Thursday, December 22, 2011

सरल वेदान्त -VEDANT-अध्याय -२२- अर्चि मार्ग-ज्ञान मार्ग -Prof.Basant


                                    अर्चि मार्ग

ब्रह्मसूत्र बताता है-
अर्चिरादिना तत्प्रथिते .४.३.१.
वेदान्त, ब्रह्मसूत्र भगवद्गीता आदि में अर्चि मार्ग का वर्णन हुआ है. इस अर्चि मार्ग को लेकर ज्यादातर भाष्यकार भ्रमित हैं और इस कारण अवैज्ञानिक अतार्किक बातें लिख डाली हैं. अर्चि का अर्थ होता है ज्योति, अग्नि अथवा सूर्य किरण. वेद वेदान्त आदि में प्रकाश शब्द का प्रयोग ज्ञान के लिए किया गया है
तमसो मा ज्योतिर्गमयः
अज्ञान से ज्ञान की और ले जा.
अज्ञान तिमिरान्धस्यः
अज्ञान रूपी अँधेरे से ज्ञान के प्रकाश की ओर ले जाने की प्रार्थना.
बात हो रही थी अर्चि मार्ग की तो सीधी  बात है अर्चि मार्ग का अर्थ है प्रकाश अर्थात ज्ञान का रास्ता और इसके विपरीत है अंधकार अर्थात अज्ञान का रास्ता. मुक्त आत्मा के लिए ज्ञान का रास्ता है और बद्ध आत्मा के लिए अज्ञान का रास्ता है. इसे उत्तरायण- प्रकाश- ज्ञान और दक्षिणायन अंधकार- अज्ञान का रास्ता कहा है. यह देवयान अर्थात ज्ञान मार्ग और पितृयान अर्थात मोह्बंधनअज्ञान मार्ग के नाम से भी जाना जाता  है. वेदान्त कहता है जो ब्रह्म विद्या के रहस्य को जानते हैं, श्रद्धा पूर्वक सत्य की उपासना करते हैं वह अर्चि को प्राप्त होते हैं.

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Wednesday, December 21, 2011

सरल वेदान्त /VEDANT-अध्याय-२१-वेदान्त और साधना-Prof.Basant


                     साधना 
1.आवृत्ति
अध्ययन की हुई उपासना का निरन्तर अभ्यास करना चाहिए.
2.लिंगाच्च
सूक्ष्म शरीर से साधना करनी चाहिए.
सूक्ष्म शरीर 17 तत्त्वों से बना है. शतपथ ब्राह्मण-5-2-2-3 में इन्हें सप्तदशः प्रजापतिः कहा है. मन बुद्धि पांच ज्ञानेन्द्रियाँ पांच कर्मेन्द्रियाँ पांच वायु. इस लिंग शरीर से आत्मा की सत्ता का प्रमाण मिलता है. वह भासित होती है. अतः मन बुद्धि प्राण और कर्मेन्द्रियों से साधना करनी चाहिए.
3. आसीनः
बैठकर साधना करनी चाहिए.
4.ध्यानाच्च
ध्यान करना चाहिये.
5.अचलत्वम्
शरीर को स्थिर रखना चाहिये.
6.स्मरन्ति च.
स्मरण करना चाहिए.
7.आ प्रायणात
मृत्यु होने तक साधना करनी चाहिए.
8.आत्मेति ग्राहयन्ति
केवल आत्मा को ही ग्रहण करे.
9.प्रतीक
प्रतीक को ब्रह्म अथवा आत्मा मानकर उपासना करनी चाहिए.
प्रतीक में ब्रह्म दृष्टि होनी चाहिए.
10.आदिदिमतयः
आदित्य अर्थात ज्ञान की बुद्धि करनी चाहिए.

