रृद्धा है. गुरु फलीभूत नहीं होता, फलीभूत श्रृद्धा होती है. यदि कोई मनुष्य चार पेरोंवाले गधे को भी अपना गुरु बनाले तो उससे भी सहिष्णुता सीख सकता है. दतात्रेय का उदाहरण प्रसिद्ध है. आजकल हमारे देश में भीड़ इकट्ठा करने की बीमारी लग गयी है. लोग अपने जिन गुरुओं के आधार पर खंडन मंडन करते हैं, खंडन मंडन करते हुए वह अपने गुरु की मूल बात भूल जाते हैं. जनता पैसा दे रही है उसे तो स्वर्ग में एक सीट चाहिए, मीडिया चेनल को पैसा कमाना है, क्योंकि यह उनका व्यापार है इसलिए कुछ ताम झाम जुटा लीजिये और संत, गुरु, जगतगुरु जो भी बनाना है बन जाइये. यहाँ तक कि भगवान बनने और बनाने की होड़ मची है. सब स्वर्ग का टिकट बाँट रहे हैं. ईश्वर सद्बुद्धि प्रदान करें.
मुझे  उपनिषद का वचन स्मरण हो आता है-
सामान्य व्यक्ति म्रत्यु के बाद अंध लोकों में जाते हैं परन्तु ज्ञान के अहंकारी घोर अंध लोकों को प्राप्त होते हैं.

प्रश्न- पांच नाम, तीन नाम, दो नाम, आदि नाम, सार नाम, सार शब्द क्या हैं?
विद्वानों का प्रपंच है. तुम जो हो तुम्हारे जैसे कर्म हैं, तुम्हारी जो, जैसी श्रृद्धा है तदनुसार तुम्हारा जीवन और तुम्हारी गति होगी.
जब परमात्मा सर्वत्र व्याप्त है सब में व्याप्त है तो सब नाम उसी के हैं.
कुछ संत मतके अनुसार - पांच नाम हैं- ऐं, ह्रीं ,क्लीं, श्रीं, सोऽहं                                                                                      
अन्य के अनुसार -सोऽहं ,निरंजन, निरंकार, शक्ति और ओंकार
कुछ के अनुसार  श्री गणेश जी, श्री ब्रह्मा सावित्री जी, श्री लक्ष्मी विष्णु जी, श्री शंकर पार्वती जी व दुर्गा माँ का नाम जप देते हैं। जिनका वास सेंट्रल नर्वस सिस्टम  में बने संवेदनशील केन्द्रों में होता है।  इन सब देवी-देवताओं के बीज मंत्र भी हैं. जीव की बुद्धि निर्मल करने में इन केन्द्रों का योगदान माना है.
तीन नाम- ॐ तत्, सत्, यह शब्द नारायण के लिए आये हैं. अव्यक्त से भी अव्यक्त के लिए भी इनका प्रयोग होता है.
दो नाम-ॐ और तत्
आदि नाम - बिना नाद का शब्द है. बिना अक्षर का शब्द है .इसे अनुभूत किया जाता है. यह अव्यक्त, ब्रह्म के लिए आया है इसे अवनाशी, अक्षर, ब्रह्म, अव्यक्त, पारब्रह्म, परम ब्रह्म , आत्मा, परमात्मा भी कहते हैं. यह केवल उपलब्धि का विषय है. वेदान्त के अनुसार ॐ की चोथी मात्रा आदि नाम का बोध कराती है.
इसके लिए कबीर कहते हैं
सुन्न के परे पुरुष को धामा। तहँ साहब है आदि अनामा।।

ज्यादातर संत मत के लोग कबीर से प्रभावित हैं. कबीर कहते हैं जब कोई शिष्य होने के लिए आये तो उसे खिला पिला के विदा करो. यदि शिष्य में कुछ जान दिखे तो उसे ज्ञान के प्रति कुछ जिज्ञासा हो तो उसे ज्ञान की मोटी मोटीबात बताओ. इसके बाद जब उस शिष्य को निश्चय हो जाय, उसका विशवास द्रड़ हो जाए तब उसे ज्ञान का रहस्य बताओ.

प्रथमहि शिष्य होय जो आई, ता कहैं पान देहु तुम भाई।।1।।
जब देखहु तुम दृढ़ता ज्ञाना, ता कहैं कहु शब्द प्रवाना।।2।।
शब्द मांहि जब निश्चय आवै, ता कहैं ज्ञान अगाध सुनावै।।3।।

इसी प्रकार सार शब्द, तत्व ज्ञान किसे देना चाहिए इस विषय में कहते हैं-

बालक सम जाकर है ज्ञाना। तासों कहहू वचन प्रवाना।।1।।
जा को सूक्ष्म ज्ञान है भाई। ता को स्मरन देहु लखाई।।2।।
ज्ञान गम्य जा को पुनि होई। सार शब्द जा को कह सोई।।3।।
जा को होए दिव्य ज्ञान परवेशा, ताको कहे तत्व ज्ञान उपदेशा।।4।।

यहाँ तीन बातें महत्वपूर्ण हैं. स्मरन देहु -मन्त्र प्रदान करें.
सार शब्द और तत्व ज्ञान इसके लिए पात्रता भी बतायी है. पर आजकल तो दीक्षा और नाम दान की होड़ मची है.
सार शब्द  - यह अति महत्वपूर्ण शब्द है और किसी ने भी इसे प्रकट नहीं किया है. कबीरदास जी ने मात्र इतना लिख दिया.
सार शब्द जाने बिना कागा हंस न होई
इसी के पास चले जाएँ  कोइ संत ऐसा  कोइ  नाम मंत्र नहीं दे सकता जो सार शब्द हो. तो क्या सार शब्द नहीं होता है. यह बहुत गूड़  बात है और इसे  आप सबके समक्ष तेरी गीता मेरी गीता -४४ में प्रस्तुत किया गया है.

प्रश्न- उक्त विषय में शास्त्र क्या कहता है?
उत्तर- शात्रानुसार केवल तीन स्थिति के तीन नाम हैं-
1ब्रह्म -अव्यक्त पुरुष, शब्द ब्रह्म, परम ब्रह्म, अपर ब्रह्म सब ब्रह्म के श्रद्धामय नाम हैं. इसे ही आत्मा, परमात्मा, नारायण, ईश्वर कहा है. विद्वानों ने मानसिक श्रम के लिए ज्ञान की अवस्थाओं और दिव्यताओं के आधार पर यह या अन्य नाम दिए और अवस्था बतायी है पर यहाँ भेद कुछ नहीं है.जिसने एक पाया उसने सब पाए.
२ जीव-यह भी अव्यक्त पुरुष है. यह ब्रह्म का ही प्रति रूप है.
3 महत ब्रह्म- माया- योग माया और त्रिगुणात्मक माया-इसे ही अष्टांगी भी कहा है. इसके भी अनेक नाम हैं.
श्री भगवान् ने भगवद्गीता में इनको ही उत्तम पुरुष परमात्मा, परा और अपरा प्रकृति कहा है. इनको ही अधियज्ञ. अधिदेव और अधिभूत कहा है.

इन तीनो के विद्वानों ने भ्रम फेलाने वाले अनेक विभाग कर दिए. इसलिएकुछ महत्वपूर्ण बात जान लीजिये
1 ईश्वर यद्यपि सब जगह है परन्तु सबसे अधिक जाग्रत अवस्था में मनुष्य के अन्दर है. वह एक है.
एकोहम द्वितियोनास्ति
उसके नाम आपने दिए हैं. उसका कोई नाम नहीं है. आप जितने नाम देना चाहें दे सकते हैं. परमात्मा आपके इस देन लेन से निर्लिप्त है.
2- ॐ में चार मात्राएँ हैं अ ऊ म और अं का बिंदु यह चार मात्राएँ  सृष्टि के जन्म, विस्तार, लय और अव्यक्त स्थिति को बताती हैं. इसलिए इसे परमात्मा का पर्यायवाची माना गया है. तत् अर्थात तू ही है, तू जो सृष्टि से परे है,  सत् अर्थात जिससे अज्ञान नष्ट होता है.

अब कुछ ने आपके शरीर के चक्रों(संवेदन केन्द्रों) में देवता बता दिए. यह मात्र उनका मति भ्रम है.
सृष्टि में सब कुछ ज्ञान की अवस्थाएं हैं. जब वह पूर्ण विशुद्ध रूप में है तो ब्रह्म. अज्ञान और ज्ञान मिला  जुला है तो जीव और अज्ञान और भ्रम है तो माया. इनको  कम अधिक जोड़कर जितने चाहे उतने    बना लीजिये. सत्यता मात्र इतनी है कि एक से दो बने और फिर दो आपस में मिले तो तीसरा बना.फिर
दूसरे और तीसरे के मिलने से बनते ही गए, बनते ही जा रहे हैं.
भक्तों और गुरु पूजकों के साथ बड़ी विडम्बना ही यह अपनी धुन में अपने गुरु को दूसरे के गुरु से बड़ा, ओर बड़ा बनाते जाते हैं जैसे किसी ने कहा  मेरे गुरु ब्रह्म हैं तो दूसरा अपने गुरु को परम ब्रह्म सिद्ध करता  है तीसरा कहेगा कि मेरे गुरु परात्पर ब्रह्म हैं. कोई कहता है मेरा गुरु 12 ब्रह्मांडो का स्वामी है तो दूसरा 24 तीसरा २८ कहता है, होड़ मची है....कुछ ही दिन  में 40 .100, 120 आदि ब्रह्मांडो का स्वामी होते जायंगे. गुरु नहीं हुआ गुब्बारा हो गया. फूँक मारते जाओ फुलाते जाओ. शिष्यों और भक्तो की इस प्रतिस्पर्धा से वास्तविक ब्रह्मज्ञानी गुरु भी मोल भाव की सामग्री बन जाता है.
कुछ महत्वपूर्ण बातें -
भगवद्गीता और वेदान्त कहते हैं कि केवल मेरे एक अंश ने सृष्टि को धारण किया है.
श्रद्धामय यह पुरुष है जो जैसा वह स्वयं है.
श्री भगवान् भगवद्गीता में बताते है की व्यक्ति की जैसी श्रद्धा होती है उसी अनुरूप यह परम आत्मा तदाकार हो जाता है. आपको जो भी प्रभु का नाम अच्छा लगे आप उसी रूप में उसे याद करें.
इसी प्रकार कहते हैं
ईश्वरः सर्वभूतानाम हृदये तिष्ठति अर्जुनः
ईश्वर सभी प्राणियों के चित्त में सदा रहता है.
कबीर कहते हैं
तेरा साईं तुझ में जाग सके तो जाग.
यदि अपना कल्याण चाहते हो तो विवाद से दूर हो जाओ. दूसरे के गुरु का आदर करो, दूसरे के पंथ का आदर करो, दूसरे के धर्म का आदर करो. यदि आदर नहीं कर सकते हो तो निरादर मत करो. उनके विषय में जानकारी प्राप्त करो. कोई संदेह है तो सम्मनित तरीके से पूछो. तर्क वितर्क विद्वानों के लिए छोड़ दो क्योकि विद्वान की सद्गति कठिन है.
ज्ञान के अहंकारी घोर अंध लोकों को प्राप्त होते हैं.

तेरी गीता मेरी गीता - 44 - सार शब्द - -बसंत


प्रश्न- सार शब्द क्या है ?

उत्तर- सार शब्द की चर्चा से पहले श्री भगवान द्वारा भगवद्गीता के पन्द्रहवें अध्याय में कहे वचनों का स्मरण आवश्यक है.

द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ।16।
इस संसार में दो प्रकार के पुरुष हैं एक क्षर अर्थात नाशवान दूसरा अक्षर अविनाशी। इनमें जो भूत हैं जो देह है जो जड़ प्रकृति है वह नाशवान पुरुष है क्षर है। जो जीव है वह अविनाशी है।

उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः ।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ।17।
इसमें भी अधिक आश्चर्य की बात यह कि इन क्षर अक्षर दो पुरुषों के अलावा एक तीसरा पुरुष भी है। यह पुरुष अत्यन्त श्रेष्ठ है और जब यह होता है तो दोनों पुरुष क्षर और अक्षर के अस्तित्व को समाप्त कर देता है. सर्वत्र यही उत्तम पुरुष व्याप्त हो जाता है। जब द्रष्टा भाव और दृश्य का लोप हो जाता है तो यह पुरुषोत्तम ही रहता है। यह पुरुषोत्तम तीनों लोकों में अर्थात सृष्टि के कण कण में व्याप्त होकर सृष्टि को एक अंश से धारण किये है। यह उत्तम पुरुष ही अव्यक्त परमात्मा अथवा विशुद्ध आत्मा है।

अब उक्त वचनों  को लेते हुए सार शब्द की चर्चा  करते हैं.

