Sunday, April 28, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - तत्त्व ज्ञान- 67 - बसंत



प्रश्न- मृत्यु क्या है?
उत्तर- जीव और जड़ प्रकृति का अलग हो जाना मृत्यु है.

प्रश्न- जीवन क्या है?
उत्तर- जीव और जड़ प्रकृति का संयोग जीवन है.

प्रश्न- बुद्धि क्या है?
उत्तर- आत्मा की निश्चयात्मक अवस्था अवस्था बुद्धि है. निश्चयात्मक  ज्ञान बुद्धि है. यह वह ज्ञान है जो आत्मा और जीवात्मा के बीच रहता है. यह जड़ प्रकृति कही जाती है.

प्रश्न- अहंकार क्या है?
उत्तर- आत्मा की अस्मिता प्रतीति अहंकार है.

प्रश्न- मन क्या है?
आत्मा की चंचल अवस्था मन है. संशयात्मक ज्ञान मन है. यह वह ज्ञान है जो जीवात्मा और इन्द्रियों के बीच रहता है. यह जड़ प्रकृति कही जाती है.

प्रश्न- शरीर क्या है?
उत्तर- आत्मा की जड़ अवस्था शरीर है. यह प्रकृति विकृति का समूह कहा गयाहै.

प्रश्न- प्राण क्या है?
आत्मा में स्फुरण से कर्म को गति प्रदान करने वाली ऊर्जा जो जड़ चेतन के संयोग होने पर उत्पन्न होती है, प्राण है.

उत्तर- धृति क्या है?
आत्मा की जड़ शक्ति जिसके द्वारा जड़ प्रकृति के तत्त्व जुड़े होते हैं

प्रश्न- चेतना क्या है?
आत्मा के संयोग से प्राणयुक्त शरीर में  उत्पन्न जड़ शक्ति जिसके द्वारा जड़ प्रकृति के तत्त्व सर्दी गर्मी, पीड़ा, स्वाद आदि संवेदना महसूस करते हैं.

प्रश्न- संघात क्या है.
आत्मा की जड़ शक्ति जिसके द्वारा जड़ प्रकृति देह के विस्तार को प्राप्त होती है. इसे स्थूल देह का पिंड भी कहते हैं.

प्रश्न- यथार्थ ज्ञान जिसे बोध कहा है क्या है?
जीव और जड़ प्रकृति का अलग होते हुए देखना . यह वह ज्ञान है जिसका वैज्ञानिक आधार हो अर्थात जो आपके द्वारा प्रयोग से सिद्ध किया गया हो.
कोइ भी ग्रन्थ, उपदेशक, गुरु का दिया ज्ञान आपके लिए मात्र  विद्या है. उस विद्या को जब आप अपने में प्रयोग कर अनुभूत करते हैं तो वह आपका बोध हो जाता है.

प्रश्न- यदि हम अपने को पदार्थ मान लें. परमाणुओं का समूह मान लें तो क्या हानि है?
उत्तर- आप  परमाणुओं का समूह तो हैं पर आपके पदार्थ के परमाणु विशुद्ध ज्ञान के परमाणुओं से निर्मित हैं. विशुद्ध ज्ञान मूल कारण है.आपके द्वारा मात्र पदार्थ को मूल कारण मान लेने से चेतन्य अथवा ज्ञान  की नित्य स्थिति प्रमाणित नहीं होगी.

प्रश्न- आत्मा और जीवात्मा का भेद क्या है?
आत्मा जब जड़  प्रकृति को अपनाकर स्वीकार कर लेता है तो वह सीमित होकर जीवात्मा कहलाता है.

Saturday, April 27, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - 66 -बसंत



प्रश्न- कर्म क्या हैं?
उत्तर- अव्यक्त आत्मा में बिना किसी कर्ता के प्रत्यक्ष रूप से दिखाई पड़ने वाले आकार, उत्पन्न करने का जो कार्य चलता जा  रहा है उसे कर्म कहते हैं. इसी प्रकार जो प्राणियों के भावों को उत्पन्न करे वह कर्म है.
भगवद्गीता कहती है-
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः ।3-8।

प्रश्न- अधिभूत क्या है?
उत्तर- जितने भी नाशवान पदार्थ हैं वह अधिभूत हैं जैसे पृथ्वी,जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और  अहंकार.

प्रश्न- अधिदेव क्या है?
उत्तर- जीवात्मा अधिदेव  है

प्रश्न- जीवात्मा क्या है?
उत्तर- आत्मा का कर्ता, भोक्ता भाव उसे सीमित कर देता है और असीम आत्मा सीमा बद्ध हो जाता है तब वह जीवात्मा कहलाता है.

प्रश्न- अधियज्ञ क्या है?
उत्तर- विशुद्ध आत्मा जिसे परमात्मा कहते हैं अधियज्ञ है. शैव इसे ही पूर्ण शुद्धावस्था में शिव कहते हैं. वैष्णव इसे  पूर्ण शुद्धावस्था में विष्णु कहते हैं.शाक्त इस अवस्था को दुर्गा कहते हैं.
विशेष- श्री कृष्ण, श्री राम विशुद्ध आत्मा का व्यक्त स्वरुप हैं. यह पूर्ण  विशुद्ध ज्ञान की व्यक्त अवस्था है. व्यक्त अव्यक्त दोनों जिसमें समाहित हैं.

प्रश्न- अध्यात्म क्या है?
ब्रह्म स्वभाव अध्यात्म नाम से जाना जाता है.  ब्रह्म की परा और अपरा प्रकृति ही उसका स्वभाव है.    ब्रह्म का शुद्ध एक अंश ब्रह्मा जी हैं. इस एक अंश परा और अपरा प्रकृति की भिन्न भिन्न मात्रा का मिश्रण सृष्टि है. भगवद्गीता में श्री कृष्ण कहते हैं-
स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते ।3-8

प्रश्न- क्षेत्र क्या है?
उत्तर- यह शरीर क्षेत्र है.

प्रश्न- क्षेत्रज्ञ क्या है?
उत्तर- जो यह जानता है कि वह इस शरीर का स्वामी है. शरीर का स्वामी जीवात्मा कहा गया है.

प्रश्न- यह क्षेत्र जीवन युक्त और क्रियाशील कैसे होता है?
उत्तर- पाँच महाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश), अहंकार, बुद्धि, अव्यक्त त्रिगुणात्मक प्रकृति, इन्द्रियां (कान, नाक, आंख, मुख, त्वचा, हाथ, पांव, गुदा, लिंग, वाक), मन, इन्द्रियों की पाचं तन्मात्राएं (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध), इन्द्रियों के विषय (इच्छा द्वेष, सुख-दुःख, जो अनेक प्रकार के गुण दोष उत्पन्न कर देते हैं), स्थूल देह का पिण्ड और चेतना (जो महसूस कराती है, इसको संवेदना भी कह सकते हैं; आत्मा की इस शरीर में जो सत्ता है उसके परिणामस्वरूप देह की महसूस करने की शक्ति; जैसे जहाँ अग्नि होती है वहाँ उसकी गर्मी, उसी प्रकार जहाँ आत्मा है वहाँ चैतन्य है। जैसे सूर्य और उसकी आभा है इसी प्रकार आत्मा और आत्मा की सत्ता का प्रभाव यह देह चेतना है। यह सम्पूर्ण शरीर में बाल से लेकर नाखून तक जाग्रत रहती है)। धृति (पंच भूतों की आपस की मित्रता ही धैर्य है)। जैसे जल और मिट्टी का बैर है पर वह इस शरीर में मित्रवत सम्बन्ध बनाते हुए रहते हैं इस प्रकार जल और अग्नि, वायु और अग्नि आदि। जब यह 36 तत्व एक साथ मिल जाते हैं तो क्षेत्र का जन्म होता है।
श्री भगवान सुस्पष्ट करते हैं - “यथा प्रकाशयत्येकः कृत्सनं लोकमिमं रविः क्षेत्र क्षेत्री तथा कृत्सनं प्रकाशयति भारतः” जिस प्रकार एक सूर्य इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करता है उसी प्रकार एक आत्मा सम्पूर्ण क्षेत्र को प्रकाशित अर्थात ज्ञान और क्रिया शक्ति से युक्त कर देता है। यह 36 तत्व पुरुष (क्षेत्रज्ञ) के कारण एक स्थान में इकट्ठा हो जाते हैं और क्रियाशील हो जाते हैं.

