Sunday, April 29, 2012

अष्टावक्र गीता (हिन्दी) – तीसरा अध्याय / प्रो बसन्त प्रभात जोशी



                 तीसरा  अध्याय

तत्त्व जनता आत्म का अविनाशी अरु एक
आत्मज्ञानी धीर तू अर्थार्जन क्यों प्रीति.१.
भासत सीपी रजत सम भ्रान्ति लोभ को जन्म
अज्ञान आत्म मोहित हुआ प्रीति  विषय को जन्म.२.
विश्व स्फुरित आत्म से ज्यों सागर में तरंग
सोऽहं ऐसा जान कर धावति क्यों जिमि दीन.३.
शुद्ध चैतन्य आत्मा अति सुंदर है जान
इन्द्रिय विषय आसक्त किमि और मलिनता प्राप्त.४.
सब भूतों में आत्मा आत्मा में सब भूत
मुनि जानत मोहित हुआ देख महत् आश्चर्य.५.
अद्वैत परम स्थित हुआ करे मोक्ष उद्योग
अति प्रबल आश्चर्य है काम अवश क्रीड़ा विकल .६.
काम प्रबल है ज्ञान रिपु जान देख आश्चर्य
अति दुर्बल जो कालवश आश्चर्य काम की चाह.७.
लोकालोक विरक्त जो नित्यानित्य विवेक
करे मोक्ष की कामना आश्चर्य मोक्ष भय जान.८.
धीर पुरुष तो भोगता और दुःख को प्राप्त
नित्य आत्म को देख वह नहिं तुष्ट नहिं क्रुद्ध.९.
चेष्टारत निज देह को अपर देह सम जान
कैसे होता क्षोभ को निदा स्तुति धीर.१०.
माया मात्र यह विश्व है कौतुक से जो पार
धीर पुरुष भयभीत क्यों मृत्यु समागम प्राप्त.११.
नैराश्य प्राप्त स्प्रहा नहीं महामना है जान
किससे तुलना पुरुष की आत्मतृप्त जो ज्ञान.१२.
जो यह निश्चित जानता कुछ नहिं दृश्य स्वभाव
धीर पुरुष किमि देखता ग्राह्य वस्तु अरु त्याज्य.१३.
चित्त कषाय तज दिया द्वन्द्व रहित निरलम्ब
देव प्रप्ति भोगादि में नहीं दुःख नहिं तुष्टि.१४. 


इस अध्याय में महर्षि अष्टावक्र कुछ विशेष प्रश्न पूछकर राजा जनक की परीक्षा लेते हैं.
१.हे राजन तू आत्म तत्व को यदि जान गया है तो फिर धन प्राप्ति एवम राज्य आदि सम्पदा में तेरी क्यों प्रीति है?
२. अज्ञान से आत्म मोहित हुआ पुरुष में भ्रम वश कैसे  विषय का अनुराग पैदा होता है?
३.सागर से जिस प्रकार तरंग उत्पन्न होती हैं उसी प्रकार आत्मा से यह विश्व पैदा होता है. यह जानकर भी आत्मज्ञानी क्यों दीन व्यक्ति की तरह संसार की ओर दौड़ता है?
४. शुद्ध चैतन्य आत्मा अति सुंदर है फिर भी आत्मज्ञानी क्यों इन्द्रिय विषय में आसक्त होकर मलिनता को प्राप्त होता है?
५.संसार के सब भूतों (प्राणी और पदार्थ) में आत्मा है और आत्मा के कारण ही सब भूत हैं.
यह जानकर भी आत्मज्ञानी मोहित होता है यह कितना बड़ा आश्चर्य है.
६.यह कितना बड़ा आश्चर्य है कि परम अद्वैत में स्थित होकर निरन्तर मोक्ष के लिए उद्योग करने वाला काम के वश में हुआ विकल होता है.
७. यह कितना बड़ा आश्चर्य है कि काम ज्ञान का प्रबल शत्रु है यह जानकर भी अति दुर्बल और जिसकी मृत्यु होने वाली है काम की चाह रखता है.
८. यह कितना बड़ा आश्चर्य है कि जो लोक परलोक से विरक्त है नित्यानित्य विवेक रखते हुए निरन्तर मोक्ष की कामना करता है वह भी मोक्ष से भय करता है.
९. धीर पुरुष संसार को भोगता और संसार के कष्टों को प्राप्त होकर भी किस प्रकार
नित्य आत्म में स्थित होकर न तो प्रसन्न होता है न क्रुद्ध होता है?
१०.धीर पुरुष जो अपने शरीर को दूसरे के सामान जानता है वह निदा स्तुति  होने पर  किस प्रकार क्षोभ को प्राप्त होता है?
११.जो आत्मज्ञानी यह जानता है कि यह विश्व माया मात्र है जो माया के कौतुक से पार हो गया है वह धीर पुरुष भी मृत्यु आने पर भयभीत क्यों हो जाता है?
१२.जिस महामना को निराशा में भी आसक्ति नहीं है ऐसे ज्ञान से आत्मतृप्त पुरुष की किससे तुलना किससे की जा सकती है?
१३.जो आत्मज्ञानी यह निश्चित रूप से जानता है कि दृश्य स्वभाव से कुछ नहीं है अर्थात विश्व भ्रम मात्र है ऐसा धीर पुरुष किस प्रकार देखता है कि कौन सी वस्तु ग्राह्य है और कौन त्याज्य है?
१४.जिस आत्मज्ञानी ने चित्त की कलुषता को त्याग  दिया है जो द्वन्द्व रहित है और निरलम्ब है अर्थात अपने में स्थित है उसे  भाग्य से जो मिलता है उसमें सुख दुःख नहीं होता है. ऐसा क्यों? .............................................................................................................................