जब सार शब्द -ज्ञान प्रगट होने लगता है  तो जीव स्वभाव और अज्ञान सब नष्ट होने लगता है और यह ज्ञान फैलता हुआ पूर्ण हो जाता है तब न अज्ञान रहता है न जीव. सृष्टि पूर्ण रूप से ज्ञान के परमाणुओं से बनी है शुद्ध व पूर्ण रूप में परमात्मा है. जड़ रूप में पदार्थ है और बीच की मिलीजुली स्थिति जीव है.
इस पूर्ण व शुद्ध ज्ञान - सार शब्द  की अनुभूति होनी आवश्यक है. यह ईश्वरी आवाज है जिसमें कोई ध्वनि नहीं है. किसी भी मन्त्र द्वारा आप ईश्वर को पुकारते हैं, याद करते हैं, सुमिरन करते हैं पर जब इसका उलटा हो जाय प्रभु तुम्हारा सुमिरन करने लगें तब जानो तुम्हारी प्रार्थना, सुमिरन कबूल होने लगा है. प्रभु के सुमिरन का आभास मात्र होते ही आप आनंद में आने लगते हो. अब सुमिरन जो तुम करते थे वह उलट गया. अब प्रभु सुमिरन करने लगे हैं.
इसलिए बाल्मीकि जी के लिए कहा जाता है-
उलटा नाम जपत जग जाना बाल्मीकि भये ब्रह्म समाना.
मरा मरा की तो कहानी बना दी लोगों ने.
अब उलटे सुमिरन की स्थिति  बडती  जाती  है तब अपने मजे का मजा आता है. इस स्थिति में कबीर कहते हैं-
सुमिरन मेरा प्रभु करें मैं पाऊं विश्राम.
अब आपको स्पस्ट हो गया होगा सार शब्द क्या है जिसके लिए कबीर कहते हैं-
सार शब्द जाने बिना कागा हंस न होय.
कोवा अज्ञान और जीव का प्रतीक है, हंस ज्ञान का. इसलिए हंस वही हो सकता है जिसे महसूस होने लगे की उसके अन्दर बैठकर परमात्मा उसे सुमिरन करने लगे हैं. अब यह उलटा सुमिरन बड़ने लगता है और आप की असली आध्यात्मिक यात्रा प्रारम्भ हो जाती है.
इस सुमिरन का ज्ञान कराने के लिए श्री भगवान् कृष्ण चन्द्र जी ने उद्धव जी को ब्रज में गोपियों के पास भेजा था. यही असल में सुरत की धार है जिसे पाकर जीव आनंदित हो उठता है.
हनुमान जी के ह्रदय में बैठ  कर श्री राम का हनुमान जी का सुमिरन ही सार शब्द है. यह सार शब्द सबके लिए है. इसका कोई नाम नहीं है. बिना ध्वनि के अन्दर प्रगट होता है. इसी के कारण आपके जीवन में रोनक है. बस आपको पता नहीं है. आपके छोटे से छोटे कार्य में वह परमात्मा आपसे बात करते हैं. अभी आपको पता नहीं है. उलटा सुमिरन होते ही आपकी परमात्मा से बात होने लगेगी. कोशिश करें. यह रहस्य आपको स्वयं अनुभूत होगा.

Friday, March 22, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - 43- बसंत



प्रश्न- धर्म क्या है ?
उत्तर- धर्म शब्द के दो अर्थ हैं-
1-जिसने धारण किया है.
2-जिसको धारण किया है.
1-जिसने धारण किया है- जिसने सृष्टि को धारण किया है, जिसने शरीर को धारण किया है, इस सृष्टि  को धारण करनेवाला जो है वह विशुद्ध पूर्ण ज्ञान आत्मा अथवा परमात्मा कहा जाता है.
2-जिसको धारण किया है- आत्मा प्रकृति को धारण करता है .जब वह प्रकृति को अपना लेता है तो उसे जीव कहते हैं क्योंकि  वह एक निश्चित स्वभाव अपना लेता है. इसलिए जीव स्वभाव ही धर्म कहा गया है.
स्त्रियों के रजस्वला स्वभाव को मासिक धर्म कहा जाता है क्योकि वह एक उम्र के पश्चात स्त्री का प्राकृतिक स्वाभाव है. धर्म जो आपको स्वभाव से मिला है जो जन्म से मिला है जो आपका प्राकृतिक ज्ञान है जिसे आपने सीखा नहीं है जो आपके अन्दर बसा हुआ है जीव धर्म है.
इसलिए समझ लीजिये की धर्म आपको स्वाभाविक रूप से मिला है. वह न केवल आपको अपितु सभी जड़ चेतन को समान रूप से मिला है.

प्रश्न- अधर्म क्या है?
उत्तर-तत्त्व दृष्टि से गुणों का असंतुलन अधर्म है. तमोगुण और रजोगुण का संग अधर्म है. इस कारण दंभ, कपट,पाखंड बड़ते हैं. अपने लाभ के लिए दूसरे प्राणी को मारना, सताना अधर्म है. अज्ञान अधर्म का कारण है. अज्ञान जब शक्ति से संयुक्त हो जाता है तो शक्ति की मात्रानुसार अधर्म बड़ता है.

यह नियम सभी प्राणीमात्र अथवा जड़ चेतन पर लागू होते हैं. अब आप समझ गए होंगे कि सबका धर्म एक है.क्योकि धारण करनेवाला जो है वह सब में एक है और स्वभाव जिसे आपने जन्म के साथ प्राप्त किया है वह आपका निज (अपना) धर्म है.

प्रश्न- धर्म के विषय में जो बताया जा रहा है वह क्या है?
उत्तर- श्री भगवान् भग्वद गीता में कहते हैं=
अज्ञानेन आवृतः ज्ञानम् तेन मुह्यन्ति जन्तवः
ज्ञान अज्ञान से ढका हुआ है इस कारण सब जीव मोहित हो रहे हैं. यही अधर्म का कारण है.

प्रश्न-  हम मनुष्यों के धर्म का क्या सही नाम होना चाहिए?
उत्तर- मानवता. यदि सोच बड़ी रक्खें तो जीव धर्म हमारा धर्म है.

प्रश्न- हमारी जाति क्या है?
उत्तर- जीव

अंत में एक बात समझ लीजिये कि जितने दर्शन और तथाकथित धर्म  हैं यह सब धर्म को जानने का प्रयास है.


तेरी गीता मेरी गीता- 42 - बसंत



प्रश्न- क्या कोई एक उपाय है जिससे  दुखों का अंत हो जाय?
उत्तर- आसक्ति को त्याग दो.

प्रश्न- आसक्ति को त्यागने का एक सरल और सर्वोत्तम उपाय?
उत्तर- अपने प्रत्येक कर्म के दृष्टा हो जाओ.

प्रश्न- दृष्टा होने का कोई एक उपाय?
उत्तर- संसार के समस्त कर्मों को करो साथ ही साथ उन कर्मों को होते हुए देखो. केवल प्रक्रिया देखनी है.
तुम भोजन कर रहे हो देखो भोजन किस प्रकार तुम कर रहे हो, कैसे वह भोजन तुम्हारे मुंह से अन्दर जा रहा है. तुम स्वास ले रहे हो उस स्वास को आते जाते देखो. तुम ईश्वर का नाम ले रहे हो, उस लेने की प्रक्रिया को देखो  हर्ष है तो उसे देखो कष्ट है तो उसे देखो.
स्वास को आते जाते देखना सरल उपाय है.


प्रश्न- कोई अन्य व्यवहारिक उपाय.
उत्तर- ॐ अथवा सूक्ष्म एक दो अक्षर के शब्द के माध्यम से परमात्मा से व्यवहार करें.


प्रश्न- आसक्ति नाश से क्या होगा?
उत्तर- आसक्ति के कारण आप जो भिन्न भन्न भागों में बाँट गए है वह विभक्त व्यक्तित्व समाप्त हो जाएगा और आपका वासतविक स्वरुप प्रगट होगा. इसे स्वरुप स्थिति कहते हैं

प्रश्न- इस स्वरुप स्थिति से क्या होगा?
उत्तर- आपको अपनी वास्तविकता का, यथार्थ स्वरुप का बोध हो जाएगा. आप जड़ चेतन के नियंता हो जायेंगे. आप में देवीय शक्तियाँ स्वाभाविक रूप से निवास करेंगी.

प्रश्न- यदि थोड़ी आसक्ति रह गयी तब क्या होगा?
उत्तर- तब क्षीण आसक्ति के अनुपात में दिव्यता प्राप्त होगी.


Thursday, March 21, 2013

तेरी गीता मेरी गीता- 41- बसंत



प्रश्न - व्यवहारिक सत्ता क्या है?
उत्तर-  संसार

प्रश्न - यथार्थ सत्ता क्या है?
उत्तर- आप  (आपका शुद्ध पूर्ण स्वरुप)
यथार्थ सत्ता एक स्वरूपा है पर व्यवहारिक सत्ता के कारण यथार्थ सत्ता अलग अलग दिखाई देती है.

प्रश्न -कृपया इसे सुस्पष्ट करें?
उत्तर-  आप हैं तो आपका शरीर है. आपके सम्बन्ध हैं, आपकी आसक्ति है, धन सम्प्दा, पद प्रतिष्ठा है, मान अपमान है. संसार है आप इन सब को अपने से अलग कर दीजये तो आप स्वयं जान जायंगे की यह सब कुछ नहीं था. इसलिए आप यथार्थ हैं और संसार व्यवहार.

प्रश्न - दुःख का क्या कारण है?
उत्तर- आसक्ति

प्रश्न- सुख का क्या कारण है?
उत्तर-  आसक्ति

प्रश्न- शत्रुता का का क्या कारण है?
उत्तर-  आसक्ति

प्रश्न- मित्रता का क्या कारण है?
उत्तर-  आसक्ति

प्रश्न- जन्म का क्या कारण है?
उत्तर-  आसक्ति.  इस संसार में राग और द्वेष की पूर्ती के लिए बार बार जन्म होता है.

प्रश्न- मृत्यु का क्या कारण है?
उत्तर-  आसक्ति. देह आसक्ति के कारण हम समझते हैं कि हम मर रहे हैं. देह आसक्ति के कारण अविनाशी जीव को मृत्यु होने का भय होता है. देह आसक्ति के कारण जीव को मृत्यु दिखाई देती है जो देह  आसक्ति से छूट गया है वह देह बंधन से मुक्त हो जाता है. उसका मृत्यु का कारण समाप्त हो जाता है.
इसी प्रकार स्वजन से आसक्ति के कारण के कारण उनकी मृत्यु का दुःख होता है.

प्रश्न- भय का क्या कारण है?
उत्तर-  आसक्ति

प्रश्न-संकल्प विकल्प का क्या कारण है?
उत्तर-  आसक्ति

प्रश्न-  अपने को न जानने का क्या कारण है?
उत्तर-  आसक्ति

प्रश्न- विकारों का क्या कारण है?
उत्तर-  आसक्ति

तेरी गीता मेरी गीता- 40 -बसंत



क्या आप आधुनिक विज्ञान की अंतिम खोज  हिग्स बोसोन कण-न्यूट्रिनो के द्वारा भी आत्मा के सिद्धांत को स्पष्ट कर सकते है. वैज्ञानिक मानते हैं कि हिग्स बोसोन कण-न्यूट्रिनो सृष्टि का कारण हैं.

उत्तर- मैं वैज्ञानिक मीनाक्षी नारायण का लेख पड़ रहा था जिसमें वह कहती हैं कि हमने पूरे तार्किक प्रमाणों से जान लिया की सृष्टि  ईश्वर की रचना नहीं बल्कि फिजिक्स के नियमों के तहत काम करने वाले ऊर्जा कण हिग्‍स बोसोन की रचना है.
१४ मार्च २०१३ को पिछले वर्ष खोजे गए हिग्स बोसोन की असलियत को लेकर जारी दुविधा को वैज्ञानिकों ने दूर कर दिया है। सर्न के वैज्ञानिकों ने गुरुवार को दावा किया कि महामशीन लार्ज हैड्रोन कोलाइडर [एलएचसी] के जरिये जिस कण को खोजा गया था, वही असली हिग्स बोसोन कण है।
हिग्‍स बोसोन की कुछ नवीनतम जानकारी  निम्नलिखित हैं.
सर्न फिजिक्‍स रिसर्च सेंटर ने गुरुवार को इस बात की विश्‍वास के साथ पुष्टि कि वैज्ञानिकों ने बहु प्रतीक्षित सब एटोमिक पार्टिकल `हिग्‍स बोसोन` की खोज कर ली है।

यह कण परमाणु से लेकर सूर्य के वजन के लिए जिम्मेदार हैं.