Wednesday, April 24, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - 65 - बसंत



प्रश्न- ब्रह्म और ब्रह्मा जी में क्या अंतर है?
उत्तर- ब्रह्म आत्मा का अव्यक्त स्वरुप है. यही परमात्मतत्त्व है. ब्रह्माजी ब्रह्म की रजोगुणी शक्ति हैं जिससे सृष्टि का जन्म होता है.

प्रश्न- कुछ कहते हैं विष्णु ही पर ब्रह्म हैं, कुछ कहते हैं शिव पर ब्रह्म हैं और कोई आदि शक्ति जिसे दुर्गा या  अन्य नामों से कहा गया है वह पर ब्रह्म है. यह सब क्या है?
उत्तर- यह सब लोगों के मन का झगड़ा है. शैव शिव को पर ब्रह्म कहते हैं, शाक्त आदि शक्ति को पर ब्रह्म कहते हैं, वैष्णव श्री हरि विष्णु को को पर ब्रह्म कहते हैं, जैन अरिहंत कहते हैं, सिक्ख वाहे गुरु कहते हैं ज्ञानी आत्मा कहता है, ब्रह्म कहता है, बोध कहता है, ॐ कहता है.यथार्थ एक ही है वह सत है, ऋत है और वह ज्ञान की पूर्ण शुद्ध अवस्था है और वह तेरी आत्मा है.

प्रश्न- श्री राम और कृष्ण क्या हैं.
उत्तर- यह अवतारी पुरुष हैं. इनमें जन्म से शुद्ध पूर्ण बोध था इसी कारण जन्म से सम्पूर्ण दिव्यताओं से युक्त थे. यह आत्मा की अभिव्यक्ति की पूर्णावस्था है.

प्रश्न- पुराणों की कथा क्या है?
उत्तर- - पुराणों की कथा प्रतीकात्मक है. यह शुभ और अशुभ के साथ शुभ अशुभ से परे तत्त्व को समझाती है. शुभ और अशुभ सृष्टि के लिए आवश्यक हैं और यह सदा रहेंगे.अशुभ शुभ को दबाता है और शुभ अशुभ को. सृष्टि में यह संघर्ष  सदा चलते आया है और चलते रहेगा. कार्बन साइकिल की तरह यह सतत प्रक्रिया है. कथा के माध्यम से पुराणों में अथवा अन्यत्र  इसी बात को तरह तरह से समझाया है.

प्रश्न- आप आत्म ज्ञान के लिए सबसे सरल और उत्तम ग्रन्थ किसे मानते हैं.
उत्तर - भगवद्गीता.
इस विषय में गीता प्रेस गोरखपुर की भगवद्गीता जिसमें शब्द और अर्थ हो केवल उसका अध्ययन करें. टीका और भाष्य के अध्ययन से आपकी सोच प्रभावित होगी.शब्द और अर्थ के माध्यम से अपना चिंतन विकसित करें.
परन्तु यदि वास्तव में भगवद्गीता को उचित रूप में समझना है तो बसंतेश्वरी भगवद्गीता, आत्मगीता अथवा ज्ञानेश्वरी भगवद्गीता को देखें. तीनों इन्टरनेट में उपलब्ध हैं. ज्ञानेश्वरी में विस्तार है.

प्रश्न- वैराग्य के लिए किस ग्रन्थ का अध्ययन करें.
उत्तर- अष्टावक्र गीता.

प्रश्न- तत्त्व ज्ञान की कोइ अन्य पुस्तक?
उत्तर -विवेकचूडामणि -आदि शकराचार्य

प्रश्न- कोइ अन्य सरल सदग्रंथ?
उत्तर- केवल नानक देव जी की वाणी. ओशो की लिखी एक ओंकार सतनाम पुस्तक नानक देव जी की वाणी का अति सुन्दर प्रस्तुतीकरण है.
आप इससे कदापि यह न लगा लें की अन्य ग्रंथों को नहीं पढ़ना है. महात्मा कबीर की कुछ वाणी अति सरल है तो वह कहीं अति जटिल हो जाती है. निर्णय स्वयं आपने लेना है. उपरोक्त उत्तर के रूप में बताये हुए ग्रन्थ बहुत संक्षेप में सब कह देते हैं.

प्रश्न- सबसे सुन्दर बात.
उत्तर- एक ओंकार सत नाम. वह तू है वह मैं हूँ.
तू नित्य है शुद्ध है मुक्त है.
(यह भगवद्गीता, विवेक चूड़ामणि, ग्रन्थसाहब, महावीर वाणी और सभी सद्ग्रंथों का सार है.)

तेरी गीता मेरी गीता - त्रिदेव - 64 - बसंत

प्रश्न - कृपया त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु, शिव-शंकर के बारे में बतायें?

उत्तर- आत्म तत्त्व अव्यक्त है वह मुख्यतया तीन रूपों में व्यक्त होता है, सत्व, रज और तम.
रज से जन्म होता है इस स्थिति में आत्मा को ब्रह्मा जी कहते हैं. तम से जड़त्व प्राप्त होता है, मृत्यु होती है. आत्मा की इस तमस स्थिति को शिव शंकर या महादेव कहते हैं. जब स्थिति है, जीवन है तो आत्मा की सत्वमयी स्थिति विष्णु या नारायण कही जाती है. इसी कारण त्रिदेव सदा अभेद हैं. यहाँ गुणों की शुद्धावस्था है इसलिए यह मायामुक्त हैं. अज्ञानीजन इनमें भेद करते हैं. वास्तव में यह त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु, महादेव अव्यक्त आत्मा का व्यक्त रूप हैं.

सृष्‍टि‍स्‍थि‍त्‍यन्‍त करणीं ब्रह्मवि‍ष्‍णुशि‍वात्‍मि‍काम्.
स संज्ञां याति‍ भगवानेक एव जनार्दन:वि‍ष्‍णु पुराण 1-2-66-विष्णुपुराण

एक ही भगवान जो जनार्दन हैं, जगत की आत्मा हैं वह जगत् की सृष्‍टि‍, स्‍थि‍ति‍ और संहार के लि‍ए ब्रह्मा, वि‍ष्‍णु और शि‍व  इन तीन अवस्थाओं को धारण करते हैं.
दत्तात्रेय ने यही विश्व को बताया, उनके तीन मुख इस त्रिदेव तत्व को ही बताते हैं. .

श्‍वेताश्‍वतरोपनि‍षद् में ऋषि कहते हैं

एको देव: सर्वभूतेषु गूढ़:
सर्वव्‍यापी सर्वभूतान्‍तरात्‍मा
कर्माध्‍यक्ष: सर्वभूताधि‍वास:
साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्‍च.

वह एक देव समस्‍त प्राणि‍यों में स्‍थि‍त है, वह सर्वव्यापी, समस्‍त भूतों का आत्मा, कर्मों का अधि‍ष्‍ठाता, समस्‍त प्राणि‍यों में बसा हुआ, सबका साक्षी, सबको चेतन्य प्रदान करने वाला, पूर्ण शुद्ध और निर्गुण है.
इनकी अव्यक्त स्थिति आत्मा कहलाती है. यह आत्मा ही परमात्मा है, ब्रह्म है.

प्रश्न - त्रिदेव के अलावा अन्य देवता क्या हैं?
उत्तर- सत्व, रज और तम की भिन्न भिन्न मात्रा में मिलने से उत्पन्न शुभता और दिव्यता देवता हैं. इनमें सत्व अधिक होता है.