Saturday, April 21, 2012

अष्टावक्रगीता (हिन्दी) - दूसरा अध्याय / प्रो बसन्त प्रभात जोशी


                दूसरा  अध्याय

आत्म ज्ञान होने पर राजा जनक कहते हैं
निर्दोष हूँ शान्त मैं, बोध हूँ प्रकृति परे
मोह से ठगा गया दीर्घ काल आश्चर्य है.१.
जैसे करता देह को वैसे जगत प्रकाश
सब कुछ यह जग मोर है अथवा किंचित नाहिं.२.
देह सहित इस विश्व को त्याग दर्श आश्चर्य
कितने कौशल से स्वयं देखूँ मैं परमात्म.३.
तरंग फेन अरु बुदबुदा जैसे भिन्न न तोय
विश्व भिन्न नहिं आत्मा अपितु जन्म एही आत्म.४.
तन्तु मात्र ही वस्त्र हैं जान सोच विचार
वैसे ही जग आत्मा यही विशेष विचार.५.
ईख बनी जिमि शर्करा ईख रसा में व्याप्त
मुझसे निर्मित विश्व यह सदा मम व्याप्त.६.
आत्ममोह भासित जग आत्म ज्ञान नहिं भास्
भ्रम से भासित रज्जु अहि, ज्ञान न भासित सर्प.७.
ज्ञान जान मम रूप है नहिं भिन्न मैं ज्ञान
विश्व प्रकाशित होत है जान मोर वह ज्ञान.८.
विश्व भास् अज्ञान से देखूँ महत् आश्चर्य
सीप रजत अहि रज्जू में जल जिमी रवि की रश्मि.९.
मुझसे उद्भव विश्व यह मुझमें लय हो जात
माटी कुम्भ जल में लहर हार स्वर्ण लय जान.१०.
नाश नहीं ब्रह्मा मरे जग समस्त मिट जाय
आश्चर्य परम हूँ जान मैं जगत नाश नहिं नाश.११.
आश्चर्य हूँ मुझको नमस् देहधारी अद्वैत हूँ
ना जाता ना लोटता विश्व व्याप्त स्थित सदा.१२.
आश्चर्य हूँ मुझको नमस् है नहीं निपुण कोउ मोर सम
देह को छूते हुए ना धार मैं चिर विश्व यह.१३.
आश्चर्य हूँ मुझको नमस् है कोई कुछ मेरा नहीं
जो कुछ मेरा जानता मन वाणी का विषय सब.१४.
ज्ञान ज्ञेय ज्ञाता त्रिविध, जान सत् नाहिं
अज्ञान से भासित सदा यह, मैं निरञ्जन हूँ सदा.१५.
द्वेत है सब मूल दुःख का, अन्य कुछ ओषधि नहीं
दृश्य है मिथ्या सदा यह शुद्ध चेतन्य मैं हि हूँ.१६.
मैं ही मात्र बोध हूँ उपाधि कल्पित अज्ञान मैं
नित प्रति सोचूं भांति एही मैं निर्विकल्प स्थित सदा.१७.
मुझमें स्थित विश्व यह वास्तव स्थित नाहिं
नहीं बंध है मोक्ष नहिं भ्रान्ति शान्त निरलम्ब मैं.१८.
देह सहित संसार यह निश्चित कुछ भी नाहिं
शुद्ध चेतन्य यह आत्मा किसमें कल्पित होय.१९.
स्वर्ग नरक अरु देह भय बंध मोक्ष सब झूठ
चैतन्य रूप हूँ आत्मा नहीं प्रयोजन मोर.२०.
नहीं देखता द्वेत मैं कोटि सहस्त्र अपार
निर्जन सम विस्तार मैं राग द्वेष कोउ नाहिं.२१.
नहीं देह मैं देह मम जीव नहीं चैतन्य
मेरा बंधन था यही यह जीवन की चाह.२२.
आश्चर्य अनन्त समुद्र मैं चित्त रूपिणी वायु
डोलत जेहि के जन्म ले जग विचित्र तरंग.२३.
अनन्त महाअम्बोध में स्थिर है चित्त वात
भाग्यहीन इस जीव वणिक की पोत नाश को प्राप्त.२४.
अनन्त महाअम्बोध में उद्भव जीव तरंग
उठ संघर्ष खेलती स्वाभाविक लय होत.२५.