दुनिया स्थित भौतिकी की सबसे बड़ी प्रयोगशाला सर्न में वैज्ञानिकों ने सबएटॉमिक पार्टिकल यानी अतिसूक्ष्म कण न्यूट्रिनो की गति प्रकाश की गति से भी ज़्यादा पाई है.सर्न के वैज्ञानिकों ने 23 सितंबर को इसकी गति का जो निष्कर्ष निकाला है, वह बड़ा चौंकानेवाला था। सर्न के वैज्ञानिकों द्वारा स्वीटजरलैंड में जेनेवा के करीब भूगर्भ में न्यूट्रिनो नामक अणु को छोड़ा गया इस अणु ने 730 किमी का लंबा रास्ता तय किया और इटली के ग्रान सासो पहाड़ी के एक शोध केंद्र तक प्रकाश की गति की तुलना में 60 नैनो सेकेंड से भी कम समय में पहुंचा।  वैज्ञानिक स्टीफेन हॉकिंग का मानना है कि अभी इसमें और भी शोध होने हैं।
वैज्ञानिक मानते हैं कि न्यूट्रिनो बिग बैंग के समय बने। अब यह लगातार सूरज में हो रहे नाभिकीय विघटन से बन रहे हैं। सूर्य से प्रति सेंकेंड धरती पर करीब 65 अरब न्यूट्रिनो आते हैं। इनकी गति प्रकाश की गति यानी 299,792,458 मीटर प्रति सेंकेंड के बराबर या प्रकाश की गति से कुछ अधिक होती हैं,.  इन्हें न तो नंगी आँखों से देखा जाता है और न ही महसूस किया जा सकता है।
यह न्यूट्रिनो किसी कमजोर बंधन वाले अणु या परमाणु से टकराते हैं, तो उन्हें तोड़ कर रख देते है और इनका व्यवहार भी बदल जाता है।
विशेष किस्म के कंप्यूटराइज्ड सूक्ष्मदर्शी से देखने पर पता चला है कि अक्सर न्यूट्रिनो टक्कर के बाद न्यूट्रॉन में बदल जाते हैं और अकेले तैरते हुए अपने पीछे एक विकीरण छोड़ते जाते हैं
अब तक जो माना जाता रहा है कि फोटोन ( प्रकाश कण )का कोई भार नहीं होता है।  नए शोध से पता चला है कि न्यूट्रिनो का भार भी है। माना जा रहा है कि वैज्ञानिक ब्लैक होल और बिग बैंग के बाद पृथ्वी के निर्माण के रहस्य को जानने के लिए जो शोध कर रहे हैं, उसमें यह मील का पत्थर साबित हो सकता है।
हमारा मूल प्रश्न अब यह  है कि आत्मा है यह नहीं. इसलिए हमें आत्मा और न्यूट्रिनो की विशेषताओं पर विचार करना होगा.न्यूट्रिनो  के विषय में संक्षेप में नवीनतम जानकारी प्रस्तुत की है. अब आत्मा को जानिये जो पूर्ण विशुद्ध ज्ञान पुञ्ज है. इसके कारण मैं का बोध होता है. इच्छा,आसक्ति, द्वेष,सुख, दुःख,क्रोध, भय ,अभय, घृणा, हर्ष, उल्लास  करुणा, दया आदि अनेक भावों, संवेदनाओं का जन्म होता है.
क्या न्यूट्रिनो जो परमाणु से लेकर सूर्य के वजन के लिए जिम्मेदार हैं के अन्दर या किसी क्रिया प्रक्रिया से मैं का बोध हो सकता है. इच्छा,आसक्ति, द्वेष, सुख, दुःख, क्रोध, भय, अभय, घृणा, हर्ष, उल्लास, करुणा, दया आदि अनेक भावों, संवेदनाओं का जन्म हो सकता है. यदि वैज्ञानिक इसे प्रमाणित कर दें तभी न्यूट्रिनो सृष्टि का मूल कारण स्वीकार्य होगा.
अब आपका प्रश्न उपस्थित होता है
इस सृष्टि कोई न कोई कारण अवश्य है और वह कारण है परब्रह्म आत्मतत्त्व जो पूर्ण विशुद्ध ज्ञान है.
परब्रह्म परमात्मा भूतों का आदि, मध्य और अन्त है अर्थात सभी भूत आत्मतत्व परमात्मा से प्रकट होते हैं और उसमें में स्थित रहते हैं और अन्त में उसमें ही विलीन हो जाते हैं। पर ब्रह्म परमात्मा सब भूतों में उनके हृदय में स्थित आत्मा है, वह सृष्टि के अणु अणु में व्याप्त है,प्रत्येक हिग्स बोसोन कण-न्यूट्रिनो में व्याप्त है. आत्मतत्व ने इस सृष्टि को धारण किया हुआ है। इसी कारण प्रत्येक परमाणु या अब ज्ञात न्यूट्रिनो  में एक सिस्टम है, एक लय है, एक गुण धर्म है, एक नियम है. यह गुण धर्म, यहनियम कहाँ से आया? इसका कारण है  प्रत्येक परमाणु या अब ज्ञात न्यूट्रिनो में विशुद्ध ज्ञान छिपा हुआ है. इसी कारण अनुकूल परिस्थिति मिलते ही जड़ से चेतन प्रकट हो जाता है.
ईश्वर(आत्मतत्व) पूर्ण विशुद्ध  ज्ञान है और  स्रष्टि परम विशुद्ध ज्ञान का विस्तार है. ज्ञान जड़ हो सकता है पर जड़ ज्ञान नहीं हो सकता. इसलिए ज्ञान अनादि सत्ता है. सृष्टि का निर्माण का आदि कारण ज्ञान है जिसमे आदि अवस्था में कोई हलचल नहीं थी, कोई स्पंदन नहीं था. प्रत्येक का निश्चित स्वभाव होता है. ज्ञान में तरंग उठना स्वाभाविक है.
इस कारण  विशुद्ध शांत ज्ञान में ज्ञान का स्फुरण हुआ और ज्ञान शक्ति तथा क्रिया शक्ति का उदय हुआ. ज्ञान और क्रिया शक्ति के भिन्न भिन्न मात्रा में मिलने से त्रिगुणात्मक प्रकृति का विस्तार होने लगा. इसे मानव मस्तिष्क के अध्ययन से भी जाना जा सकता है. सामान्यतः भिन्न भिन्न प्रकार की मस्तिष्क तरंगे किसी भी मनुष्य में भिन्न भिन्न अवस्थाओं में देखी जाती हैं जैसे क्रियाशील अवस्था में बीटा तरंग, गहरी नीद में डेल्टा तरंग आदि. इसी प्रकार परम ज्ञान में पहली अवस्था में हाई डेल्टा तरंग स्वतः उत्पन्न हुई जिससे ज्ञानशक्ति और क्रिया शक्ति विस्तृत हुई और बीटा तरंग फैलने लगीं. यह रेडिएन्ट उर्जा लगातार निकलती गयी और कालांतर में वैज्ञानिक अल्बर्ट आयनस्टीन के मान्य सूत्र   E=mc2 के आधार पर घनीभूत हुई और पदार्थ बना. इस प्रकार सृष्टि का विस्तार होता गया, हो रहा है. हो सकता है कि हिग्स बोसोन कण-न्यूट्रिनो के कारण कल कोइ दूसरा कारण खोज लिया जाय.
हिंदू इस परम विशुद्ध ज्ञान को परमात्मा, भगवान, शब्दब्रह्म, अव्यक्त  कहते हैं, यह पूर्णतया वैज्ञानिक एवम सत्य है की कोई जड़ पदार्थ चेतन में न बदल सकता है, न चेतन को पैदा कर सकता है अतः सृष्टि का कारण परम ज्ञान है.
विशुद्ध शांत ज्ञान में ज्ञान का स्फुरण ही परमात्मा का संकल्प है . ज्ञान और क्रिया शक्ति के भिन्न भिन्न मात्रा में मिलने से त्रिगुणात्मक प्रकृति का विस्तार जगत का निर्माण है. छान्दग्योपनिषद  में सुस्पष्ट है उस ब्रह्म ने स्वयं ही अपने आपको इस जड़ चेतन जगत के रूप में प्रकट किया. यही भगवद्गीता भी कहती है और इस सत्य को एक दिन विज्ञान भी स्वीकार करेगा.


प्रश्न - क्या आप उपरोक्त बात को एक वाक्य में बता सकते हैं?

उत्तर-  परमात्मा जो विशुद्ध पूर्ण ज्ञान है वह बीज रूप में प्रत्येक अणु. परमाणु,  हिग्स बोसोन कण-न्यूट्रिनो आदि जो भी सृष्टि का आदि कण है उसके अन्दर  स्थित है जिसके कारण वह कण एक नियम का, गुण धर्म का पालन करता है.

Wednesday, March 20, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - 39 - बसंत



प्रश्न- अजपा क्या है?

उत्तर- स्वाभाविक रूप से प्रत्येक स्वास में परमात्मा का चिंतन. उसके नाम का चिंतन. ॐ का चिंतन. सोऽहं का चिंतन. तत अर्थात तू ही है का चिंतन. सत का चिंतन अर्थात जो यथार्थ सत्ता है उस आत्म स्वरुप परमात्मा में रमण. इन सब में अपनी श्रृद्धा और प्रकृति अनुसार व्यक्ति अजपा करता है.
यह साधना की ऊँची अवस्था है.

प्रश्न - अनहद नाद के विषय में आप का क्या अभिमत है

उत्तर- यह साधना की अत्याधिक श्रेष्ठ अवस्था है  यहाँ साधक ईश्वर को सुनता है, वह महसूस करता है कि ईश्वर उसे बता रहा है पर यह भी पूर्णता नहीं है. यह ही वास्तविक गुरु बोध है.

प्रश्न- शून्यावस्था क्या है.

उत्तर- चित्त का लोप हो जाना शून्यावस्था है पर यह भी पूर्णता नहीं है.

प्रश्न-अंतिम अवस्था क्या है

उत्तर- यथार्थ ज्ञान कि मैं ही शुद्ध बुद्ध पूर्ण ज्ञान हूँ.

प्रश्न- फिर अव्यक्त अवस्था क्या है?

उत्तर- सब कुछ विशुद्ध पूर्ण ज्ञान है.





Tuesday, March 19, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - 38 - बसंत



प्रश्न-हम बैचेन क्यों रहते हैं.

उत्तर-आप की स्थिति उस गिलास की तरह है जो जल से आधा भरा हुआ है. पानी का श्रोत आपके अन्दर बंद है फिर वह गिलास कैसे भर सकता है. इसी के कारण बैचनी है. इस बैचनी को दूर करने के लिए हम बाहरी श्रोतों को ढूँढ़ते हैं, हम प्रतिस्पर्धा करते हैं और ज्यादा बैचेन होते जाते हैं. हमने इस  प्रतिस्पर्धा के कारण अपने बच्चों का बचपन छीन लिया है. हम उन्हें बैचनी दे रहे हैं.
आपको अपने अन्दर विश्राम खोजना होगा, विश्राम पाना होगा. कभी भी आपको आपसे बाहर आराम   नहीं मिल  सकता है. आप कहीं बाहर जाते हैं, अच्छे से अच्छे होटल में रहते हैं पर अपने घर लोटकर ही आराम मसूस करते हैं. इसी प्रकार आप कितना ही संसार को खोजें, क्रिया प्रतिक्रिया करें और कितनी ही सम्पन्नता जुटा लें पर आराम आपको अपने अन्दर ही मिलेगा. जितना बाहर की और फैलेंगे उतनी  बैचेनी जीवन में आती जायेगी.
श्री भगवान् भग्वद गीता में कहते है तू स्वयं अपना मित्र है तू स्वयं अपना शत्रु है इसलिए अपनी आत्मा में रमण कर. आत्मा क्या है ? वह स्वयं आप हैं इसलिए स्वयं से स्वयं में रमण करना है.

प्रश्न-अपने अन्दर हम कैसे जाएँ? अपने में कैसे रमण करें?

उत्तर- इस सृष्टि में तीन शक्तियाँ सदा कार्य करती है. यथार्थ ज्ञान, विचार और आसक्ति.
यह तीनों एक दूसरे के कारण है. आप आसक्ति कम करते जाएँ और जब आसक्ति पूर्ण रूप से समाप्त हो जायेगी तो यथार्थ ज्ञान स्वतः ही आप में होगा. इसी प्रकार विचार शून्य होने पर आसक्ति समाप्त हो जायेगी और यथार्थ ज्ञान हो जाएगा. तब चाह और चिंता समाप्त हो जायेगी तथा मन बेपरवाह हो जाएगा. आप अपने में स्थित हो जायेंगे.
आप घबड़ाइये नहीं आप प्रयोग कीजिये आसक्ति को कम करते जाएँ अथवा विचार पहले अच्छे और शुभ बनाएं फिर उनको कम करें या फिर यथार्थ ज्ञान की और अग्रसर होने के लिए स्वयं से स्वयं को देखें.

प्रश्न-जब सृष्टि का अंत हो जाता तब क्या होता है?

उत्तर- सृष्टि का कभी भी अंत नहीं होता है. सम्पूर्ण अंत भी एक सृष्टि की ही प्रक्रिया है. इसी प्रकार जीवन और मृत्यु एक लगातार होने वाली घटना हैं, एक प्रक्रिया है. यह सब आपके ही अन्दर आपके द्वारा ही घटित हो रही है क्योकि आपके सिवाय दूसरा कोई नहीं है. श्री कृष्ण के वचन हैं-एको अस्मि द्वितीयो नास्ति. इसे आप स्वयं अनुभव कर सकते हैं. इस आप को जानना आपके सभी प्रश्नों का उत्तर है.