प्रश्न - असुर  क्या हैं?
उत्तर- सत्व, रज और तम की भिन्न भिन्न मात्रा में मिलने से उत्पन्न अशुभता, मलीनता असुर हैं. इन्हीं को दानव, दैत्य, राक्षस कहा गया है. इनमें अधिक तमोगुण के साथ रज अधिक होता है.
यही नहीं संसार के प्रत्येक जीव में सत्व, रज और तम की भिन्न भिन्न मात्रा होती है. और इन गुणों की भिन्न भिन्न मात्रा के अनुसार मनुष्य,पशु, पक्षी, कीट आदि अनेक योनियाँ हैं.

Tuesday, April 23, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - गुरु - 63 - बसंत



प्रश्न- गुरु के विषय में विस्तार से बताने का कष्ट करें.

उत्तर- गुरु के विषय में जानना है तो अर्जुन बनना होगा, जो श्री कृष्ण से साफ साफ कह देता है की मैं तुम्हारी बात पर कैसे विशवास करूँ? राम कृष्ण परमहंस बनना होगा जो तोतापुरी महाराज से कहते हैं तुम मेरे गुरु नहीं हो. मैं कैसे तुम पर विशवास करूँ. विवेकानंद होना होगा जिनके लिए रामकृष्ण परमहंस सनकी थे. वह भिन्न भिन्न तरीके से रामकृष्ण की परिक्षा लेते थे.
दूसरे के प्रति संशयात्मक ज्ञान नष्ट होने पर ही श्रद्धा और समर्पण का जन्म होता है. इसलिए गुरु को खूब ठोक बजा कर जांच लो तब गुरु बनाओ जिससे तुम्हारी श्रद्धा न डिगे.
सही में गुरु बनाने की कोई जरूरत नहीं है. जिसको तुम गुरु बनाओगे वह तुम्हारी बुद्धि का परिणाम होगा और जीवन की वास्तविकता को जानने के लिए वह व्यक्ति चाहिए जो जिसने जीवन का तत्त्व पा लिया हो.
वास्तव में गुरु तुम्हारी आत्मा है और जब तुम्हें उसकी आवश्यकता होगी वह किसी न किसी रूप में तुम्हारे पास आयेगा क्योकि तुम्हारी आत्मा सृष्टि का नियंता है. वह जानता है तुम्हें कब किस वस्तु की जरूरत है.
अब बोर्ड लगा है जगत गुरु, विश्व गुरु, H.H Guru. भगवान् ...आदि. तुम सब दुकानों में घूमने जरूर जाओ पर खरीदने से पहले मोल भाव अवश्य कर लेना. इस गुरुडम को रोकने के लिए गुरु गोविन्द सिंह ने आगे गुरु होने पर रोक लगा दी थी. ग्रन्थ साहिब को ही गुरु का स्थान दिया.पर उसके बाद भी सिक्खों में अनेक गुरु हो गए.
मनुष्य सुविधा भोगी है इसलिए हर व्यक्ति को कुछ पैसा या फूल फल चडाकर स्वर्ग में जगह चाहिए. इसी भय को सब जगत गुरु भुना रहे हैं. एक शिष्य को अपने गुरु से यह कहते सुना कि तुम्हारी पूंछ हमने पकड़ ली है अब आप के साथ हमारी भी मुक्ति हो जायेगी. देखा देखी से जिस प्रकार एक मनुष्य का सोने का कलश बालू के अनेक शिवलिंग बनने से गुम हो गया था उसी प्रकार छले मत जाना.
गुरु शब्द का प्रयोग आत्मा और परमात्मा के लिए किया जाता है. बोध प्राप्त व्यक्ति अपनी आत्मा में सम्पूर्ण सृष्टि को देखता है, वह अपने में ही दूसरे बोध प्राप्त व्यक्ति को देखता है. वह देखता है मेरे अलावा दूसरा कोई नहीं है. इस अवस्था में वह गुरु कहलाता है.
तुम स्वयं अपने मित्र हो स्वयं अपने शत्रु हो. किसी से कुछ सीखने में कोई बुराई नहीं है, शिक्षक कोई भी हो सकता है पर गुरु जो सबसे भारी है सबसे बड़ा है सबसे श्रेठ है वह तुम्हारी आत्मा है, परमात्मा है वह तुम हो, बस अस्मिता की प्रतीति से मुक्त हो जाओ.

Monday, April 22, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - अमृत - 62- बसंत



प्रश्न - अमृत के विषय में आपका क्या कहना है? क्या अमृत होता है?

उत्तर- अमृत का अर्थ है नहीं मरना.
अ का अर्थ है नहीं मृत का अर्थ है मुर्दा इसलिए अमृत वह है जिसे पाकर प्राणी न मरे.
पुराण में कथा है सागर मंथन से अमृत कुम्भ निकला जिसने उसे पीया वह अमर हो गया. इस प्रतीकात्मक कहानी को लेकर अमृत के विषय में यह धारणा बन गयी कि अमृत कोई द्रव्य है जिसे पीकर अमरत्व पाया जा सकता है.
भगवद गीता, वेदान्त पूर्णतया स्पष्ट करता है कि विशुद्ध ज्ञान ही अमृत है जिसे पाकर अमरत्व प्राप्त होता है अर्थात आत्म तत्त्व अथवा बोध ही अमृत है. आत्म तत्त्व को पाकर मनुष्य अपना नियंता हो जाता है. वह देह से बाहर भीतर अपने को देखता है.अब आप स्वयं विचार कीजिये कि जो अपनी मृत्यु का भी दृष्टा है, जो देह के बाहर है उसे कैसे मारा जा सकता है. यह अमृत आपके अन्दर है
तेत्तिरीय उपनिषद के चतुर्थ अनुवाक में ऋषि कहते हैं
अमृतस्य देव धारणो भूयासम
अमृतमय परमात्मा को धारण करने वाला बनूँ
इसी प्रकार-
रसो वै सः२-७- तैत्तिरीयोपनिषद्   वह ज्ञान रूप परमात्मा सभी रसो का परम आनंद अमृत है..

रस को पाकर जीव यह
होता परमानन्द
आनंद आकाश नहिं होत यदि
को जीवे कोऊ रक्ष प्राण
जो सबको आनंद दे
रस स्वरूप आनन्द.२-७- तैत्तिरीयोपनिषद्

विज्ञानमानन्दं ब्रह्म.३-९-२८-वृह उपनिषद

इसी प्रकार श्री भगवान् भगवद्गीता में कहते हैं-

यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ।१५-2।भगवद्गीता

अमृत तत्व पाता वही सुख दुख रहे समान
विषय न जेहि व्याकुल करे, पुरुष श्रेष्ठ तू जान।। 15-2।।बसंतेश्वरी

जो पुरुष विषयों के आधीन नहीं होता है, सुख और दुःख में जो समान रहता है वह अमृत तत्व के योग्य होता है। उसका चित्त पूर्णतया शान्त हो जाता है। यही ज्ञान अमृत का सागर है।

कबीर ने तो जगह जगह इस ज्ञान रुपी अमृत का उल्लेख किया है.  भगवद्गीता और उपनिषद के तत्त्व ज्ञान को अपनाकर महात्मा कबीर ने ज्ञानामृत को प्राप्त किया था.यथार्थ में यही अमृत चखना है.

