Saturday, June 29, 2013
Monday, June 24, 2013
तेरी गीता मेरी गीता - जीवात्मा का क्या स्वरुप है?- 87- बसंत
प्रश्न- जीवात्मा का क्या स्वरुप है?
उत्तर- जीवात्मा जब जहाँ होता है वैसा स्वरुप धारण कर लेता है.
प्रश्न- कृपया इसे स्पष्ट करें.
उत्तर - यह कुत्ते में है तो कुत्ता, तितली में है तो तितली, बिल्ली में है तो बिल्ली, मोहन नाम के आदमी में है तो मोहन, सविता नाम की स्त्री में है तो सविता, बच्चे में है तो बच्चा, बूड़े में है तो बूड़ा. यही नहीं यह पेड़ में है तो पेड़, पत्थर में है तो पत्थर, मिट्टी में है तो मिट्टी के कण का आकार ले लेता है. इसी प्रकार सूर्य में यह सूर्य है तो पृथ्वी में पृथ्वी के आकर का है, वायु में यह वायु हो जाता है तो आकाश में आकाश. यह जब जिस पदार्थ की कल्पना करता है तत्क्षण उस स्वरुप को धारण कर लेता है. इसका कोई आकार नहीं है यह सूक्ष्म से भी सूक्ष्म और विराट से भी अधिक विराट है. यह स्वयं ब्रह्म है.
प्रश्न- एक व्यक्ति मोहन है तो यह मोहन है पर यदि वह कल्पना करे तो वह सविता कैसे हो सकता है?
उत्तर- जितनी देर मोहन अपने अस्तित्व प्रतीति को सवितामय करेगा वह उतनी देर सविता हो जाएगा. जैसे एक व्यक्ति पुत्री के सामने पिता, माता के सामने पुत्र और पत्नी के सामने पति हो जाता है.शरीर नहीं बदला पर जीव स्वरुप बदल गया. शरीर की भावना, क्रिया, सोच सब बदल गयी.यह भावना जितने समय स्थिर होगी यह भी वैसा ही होने लगेगा, चूँकि हम अपनी अस्मिता प्रतीति से इतने अटूट रूप से बंधे होते हैं की देह रूपांतरण नहीं हो पाता और यदि अस्मिता प्रतीति नष्ट हो जाय तो यह तत्क्षण दूसरा हो जाता है.
Wednesday, June 19, 2013
तेरी गीता मेरी गीता - ब्रह्म सत्यम जगत मिथ्या - 86 - बसंत
प्रश्न- शंकाराचार्य के इस सूत्र 'ब्रह्म सत्यम जगत मिथ्या जीवो ब्रह्मेव नापराह' का क्या मतलब है? जब से यह सिद्धांत आया है तबसे इस विषय में कोई स्पष्टता से कुछ नहीं कह सका है, कुछ विद्वानों और आचार्यों ने तो इसके जगत मिथ्या विषय में संशोधन कर डाला है.
उत्तर-शंकाराचार्य के इस सूत्र 'ब्रह्म सत्यम जगत मिथ्या जीवो ब्रह्मेव नापराह' (ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है और जीव ही ब्रह्म है) को दो ही मनुष्य सही रूप में सरलता से बता सकते हैं. एक वह जिसको बोध हो गया हो दूसरा जिसका प्रतिबोध प्रभु के कृपा से पुष्ट हो गया हो.
प्रश्न- क्या आप हमें बताने का कष्ट करंगे?
उत्तर- ब्रह्म सत्य है इसे सभी स्वीकार करते हैं पर ब्रह्म को ठीक प्रकार से जानते नहीं हैं कि ब्रह्म क्या है? पहले ब्रह्म को समझो. ब्रह्म पूर्ण शुद्ध ज्ञान की अवस्था है जहाँ कोई हलचल नहीं है. यह सृष्टि और सृष्टि से परे जो भी है उसका मूल तत्त्व है. सम्पूर्ण सृष्टि इससे ही प्रकट होती है, इसमें ही स्थित रहती है और इसमें ही समा जाती है. यह आदि कारण ही सत्य है, यह सदा एकसा रहता है, यही परम अस्तित्त्व है जिससे अस्तित्व और अज्ञान प्रकट होते हैं और फिर अज्ञान से अस्तित्व दुबारा जीव रूप में प्रकट होता है.