Monday, March 18, 2013

तेरी गीता मेरी गीता -37- बसंत



प्रश्न-  एक साधक को अपनी स्थिति जानने की जिज्ञासा होती है क्या हम जान सकते हैं कि हमारे अन्दर देवत्व कितनी मात्रा में है? हमारे अन्दर कितनी दिव्यता है?
उत्तर- भगवद्गीता में श्री भगवान् द्वारा देवत्व  के मापदंड बताये गए है जो सरल  रूप  से आपके अपने मूल्यांकन के लिए प्रस्तुत हैं. कोई भी मनुष्य अथवा  साधक इनके आधार पर अपना मूल्यांकन कर सकता है. प्रत्येक  मापदंड के 5 अंक हैं. इस प्रकार कुल अंक 140 हैं
यदि आपके 10 अंक आते हैं तो आप अच्छे मनुष्य हैं.
20 अंक प्राप्त होने पर यह समझ लें कि आप सही मार्ग में हैं जिसमें आपको निरंतर बड़ता जाना है.

1-भय का अभाव - यह देखिये कि आप में कितना भय है या आप अभय हैं.
2-शुद्ध बुद्धि - अपने स्वभाव का परीक्षण कीजिये और देखिये आपकी बुद्धि कितनी निर्मल है. इसी प्रकार अन्य मापदंडों के आधार पर अपना  परीक्षण कीजिये.
3-ज्ञान योग से आत्मा में द्रढ़ स्थिति
4-निसंकोच भाव से दान करने वाले
5-इन्द्रियां पर नियंत्रण
6-स्वभाव में स्थित
7-सदा साक्षी भाव
8-शरीर और मन से सरलता
9- परमात्मा के निमित्त कर्म करना,
10-निरन्तर शास्त्र वचनों का चिन्तन मनन करना,
11-सत्य अर्थात जिसके संशय और अज्ञान नष्ट हो गए हों और ज्ञान की प्राप्ति हो गयी है.
12-अहिंसा- मन वाणी कर्म से किसी को दुख नहीं देना
13-क्रोध का न होना
14-त्याग- अहं बुद्धि का त्याग, देह भावना का त्याग
15-किसी की निन्दा न करना
16-शान्ति
17-अनासक्ति
18-दूसरों की सेवा में बिना प्रत्युपकार के लगे हुए
19-अपने गुणों की चर्चा होने पर लजा जाना
20-सभी प्राणियों पर दया,
21-कोमल हृदय -मन का दीन होना
22-व्यर्थ चेष्टा का अभाव
23-तेज - आत्मा की ओर मन की गति से जो भाव उत्पन्न होता है वह तेज है,
24-क्षमा -अपने प्रति अपराध करने वाले को भी अहंकार हुए बिना अभय देना
25-अद्रोह- जो किसी भी प्राणी से शत्रु भाव न रखे
26-धृति -भौतिक कष्ट आने पर भी धैर्य धारण करना,
27-शौच - बाहर भीतर से शुद्ध हो
28-अभिमान का न होना -अपनी पूज्यता से जिनमें संकोच होता है;

Sunday, March 17, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - 36 - बसंत



प्रश्न- संन्यास क्या है?
उत्तर- संन्यास केवल वस्त्रों को त्यागना और बदलना नहीं है. इसी प्रकार अग्नि को त्यागना भी संन्यास नहीं है.
सभी संकल्पों का त्याग संन्यास कहलाता है. जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है न किसी फल की इच्छा करता है वह सन्यासी है.
आपको ज्ञात होगा भारत में जब बोद्ध धर्म अपने प्रचार प्रसार में तेजी से फेल  रहा था उस  समय एक कथन प्रचलित हुआ - मूड़ (बाल) मुड़ाय भये सन्यासी.
आजकल यह हो रहा है -मूड (बाल) बड़ाय भये सन्यासी.

प्रश्न-अग्नि को त्यागना क्या है?
उत्तर-घर के चुल्हा चोके के झंझट से परेशान होकर घर त्याग देना अग्नि को त्यागना है.

प्रश्न - कई लोग की वर्षों तक एक हाथ खड़ा रखते हैं, उनका हाथ उसी अवस्था में रहता है.इसी प्रकार कोई सर के बल खड़े रहते हैं, कोई एक टांग में खड़े रहते हैं, इनके विषय में आपका क्या कहना है?
उत्तर- यह सब तामसिक तप है जिसमें न वर्त्तमान में आनंद और सुख है तो फिर परलोक कैसे सुखी  हो सकता है.

प्रश्न- कई लोग जमीन के अन्दर घुस कर, कई जल में घुस कर ,कई मचान में बैठकर तप करते हैं,  इनके विषय में आपका क्या कहना है?
उत्तर- यह सब भी तामसिक तप है जिसमें न आनंद है और न सुख है. इन सभी की बुद्धि अज्ञान से घिरी हुयी है.

प्रश्न- कुछ लोग दाड़ी, बाल नोचते है आदि आदि..?
उत्तर- यह सब भी तामसिक तप है, इन तपों से कोई लाभ नहीं है.यह सब ताप हैं.

प्रश्न- तो फिर क्या आचरण होना चाहिए?
उत्तर श्री भगवान् भगवद्गीता में कहते हैं, जिसका आहार विहार ठीक है ,जिसकी चेष्टा और कर्म ठीक हैं  जिसका सोना और जागना ठीक है उसका योग सिद्ध होता है. पतंजलि ने सुख पूर्वक स्थिर बैठने को योगासन कहा है.

प्रश्न - शनिवार को तेल दान, मंगल को गुड़ चना आदि दान क्या हैं?
उत्तर- यहाँ भी तामसी वृत्ति कार्य करती है, इसलिए कुछ लाभ नहीं है. बस इतना अवश्य होता है कि कुछ जरूरत मंद मनुष्यों और पशु पक्षियों को भोजन लाभ मिल जाता है.

प्रश्न- धर्म के नाम पर ईश्वर अथवा देवता को पशु बलि क्या है?
उत्तर- यह घोर तामसिक कार्य है. अपने लाभ, भय और भोजन के लिए इस प्रकार जीव ह्त्या नितांत अधम कार्य है.
यदि ईश्वर को बलि देनी है तो अपने अहंकार की बलि दो. श्री भगवान् भगवद्गीता में कहते हैं, जो भी मनुष्य मुझे प्रेम से जल ,पत्ता, फूल, फल अर्पण करता है मैं उसे अत्यंत प्रेम से स्वीकार करता हूँ.

प्रश्न- धर्मशाला, स्कूल, मंदिर, आश्रम, च्कित्सालय बनाना, भंडारा करना, प्याऊ लगाना ,कुआं, तालाब बनाना, सामाजिक सेवा आदि क्या हैं.
उत्तर - यदि यह कार्य निस्वार्थ भाव से किये जाएँ तो सात्विक तप है और अपनी बड़ाई, सम्मान, लोग  मेरी  बड़ाई करें, अभिमान और अहंकार की तुष्टि के लिए किया जाता है तो वह रजोगुणी तप है. यदि दुसरे को पीड़ा पहुंचाकर, या पीड़ा देने के उद्देश्य से किया जाता है तो वह कार्य तामसिक है.



तेरी गीता मेरी गीता -35- बसंत



प्रश्न - आजकल टेलीविजन में अनेक धन संपदा देने वाले यंत्रो का प्रचार प्रसार हो रहा है. क्या यह यन्त्र
धन संपदा अथवा सिद्धि देते हैं?
उत्तर - इनके द्वारा मनुष्य के भीतर बैठे भय और लोभ को भुनाया जा रहा है. आपको जीवन में जो भी मिलना है वह आपके कर्म हैं. पिछले जन्म के कर्म दैव और इस जन्म के कर्म पुरुषार्थ कहलाता है.

प्रश्न - क्या टोने टोटके होते हैं?
उत्तर- आपके मन का भय इनको जन्म देता है. वास्तव में टोने टोटके कुछ भी नहीं हैं. यह अज्ञान और तामसिक ज्ञान है.

प्रश्न- क्या वास्तु विज्ञान होता है.
उत्तर- वास्तु कोई विज्ञान नहीं है. यह लोग भी.मनुष्य के भीतर बैठे भय  को भुना रहें हैं.
इस विषय में में आपको एक उदाहरण देता हूँ भारत के मदानी गर्म प्रदेशों में उत्तर और पूर्व मुखी मकान आरामदायक होते हैं इसका कारण है दक्षिण पश्चिम के मकान बहुत अधिक गर्म हो जाते हैं वहीँ हिमालय के पहाड़ी क्षेत्र  में पूर्व और दक्षिण मुखी मकान आरामदायक होते है क्योंकि इनमें जाड़ों में धूप अच्छी मिलती है. उत्तर मुखी मकान अत्याधिक ठन्डे हो जाते हैं.इसी प्रकार चोकोर एवं आयताकार जमीन मकान के लिए अच्छी होती है. भोगोलिक एवं सुविधाजनक स्थिति को भय और भ्रम के नाम से बेचा जा रहा है.

प्रश्न- महूर्त विज्ञान क्या है?
उत्तर- महूर्त विज्ञान कोई विज्ञान नहीं है. एक ही महूर्त में हमेशा शुभ और अशुभ घटना घटित होती हैं. कितना ही शुभ महूर्त हो तो उस महूर्त में यदि किसी के घर में जन्म, विवाह, मकान बनने आदि की खुशी है तो दूसरे के घर में बीमारी,तलाक,झगड़ा एवं मृत्यु आदि का दुःख होता है,

प्रश्न- ज्योतिष के विषय में आपका क्या अभिमत है.
उत्तर- ज्योतिष के दो पक्ष हैं १- गणित २-फलित
गणित पूर्णतया वैज्ञानिक है जो नक्षत्र विज्ञान और समय गणना पर आधारित है.
फलित ज्योतिष व्यक्तिगत है.

प्रश्न- फलित ज्योतिष व्यक्तिगत है से आपका क्या तात्पर्य है.
उत्तर-  यदि हम १२ रासियों के आधार पर नित्य भविष्य वाणी करें तो व नितांत बेवकूफी है. विश्व जन सख्या लगभग 06 अरब है. इस प्रकार एक राशि में 60 करोड़ लोग आते हैं.प्रतिदिन, प्रतिघंटे, मिनिट, सेकिंड सबका भाग्य कैसे एकसा हो सकता है?
किसी व्यक्ति के जन्म समय के आधार पर बनी सम्पूर्ण गृह स्थिति और उसकी पारवारिक पृष्ठभूमि को देखकर कोई श्रेष्ठ ज्योतिषी जिनकी संख्या भारत में 10 भी नहीं होगी 75% ही सही भविष्य फल बता सकता है.
इस विषय में यह भी समझ  लें कि 75% सही  भविष्य फल जाना तो जा सकता है परन्तु उस अच्छी अथवा बुरी घटना को रोकने का कोई उपाय नहीं है. बुरे की आशंका से आपका वर्तमान भी खराब हो जाता है इसलिए भविष्य फल जानने का प्रयास न करें.

प्रश्न- रत्न विज्ञान क्या है?
उत्तर- मन का भ्रम है.

प्रश्न- क्या कष्ट दूर करने का कोई उपाय है?
उतार- प्रभु का स्मरण, प्रार्थना, पुरुषार्थ, प्राणियों की सेवा, प्रेम से जीवों को भोजन कराना, माता पिता की सेवा, निस्वार्थ भाव से अतिथि सेवा और दान से आप कष्टों से मुक्ति पा सकते हैं या उनको कम कर सकते हैं. यदि कोई सच्चा संत जिसका मिलना कठिन है कृपा कर दे तो भी आप कष्टों से मुक्ति पा सकते हैं.

प्रश्न- पिंड दान और श्राद्ध के विषय में आपका क्या अभिमत है.
उत्तर- यह विधान  आपकी श्रद्धा से जुड़ा है. श्रद्धा से अपने पितरों को याद करना अच्छी बात है.उनके प्रति कृतज्ञता है. भय से किया पिंड दान और श्राद्ध तामसिक है.

प्रश्न- तर्पण क्या है?
उत्तर- प्रत्येक जीव को अपना तप अर्पण करना तर्पण है यह प्रति दिन करना चाहिए.यहाँ भी आपकी श्रद्धा का महत्व है. भय से किया तर्पण तामसिक है.

तेरी गीता मेरी गीता - 34 - बसंत



प्रश्न - श्री कृष्ण भगवद्गीता के नवें अध्याय के श्लोक संख्या 32 में कहते हैं, मेरे लीला मय स्वरूप में अनुरक्त शरण में आये स्त्री, वैश्य, शूद्र तथा पापयोनि के अन्य प्राणी और मनुष्य भी आत्मतत्व को प्राप्त होते हैं. उन्होंने स्त्री,वैश्य, शूद्र इन तीनो को आत्मज्ञान के लिए अन्य मनुष्यों की तुलना में क्यों कमजोर माना है.