जगत गुर अनहद कींगरी बाजे, तहाँ दीरघ नाद ल्यौ लागे
त्री अस्यान अंतर मृगछाला, गगन मंडल सींगी बाजे॥
तहुँआँ एक दुकाँन रच्यो हैं, निराकार ब्रत साजे॥
गगन ही माठी सींगी करि चुंगी, कनक कलस एक पावा।
तहुँवा चबे अमृत रस नीझर, रस ही मैं रस चुवावा॥
अब तौ एक अनूपम बात भई, पवन पियाला साजा।
तीनि भवन मैं एकै जोगी, कहौ कहाँ बसै राजा॥
बिनरे जानि परणऊँ परसोतम, कहि कबीर रँगि राता।
यहु दुनिया काँई भ्रमि भुलाँनी, मैं राम रसाइन माता॥

अवधू गगन मंडल घर कीजै, अमृत झरै सदा सुख उपजै, बंक नालि रस पीजै
मूल बाँधि सर गगन समाना, सुखमन यों तन लागी।
काम क्रोध दोऊ भया पलीता, तहँ जोनणीं जागी॥
मनवाँ जाइ दरीबै बैठा, गगन भया रसि लागा।
कहै कबीर जिय संसा नाँहीं, सबद अनाहद बागा॥

आत्माँ अनंदी जोगी, पीवै महारस अंमृत भोगी
ब्रह्म अगनि काया परजारी, अजपा जाप जनमनी तारी॥
त्रिकुट कोट मैं आसण माँड़ै, सहज समाधि विषै सब छाँड़ै॥
त्रिवेणी बिभूति करै मन मंजन, जन कबीर प्रभु अलष निरंजन॥

प्रयाग हरिद्वार, उज्जैन और नासिक का कुम्भ ज्ञानामृत की प्राप्ति के लिए संतों के विचार विमर्श का आयोजन था जो अब मेले में बदल गया है.
संक्षेप में तुम्हारे अस्तित्व का ज्ञान जो तुम्हारे अन्दर है की अनुभूति ही अमृत है.

     










Friday, April 19, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - आत्मज्ञानी - 61 - बसंत



प्रश्न- कुछ ऐसे लक्षण बताएं जिससे पता चल जाए कि जिस पुरुष को आत्म ज्ञान हो गया है वह कैसा होता है?

उत्तर- आत्मज्ञानी पुरुष न मरे हुए जैसा न जीवित जैसा होता है.
वह अपने शरीर की चिंता नहीं करता है. उसे चिंता नहीं होती देह रह जाय या नष्ट हो जाय.
वह अपने संबंधों की भी चिंता नहीं करता है.
यथा प्राप्त जीविका से संतुष्ट होता है.
तुम्हारे देन लेन से कोई मतलब नहीं रखता अर्थात न संतुष्ट होता है न असंतुष्ट होता है.
ज्यादातर वह अकेला, बिना कारण के स्वछन्द घूमने वाला होता है. कभी कभी वह अजगर की तरह एक जगह बैठा रहता है. राजा के भेष में वह फकीर होता है.
सदा उदासीन है. व्यवहार में बच्चे के सामान होता है.
वह बहुत कम बोलने वाला होता है.
प्रत्येक प्रश्न का सत्य और यथार्थ उत्तर उसके पास होता है.
उसके लिए भिखारी और राजा एक समान हैं. चोर और पुलिस समान हैं. वह आज राजा कल भिखारी हो जाय तो भी संतुष्ट रहता है.
उसे संसार के मान अपमान की कोई  इच्छा अथवा भय नहीं होता.
वह कपट रहित, सरल और मनमोजी आचरण करता है.
वह न सुखी होता है न दुखी होता है.
उसकी कोई निंदा करे तो क्रुद्ध नहीं होता और प्रशंसा करे तो प्रसन्न नहीं होता.
न उसे गर्मी लगती है न सर्दी लगती है.
वह न लाभ की चिंता करता है न हानि की चिंता करता है.
वह सदा मस्ती में रहता है.
वह भय रहित होता है.
ऐसा पुरुष ही आत्मज्ञानी है. बोध प्राप्त व्यक्ति है. उक्त आचरणों में से नाप तोल कर लगभग 50%  चिन्ह दिखाई देने पर ही ऐसे पुरुष का संग करना चाहिए.



तेरी गीता मेरी गीता - स्वभाव - 60 - बसंत



प्रश्न- हमारा स्वभाव क्या है?
उत्तर- हमारा स्वभाव ज्ञान है क्योकि हम ज्ञान के ही परमाणुओं से बने हैं. इसकी शुद्ध और पूर्णअवस्था ईश्वर है और इसकी मिलावट वाली अवस्था जीव है.
इस प्रकार स्वभाव के दो नित्य रूप दिखाई देते हैं.
ईश स्वभाव
जीव स्वभाव
ज्ञान के बोध मात्रानुसार जीव की  लाखों करोड़ो योनियाँ हैं और उनके विभिन्न प्रकार हैं. यह मिट्टी के कण से लेकर विराट सृष्टि तक फैला हुआ है. यह ईश्वर का सगुण स्वरुप है तो यही देव, दानव, यक्ष, मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, सर्प, पेड़, पादप, पत्थर, मिट्टी आदि है.
प्रत्येक परमाणु में ईश और जीव स्वभाव दोनों सदा विद्यमान रहते हैं. मनुष्य देह में इन दोनों का अलग अलग अहसास देखा जा सकता है.

प्रश्न- मनुष्य देह में इन दोनों का अलग अलग अहसास  क्या है?
उत्तर- मनुष्य देह में कर्ता भोक्ता और संहारक का भाव जीव स्वभाव है और साक्षी एवं दृष्टा का भाव ईश स्वभाव है.
स्वभाव की मूल स्थिति में जीव भी शुद्ध है और ईश्वर हर स्थिति में सदा शुद्ध है.
जीव के स्वभाव में अस्मिता की प्रतीति से मिलावट आती जाती है. जितनी अस्मिता की प्रतीति उतनी मिलावट.और जीव समझता है वह राहुल है, अमरीक है आदि. उसकी माँ है, पिता है, संपत्ति है, संसार है.....आदि. इसी को अज्ञान कहते हैं. अस्मिता की मिलावट न हो तो जीव कर्ता, भोक्ता और संहारक, होते हुए भी ईश्वर की तरह शुद्ध है.

प्रश्न- मनुष्य के पास दो स्वभावों का अहसास उसके लिए क्या दिशा निर्धारित करती है?
मनुष्य के पास दो स्वभावों का अहसास है. इसलिए यह उसकी रूचि है कि वह किस स्वभाव को अपनाता है. इन दोनों में से एक स्वभाव अपनाना या दोनों को अपनाना मजबूरी है. जीव स्वभाव अपनाओगे तो अस्मिता की प्रतीति में फंसते जाओगे, सुख दुःख, ऊँच नीच में सदा लिप्त रहोगे और ईश स्वभाव अपनाओगे तो एक दिन ईश्वर हो जाओगे. जो योग्य रुचे वह करें.

Thursday, April 18, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - आस्तिक और नास्तिक - 59 - बसंत



प्रश्न- कोई कहता है ईश्वर है कोई कहता है ईश्वर नहीं  है. सत्य क्या है?

उत्तर -  जो ईश्वर को मानता है वह आस्तिक कहलाता है और जो ईश्वर को नहीं मानता है वह नास्तिक कहलाता है. यह आस्तिक और नास्तिक बातें मन की बाते हैं. मन का अर्थ ही संशयात्मक ज्ञान है. संशय कभी सत्य नहीं हो सकता. आस्तिक घोषणा करता है कि ईश्वर है..बुद्धि से अनेक तर्क देता है, पर उससे पूछो क्या तूने ईश्वर देखा है, क्या उसको महसूस किया है तो वह बगल झाकने लगेगा.
अब नास्तिक से पूछो तू  क्यों कहता है कि ईश्वर नहीं है तो वह भी तर्कों की झड़ी लगा देगा.
अनुभव दोनों को नहीं है, दोनों परम्परागत सोच पर अपनी अपनी धारणा बनाये हुए हैं. प्रयोग किसी ने नहीं किया. यथार्थ किसी के पास नहीं है. दोनों के सोच दोनों के तर्क उधार के हैं. कोई कहता है कि ईश्वर हो भी सकता है और नहीं भी. यह भी संशयात्मक ज्ञान वृत्ति है. यह भी बुद्धि की घोषणा है.
पर जो दोनों आस्तिक और नास्तिक की बात नहीं मानता, प्रयोग करता है, देखता है वह जान जाता है. वह कोई घोषणा नहीं करता. वह चुप हो जाता है. वह तटस्थ हो जाता है. तर्क वितर्क, विवाद समाप्त हो जाते हैं. ऐसा आत्मज्ञानी स्वयं में स्वयं को देखता हुआ शान्ति और आनंद को प्राप्त होता है.
यह जान लीजिये जब तक संशय है तभी तक आप आस्तिक अथवा नास्तिक हैं.
बोध प्राप्त व्यक्ति के पास कुछ भी कहने के लिए नहीं होता. वहां केवल पूर्णता होती है.