      गीतामृत
आत्म ज्ञान होने पर राजा जनक कहते हैं
मैं निर्दोष हूँ, शान्त हूँ, बोध हूँ, प्रकृति से परे हूँ. आश्चर्य है लंबे समय से अज्ञान से से ठगा गया हूँ.
मैं जैसे देह को प्रकाशित करता हूँ वैसे जगत प्रकाश को भी मैं ही प्रकाशित करता हूँ
यह समस्त संसार मेरा है.
तरंग फेन अरु बुदबुदा जिस प्रकार पानी से भिन्न नहीं हैं अथवा तन्तु मात्र ही वस्त्र हैं उसी प्रकार यह विश्व आत्मा से भिन्न नहीं है.
ईख से बनी चीनी जिस प्रकार ईख के रस में व्याप्त है उसी मुझसे निर्मित यह विश्व सदा मुझी में व्याप्त है.
अज्ञान के कारण यह संसार महसूस होता है. ज्ञान होने पर संसार अस्तित्व  नहीं रहता.
ज्ञान मेरा ही रूप है मैं ज्ञान से भिन्न नहीं हूँ. इस ज्ञान से ही यह देह और संसार स्थित है.
मुझ से ही यह विश्व पैदा होता है और मुझमें ही लय हो जाता है जैसे जल में लहर उत्पन्न
होती है और उसी में विलीन हो जाती है.
सारे जगत के नष्ट होने पर मेरा नाश नहीं हैं. यहाँ तक ब्रह्माजी के नाश होने पर भी मेरा नाश नहीं है.
मैं देहधारी अद्वैत हूँ, न मैं जाता हूँ न लौटता हूँ.
मेरे सामान अन्य कोई निपुण नहीं है मैं इस शरीर और विश्व को छुए बिना इसे धारण करता हूँ.
मैं न ज्ञान हूँ, न ज्ञेय हूँ, न ज्ञाता हूँ क्योंकि अज्ञान के कारण इनका अस्तित्व है. (यहाँ ज्ञान विद्या और अविद्या के लिए आया है.)
द्वैत सब दुखों का कारण है.
मैं शुद्ध चैतन्य हूँ, बोध हूँ, निर्विकल्प हूँ. उपाधि अज्ञान से ही कल्पित है.
मुझमें यह विश्व जो स्थित दिखायी देता है वास्तव में मुझमें स्थित नहीं है.
वास्तव में कोई बंधन और मोक्ष नहीं है. मैं शान्त और निरालम्ब हूँ.
देह और  संसार वास्तव में कुछ भी नहीं हैं. शुद्ध चैतन्य यह आत्मा  का आरोपण किसमें किया जा सकता है.
स्वर्ग, नरक, देह,बंधन, मोक्ष और भय कल्पना मात्र हैं. आत्मतत्त्व विलक्षण है जो सर्वत्र व्याप्त है.
यह शरीर मेरा नहीं है, मैं जीव नहीं चैतन्य हूँ .जीव भाव ही मेरा बंधन है. इसी कारण जीवन की इच्छा रहती है.
आत्मा रुपी मुझ अनन्त समुद्र में विश्व रुपी तरंग उत्पन्न होती रहती हैं, चेतना रुपी वायु के शान्त होने पर जीव भाव अथवा विश्व  का नाश हो जाता है. यह महान आश्चर्य है कि आत्मा रुपी मुझ अनन्त समुद्र में विश्व रुपी तरंग उत्पन्न होती हैं, उठती हैं, संघर्ष करती हैं, खेलती हैं और स्वभावतः समाप्त हो जाती हैं.