उत्तर- श्री कृष्ण भगवद्गीता के नवें अध्याय के श्लोक संख्या 32 में कहते मेरे लीला मय स्वरूप में अनुरक्त शरण में आये स्त्री, वैश्य, शूद्र तथा पापयोनि के अन्य प्राणी और मनुष्य भी आत्मतत्व को प्राप्त होते हैं. यहाँ स्त्री, वैश्य, शूद्र तीनो शब्द महत्वपूर्ण हैं.इन तीनो के लिए बोध का मार्ग कठिन माना गया है. स्त्री में पुरुष की अपेक्षा रज प्राकृतिक रूप से अधिक होता है, उसमें ममता मोह अधिक होता है. वह अपने घर परिवार से आसक्ति अधिक रखती है. इसी प्रकार प्राकृतिक रूप से वह हर माह रजस्वला होती है इस कारण उन्हें पुरुष की अपेक्षा योग सिद्ध करने में दोगुना पुरुषार्थ करना पड़ता है. वैश्य की धन में प्रबल आसक्ति होती है. धन के प्रति अत्याधिक लोभ होता है इसलिए रुपये पैसे का मोह और लोभ छोड़ना बहुत कठिन है. धन में आसक्ति रखने वाले को वेश्य कहा जाता है. इस आसक्ति के कारण वेश्य  का योग सिद्ध करना  दोगुना - तिगुना पुरुषार्थ का काम है. शूद्र उसे कहते हैं जो बुद्धि से जड़ हो इसलिए कहा जाता है 'जन्मने जायते शूद्र संस्कारेण जायते द्विजः' जन्म से सभी शूद्र होते हैं और संस्कार से उनका दूसरा जन्म होता है अर्थात विद्या से उनकी बुद्धि की जड़ता नष्ट होती है. परन्तु जो बुद्धि  से हीन रहता है उस शूद्र का योग सिद्ध होना निसंदेह कठिन है. यहाँ श्री भगवान् कहते है कि स्त्री, वैश्य, शूद्र जिनमें मोह-माया, अज्ञान अधिक है अथवा वे जीव जो किसी कर्म फल के कारण किसी कुबुद्धि अथवा दुर्बुद्धि से युक्त परिवारों में जन्म ले लेते हैं मेरी शरण में आने पर वह भी मेरे प्रभाव से, मेरी कृपा से उस परम बोध के मार्ग की और बड़ते हैं उनका स्वभाव ज्ञान की ओर बढ़ता है और उनका रज, तम कम होने लगता है और वह आत्म स्वरूप को जानकर आत्मवान हो जाते हैं।

प्रश्न- श्री कृष्ण भगवद्गीता के दसवें  अध्याय के श्लोक संख्या 36  में कहते हैं, मैं छल करने वालों में जुआ हूँ, इसका क्या अर्थ है?

उत्तर- यहाँ श्री कृष्ण बता रहे हैं कि मनुष्य का जीवन पासे की तरह है जो कभी छह देता है कभी पांच कभी एक, जो निरंतर बदल रहा है, यह ताश के पत्तो की तरह रंग -बदरंग होता है, निरंतर बदलता है. कभी जीत है कभी हार है और जो और जिसके कारण हार जीत हो रही है, दुःख सुख हो रहे हैं, ऊँच नीच हो रही है, नित्य परिवर्तन हो रहा है. हार -जीत महसूस करते हुए और यह भी जानते हुए कि मैं छला जा रहा हूँ मैं बर्बाद हो रहा हूँ जुआरी जुआ नहीं छोड़ता है.
इसी प्रकार हम देखते हैं मनुष्य निरंतर माया द्वारा छला जा रहा है. जो कुछ हो रहा है वह असत होते हुए सत दिखाई देता है. देह निरंतर मृत्यु की ओर जा रहा है फिर भी नाशवान देह और सम्बन्धों से जुआरी की तरह हमें प्रबल आसक्ति होती है  इसलिए सबसे बड़ा छल जुआ है जो जीवन सत्य को उजागर करता है जो प्रतिपल घटित हो रहा है. इस कारण श्री भगवान् अपनी दिव्या विभूतियों को बताते हुए कहते है कि मैं  छल करने वालों में जुआ हूँ,

Saturday, March 16, 2013

तेरी गीता मेरी गीता -33- बसंत



प्रश्न- ईश्वर साकार है या  निराकार?
उत्तर - ईश्वर साकार भी है और निराकार भी है. ईश्वर जड़ चेतन दोनों का कारण है इसलिए वह किसी भी स्वरुप में हो सकता है अथवा निराकार होकर सर्वत्र है. यदि ईश्वर को मात्र निराकार मान लिया जाया तो उसकी शक्ति को हम सीमित कर देते हैं.
दार्शनिक रूप से ईश्वर की निराकार स्थिति ब्रह्म कहलाती है जो अव्यक्त है, यह विशुद्ध ज्ञान की पूर्ण एवं शांत अवस्था है. ब्रह्म जब अपनी दिव्यता के साथ माया में चमकता है तो ईश्वर कहलाता है. इसी कारण हिन्दू ईश्वर की उपासना करते हैं. ब्रह्म की उपासना नहीं की जा सकती है वह बोध का विषय है.
ईश्वर का विस्तार, साकार स्वरूप जगत है पर यथार्थ में इस जगत की कोई सत्ता नहीं है क्योंकि  परमात्मा से जगत पृथक नहीं है.
ईश्वर का साकार स्वरूप-
सत् रज तम (महत् )
अहँकार
बुद्धि
मन
शब्द
स्पर्श
प्रभा
रस
गंध
आकाश
वायु
अग्नि
जल
पृथ्वी
इन सबका मिला जुला पूर्ण चैतन्य शुद्ध स्वरूप ईश्वर का साकार स्वरूप है.

प्रश्न- क्या कोई मनुष्य ईश्वर हो सकता है?
उत्तर - हाँ, जो मनुष्य जड़ को चेतन और चेतन को जड़ करने में समर्थ हो वह ईश्वर है. जिसके अन्दर समस्त दिव्यताओं का समावेश हो वह ईश्वर है. श्री कृष्ण और श्री राम ऐसे ही अवतारी मनुष्य के उदाहरण हैं.

प्रश्न - साकार ईश्वर की पूजा के विषय में आप का क्या अभिमत है?
उत्तर- आप माने या न माने पर किसी न किसी रूप में सभी साकार रूप में ही ईश्वर की पूजा करते हैं. शब्द अथवा नाम क्या है जिससे हम ईश्वर को याद करते हैं, पुकारते है. यह शब्द अथवा नाम भी साकार ही तो है.

प्रश्न- मूर्ति पूजा के विषय में आप का क्या अभिमत है?
उत्तर- मूर्ति पूजा आपके प्रेम का प्रतीक है. हम घर के सदस्य जिसे प्यार करते हैं उसकी भिन्न भिन्न फोटो रखते हैं. इसी प्रकार ईश्वर की दिव्यताओं का विग्रह मूर्ती पूजा है. मूर्ती में स्थापित आपकी भावना का महत्व है. इसके अलावा सभी धर्म मानते हैं की ईश्वर सर्वत्र है, कण कण में है फिर मूर्ती में उसे स्वीकार करने में क्या हर्ज है.
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Friday, March 15, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - 32 - बसंत



प्रश्न- कुण्डलनी शक्ति क्या होती है?
उत्तर- कुण्डलनी शक्ति होती भी है और नहीं भी होती है.

प्रश्न-आपके इस कथन का क्या मतलब है?
उत्तर- कुंडलिनी शक्ति के विद्वान, लेखक और उपदेशक जैसा  कुंडलिनी के बारे में बताते हैं वैसा कुछ नहीं है. कुंडलिनी एक प्रतीकात्मक शब्द है जिसको लेकर केवल भ्रम फेलाया जाता रहा है. वर्तमान युग में मानव शरीर रचना की सर्वाधिक जानकारी होने पर भी लोग कुंडलिनी  के विषय में भ्रम फेलाए जा रहे हैं.

प्रश्न-आपके अनुसार कुण्डलिनी क्या है?
उत्तर- मानव शरीर रचना परा (जीव) और अपरा प्रकृति (जड़) के मिलने से हुयी है. इसे जड़ चेतन का संयोग भी कह सकते हैं. इन दोनों का भी मूल कारण ज्ञान है जो परमतत्त्व है. यह विशुद्ध ज्ञान, अस्मिता बोध तत्पश्चात अस्मिता  की प्रतीति से अज्ञान के आवरणों से आच्छादित होता जाता है. मोटे रूप में यह चार आवरण हैं विज्ञानमय आवरण, मनोमय आवरण, प्राणमय आवरण, अन्नमय आवरण. शुद्ध चेतन्य ज्ञान इन आवरणों को स्वीकार करते हुए इनको ही अपना मानने लगता है और इनमें रम जाता है इसे ही अज्ञान कहते है. शुद्ध चेतन्य ज्ञान (आत्मा) का अपने अस्तित्व को भुला देना कुण्डलिनी का मूलाधार में सोया हुआ होना है.

प्रश्न-कुण्डलिनी जागरण क्या है?
उत्तर- ज्ञान का तमोगुण और रजोगुण से हट कर सत्व गुण की और प्रवाहित होना कुण्डलिनी जागरण है. तमोगुण और रजोगुण इन दोनों गुणों में अज्ञान रहता है इसलिए कहा जाता है की कुण्डलनी शक्ति सोयी हुयी रहती है. इन दोनों गुणों को छोड़कर जब ज्ञान सत्वगुण के साथ होता है तो बुद्धि निर्मल होने लगती है यह कुण्डलिनी का जागरण है, शरीर में परिवर्तन होने लगते हैं एक हलचल मच जाती है. इसको इस प्रकार समझिये एक वृत्त के तीन भाग हैं सतोगुण तमोगुण और रजोगुण. वृत्त के दो भाग तमोगुण और रजोगुण के मिलने से कुंडल की आकृति बनती है इसलिए इसे कुण्डलिनी कहा जाता है.

प्रश्न- कृपया विस्तार से स्पष्ट करें.
उत्तर- यह शरीर अन्नमय है और मनुष्य में शरीर और उसके अंग तथा निष्काषित पदार्थ जीव की जड़ता सुस्पष्ट करते हैं. यहाँ ज्ञान शक्ति सबसे कम हो जाती है.प्राणमय आवरण शरीर संचालन में प्रमुख भूमिका निभाता है .यहाँ ज्ञान शक्ति अन्नमय आवरण से अधिक होती है. मनोमय आवरण,मनुष्य के भाव, विचारों का जनक है .इसी के आधार पर शरीर कार्य करता है  यहाँ ज्ञान शक्ति अन्नमय आवरण और प्राणमय आवरण से अधिक होती है. विज्ञानमय आवरण अस्मिता की प्रतीति के लिए उतरदायी  है यहाँ यहाँ ज्ञान शक्ति अन्नमय आवरण, प्राणमय आवरण और मनोमय आवरण,से अधिक होती है. परन्तु इन चारों आवरणों में अज्ञान का अत्याधिक प्रभाव रहता है. यहाँ अज्ञान से तात्पर्य आवरणों को स्वीकार करते हुए इनको ही अपना मानने लगना है और इनमें रम जाना है और अपने यथार्थ स्वरुप को भूल जाना है.
हमारी प्रकृति त्रिगुणात्मक है. यह तीन गुण सत्व ,रज और तम हैं.
रज युक्त ज्ञान और तम युक्त ज्ञान को ही इडा, पिंगला कहा गया है और सुष्मना सत्व ज्ञान है जब भी किसी जीव मैं 50%से अधिक सत्व हो जाता है तो उसके अन्दर अपूर्व हल्कापन, तेज व् दिव्यता उसे अनभव होने लगती है. सीएनएस में ऊपर  के संवेदनशील केंद्र अधिक क्रियाशील होने लगते हैं.
आप कोइ भी निस्वार्थ शुभ कार्य करे तो आप पायेंगे आपके अन्दर कुछ घटित हो रहा है, सात्विक अन्न, जीव सेवा, नाडी शुद्धि एवं प्राणायाम, मन पर नियंत्रण का अभ्यास और अभिमान अथवा अहंकार कम कर सत्व बड़ता है. इन सभी में मन पर नियंत्रण और अहंकार कम करना सर्व श्रेष्ठ उपाय हैं. सत्व के बड़ते ही जो विलक्षण परिवर्तन आप में होते हैं वही कुण्डलिनी का जागरण है. विडम्बना है की मनुष्य को सीधी सरल बात में मजा नहीं आता जब तक उसे चमत्कारी अथवा लच्छेदार न बना दिया जाय. इसलिये कुंडलिनी योग के  विद्वान, लेखक और उपदेशक ने मनुष्य के रीड की हड्डी में  कहीं हाथी, कहीं भेड़, कहीं मगर बिठा दिये हैं. जगह जगह 4, 8, 16, 100, 1000 पंखुड़ियों वाला कमल रख दिया है. इन के देवता भी निर्धारित कर दिए हैं. इन में कुछ तो प्रतीकात्मक शब्द और चिन्ह हैं और कुछ निरर्थक भ्रमजाल फेलाने वाले हैं.