Wednesday, April 17, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - ज्ञान - 58- बसंत


प्रश्न- ज्ञान कैसे प्राप्त किया जाय?

उत्तर- निरंतर चिंतन करना होगा कि तू शरीर नहीं है. तू न शरीर का कोई अंग है .शरीर का कोई तत्त्व भी तू नहीं है  तू मन, बुद्धि, अहंकार भी नहीं है.
तू न ब्राह्मण है, तू न शूद्र है, तेरी कोई जाति नहीं है. तू न हिन्दू है, न मुसलमान है, न ईसाई आदि है. तू न बुरा है न अच्छा है. तू न देवता है न दानव है.
तू न गुरु है तू न शिष्य है. तेरा कोई न मित्र है न कोई शत्रु है.

तू तो इन सबका साक्षी है सबका दृष्टा है.  निरंतर प्रत्येक व्यवहार में साक्षी हो जा.
निरंतर चिंतन कर ज्ञान मेरा स्वरूप है.
सदा अपने को प्रणाम कर.
सदा ध्यान रख तेरा कोई नाश नहीं कर सकता है.
निरंतर यह विचारने से तुझे ज्ञान प्राप्त हो जाएगा.
एक बात निश्चय रूप से जान लीजिये की आत्मा आत्मा कहने से काम नहीं चलेगा, आत्मा के स्वभाव को अपनाना होगा. साक्षी  होना होगा, दृष्टा होना होगा.
भगवद्गीता के तेरहवें अध्याय में भगवान कृष्ण कहते हैं -

उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः ।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः ।22।

इस देह में स्थिति जीव आत्मा (पुरुष) ही परमात्मा है। वह साक्षी होने के कारण उपद्रष्टा जाना जाता है.

नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित्‌ ।
पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपंश्वसन्‌ ।8।
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्‌ ।9।

इसी प्रकार भगवद्गीता के पांचवें अध्याय में भगवान कृष्ण बताते हैं -
तत्व को जानने वाला योगी, मैं पन के अभाव से रहित हो जाता है और वह देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूघंता हुआ, भोजन करता, हुआ गमन, करता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ, बोलता हुआ, त्यागता हुआ, ग्रहण करता हुआ, आँख खोलता हुआ, मूँदता हुआ किसी भी शारीरिक कर्म में सामान्य मनुष्य की तरह लिप्त नहीं होता है। वह यह जानता है कि इन्द्रियाँ अपने अपने कार्यों को कर रही हैं अतः उसमें कर्तापन का भाव नहीं होता है। वह सदा साक्षी रहता है, दृष्टा रहता है.
वेदों में अनेक स्थानों में स्वास नियम्य आया है जो केवल साक्षी होने पर ही संभव है.
इस पद्धित को महात्मा बुद्ध ने भी अपनाया वर्त्तमान  में यह विपश्यना के नाम से भी प्रचारित हो रही है.

मुंडकोपनिषद में साक्षी भाव को बड़े सुन्दर ढंग से सुस्पष्ट किया है.

तयोरन्यः पिप्पलं स्वादात्त्य नश्रन्नन्यों अभिचाकशीत.

एक वृक्ष में दो सुंदर पक्षी रहते हैं उनमें एक (जीव) मधुर कर्म फल का भोग करता है दूसरा भोग न करके केवल देखता (साक्षी)  रहता है.
तुम्हारे पास केवल दो रास्ते हैं. या तो कर्ता भोक्ता बन कर सुख दुःख भोगो अथवा  दृष्टा या साक्षी होकर बोध को प्राप्त हो.
यदि तुम अपने और सबके दृष्टा हो तो सदा मुक्त हो पर तुम केवल दूसरों के दृष्टा हो इसलिए सीमा में बंधे हो. अपने दृष्टा या साक्षी होने पर मैं एक विशुद्ध बोध हूँ का भाव स्वयं विकसित हो जाएगा.
यही भगवद गीता, अष्टावक्र गीता, वेदान्त का तत्त्व ज्ञान है. श्री कृष्ण कहते हैं - व्यवहार में मेरा स्मरण कर.

तेरी गीता मेरी गीता - 57 - बसंत



प्रश्न - कृपया ज्ञान को अधिक सरल शब्दों में बतायें.
उत्तर- सामन्यतः हम उस ज्ञान को जानते हैं जो दूसरे से प्राप्त होता है जैसे पुस्तकों का ज्ञान, माता, पिता, शिक्षक, प्रकृति और समाज द्वारा प्राप्त ज्ञान.
दूसरा वह ज्ञान है जो आपका कारण है, जिसके कारण आपकी अस्मिता है, आपका अस्तित्व है, जिसके कारण आपका जन्म है, जीवन है, मृत्यु है और मोक्ष है. जो आपका साक्षी है, जो आपको निरंतर देखने वाला है, जो कर्ता भोक्ता और संहारक है, जो आपकी अंतर ज्योति है.

प्रश्न  -  ईश दर्शन अथवा पूर्ण बोध कब होता है.
उत्तर- जब आपके लिए समय और आकाश (space) समाप्त हो जाए.

प्रश्न-स्मृति और विस्मृति में किसे शक्तिशाली माना जाय?
जीव की स्थिति में विस्मृति शक्तिशाली है परन्तु बोध होने पर विस्मृति सदा सदा के लिए नष्ट हो जाती है. अतः स्मृति शक्तिशाली है.

प्रश्न - गुरु कृपा को एक शब्द में समझाइये.
उत्तर- निज कृपा अथवा आत्म कृपा

प्रश्न- गुरु तो दूसरा होता है.
उत्तर- जब तक दूसरे का बोध रहेगा गुरु कृपा नहीं होगी. दूसरा तुम्हारा शिक्षक अथवा मार्गदर्शक हो सकता है. आत्मा तुम्हारी और तुम्हारे गुर की एक ही है जिसे आत्मबोध होने पर ही जान पाओगे.

प्रश्न -  क्या आप इसे उदाहरण देकर समझा सकते है.
उत्तर- शंकराचार्य कहते हैं-
न बन्धुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्यः
चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्.
न कोई मित्र, न कोई गुरु है और न ही कोई शिष्य है. मैं परम कल्याणकारी चैतन्य आनंद स्वरुप  हूँ.
विवेकानंद ने द्वैत - गुरु पूजा न चलाकर आत्म पूजा- अद्वैत स्थापना की. बोध का अर्थ द्वैत समाप्त होना है.
कबीर कहते हैं-
तेरा साईं तुझ में

प्रश्न- फिर कबीर ने यह क्यों लिखा - बलिहारी गुरु आपकी गोविन्द दियो बताय
उत्तर- इसका अर्थ समझिये हे गुरु, हे आत्मा मैं आज आपको पाकर धन्य  हो गया हूँ. मुझे पता चल गया कि ईशत्व क्या है?
रामकृष्ण परमहंस का माँ काली को तलवार से काटना और तत्काल आत्मतत्त्व में विलीन होना यही तो बताता है कि मैं ही परम कल्याणकारी चैतन्य आनंद स्वरुप  हूँ,
तुमसे अलग तुम्हारा गुरु तभी तक है जब तक मन है. जब तक मन है तब तक वास्तविकता नहीं है.
श्री कृष्ण कहते हैं
एकोहमद्वितियोनास्ति
मेरे अलावा दूसरा कोइ नहीं है.जब तक विस्मृति है तब तक गुरु है और शिष्य है. जब तक मन है तब तक गुरु है तभी तक शिष्य है .