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Thursday, April 19, 2012

अष्टावक्रगीता (हिन्दी) / प्रो बसन्त प्रभात जोशी


                        ॐ
        अष्टावक्रगीता (हिन्दी)                       
                 प्रथम अध्याय
राजा जनक पूछते हैं-
ज्ञान लब्ध केहि भांति हो मुक्ति होय केहि भांति
कैसे हो वैराग्य मोहि कहो कृपा करि नाथ . १ .

महर्षि अष्टावक्र राजा जनक को उपदेश देते हैं-
यदि चाहे तू मुक्ति को विषय जान विष त्याग 
संतोष सरलता सत् दया, क्षमा सेव्य पीयूष .२ .
ना पृथ्वी ना आप है अनल वायु खम नाहिं
चैतन्य सकल का साक्षी तू जान मुक्ति को पाय. ३ .
विगत देह स्थित हुआ विश्राम करे चैतन्य  
तुरत सुखी अरु शान्त हो बंध मुक्त हो जाय. ४ .
नहीं विप्रादि वर्ण है नाश्रमी इंद्री विषय
असंग है निराकार जान तू सुखी सदा . ५ .
सुख दुःख मन के जान तू धर्म-अधर्म मन जान
ना तेरे हैं, मुक्त तू, करता भोक्ता नाहिं .६ .
सबका दृष्टा एक तू सदा मुक्त है जान
तेरा बंधन है यही दृष्टा अपर को जान. ७ .
मैं कर्ता हूँ अहं अहि, कृष्ण सर्प दंशित हुआ
जान अकर्ता विश्वास अमृत को, पीकर सदा सुखी हो .८ .
एक विशुद्ध बोध हूँ निश्चय रुपी अग्नि
होम करे अज्ञान गहन का विगत शोक सुख पाय. ९ .
कल्पित भासित विश्व यह रज्जु सर्प सम जान
आनन्द तहाँ परमबोध है सुखी सदा विश्राम . १० .
मुक्ताभिमानी मुक्त है बद्धाभिमानी बद्ध
युक्ति सत्य यह जान तू जस मति तस गति होय . ११ .
चैतन्य पूर्ण एक अक्रिय, साक्षी विभु और मुक्त
असंग निस्पृह शान्त है ब्रह्म भास सम विश्व .१२ .
आभास ब्रह्म से मुक्त हो बाह्य अंतर भाव तज
अद्वैत बोध कूटस्थ आत्म को तू निरन्तर देख .१३ .
देह पाश से बद्ध तू बहुत काल हे पुत्र
अहं बोध के ज्ञान खड्ग से काट सुखी तू होय .१४ .
तू असंग निष्क्रिय सदा स्वयं प्रकाश निर्दोष
तेरा बंधन है यही, समाधि करे तू जोग. १५ .
तुझमें व्याप्त यह विश्व है गूंथा तुझमें जान
शुद्ध बुद्ध है तू सदा क्षुद्र चित्त मत मान .१६ .
निरपेक्ष निर्विकार निर्भर, शान्ति मुक्ति आश्रय तुही
अगाध बुद्धि क्षोभ शून्य, चैतन्य मात्र स्थित सदा .१७ .
साकार अनृत जान तू निराकार निश्चल सदा
जान तत्त्व उपदेश से नहीं जन्म जग होय .१८ .
दर्पण स्थित रूप के बाहर भीतर जान
तैसे ही परमात्मा देहान्तर तू जान .१९ .
एक व्योम सर्वत्र है घट भीतर अरु बाह्य