जगत मिथ्या का अर्थ है जो पदार्थ अथवा गुण अभी है, आज है पर कुछ क्षण बाद अथवा कल उस रूप में नहीं होता है. संसार सदा परिवर्तनशील है. कोई वस्तु विकास को प्राप्त हो रही है तो कोई वस्तु विनाश को प्राप्त हो रही है, जो वस्तु आज सुख है वही कल दुःख है और जो आज, अभी दुःख है वह कल सुख है. कोई भी वस्तु सदा एक सम नहीं रहती. यहाँ तक की पृथ्वी, सूर्य सभी की निश्चित आयु है.
प्रश्न- ब्रह्म सत्य है तो फिर इससे मिथ्या जगत कैसे पैदा हुआ?
ब्रह्म पूर्ण शुद्ध ज्ञान की अवस्था है, ज्ञान में अस्तित्व बोध स्वाभाविक है .इसी कारण ब्रह्म में अस्तित्व 'मैं हूँ' बोध हुआ. यह अस्तित्व बोध शुद्ध था. जब भी कोई क्रिया होगी कोई दूसरा विपरीत अथवा अन्य तत्त्व अस्तित्व में आयेगा और पूर्ण शुद्ध अस्तित्व के विपरीत अज्ञान अस्तित्व में आया. चूँकि यह मूल नहीं है इसलिए असत कहा गया. इसे जड़ भी जाना जाता है. इसे आप इस प्रकार भी जान सकते है जैसे पदार्थ वैज्ञानिक के आधार पर ऊर्जा शुद्ध स्वरुप है और उससे निर्मित भिन्न भिन्न तत्त्व ऊर्जा के अशुद्ध अथवा असत रूप हैं, जिनमें ऊर्जा अन्दर छिपी बैठी है इसी प्रकार यह जगत ब्रह्म का असत रूप सर्वत्र स्थित है जहां ब्रह्म जीव रूप में छिपा बैठा है..
जीव का अर्थ है पूर्ण विशुद्ध ज्ञान का अंश. यह अज्ञान से मिला जुला अवश्य है पर ज्ञान होने से मूल रूप में शुद्ध है. इसे अज्ञान के संग रहने से उसमें आसक्ति हो गयी है, यह जगत अज्ञान-पदार्थ जो जड़ है से उत्पन्न और परिवर्तनशील होने के कारण असत है, से आसक्ति के कारण शुद्ध ज्ञानमय जीव बंध जाता है. इसलिए परमात्मा से उत्पन्न संसार हर परमाणु में जीव उपस्थिति के कारण असत होते हुए भी सत भासित होता है. जीव ही ब्रह्म है. ब्रह्म की बंधनमय अवस्था जीव कहलाती है. जीव अज्ञान का सीना फाड़ कर बाहर आता है और यही जगत को स्थान देता है. इसे इस प्रकार भी कहना उचित होगा कि यह प्रकृति के गर्भ से उत्पन्न होता दिखाई देता है और उसे जीवन देता है.
अब इसे सरल रूप से समझें अ- परमात्मा के दो भाग हुए १- शुद्ध बोध २- अज्ञान. अज्ञान परमात्मा से ही उत्पन्न है इसलिए वह परमात्मा अज्ञान में भी छिपा रहता है. बोध का जन्म अज्ञान के अन्दर से दुबारा होता है.
ज्ञान अज्ञान का मिलाजुला स्वरुप यह जगत है और विलक्षणता यह है कि दूसरी बार अज्ञान के अन्दर से जन्मा जो बोध है वह सृष्टि में परमात्मा का अंश होकर सर्वत्र व्याप्त है और अज्ञान भी सर्वत्र व्याप्त है. यह अज्ञान में स्थित और बाहर प्रकट होने वाला बोध सृष्टि को धारण किये हुए है. यदि जगत अथवा सृष्टि से ज्ञान निकल जाए तो पदार्थ बिना आधार का हो जाएगा और सृष्टि तत्काल नष्ट हो जायेगी.