प्रश्न- गुरु स्तुति क्या है?
उत्तर- गुरु स्तुति आत्म स्तुति है.
महावीर कहते हैं -
तू नित्य है शुद्ध है मुक्त है.

प्रश्न - भारत में आजकल अनेक गुरु हैं, आत्म ज्ञानी हैं और कुछ अपने को भगवान कहते हैं, हम उनके विषय में कैसे निर्णय लें?
उत्तर - अरे भाई उस गुरु अथवा भगवान के पास एक मरी मक्खी लेकर जाओ और उससे कहो कि इसे ज़िंदा कर दे. बस उसके बाद स्वयं निर्णय कर लेना.

प्रश्न- यदि मरी मक्खी किसी ने ज़िंदा कर दी.
उत्तर - तो उसे पकड़ लेना.वह तुम्हें गुरु तत्त्व का बोध करा देगा. तुम जान लोगे तुम और वह एक ही हो.

प्रश्न-  धर्म और अध्यात्म का ज्ञान देने वाले व्यक्ति को क्या कहें?
उत्तर-  जिज्ञासु, आत्म चिन्तक, तत्त्व चिन्तक, तत्व प्रबोधक. मुनि, आचार्य यह शब्द उचित हैं. इसमें भी सावधानी रखनी होगी. जो यथार्थ को वैज्ञानिक रूप से सुस्पष्ट कर सके वही आत्म चिन्तक, तत्त्व चिन्तक, तत्व प्रबोधक. मुनि, आचार्य हो सकता है. जो जाग्रत अवस्था में रहने का अभ्यास करता हो वह मुनि है. जितनी देर जाग्रत उतनी देर मुनि.
आत्म ज्ञानी अथवा तत्त्व ज्ञानी जन समुदाय को तत्त्व ज्ञान, कथा और भाषण की तरह नहीं सुनाते. वह किसी विरले को ही तत्त्व ज्ञान बताते हैं क्योंकि यह मार्ग सहज नहीं है. कबीर कहते हैं-
जेहि घर फूका आपना चलो हमारे साथ.
श्री कृष्ण कहते हैं-
अनेक जन्मों के बाद साधक तत्त्व ज्ञान को प्राप्त होता है, ऐसा महात्मा दुर्लभ है.

प्रश्न- धर्म गुरुओं की भीड़ जुटाने व्  टी वी प्रचार को क्या कहें?
उत्तर- यह संसार में यश प्राप्ति की इच्छा का परिणाम है. ज्ञानी इसे गन्दगी समझ कर त्याग देता है.
क्या सूर्य को भीड़ जुटाने अथवा टी वी प्रचार की आवश्यकता है? फिर जिसने सूरज को बनाया, सृष्टि बनायी वह या जो उसे जानने वाला है क्या ऐसी इच्छा कर सकता है?




Friday, April 5, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - बोध - 56 - बसंत



प्रश्न- ब्रह्म उपलब्धि अथवा आत्म बोध कृपा साध्य है अथवा कर्म साध्य?

उत्तर- इसमें कोइ शंका नहीं है कि ईश्वर बिना किसी हेतु के कृपा करते हैं. हमारा अस्तित्व ही उनकी कृपा है. यदि गहराई से देखें तो ईश्वर ही जीव रूप में खेल खेल रहा है. एक बाप है एक बेटा. दोनों एक से हैं  पर बेटे को सर्वगुण सम्पन्न बाप तो कहा नहीं जा सकता और बेटे को सर्वगुण सम्पन्न बाप की तरह बनने में वर्षों  लग जाते हैं. यही स्थिति जीव और ब्रह्म की है. बेटा उम्र के साथ बड़ा होकर निर्धारित नियमों को अपनाकर ही सर्वगुण सम्पन्न बाप बन जाता है उसी प्रकार जीव भी निर्धारित नियमों को अपनाकर ईश्वर हो जाता है. क्या कृपा से सर्वगुण सम्पन्नता आ सकती है? यदि हाँ तो ईश्वर कृपा साध्य है यदि नहीं तो ईश्वर कर्म अथवा नियम साध्य है.  
स्वयं ईश्वर ने कर्म का सिद्धांत बनाया है. जब उसने स्वयं अपने लिए और अपनी सृष्टि के लिए कर्म का सिद्धांत बनाया है और इस कर्म सिद्धांत के कारण अनादि काल से साधक जोगी जंगम बने हुए योग, तप कर्म करते हैं  फिर एक साधारण आदमी कैसे बिना कुछ किये केवल कृपा से ईश्वर को पा सकता है.
साधन में असफल और लोक पूजा के लालच के कारण तथाकथित गुरु  बनकर जन समुदाय को मात्र दिग भ्रमित कर रहे हैं. लोगों के अंधविश्वास और भय को भुना रहे हैं. लोग पाद वंदन कर रहे हैं, भेंट पूजा दे रहे हैं और आप हाथ और मुंह से कृपा करते हैं. यह गुरु बड़े बुद्धिमान और चालाक हैं यह ईश कृपा दिलाने का दावा कुछ इन शर्तों के साथ करते है जो सुनने में बहुत सरल पर करने में एवरेस्ट की चडाई से भी कठिन होती हैं. अब सुनिए इन तथाकथित गुरुओं की शर्तें.
1- शरणागत हो जाएँ.
शरणागत बड़ा सरल शब्द है पर इन २००० वर्षों में क्या कोई ईसा मसीह और रामकृष्ण परमहंस के अलावा शरणागत हो पाया? इन दोनों में भी ईसा जन्म से अवतारी पुरुष थे और रामकृष्ण परमहंस दिव्य सिद्ध पुरुष थे जो शरणागत भाव का अनुपम उदाहरण हैं. अहंकार और संशयात्मक ज्ञान  शरणागत  होने ही नहीं देता.
2- ईश्वर का सुमिरन प्रेम से अथवा समर्पण भक्ति से करना होगा.
प्रेम शब्द शरणागत से भी छोटा है पर इन २००० वर्षों में चैतन्य महा प्रभु के अलावा क्या कोई प्रेम कर पाया. प्रेम और भक्ति का कथन तो बहुतों ने कहा, गीत, भजन भी बहुत गाये.
3- गुरु पर विश्वास - जब तक जीव भाव है तब तक पूर्ण विश्वास नहीं हो सकता. संशयात्मक ज्ञान भटकाते रहता है. संशयात्मक ज्ञान के नष्ट हुए बिना  पूर्ण विश्वास नहीं हो सकता. इसी कारण श्री कृष्ण भगवान् को अपना विराट रूप दिखलाना पडा.
4-कुछ कहते हैं कि ईश्वर कृपा साध्य है, और अपने गुरु की कृपा की दुहाई देते है, कथा कहानी सुनाते हैं  पर क्रिया योगी लाहडी महाशय और विवेकानंद के अलावा कृपा साध्य का कोई  उदाहरण नहीं मिलता. इन सभी के अलावा कुछ नगण्य उदाहरण हो सकते है जो संसार को ज्ञात नहीं हैं. इस विषय के भी मूल में कर्म विधान ही है.
भगवद्गीता में श्री भगवान ने अनेक स्थानों में इस बात का संकेत दिया है कि कोई किसी का भाग्य बदल नहीं  सकता है और ईश्वर न किसी के पाप कर्म को न किसी के शुभ कर्म को ग्रहण करते  हैं।
विवेकानंद के विषय में रामकृष्ण कहा करते थे वह पुरातन सिद्ध ऋषि है.उसके लिए वह व्याकुल हो जाते थे. अतः अंगूठा लगाना और इस प्रकार विवेकानंद को आत्मबोध कराना मात्र कर्मबंधन था. प्राराब्द कर्मानुसार होनी अवश्यम्भावी है शेष खेल है चाहे सन्त खेले अथवा सामान्य मनुष्य.
ईसा ने अंधे को आंखे दी,कुष्ठ रोगी का रोग दूर किया, यह उन व्यक्तियों के कर्म फल थे जो वह भोग रहे थे और ईसा के दर्शन भी उनके  किसी शुभ कर्मों का परिणाम था और उसका फल वह भले चंगे हो गए.
आपको एक कथा सुनाता हूँ
नर नारायण नाम के दो भाई थे। यह दोनों राजा धर्म के पुत्र थे और परम शिव भक्त थे  इन दोनों ने हिमालय बद्रिकाश्रम के निकट कठिन तपस्या की। नारायण को परम बोध  प्राप्त हुआ परन्तु नर जीव ही रहा. कालांतर में नारायण श्रीकृष्ण और नर अर्जुन हुए ।
यह बड़ी अद्भुत कथा है. विचार कीजिये नर नारायण दोनों सगे भाई थे. दोनों में अति प्रेम था. दोनों ने एक साथ कठिन तपस्या की परन्तु निष्काम कर्म साधना के परिणाम स्वरूप केवल नारायण ही आत्मबोध को उपलब्ध हुए. यही नहीं अनेक जन्मों के बाद भी दूसरा भाई नर, जीव ही रहा और अर्जुन के रूप में जन्म लिया. स्वयं ईश्वर ने अपने भाई अपने प्रेमी और साथ के साधक का भाग्य नहीं बदला उसे अपनी शक्ति से आत्म बोध नहीं कराया.क्योंकि ईश्वर किसी भी जीव के पाप और पुण्य नहीं लेते हैं. ईश्वर का विधान अटल है, निश्चित है. उनका न कोई अपना है न पराया. वह सब के लिए समान हैं.
5-कुछ कहते है हमारे गुरु अथवा भगवान की कृपा मिलेगी पर पांच अथवा सात आज्ञाओं को मानना होगा.
कहने का तात्पर्य यह है कि घूम फिर के सभी देहिक अथवा मानसिक कर्म पर जोर देते हैं. सीधी बात इसलिए नहीं कहते क्योंकि साधक समझेगा जब सब उसे करना है तो फिर इनकी सेवा क्यों करूँ. यह सब असहाय हो जायेंगे.
दूसरी बात महत्वपूर्ण है कि जो कृपा करता है वह अगर मगर नहीं करता. सीधे कृपा करता है. ईश्वर सबके लिए एक सा बर्ताव करते हैं चाहे हिन्दू हो या ईसाई और मुसलमान, अच्छा हो या बुरा. ईश्वर क्या सूर्य, अग्नि, वायु आदि सभी के लिए समान कृपा करते हैं. सूर्य ने किसी से कहा कि इन आज्ञाओं का पालन करो तब धूप दूंगा. असमर्थ व्यक्ति बहाने बनाता है. ईसा ने किसी कृपा के लिए कोई शर्त नहीं रखी.  महावातार बाबा ने एक साधारण आदमी को क्रिया योगी लाहडी महाशय बना दिया इसी प्रकार रामकृष्ण परमहंस एक साधारण आदमी नरेन्द्र को विवेकानंद बना दिया.
भगवान कृष्ण ने बिना किसी शर्त के कुब्जा,द्रोपदी, अर्जुन आदि पर कृपा करी. यदि कृपा करनी है चाहे छोटी हो या बड़ी, तो कृपा करो शर्त क्यों जोड़ते हो या फिर जो विवेकसंगत बात है वह कहो और करो.