Sunday, December 11, 2011

सरल वेदान्त- -VEDANT-अध्याय 20- सात प्रकार के अन्न-Prof.Basant


           सात प्रकार के अन्न

परमात्मा ने  परा अपरा प्रकृति द्वारा सृष्टि रचना के साथ प्रजापति (जीवात्मा) द्वारा   7 प्रकार के अन्नों का स्वाभाविक रूप से  निर्माण किया गया.
१.    पशु अन्न
२.    मनुष्य हेतु अन्न
३.    देव अन्न देवों को अन्न दिए गए.
४.    स्वयं हेतु अन्न स्वयं  के लिए ३ अन्न रक्खे .
यह अन्न क्या हैं?
पशु अन्न जो सरलता से उत्पन्न हो जाय और जिस  से पशु कीट आदि तृप्त हों.
मनुष्य अन्न जो सभी जीवों को तृप्ति दे. इन दोनों अन्नों में दूध अर्थात रस भरा होता है. अन्न का रस जीव को तृप्ति देता है.
देव अन्न देवताओं के लिए गंध और ज्योति के रूप में अन्न दिया गया. इसे हुत और  प्रहुत कहा. हवन द्वारा गंध देवताओं को प्राप्त होता है. वह अन्न जो अग्नि द्वारा देवताओं को अर्पित किया जाता है. प्रहुत का अर्थ है offered. यह बलि का भाग है अर्थात जो भी आपने अन्न अथवा दूध अर्जित  किया है उसका हिस्सा. यह सीधा देवताओं को अर्पित किया जाता है.
इसलिए हिन्दुओं में आज भी देवताओं को फसल आने पर अथवा प्रतिदिन भोजन से पहले बलि का भाग दिया जाता है.
इसके साथ ही गंध और ज्योति देवताओं को अर्पित होती है. यह हुत के अंतर्गत आती है.

स्वयं  के लिए ३अन्न रक्खेयह अन्न हैं १.प्राण .शब्द अथवा वाणी . मन

प्राण इस देह्  में व्याप्त आत्मा का प्रमुख अन्न है.
श्री भगवान भगवद्गीता में कहते हैं-

अहं वैश्वानरोभूत्वा देहिनाम प्राणम् आश्रिता.

मैं मनुष्य के शरीर में वैश्वानर हुआ प्राणों के आश्रित रहता हूँ.
शब्द अथवा वाणी से ही उसको पुकारते हैंशब्द अथवा वाणी से परमात्मा तृप्त होते हैं.
मन अर्थात मन बुद्धि चित्त अहँकार ही उसका भोजन हैं.
मन के भक्ष्य होने पर ही आत्मतत्त्व प्रकट होता है.
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Friday, December 9, 2011

सरल वेदान्त- -VEDANT-अध्याय 19- वेदान्त के महावाक्य- Prof. Basant



           वेदान्त के महावाक्य 

          वेदान्त के चार वाक्य प्रमुख हैं.
          
            १-अहं ब्रह्मास्मि-मैं ही ब्रह्म हूँ.

            २.प्रज्ञानं ब्रह्म परम ज्ञान ही ब्रह्म है.

            ३.अयमात्मा ब्रह्म यह आत्मा ही ब्रह्म है. 