रात को आप नींद में चले जाते हैं. नींद में दो तत्त्व रहते है नींद और नींद का बोध करने वाला. यही सृष्टि का रहस्य है. इसे आप ज्ञान और अज्ञान समझ लें. अब इस अज्ञान रुपी नींद के सीने से स्वप्न उदय होता है यह ही जगत है जो असत है पर जो नींद और स्वप्न में जो एक सा था जिसे बोध कहते हैं वह सत है. इन दोनों ज्ञान अज्ञान की एक स्थिति अव्यक्त ब्रह्म कही जाती है. इस अज्ञान के साथ रहते हुए इसके गुणों से आकर्षित हुआ बोध इनकी कामना करने लगता है और वह शुद्ध चैतन्य 'मैं' इस के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ लेता है और अपने ब्रह्म स्वरुप को भूल जाता है और जीव कहलाता है. वह इस जगत से आकर्षित हुआ अपनी आसक्ति में मस्त अपने शुद्ध स्वरुप को भूल जाता है. इस जीव को चेताने के लिए शंकर कहते हैं 'ब्रह्म सत्यम जगत मिथ्या'
Friday, June 7, 2013
तेरी गीता मेरी गीता- मृत्यु का कारण क्या कर्म हैं? क्या हम कर्म के लिए स्वतंत्र हैं अथवा परवश हैं?-85- बसंत
प्रश्न- क्या हम कर्म के लिए स्वतंत्र हैं अथवा परवश हैं?
उत्तर- हम कर्म के लिए स्वतंत्र दिखाई देते हैं, वास्तविकता में हम कर्म के लिए परवश हैं. कर्म का सिद्धांत बहुत जटिल है. असल में हर कर्म के पीछे कोई न कोई कारण और उसका प्रभाव है. यह दोनों कारण और प्रभाव अदृश्य होकर किसी भी घटना और कर्म के लिए उत्तरदायी हैं. इस संसार में छोटी से लेकर बड़ी घटना जो भी घटित हो रही है उसके पीछे कोई न कोई कारण अवश्य है. हम सोचते हैं मैं शायद यह न करता तो ऐसा न होता पर आप उस कर्म को करने के लिए प्रतिबद्ध है इसी प्रकार दूसरा जो कर्म का निमित्त बना वह भी प्रतिबद्ध है. आपके साथ जो भी होता है या होने जा रहा है प्रकृति उस घटना के लिए परिस्थिति पैदा कर देती है.
पदार्थ और प्राणी के साथ सदा तीन स्थितियां रहती है. जन्म, जीवन और मृत्यु इन तीनो स्थितियों के लिए दृश्य और अदृश्य रूप आप और दूसरा प्रतिबद्ध है. हम जाने अनजाने में अनेक प्राणियों की ह्त्या करते हैं कालान्तर में किसी न किसी रूप में वह जीव ही हमारी मृत्यु का कारण बनते हैं. अनजाने में हुई हिंसा उस जीव का प्रारब्ध था. हम उसकी मृत्यु का कारण बने और जान कर हुई ह्त्या उसके प्रारब्ध वश और उस कर्म के साथ साथ हमारा प्रारब्ध जुड़ जाता है. कालान्तर में किसी न किसी रूप में संयोग और परिस्थिति उत्पन्न होकर हमें कर्म फल भोगना पड़ता है.
श्री भगवान् भगवदगीता के अठारहवें अध्याय में बताते हैं-
सब प्राणी की देह में बैठे हैं भगवान
यन्त्र आरूढ़ सब भूत को, प्रकृति नचाती नाच।। 61-18।।बसंतेश्वरी गीता
मैं आत्मा सभी प्राणियों के हृदय में सम्पूर्ण ईश्वरीय शक्तियों के साथ स्थित रहता हूँ, प्रकृति (माया) का सहारा लेकर सभी भूतों को उसके कर्मों के अनुसार जिससे जैसा कराना है कराता हूँ। उसे भ्रम में डाल अथवा वैसी परिस्थितियाँ उत्पन्न कर नियत कर्म के लिए परवश देता हूँ।
इस संसार में जो भी हो रहा है वह कर्म बंधन है.इसे आप क्रिया प्रतिक्रया कह सकते है. प्रतिक्रया तात्कालिक भी हो सकती है और लम्बे समय के बाद परिणाम भी दे सकती है. यही कर्म बीज है और यह कर्म ही मृत्यु का कारण हैं.