अब कर्म सिद्धांत की विवेचना करते हैं. कर्म के बिना कोइ प्राणी क्षण मात्र भी नहीं रह सकता फिर कर्म से द्वेष क्यों. शरीर, मन बुद्धि सदा गतिशील रहते हैं इसलिए क्षण मात्र भी कर्म के बिना नहीं रहा जा सकता. देहिक अथवा मानसिक कर्म सदा होते ही रहते हैं .अवतार को भी कर्म करने पड़ते है और बोध के लिए अक्रिय होना पड़ता है. इस विरोधाभास को समझें.
कर्म निम्नलिखित हैं.
सकाम कर्म -जो फल की इच्छा से किये जाते हैं. यह कर्म जीव बोध के कारण होते हैं.
निष्काम कर्म -जो कर्म शरीर से तो होते हैं पर उन कर्मो में अथवा कर्म फल में कोई लगाव नहीं होता.
यही अक्रियता है. दृष्टा रूप में सभी कर्म निष्काम कर्म  हो जाते हैं.
निषिद्ध कर्म- निंदनीय कर्म भी सकाम कर्म  हैं जैसे प्राणी मात्र को सताना आदि. यह निंदनीय कर्म जीव के कर्म और प्रमाद का परिणाम हैं.
कर्महीनता अकर्म है.

प्रश्न- फिर हमें क्या करना चाहिए?

उत्तर- ईश्वर संसार में और आपके अन्दर दो रूपों में रहता है.
1-जीव रूप में वह करने वाला और भोगने वाला है. वही जन्म देता है, वही मारता है, वही जीवन के खेल खेलता है.
2- दृष्टा रूप में वह ईश्वर है. वह देख रहा है कि उसका ही स्वभाव कर रहा है भोग रहा है. वह तटस्थ है.
अब आप के पास दो रास्ते है आप जीव होकर संसार भोगें. सुख दुःख का मजा लें और यह क्रम चलता रहे. आप दृष्टा होकर दिव्यता को प्राप्त करें. ईश्वर हो जाएँ. अपने नियंता हो जाएँ. कर्ता और भोक्ता होते हुए भी अकर्ता होकर इनके सुख दुःख से मुक्त हो जाएँ.
वह एक आत्म तत्व दोनों रूपों में आपके अन्दर है. आपके अन्दर जिसकी आवाज सुनाई देगी आप वह करेंगे.
ज्यादातर धर्म जीव धर्म -जीव स्वभाव पर आधारित है. इसलिए तुम जैसा करोगे वैसा भरोगे, इस पर सब आधारित हैं. इसी कारण करुणा, दया, परोपकार  को सभी धर्मो ने प्रमुखता दी.
दुसरे पर उपकार और दया करोगे तो प्रतिफल में दया मिलेगी, मदद मिलेगी. तुम दूसरे के प्रति  दीन होगे तो दूसरे तुम्हारे प्रति  दीन होंगे. स्वर्ग और सुख तुम्हारे दूसरे के प्रति कर्म (शारीरिक और मानसिक) निर्धारित करेंगे.
पर यदि तुम्हारे अन्दर जीव की आवाज के साथ ईश्वर की आवाज भी उठने लगी है तो तुम्हारे जागने का समय आ गया है.  दृष्टा होने का प्रयत्न करो. उसकी आवाज सुनो. अपने स्वभाव और कर्मो को देखो.
अंतिम निवेदन है कि तुम्हारे लिए तुम्हारा ईश्वर सबसे जाग्रत अवस्था में तुम्हारे अन्दर है उसकी आवाज सुनो. यही अंतिम धर्म है यही अध्यात्म है. यदि अपने अन्दर ईश अनुभूति से हट कर सब में ईश्वर देखोगे तो वह भी एक प्रकार का बुद्धि का बहकावा होगा. अपने से बाहर ईश्वर आत्म बोध के उपरान्त ही जाना जा सकता है.
यहाँ यह भी जान लीजिये कि ज्यादातर मनुष्य में ईश्वर के प्रति आकर्षण दुःख निवृत्ति के लिए और सुख सम्पत्ति की इच्छा से होता है और दुःख दूर होने और सुख सम्पत्ति प्राप्त होने पर ईश्वर के प्रति आकर्षण बढता है फिर जिज्ञासा होती है. जिज्ञासा की परिणिति ज्ञान है और ज्ञान होने पर ही अपने स्वरुप का बोध होता है. जब साधक परमतत्त्व को जानता है तभी  प्रेम, भक्ति और शरणागति प्राप्त होती है, तभी विश्वास होता है.  