प्रश्न- सात चक्रों के विषय में आप क्या कहते हैं.
उत्तर-हमारे पिंड में सात स्थान सर्वाधिक संवेदनशील होते हैं इन्हें सात चक्र कहा है.सहस्रार चक्र का स्थान हमारे मस्तिष्क का मूल स्थान है और मूलाधार चक्र - गुदा और लिंग के बीच में मस्तिष्क का अंतिम विस्तार है. मस्तिष्क का मूल स्थान सहस्रार चक्र में स्थित 100% शुद्धता मूलाधार चक्र - अंतिम विस्तार तक आते आते शुद्धता सांसारिक होती जाती है और उसमे अज्ञान बड़ता जाता है. इसलिए शुद्ध ब्रह्म, जीव हो जाता है. वेदान्त, साँख्य, पातंजलियोग, भगवद्गीता, ब्रह्मसूत्र, विवेक चूड़ामणि आदि सभी प्रामाणिक शास्त्र इसे जीव शक्ति कहते हैं.जीव में जब सतोगुण की मात्रा बड़ती है तो वह अपने मूल स्वरुप की और बड़ता है यही कुण्डलिनी  जागरण है.





तेरी गीता मेरी गीता- 31 - बसंत



प्रश्न- वेद का क्या अर्थ है?
उत्तर- वेद शब्द का अर्थ है जानना. वेद शब्द का अर्थ है ज्ञान.

प्रश्न-वेद और वेदान्त में क्या अंतर है?
उत्तर- वेद का अर्थ है जानने का प्रारम्भ और वेदान्त का  अर्थ है जानने का अंत, ज्ञान की अंतिम सीमा- पूर्णता  अर्थात जिसको जानकार कुछ भी शेष न रह जाय.

प्रश्न- हिन्दूओं के वेद क्या हैं?
उत्तर- हिन्दूओं के चार वेद ज्ञान की खोज अलग अलग तरीके से करते है और अपने अंत में एक ही निष्कर्ष देते है की पूर्णता किस प्रकार पायी जा सकती है.इस निष्कर्ष के भाग को ही वेदान्त कहा जाता है.

प्रश्न-क्या वेद  को कर्म को प्रमुखता देते है?
उत्तर- हाँ

प्रश्न-भगवद्गीता और वेद के कर्म सिद्धांत में क्या अंतर है?
उत्तर- वेद सकाम कर्म को महत्व देते है. साधारण मनुष्य जीवन सुख पूर्वक जीना चाहता है और मृत्यु के बाद भी सुख चाहता है इसी कारण शुभ और श्रेष्ठ कर्मो का प्रतिपादन वेद करते हैं जिससे उसे इस जीवन में और मृत्यु के बाद सुख मिले, स्वर्ग मिले, फिर जन्म हो तो सुख मिले. भगवद्गीता  के कर्म का सिद्धांत साधारण मनुष्य और पूर्णता के खोजी  मनुष्य के लिए अलग अलग है. अतः साधारण मनुष्य को स्वाभाविक कर्म करने की बात श्री कृष्ण कहते हैं जो वेद का मार्ग है और पूर्णता के खोजी  मनुष्य को निष्काम कर्म का उपदेश देतें हैं. इसी प्रकार वेदान्त भी भगवद्गीता की तरह निष्काम कर्म का उपदेश देते हैं.
भगवद्गीता का कर्म का सिद्धांत बुद्धि योग का हिस्सा है. श्री भगवान् कर्म करते हुए बुद्धि को निष्काम रखने को कहते हैं.
वेद जीवन को प्रमुखता देते हैं  वेद कहते हैं की मनुष्य को सुख पूर्वक अधिक से अधिक जीवन जीने की कोशिश करनी चाहिए. 'जीवेत शरदम  शतः'.  भगवद्गीता आत्मा के जीवन की बात करती है. वह देह की आयु को महत्व नहीं देती. भगवद्गीता.कहती है तू आत्मा है देह नहीं इसलिए अपने नित्य और अविनाशी स्वरुप को जान वही तू है. इस प्रकार  भगवद्गीता देह को महत्त्व नहीं देती. इस अंतर का कारण है कि हिन्दूओं के चार वेद ज्ञान की खोज का प्रारम्भ करते हैं और गीता ज्ञान का अमृत देती है. इसलिए हम देखते है कि वेदों में सिद्धांत बदलते हैं, देवता बदलते हैं क्योंकि ज्ञान की वृद्धि के साथ मान्यता बदलती हैं परन्तु  भगवद्गीता ज्ञान की पूर्णता का ग्रन्थ है. अब यहाँ मान्यता बदलने की गुंजाइश नहीं है. यहाँ सिद्धांत अकाट्य हैं.

Friday, March 8, 2013

तेरी गीता मेरी गीता- 30 - बसंत



प्रश्न- हमारे अन्दर आत्मा पूर्ण चेतन्य और परम ज्ञानवान है फिर वह अज्ञान से कैसे बंधता है.

उत्तर- आत्मा जब प्रकृति में आता है तो वह प्रकृति के गुणों से मोहित हो जाता है और उसके अन्दर यह भाव आ जाता है कि यह गुण मेरे हैं और वह गुणों की ओर आकर्षित हुआ उनसे बंधता जाता है.सत्व गुण उसे ज्ञान से आकर्षित करता है और वह ज्ञान के अहंकार में बंध जाता है.
(यहाँ ज्ञान को समझना आवश्यक है. ज्ञान का अर्थ है-
१-पूर्ण बोध अर्थात जानना - अपने को जानना, सब कुछ जानना.
२- किसी विषय अथवा वस्तु के ज्ञान से है. इसे पदार्थ ज्ञान कहते है जो प्रकृति में चेतन आत्मा की उपस्थिति से उत्पन्न होता है. यह बुद्धि का ज्ञान है.)
सत्व गुण ज्ञान सुख और ज्ञान देता है. इस विषय और पदार्थ ज्ञान के अहंकार से वह मिथ्या सुख में आत्मा को फंसाता है और आत्मा वास्तविकता को भूल कर प्रकृति की चाल में बंध जाता है. वह नहीं समझ पाता कि यह  वास्तविक ज्ञान (बोध) न होकर छाया ज्ञान है.
इसी प्रकार रज जो कामना और आसक्ति से पैदा होता है आत्मा को कामना और आसक्ति में फंसाता है. पहले थोड़ा मिला उसका सुख उठाया फिर अधिक की इच्छा हुयी,आसक्ति बड़ी कर्म बड़े. तमोगुण अज्ञान से पैदा होता है यह आत्मा को पूर्ण भ्रम में डाल देता है और वह अपना शुद्ध स्वरुप भूल जाता है.
संक्षेप में प्रकृति को स्वेच्छा से अंगीकार करना आत्मा का बंधन है इसे ही जीव भाव कहा गया है.

प्रश्न- कृपया इसे अधिक सरलता से बताएं.

उत्तर- जब ज्ञान में अस्मिता बोध होता है तो स्वयं, स्वयं में स्थित होता है पर प्रकृति में होने के कारण उसे  प्रकृति में अपने भिन्न भिन्न रूप दिखाई देते हैं. वह कभी एक रूप में कभी दूसरे रूप में जाकर स्वयं प्रसन्न होता है वहां पहले सुख का अनुभव करता है उस प्रकृति में सुख के कारण उसे आसक्ति हो जाती है. यह आसक्ति बडती जाती है परन्तु प्रकृति नित्य परिवर्तनशील है अतः प्रक्रति के बदलने से उसे दुःख होता है. जैसे एक स्त्री और पुरुष एक दूसरे के रूप एवं गुणों को देख कर आकर्षित होते हैं परन्तु समय के साथ वह आकर्षण बदल जाता है परिस्थितिवश गुण भी बदल जाते हैं. अब जिस आकर्षण से सुख था वह दुःख का कारण बन जाता है. फिर देह प्रकृति को  नष्ट होना है इस कारण आसक्ति के कारण जीव  अपार दुःख झेलता है. इसी प्रकार सर्वप्रथम वह अपनी देह (प्रकृति) जो उसका मकान है उससे आकर्षित होता है जीवन भर उसकी देखभाल करता है पर वह देह को रोगी, बूड़ा होने अथवा मरने से नहीं बचा सकताहै. देह में प्रबल आसक्ति के कारण जीव  देह को अपना समझकर सर्वाधिक दुःख पाता है. देह आसक्ति ही उसे नाते रिश्ते में बांधती हैं और इन सब का अंतिम परिणाम दुःख है.इस दुःख के कारण को ही अज्ञान कहा गया है..

तेरी गीता मेरी गीता - 29 - बसंत



प्रश्न- क्या आप उस परम अव्यक्त, बोध, माया और अस्मिता की प्रतीति को सरल और संक्षेप में बता सकते हैं?

उत्तर - परमात्मा अव्यक्त है वही सत है वही वास्तविकता है.
सरल शब्दों में उसे समझिये-

है.-अव्यक्त - पूर्ण - परमात्मा

हूँ.-चेतन्य बोध

मैं हूँ.- अस्मिता का बोध - चैतन्य  - शुद्ध अहंकार

हूँ और मैं हूँ के अनेक अनुभूति धरातल हैं.

अस्मिता की पदार्थ में प्रतीति - अहंकार - माया का संसार

मैं शरीर हूँ.
मैं पुरुष हूँ.
मैं स्त्री हूँ.
मैं ( नाम ) हूँ. जैसे बसंत, प्रताप, माधव आदि.
मैं----का पुत्र हूँ.
मैं---- का भाई हूँ.
मैं---- का पति हूँ.
मैं----का राजा हूँ.
मैं---- फकीर हूँ.
मैं---- सन्यासी हूँ.
मैं---- का पिता हूँ.
मैं---- मालिक हूँ.
मैं कर्ता हूँ.
मैं जन्मदाता हूँ.
मैं भोक्ता हूँ.
मैं जीवित हूँ.
मैं मर रहा हूँ.
मैं मरा हूँ.
मैं धनी हूँ.
मैं निर्धन हूँ.
मैं विद्वान् हूँ.
मैं मूर्ख हूँ. आदि

प्रश्न- अस्मिता की प्रतीति संसार की ओर क्यों फैलती है.

उत्तर- चित्त में सदा कोइ न कोई गुण रहता है. इस चित्त के कारण संसार है और संसार अज्ञान- पदार्थ है इसलिए चित्त अज्ञान से बना है इसलिए अज्ञान के परमाणु ज्यादा आकर्षित करते हैं.
अज्ञान का अर्थ जड़ और निरंतर बदलने वाले ज्ञान से है जो सत दिखाई देता है पर कुछ समय के लिए. जो है और नहीं भी है.

Tuesday, March 5, 2013

तेरी गीता मेरी गीता -28- बसंत


प्रश्न-बड़े बड़े ज्ञानी ,मुनि, विद्वान कहते हैं ॐ का जाप करो. लोग ॐ का जाप करते भी है पर न मन लगता है न उनको कुछ परिणाम दिखाई देता है और मन खराब हो जाता है या कहें बैचेन बना रहता है. क्यों?

उत्तर-ॐ शब्द के विषय में बड़े बड़े ज्ञानी ,मुनि, विद्वान भ्रमित हैं और सब कहते हैं ॐ का जाप करो, ॐ का जाप करो. लोग ॐ का जाप करते भी है पर न मन लगता है न उनको कुछ परिणाम दिखाई देता है और मन खराब हो जाता है.
तो आज ॐ के विषय में चर्चा करेगे. एक सरिता नाम की स्त्री और शेखर नाम का पुरुष एक दूसरे से अत्यधिक प्यार करते हैं. अब आप विचार करें की वह दोनों एक दूसरे का नाम कैसे लेते हैं. कैसे एक दूसरे का चिंतन करते हैं.
इसी प्रकार दो घनिष्ठ मित्र कैसे दूसरे का नाम कैसे लेते हैं.
माता किस प्रकार अपने पुत्र को बुलाती है.
बस इसी प्रकार परमात्मा को बुलाना है. उसका चिंतन करना है. ॐ सत का नाम है. उसे व्यवहार में चिंतन करना है.
श्री भगवान भगवद गीता में कहते हैं - ओम ही ब्रह्म है और इसे व्यवहार में स्वीकारते हुए सदा परमात्मा का चिंतन करना चाहिए. यहाँ व्यवहार शब्द महत्वपूर्ण है.
परन्तु सब ज्ञानी, ध्यानी, मुनि, विद्वान् केवल कहते हैं ॐ का जाप करो. कोई यह नहीं कहता उसे उसी प्रकार पुकारो, उसका चिन्तन करो जिस प्रकार दो प्रेमी एक दूसरे का चिंतन करते हैं पुकारते हैं. ॐ तो उसकी विशेषताओं के कारण उसका नाम है जो संबोधन के लिए है. अब आप बिना रूचि के किसी का नाम लेंगे या बेमन से किसी को पुकारेंगे तो क्या होगा यह आप जानते हैं.