            ४.तत्वमसि वह तुम हो

सरल वेदान्त -VEDANT-अध्याय -18-सूक्ष्म शरीर -लिंग शरीर- Prof. Basant


           सूक्ष्म शरीर -लिंग शरीर

ब्रह्म सूत्र के चौथे अध्याय  के पहले पाद का दूसरा सूत्र है-              
                लिंगाच्च 
लिंग का अर्थ होता है प्रमाण. वेदों और वेदान्त में लिंग शब्द सूक्ष्म शरीर के लिए आया है. सूक्ष्म शरीर 17 तत्त्वों से बना है. शतपथ ब्राह्मण-5-2-2-3 में इन्हें सप्तदशः प्रजापतिः कहा है. मन बुद्धि पांच ज्ञानेन्द्रियाँ पांच कर्मेन्द्रियाँ पांच वायु. इस लिंग शरीर से आत्मा की सत्ता का प्रमाण मिलता है. वह भासित होती है. आकाश वायु अग्नि जल और पृथ्वी के सात्विक अर्थात ज्ञानमय अंशों से पांच ज्ञानेन्द्रियाँ और मन बुद्धि की रचना होती है. आकाश सात्विक अर्थात ज्ञानमय अंश  से श्रवण ज्ञान, वायु से स्पर्श ज्ञान, अग्नि से दृष्टि ज्ञान जल से रस ज्ञान और  पृथ्वी से गंध ज्ञान उत्पन्न होता है. पांच कर्मेन्द्रियाँ हाथ, पांव, बोलना. गुदा और मूत्रेन्द्रिय के कार्य सञ्चालन करने वाला ज्ञान.
प्राण अपान,व्यान,उदान,सामान पांच वायु हैं. यह आकाश वायु, अग्नि, जल. और पृथ्वी के रज अंश से उत्पन्न होते हैं. प्राण वायु नाक के अगले भाग में रहता है सामने से आता जाता है. अपान गुदा आदि स्थानों में रहता है. यह नीचे की ओर जाता है. व्यान सम्पूर्ण शरीर में रहता है. सब ओर यह जाता है. उदान वायु गले में रहता है. यह उपर की ओर जाता है और  उपर से निकलता है. सामान वायु भोजन को पचाता है.
हिन्दुओं का लिंग पूजन परमात्मा के प्रमाण स्वरूप सूक्ष्म शरीर का पूजन है. विकिपीडिया आदि में लिंग पूजन को लेकर अनर्गल जानकारी दी गयी 
है उसमें संशोधन आवश्यक है.

Thursday, December 8, 2011

वेदान्त-vedant-अध्याय -17-विज्ञानमय कोश- मन बुद्धि चित्त अहँकार-Prof. Basant


विज्ञानमय कोश- मन बुद्धि चित्त अहँकार-Prof. Basant

मन बुद्धि चित्त अहँकार यह चारों अन्तःकरण के ही रूप हैं, दूसरे शब्दों में यह बुद्धि की अथवा ज्ञान की चार भिन्न भिन्न अवस्थाएँ हैं.
संशयात्मक बुद्धि मन कहलाती है.
निश्चयात्मक बुद्धि -बुद्धि है.
स्मरणात्मिका बुद्धि  चित्त है.
अभिमानात्मिका बुद्धि को  अहँकार कहते हैं.
आकाश वायु अग्नि जल और पृथ्वी के सात्विक अर्थात ज्ञानमय अंशों से मन बुद्धि चित्त अहँकार की उत्पत्ति बतायी गयी है.आकाश सात्विक अर्थात ज्ञानमय अंश  से श्रवण ज्ञान, वायु से स्पर्श ज्ञान, अग्नि से दृष्टि ज्ञान जल से रस ज्ञान और  पृथ्वी से गंध ज्ञान उत्पन्न होता है.
ये मन बुद्धि चित्त अहँकार चारों ज्ञान स्वरूप हैं इन्हें देव स्वरूप माना गया है.
पांच ज्ञानेन्द्रियों समेत बुद्धि के मिल जाने से विज्ञानमय कोश बनता है. मनुष्य के cns के अंदर विज्ञानमय कोश है. यह विज्ञानमय कोश ही व्यवहार करनेवाला है. यह अहं स्वाभव वाला  विज्ञानमय कोश जीव और संसार के समस्त व्यवहारों को करने वाला है. अच्छा बुरा सब यही करता है, यही सुख दुःख भोगता है. भिन्न भिन्न योनियों में जाता है. आत्मा की निकटता के कारण अत्यंत प्रकाशमय है. धर्म, कर्म, गुण, अभिमान एवम ममता आदि इस विज्ञानमय कोश में रहते हैं.

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BHAGAVAD-GITA FOR KIDS

    Bhagavad Gita   1.    The Bhagavad Gita is an ancient Hindu scripture that is over 5,000 years old. 2.    It is a dialogue between Lord ...