Wednesday, April 3, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - 55 - बसंत


प्रश्न- मैं बोध को विस्तार से समझाइये.

उत्तर- आइये आपको एक स्त्री की कहानी सुनाता हूँ. अनाथालय को एक बच्ची मिलती है उसे वहां सभी गुड़िया कहते थे. एक उच्च शिक्षित परिवार गुड़िया को गोद ले लेता है और उसका नाम रखता है वेदवती. वेदवती बचपन से मेधावी थी. वह शिक्षा  प्राप्त कर निपुण सर्जन बन जाती है. एक दिन वह कार चलाते हुए वह नदी में गिर गयी और उसका कोई पता नहीं चलता. वह नदी में बहते हुए एक करीम  नाम के मछुवारे को मिलती है. वेदवती की यादाश्त जा चुकी थी. वह करीम  के साथ रहने लगी. उसके दो बच्चे भी हो गए. वह मछली बेचने जाने लगी. यहाँ वह नसरीन हो गयी थी. प्रकृति ने फिर अपना खेल खेला .करीम के गाँव में भयंकर बाड़ आयी. करीम का घर परिवार बाड़ में बह गया . कोई नहीं बचा पर नसरीन को एक साधू महाराज ने बचा लिया. मानसिक आघात से नसरीन की दोनों  यादाश्त जा चुकी थी. वह बाबाजी की शिष्या हो गयी उसका नाम बाबाजी ने प्रज्ञा रख दिया. वह आश्रम में रम गयी.धीरे धीरे वह उपदेश देने लगी.  लोग उसे गुरु माँ कहने लगे. भक्तों की भीड़ बड़ती गयी. वह प्रसिद्ध हो गयी परन्तु  ईश्वर के खेल निराले हैं. वह एकाएक भूलने लगी. कई चिकित्सकों के इलाज के बाद भी वह सब भूल गयी. धीरे धीरे वह  गुरु माँ आश्रम में उपेक्षित होने लगी. वह एक दिन आश्रम से निकल पड़ी और अनजान रास्ते की और चल दी. आश्रम से किसी ने उसे ढूंडा नहीं. आजकल वह एक अनाम भिखारिन की जिन्दगी जी रही है. कल क्या होगा यह कोई नहीं जानता.
यह एक स्त्री के एक शरीर में.भिन्न भिन्न पांच व्यक्तित्वों की कहानी  है.
निष्कर्ष -
1- आपका व्यक्तित्व अस्थायी है और स्मृति खो जाती है. इसी प्रकार शरीर भी अस्थायी है वह भी भिन्न भिन्न अवस्थाओं में बदलता रहता है.
2-व्यक्तित्व की तुलना में शरीर के परिवर्तन देर  में दिखायी देते है.
3-व्यक्तित्व शरीर को अपने अनुसार क्रियाशील  बनाता है.
4- व्यक्तित्व और शरीर दोनों नाशवान हैं. यह बदलते रहते हैं
5-व्यक्तित्व स्मृति पर निर्भर करता है.
6-व्यक्तित्व और शरीर की सभी अवस्थाओं में, मैं बोध बना रहता है.
7-मैं बोध हर अवस्था में बना रहता है.
8-जब मैं बोध हर अवस्था में एकसा बना रहता है, जो तत्त्व सदा एक सा रहता है जो कभी किसी अवस्था में नहीं बदलता है वह कभी नष्ट नहीं हो सकता. इसलिए देह नष्ट होने पर मैं बोध नष्ट नहीं होता  है.
9-विज्ञान का नियम है जो बदलने वाली वस्तु है वह सदा बदलते रहती है  देह, व्यक्तित्व और स्मृति सदा बदलते हैं. इसलिए नष्ट होने, खोने और वापस आने की प्रकृति को रखते है और नष्ट होते हैं, खोते हैं और बदले रूप में वापस आते हैं. जो तत्त्व सदा एक सा रहता है वह कभी नष्ट नहीं हो सकता, न होता है.
10-मैं बोध प्रत्येक जीव में हर अवस्था में विद्यमान रहता है, अधिक गहराई से देखने पर यह कण कण मैं दिखायी देता है और यह मैं बोध की विराट अवस्था ही परम बोध है.
11-इस मैं बोध के साथ कोई न कोई व्यक्तित्व चिपक जाता है जो दुःख का कारण है और जीव को सीमा में बाँध देता है.

Tuesday, April 2, 2013

तेरी गीता मेरी गीता -54- सबद ( शब्द ) - ईश्वर की आवाज एक कप चाय के साथ - बसंत



आपने ईश्वर से जुड़ने की कई तरीके पड़े और सीखे होंगे. आज आपको एक सरल तरीके से परिचित कराने का प्रयास है जो बिना किसी परेशानी के आप कर सकते है. अपनी रोजमर्रा की जिन्दगी के हिस्सों में उस परमात्माको महसूस करें. आइये चाय पीते हुए उसकी आवाज सुनें.
आप रोज सुबह चाय पीते हैं. एक गरम चाय का कप 10मिनट में खतम करते है. प्रतिदिन उस कप के साथ ईश्वर की वाणी सुनें. यदि चाय नहीं पीते हैं तो काफी, दूध ,लस्सी आदि जो भी आप पीते हों उसे पीते हुए ईश्वर की वाणी सुनें. बस पूरे 10 मिनट पूरी तन्मयता से सुनें.एक कप चाय को पीते हुए बसंत नामक व्यक्ति से ईश्वर की वाणी के कुछ अंश.  
बसंत चाय आ गयी है. तुम्हरे अन्दर विचार आ गया है कि चाय बहुत गरम है, थोड़ा इंतज़ार कर लिया जाय. चाय की तेज इच्छा हो रही है ना. बसंत तुमने कप उठा लिया है. तुम्हारा हाथ चाय के कप को तुम्हारे होंठों तक ले आया है. तुमने चाय  की एक सिप ले ली. चाय गले से नीचे जा रही है. बसंत तुम्हें चाय का मजा आ रहा है. लो तुमने दूसरी सिप भी ले ली. किस सोच में पड़ गए, अच्छा अखबार की तलब हो रही है. तुम तो अखबार की और देखने लगे. तुम चाय के कप को टेबल मे रख रहे हो. अरे तुमने फिर कप उठा लिया और एक बड़ा सिप लिया. तुम्हारे शरीरकी जकड़न कम हो रही है. तूने चाय का कप फिर से टेबल मे रख दिया है. तुम अखबार पड़ने लग गए हो. अरे खबरों में खो गए........ देखो तुम्हारी चाय ठंडी हो रही है. तुम्हारा हाथ चाय का कप उठा रहा है. चाय  का कप तुम्हारे होंठों से लग गया. तुम  तो बड़े बड़े सिप मारने लगे. पेट में गुड़बुड होने लगी है. तुम तो बाथरूम की ओर जाने लगे.
इस ईश्वर की आवाज को हू बहू प्रस्तुत करना संभव नहीं है फिर भी आपके समझने के लिए आवाज के कुछ अंश प्रस्तुत करने का प्रयास किया है.
यह जान लीजिये वह हर समय आपको देख रहा है. वह आपकी हर एक क्रिया और सोच को देख रहा है. बस रोज के दस मिनट  चाय पीते हुए इस सरल योग को सिद्ध करें. उससे जुड़ जायें. ईश्वर की वाणी जो भी आपके अन्दर उतर रही है उसे सुनें. उधार के शब्दों का यहाँ कोई काम नहीं है. आप सरलता से दृष्टा होने लगेंगे.

BHAGAVAD-GITA FOR KIDS

    Bhagavad Gita   1.    The Bhagavad Gita is an ancient Hindu scripture that is over 5,000 years old. 2.    It is a dialogue between Lord ...