आप उसे या तो  बैचेनी से पुकारते  हैं या भय से पुकारते  हैं या किसी लालच से और वह आपके भय बैचेनी और लालच की पूर्ती करता है. यदि प्रेम से पुकारंगे तो प्रेम मिलेगा. आनंद से पुकारंगे तो आनद मिलेगा और ज्ञान से पुकारंगे तो ज्ञान मिलेगा.


प्रश्न- बुद्धि पर नियंत्रण कैसे होगा?

उत्तर- बुद्धि के खेल देखो. दृष्टा होने से धीरे धीरे बुद्धि पर नियंत्रण हो जाएगा.

प्रश्न- क्या और भी उपाय हैं?

उत्तर- हाँ, सत्व गुण में रहने की आदत डालनी होगी. सत्व गुण से बुद्धि निर्मल होती जायेगी. कालान्तर में साक्षी ही होना होगा.

तेरी गीता मेरी गीता -27- बसंत


प्रश्न-  हमारे अन्दर प्रकृति के तीन गुण सत्व रज तम क्या हैं और उनका परिणाम क्या है ?
उत्तर- पहले संक्षेप में सुनिए यह संसार ज्ञानमय होते हुए भी ज्ञान की मात्रा और विक्षोभ के कारण मुख्य रूप से त्रिगुणात्मक हो गया है. यह तीन गुण हैं सत्व, रज, तम.यह तीन गुण निम्न लिखित परिणामों का प्रतिनिधत्व करते हैं.
तम - अज्ञान और मति भ्रम
रज -  क्रिया और काम
सत्त्व - ज्ञान और प्रसन्नता
आप देखिये मनुष्य जीवन की हर परिस्थिति भिन्न भिन्न मात्रा में ज्ञान, अज्ञान और काम जिसे वासना भी कहते हैं से भरी हुई है. थोड़ा विस्तार से इन्हें अज्ञान, मति भ्रम, दुःख, ज्ञान और प्रसन्नता, क्रिया, काम और क्रोध के रूप में देखा जा सकता है.कभी ज्ञान है तो कभी अज्ञान कभी दुःख है तो कभी सुख आदि.आपकी मानसिक स्थिति सदा इन गुणों के आदीं रहती है. आपके विचार इन्हीं गुणों का  प्रतिनिधत्व करते हैं.

अब इस पर विस्तार से चर्चा के लिए आपको भगवद्गीता के ज्ञान की ओर ले चलता हूँ. श्री भगवान् ने भगवद्गीता  में प्रकृति के तीन गुण सत्व रज तम पर विस्तार से चर्चा की है. श्री भगवान्  बताते हैं कि प्रकृति अर्थात ज्ञान शक्ति और क्रिया शक्ति के भिन्न भिन्न मात्रा में कार्य करने से गुण उत्पन्न होते हैं। इन्हें तीन भागों में विभाजित किया है। यह हैं सत्त्व, रज, तम।
सत्त्व में ज्ञान शक्ति अधिक होती है, रज में क्रिया शक्ति अधिक होती है और तम में ज्ञान शक्ति लगभग लुप्त होती है, क्रिया शक्ति अति अल्प होती है। यह तीनों गुण अविनाशी अव्यक्त आत्मतत्व परमात्मा को इस शरीर में मोहित कर बांधते हैं। प्रकृति के गुणों के कारण ही आत्मा में जीव भाव उत्पन्न होता है।
सत्वगुण से ज्ञान उत्पन्न होता है (विशुद्ध आत्मतत्व सतोगुण के पाश में बंधा जीवात्मा अहंकार युक्त रहता है) रजोगुण लोभ को जन्म देता है और तमोगुण से प्रमाद, मोह और मूढ़ता उत्पन्न होते हैं ।

प्रश्न- प्रकृति (माया) किस प्रकार अविनाशी आत्मा को अपने जाल में फंसाती है।

उत्तर- सतोगुण सुख और ज्ञान के माध्यम में अविनाशी आत्मा को फंसाता है अर्थात वह ज्ञान देता है और ज्ञान का अहंकार भी उत्पन्न करता है और ज्ञानी होने का अहंकार उसे मिथ्या सुख से भ्रमित कर देता है। वह सच्चे ज्ञान व सच्चे आनन्द को भूल जाता है।
रजोगुण सदा आत्मा को बहलाता है क्योंकि राग रूप रजोगुण का जन्म कामना और आसक्ति से होता है और संसार के विभिन्न रूपों की कामना उनमें आसक्ति प्राप्त होने पर बढ़ती ही जाती है। पहले थोड़ा मिला उसका सुख उठाया, फिर ज्यादा की इच्छा हुयी, आसक्ति बढ़ी, उसके लिए कार्य बढ़े (कर्म की इच्छा बढ़ी) और फल से सम्बन्ध बढ़ा, इस प्रकार देह स्थित आत्मा को जीव भाव की प्राप्ति होती है और वह जीवात्मा शरीर से बंध जाता है।
तमोगुण अज्ञान से उत्पन्न होता है, यह आत्मा को पूर्ण रूपेण भ्रम में डाल देता है, वह अपना स्वरूप पूर्णतया भूल कर जीव भाव को प्राप्त इस शरीर को ही अपना स्थान, अपना स्वरूप मान बैठती है। प्रमाद, आलस्य और नींद इस तमोगुण के हथियार हैं, इनके द्वारा मन मूढ़ बन जाता है, बुद्धि भ्रमित हो जाती है, कर्म की इच्छा नहीं होती। उसकी बुद्धि कुम्भकर्ण जैसी हो जाती है जिसने तपस्या का फल छह माह की नींद मांगी। नीद को ही वह जीवन की सर्वोत्तम निधि मानता है। इसी में आनन्द अनुभव करता है।
सतोगुण जीव में सुख का भाव उत्पन्न करता है। रजोगुण भी कामना और आसक्ति के माध्यम से सुख प्रदान करते हुए उसे अधिक-अधिक कर्म में लगाता है और तमोगुण उसके ज्ञान को ढक कर प्रमाद में लगाता है, उसे अज्ञान में सुख मिलता है। परन्तु यह सभी मिथ्या सुख क्रमशः अहंकार वश, आसक्ति वश और अज्ञान वश उत्पन्न होते हैं।
सभी जीवों में तीनों गुण भिन्न भिन्न मात्रा में होते हैं। कर्म प्रारब्ध और परिस्थिति वश गुणों की मात्रा में अन्तर भी आता है। जब देह में समस्त इन्द्रियों और मन में ज्ञान और विवेकशक्ति उत्पन्न होती है तो सतोगुण बढ़ा होता है।

प्रश्न - गुणों के प्रभाव से क्या करने की इच्छा पैदा होती है?

उत्तर- जब रजोगुण बढ़ा होता है तो उस समय लोभ और सकाम कर्म करने की इच्छा उत्पन्न होती है और जीव कर्म में लग जाता है। फिर इच्छा पूरी हुयी तो उसकी पूर्ति के लिए अधिक से अधिक कर्म और विषय भोग की लालसा भी उत्पन्न होती है और इच्छा पूरी नहीं हुयी या भोग प्राप्त नही हुए तो अशान्ति उत्पन्न होती है। तमोगुण के बढ़ने पर मन, बुद्धि में अज्ञान छा जाता है, कर्म करने की भी इच्छा नहीं होती। प्रमाद, आलस्य, निद्रा यह सब उत्पन्न होते हैं।
प्रश्न-क्या गुणों का प्रभाव मृत्यु के समय में भी काम करता है?
उत्तर- जब मनुष्य सत्वगुण की वृद्धि में मृत्यु को प्राप्त होता है अर्थात जब देह त्यागता हैं तो
सतोगुण से ‘सुकृत’ (श्रेष्ठ आचरण) का जन्म होता है परिणामतः ज्ञान और निर्मल फल की प्राप्ति होती है। रजोगुण से उत्पन्न कर्म का अन्तिम परिणाम अशान्ति और दुःख है और तमोगुण मूढ़ता को जन्म देता है।

प्रश्न- भिन्न भिन्न गुणों में स्थित पुरुष मृत्यु के बाद किस गति को प्राप्त होते हैं ?

उत्तर- सत्वगुण में स्थित पुरुष ऊर्ध्व गति को प्राप्त होते हैं अर्थात योगभ्रष्ट और विद्या विनय सम्पन्न घरों में जन्म लेता है। रजोगुण में स्थित पुरुष मध्य गति को प्राप्त होते हैं अर्थात सकामी, लोभी, सांसारिक लोगों के घर में जन्म लेते हैं और तमोगुणी पुरुष नीच गति को प्राप्त होते हैं अर्थात मूढ़ योनियों में जन्म लेते हैं।
ज्ञान में देह बुद्धि होने के कारण, श्रेष्ठ आचरण करने वाले विद्यावान और योगियों के घर में जन्म लेता है। योग भ्रष्ट पुरुष का जन्म इसी कारण होता है। रजोगुण की वृद्धि होने पर मति किसी खास कर्म अथवा उसके फल भोग आदि में होती है अतः मृत्यु के बाद वह आसक्ति वाले रजोगुणी परिवार में जन्म लेता है और तमोगुण के बढ़ने पर जब मृत्यु होती है तो घोर तमस (अज्ञान) के कारण मति मूढ़ हो जाती है अतः अगला जन्म मूढ़ योनियों में होता है।

प्रश्न- इन तीन गुणों को कम और अधिक कैसे किया जा सकता है.
उत्तर- रज और तम को दबा दिया जाय तो सतोगुण बढ़ता है। सतोगुण और तमोगुण को दबा कर रजोगुण बढ़ता है तथा सत्त्व और रज को दबाकर तमोगुण बढ़ता है।

प्रश्न-क्या इन तीन गुणों और उसके परिणामो को देखकर अलग रहा जा सकता है.

उत्तर- जिस समय मनुष्य दृष्टा भाव से स्थित रहता है और सत्त्व, रज, तम इन तीन गुणों को कर्ता देखता है, उस समय साक्षी भाव से कर्मों के कर्तापन से निर्लिप्त अर्थात अहंकार से मुक्त होकर परम स्थिति को तत्व से जानता है।

प्रश्न- उस समय गुणों और उसके परिणामो अलग पुरुष की स्थिति क्या होती है?

उत्तर- उस समय इस शरीर की उत्पत्ति के कारण इन तीनों गुणों का; साक्षी भाव से स्थित पुरुष, तत्व को जानते हुए उल्लंघन कर जाता है और जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था सब उसके लिए खेल हो जाते हैं। देह उसके लिए सांप की केंचुली के समान हो जाता है। अतः देह भाव से निर्लिप्त वह मेरे स्वरूप (आत्म तत्त्व) को प्राप्त होता है।
आत्म स्वरूप में स्थित, सदा साक्षी भाव से देखता हुआ सतोगुण रूपी ज्ञान और उसके अहंकार, रजोगुण की कार्य प्रवृत्ति और तमोगुण के भ्रम व मूढ़ता भाव यदि आते हैं तो उनमें यदि प्रवृत्त होता है तो बिना किसी आसक्ति और द्वेष के और यदि उन त्रिगुण भावों से अलग होता है तो उनकी कोई कामना नहीं करता क्योंकि उसे कर्म का अथवा अपने गुणों का कोई अभिमान नहीं होता, वह समुद्र के जल की तरह स्थित रहता है।
वह उदासीनवत् अर्थात सुख-दुःख, हानि-लाभ में समान रहता हुआ किसी भी गुण से विचलित नहीं किया जाता है क्योंकि वह जानता है कि प्रकृति के गुण ही, गुण और कर्म का कारण हैं, वह यह जानकर गुणों के खेल को देखता रहता है। जिस प्रकार आकाश, वायु से प्रभावित नहीं होता उसी प्रकार वह आत्मरत पुरुष गुणों से प्रभावित नहीं होता और सदा आत्म स्थित रहता है और इस परम स्थिति से कभी भी विचलित नहीं होता।
वह पुरुष सम्पूर्ण जगत को ब्रह्ममय देखता है इसलिए वह सुख और दुःख को समान समझता है। उसके लिए मिट्टी पत्थर सब एक समान हो जाते है, प्रिय अप्रिय कोई नहीं रहता। सदा समभाव में स्थित रहता है। कोई उसकी निन्दा करे अथवा स्तुति उसे कोई फर्क नहीं पड़ता है। उसकी बुद्धि सदा आत्म स्थित रहती है।
कोई उस व्यक्ति का अपमान करे, अपशब्द कहे अथवा उसकी महात्मा, ज्ञानी, ईश्वर समझकर पूजा करे, वह दोनों स्थितियों में सम रहता है। मित्र और वैरी उसके लिए समान हैं, दोनों में वह आत्म स्वरूप को देखता है शरीर में स्थित गुणों के कार्यों को देखकर मुस्कुराता है। उसकी अहं बुद्धि समाप्त हो जाती है अतः कर्तापन के भाव से रहित है। सदा साक्षी भाव से स्थित रहता हुआ तीनों गुणों का उल्लंघन कर जाता है।
वह न भटकने वाली बुद्धि से परमात्मा में एकत्व रखता है, सदा आत्मतत्व में रत रहता है, स्वरूप, अनुभूति में निमग्न रहता है, वह तीन गुणों के प्रभाव से मुक्त हो जाता है। वह भुना हुआ बीज हो जाता है जिससे अंकुर नहीं फूटता है। इसी प्रकार उसके अन्दर अहं और आसक्ति का भाव कभी नहीं आता है। इस प्रकार परमात्मा से एकत्व रखने वाला पुरुष उसी परमतत्व, परमगति को प्राप्त होता है।

Monday, March 4, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - 26- बसंत


प्रश्न- आप कहते हैं कि अपराधी बुद्धि बनाती है और जीवन के बाद यह बुद्धि बीज रूप में ज्ञान में समाहित हो जाती है और जीवात्मा का कारण बनती है. इसी के कारण जीव कर्म करने और फल भोगने के लिए विवश है.तो क्या संसार से अपराध अथवा बुराई कम नहीं होंगे.