तैसे नित्य निरन्तर जान ब्रह्म सब भूत .२० .
        गीतामृत
मुक्ति के लिए विषय त्याग आवश्यक है.
जीवन में सरलता आवश्यक है जिसमें क्षमा दया और संतोष हों.
तू चैतन्य रूप है. तू सदा मुक्त है. तू सबका दृष्टा है.
तू न पृथ्वी है, न जल है, न अग्नि है, न वायु है, न आकाश है.
तू न ब्राह्मण है, न क्षत्रिय है, न वैश्य है, न शूद्र है.
तू न सन्यासी है, न तू इन्द्रियों का विषय है.
चैतन्य देह से अलग होकर चैतन्य में विश्राम पाकर सदा सुखी हो जाता है.
धर्म अधर्म दोनों मन के हैं.
तू न कर्ता है, तू न भोक्ता है. मैं कर्ता हूँ ही अहँकार रूपी विष है.
तेर बंधन यही है कि तू अपने को छोडकर दूसरे को दृष्टा देखता है.
तू अपने को सदा अकर्ता समझ, यही भाव अमृत है.
तू नित्य बोध रुपी अग्नि से अज्ञान को जला.
जो मुक्ति का अभिमान रखता है वह मुक्त है, जो संसार से बंधा रहना चाहता है वह बद्ध है. जिसकी जैसी मति वैसी गति.
सभी कुछ ईश्वर है जो ब्रह्म के कारण जगत भासित हो रहा है.
अहँकार रुपी भ्रम का त्याग करने पर आत्म बोध में निमग्न रहा जा सकता है.
जीव अनन्त काल से ही शरीर और संसार से बंधा हुआ है. ज्ञान से ही इस पाश को कटा जा सकता है.

तू स्वयं प्रकाशित, क्रिया रहित, दोष रहित, किसी से जुड़ा नहीं है. तेरा बंधन यह है कि तू आत्मज्ञान के लिए समाधि का प्रयत्न करता है
तुझसे ही यह विश्व व्याप्त है,यह संसार तुझमें गुंथा हुआ है. तू शुद्ध बुद्ध है अतः अपने को क्षुद्र मत समझ.
तू विकार रहित है, अपेक्षा रहित है स्वयं अपना आलम्ब है शान्ति और मुक्ति का स्थान है. तू अगाध बुद्धि रूप है, क्षोभ शून्य है. तू चैतन्य है अतः तू चैतन्य में स्थित हो.
जो कुछ भी साकार है असत् है, निराकार  ही सत् सदा रहनेवाला है. जो इस सत्य को जान लेता है वह जन्म मृत्यु के रहस्य को जानकर संसार से मुक्त हो जाता है.
जिस प्रकार दर्पण रूप के भीतर बाहर होता है उसी प्रकार इस शरीर के भीतर बाहर परमात्मा है. यह ठीक उसी प्रकार है जैसे घड़े के भीतर और बाहर आकाश होता है इसी प्रकार सब प्राणियों और पदार्थ के अंदर और बाहर परमात्मा है.


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BHAGAVAD-GITA FOR KIDS

    Bhagavad Gita   1.    The Bhagavad Gita is an ancient Hindu scripture that is over 5,000 years old. 2.    It is a dialogue between Lord ...