उत्तर - जो कुछ इस संसार में हो रहा है सब प्रकृति का खेल है यही जीव देह में बुद्धि के रूप में विराजमान है. अब जैसी प्रकृति वैसा खेल इसलिए अच्छा बुरा संसार में पहले भी था, आज भी है और कल भी रहेगा. किसी अपराधी को जब तक अपने अन्दर से किये कर्म के लिए स्वाभाविक प्रायश्चित न हो तब तक उसकी बुद्धि नहीं बदल सकती.इसलिए ज्यादातर बुरा मनुष्य तामसिक और राजसी बुद्धि के साथ जन्मता है और अच्छा व्यक्ति अधिक सात्विक बुद्धि लेकर जन्मता है. हम संसार में अधिक से अधिक किसी व्यक्ति की देह को सजा या अन्य तरीके से नष्ट कर सकते हैं पर उसकी प्रकृति जो  बीज रूप में ज्ञान में समाहित हो जाती है और जीवात्मा का कारण बनती है. इसी के कारण मनुष्य अच्छा बुरा कर्म करने  लिए विवश है. पोराणिक कथा साहित्य  बताता है कि हिरन्यकश्यप और हिरणाक्ष ही अगले जन्म में रावण और कुम्भकर्ण हुए आदि. जो राजस और तामसिक प्रकृति की ओर बड़ता है वह अधिक बुराई की ओर बड़ता जाता है. इसी प्रकार सात्विक प्रकृति के लोग श्रेष्टता के ओर बड़ते जाते हैं. इसलिए संसार में सदा बुरी से बुरी प्रकृति के लोग और अच्छी से अच्छी प्रकृति के लोग  मिल जायेंगे.
जहाँ तक क्या संसार से अपराध अथवा बुराई कम होने का प्रश्न है केवल रजोगुणी प्रकृति पर अंकुश लगाकर और सद्व्यवहार से दूसरे की प्रकृति को बदल कर ही तात्कालिक रूप से रोका जा सकता है.

प्रश्न -  व्यक्ति को बुद्धि भ्रम कैसे होता है?
उत्तर - तमोगुणी बुद्धि के कारण उसका विवेक नष्ट हो जाता है, व्यक्ति यह सोचने लगता है कि जो मैं कर रहा हूँ वह सही है. दवाई उसे जहर दिखाई देती है और जहर उसे दवाई. बुद्धि में अन्धकार छा जाने के कारण उसे नहीं सूझता है कि वह क्या कर रहा है. इसी कारण कभी कभी लोगों को आती हुई रेल गाड़ी नहीं दिखाई देती और वह कट कर मर जाते हैं.

प्रश्न -  व्यक्ति समाज के लिए खतरा कैसे हो जाता है?
उत्तर - तमोगुणी बुद्धि के साथ जब घोर रजोगुणी बुद्धि का संयोग होता है तो अभिमान करने वाली बुद्धि जन्म लेती है.यह सोचता है कि वह सर्व श्रेष्ठ है इस अहंकार और अज्ञान (तमोगुण) के कारण वह व्यक्ति समाज के लिए खतरा हो जाता है

Sunday, March 3, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - 25 - बसंत



प्रश्न- यह प्रकृति हमारे अन्दर किस रूप में रहती है और क्या क्या करती अथवा कर सकती है. इसकी महत्ता क्या है? क्या प्रकृति से परमात्मा को जान सकते हैं?

उत्तर- केनोपनिषद के तीसरे और चौथे खंड में एक रोचक कथा कही गयी है.  देवासुर संग्राम में असुरों पर देवताओं  द्वारा विजय प्राप्त करने के पश्चात देवता अभिमान वश उसे अपनी विजय मानने लगे तब देवताओं के सामने एक यक्ष प्रकट हुआ. वार्तालाप के पश्चात यक्ष ने एक सूखा तिनका डाल दिया. अग्नि देव उस तिनके को सारी ताकत लगाकर जला नहीं पाये. वायु देव उड़ा नहीं सके. फिर देवराज इन्द्र वहाँ पहुंचे. उनके पहुँचते ही यक्ष अन्तर्धान हो गया. इन्द्र वहीं खड़े रहे. यक्ष के स्थान पर भगवती उमा प्रगट हुयीं. तब इन्द्र के पूछने पर भगवती उमा ने बताया.
परमात्मा यक्ष रूप धारण करके आये थे. उन्होंने तुम्हें अहसास कराया कि इस संसार में जिस किसी में जितना भी बल, विभूति है वह उन परमात्मा का तेज है. अग्नि, वायु, इन्द्र आदि की जो भी शक्ति है वह उनके कारण ही है.
उनके बिना अग्नि  देव अपनी पूरी शक्ति लगाने पर भी एक सूखे तिनके को नहीं जला सके. वायु देव उस सूखे तिनके को उड़ा न सके.
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है, परमात्मा का बोध ज्ञान शक्ति द्वारा ही हो सकता है. यही भगवती उमा हैं.
इन्द्र देवताओं के राजा है अर्थात  सभी ज्ञानेन्द्रियों के ज्ञान का प्रतीक इंद्र देव हैं. यह ज्ञानेन्द्रियों का ज्ञान जब मूल प्रकृति शुद्ध बुद्धि भगवती उमा के दर्शन करता है तब परमात्मा को जान पाता है. उससे पहले सभी ज्ञानेन्द्रियों के ज्ञान  से भी परमात्मा को नहीं जाना जा सकता है. सभी ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा बुद्धि को देखना पड़ता है यही भगवती उमा के दर्शन हैं. यही साक्षी होने की क्रिया और परिणाम  है.
मनुष्य में यह ज्ञान शक्ति बुद्धि के रूप में विराजमान है. यह बुद्धि ही त्रिगुणात्मक प्रकृति है. मनुष्य की बुद्धि जैसा निश्चय कर लेती है मनुष्य वैसा हो जाता है. अपनी बुद्धि के निश्चय से वह देव, दानव, राक्षस, असुर, पिशाच, सिद्ध ज्ञानी, ध्यानी, कामी , भोगी, अपराधी, आतंकी, नेता,अभिनेता, साधू, महात्मा, संत आदि कुछ भी हो सकता है. जैसी बुद्धि होती है वैसा मनुष्य आचरण करता है. बुद्धि  सात्विक, राजस और तामसिक  अथवा इन के मिले जुले होने और मात्रा के प्रभाव से भिन्न भिन्न व्यक्तियों का भिन्न भिन्न आचरण होता है. इसलिए सदबुद्धी, कुबुद्धि, निर्बुद्धि, पर बुद्धि, शुद्ध बुद्धि आदि शब्द प्रयोग में लाये जाते हैं.
एक सत्य घटना आपको बताता हूँ. एक व्यक्ति को बुद्धि भ्रम हो गया कि जो बुद्धिमान हैं उनके दिमाग का सूप पीकर वह दुनिया का परम बुद्धिमान बन सकता है. इस मतिभ्रम के कारण उसने कई बुद्धिमान लोगों की ह्त्या की और उनके दिमाग का सूप पी गया और अपराधी बन गया. घोर तमस के कारण उसकी बुद्धि में भ्रम पैदा हो गया, उसका विवेक समाप्त हो गया और जघन्य अपराधी बन गया. प्रश्न उपस्थित होता है कि उसे अपराधी किसने बनाया तो उत्तर सरल है बुद्धि ने.
बुद्ध को बोध हुआ बुद्धि के कारण और अंगुलिमाल अंगुली काटता था बुद्धि के कारण.
आयंसटीन, डॉ वास्टन, विवेकानंद ,महात्मा गांधी,  हिटलर, मैं और आप, अच्छा बुरा सब बुद्धि का परिणाम हैं .
जिस प्रकार तामसी और राजसी बुद्धि मनुष्य को दुष्कर्म की और ले जाती है उसी प्रकार सात्विक बुद्धि के द्वारा मनुष्य जीव मात्र का भला करता है और बोध को प्राप्त होता है. इसी कारण भगवद्गीता में श्री भगवान द्वारा बुद्धि योग को ही अंतिम और एकमात्र उपाय बताया है. यहाँ यह भी जान लें कि कोई भी कर्म बिना बुद्धि के नहीं हो सकता है अतः कर्म योग भी बुद्धि योग ही है.
प्रकृति  जीवित मनुष्य में आठ प्रकार से विराजमान है. यह आठ प्रकार अहंकार,मन,  बुद्धि,  आकाश, वायु , अग्नि, जल, पृथ्वी हैं. अहंकार, मन और बुद्धि, यह तीनों बुद्धि के रूप हैं. आकाश से पृथ्वी तत्त्व क्रमशः जड़ होते जाते है. अहंकार अभिमान करने वाली बुद्धि है, मन संशय करने वाली बुद्धि है और बुद्धि का अर्थ है जो यथार्थ का ज्ञान करा दे अर्थात दूध का दूध और पानी का पानी कर दे.
अब मूल बात यह है-
१- हम पृथ्वी और जल तत्त्व से परमात्मा को नहीं जान सकते.
२- हम अग्नि और वायु और आकाश तत्त्व से भी परमात्मा को नहीं जान सकते.
३- केवल बुद्धि द्वारा ही परमात्मा को को जाना जा सकता है.
४.अभिमान करने वाली बुद्धि  देव, दानव, राक्षस, असुर, पिशाच, सिद्ध ज्ञानी, ध्यानी, कामी , भोगी, अपराधी, आतंकी, नेता,अभिनेता, साधू, महात्मा बना सकती है पर इससे परमात्मा को नहीं जान सकते.
५-संशय करने वाली बुद्धि को कभी भी यथार्थ का ज्ञान नहीं करा सकती अतः इससे परमात्मा को नहीं जान सकते.
६-बुद्धि का अर्थ है जो यथार्थ का ज्ञान करा दे इसलिए परमात्मा को जाना जा सकता है. इस बुद्धि को ही लोग शुद्ध बुद्धि ,प्रज्ञा, ऋतम्भरा कहते हैं. यही भगवती उमा हैं,  यही प्रकृति की मूल अवस्था है, जिन के द्वारा इन्द्र को बताया गया. जैसा ऊपर कथा में  यक्ष का रूप धारी ही परम चेतन्य परमात्मा हैं जिनका  बल सब  देव, दानव, राक्षस, असुर, पिशाच, सिद्ध ज्ञानी, ध्यानी, कामी , भोगी, अपराधी, आतंकी, नेता,अभिनेता, साधू, महात्मा में है.
अब आप सभी समझ गए होंगे की आपकी बुद्धि ही आपका स्वभाव है, आपकी प्रकृति है और यह जैसी होगी वैसे आप होंगे. इसी प्रकार जैसा और जितना द्रड़ निश्चय आपकी बुद्धि का होगा उतना और वैसा परिणाम आपको प्राप्त होगा. यदि निश्चय पूर्ण है तो परम चेतन्य परमात्मा का लाभ आपको प्राप्त होगा.
यहाँ यह भी जान लीजिये की यह बुद्धि तभी तक आपके लिए है जब तक जीवन है. जीवन के बाद यह बुद्धि बीज रूप में ज्ञान में समाहित हो जाती है और जीवात्मा का कारण बनती है. इसी के कारण जीव कर्म करने और फल भोगने के लिए विवश है. जीवित अवस्था में ही  ही बुद्धि द्वारा चेतन्य और जड़ चेतन के कारण को जाना जा सकता है.
ॐ तत् सत्

BHAGAVAD-GITA FOR KIDS

    Bhagavad Gita   1.    The Bhagavad Gita is an ancient Hindu scripture that is over 5,000 years old. 2.    It is a dialogue between Lord ...