प्रश्न- कर्म मृत्यु का कारण कैसे हैं?
उत्तर- कर्म अथवा क्रिया चाहे कितनी ही शुभ हो या अशुभ आप के द्वारा जड़ और चेतन प्रभावित होते हैं इसी क्रम में आप जाने अनजाने कई की मृत्यु का कारण बनते हैं, उनको नष्ट करते हैं और वही आपकी मृत्यु का कारण होते हैं. केवल स्वरुप परिवर्तन के कारण सब को कारण अलग अलग दिखाई देता है. इसी प्रकार हम जो भी अच्छा अथवा बुरा कार्य कर रहे हैं और हमारे साथ जो भी अच्छा और बुरा होता है, हो रहा है और होयेगा यह सब केवल संयोग का परिणाम है जिसके लिए हम अथवा हमारे कर्म उत्तरदायी हैं.
प्रश्न - फिर अमरत्व कैसे प्राप्त हो सकता है?
उत्तर- जब तक कर्म हैं तब तक अमरत्व नहीं हो सकता. कर्म ही मृत्यु का कारण हैं. कर्म चाहे शुभ हो अतवा अशुभ, यह हमें मृत्यु की और ले जाते हैं और यही हमारे जन्म का कारण हैं.
प्रश्न- क्या अमरत्व झूठी बात है? क्या अमरत्व नहीं है/
उत्तर- अमरतत्व पाया जा सकता है इसके लिए कर्म छोड़ने होंगे.
प्रश्न- यह कैसे संभव है?
उत्तर- आपको 100% दृष्टा अथवा साक्षी होना होगा. उससे पहले आप कोई भी जतन कर लें मृत्यु अवश्य आयेगी. 100% दृष्टा अथवा साक्षी स्थिति में आप बोध के साथ शरीर से बाहर हो जायेंगे, तब न कोई कर्म होगा न कर्म बंधन और परिणाम.
कर्म की दृष्टि से तुम किसी के काल हो तो कोई तुम्हारा काल है, तुम किसी के रक्षक हो तो कोई तुम्हारा रक्षक है, किसी ने तुमको जन्म दिया तो किसी को तुम जन्म देते हो.यही प्रकृति बंधन है, यही कर्म बंधन है और अनादि है. जब तुम इन सभी कर्मों को देखने लग जाते हो तो यह प्रकृति रुक जाती है, यही अमृत की घड़ी है.इसकी पूर्णता तुम्हारी पूर्णता है.
उत्तर- हम कर्म के लिए स्वतंत्र दिखाई देते हैं, वास्तविकता में हम कर्म के लिए परवश हैं. कर्म का सिद्धांत बहुत जटिल है. असल में हर कर्म के पीछे कोई न कोई कारण और उसका प्रभाव है. यह दोनों कारण और प्रभाव अदृश्य होकर किसी भी घटना और कर्म के लिए उत्तरदायी हैं. इस संसार में छोटी से लेकर बड़ी घटना जो भी घटित हो रही है उसके पीछे कोई न कोई कारण अवश्य है. हम सोचते हैं मैं शायद यह न करता तो ऐसा न होता पर आप उस कर्म को करने के लिए प्रतिबद्ध है इसी प्रकार दूसरा जो कर्म का निमित्त बना वह भी प्रतिबद्ध है. आपके साथ जो भी होता है या होने जा रहा है प्रकृति उस घटना के लिए परिस्थिति पैदा कर देती है.
पदार्थ और प्राणी के साथ सदा तीन स्थितियां रहती है. जन्म, जीवन और मृत्यु इन तीनो स्थितियों के लिए दृश्य और अदृश्य रूप आप और दूसरा प्रतिबद्ध है. हम जाने अनजाने में अनेक प्राणियों की ह्त्या करते हैं कालान्तर में किसी न किसी रूप में वह जीव ही हमारी मृत्यु का कारण बनते हैं. अनजाने में हुई हिंसा उस जीव का प्रारब्ध था. हम उसकी मृत्यु का कारण बने और जान कर हुई ह्त्या उसके प्रारब्ध वश और उस कर्म के साथ साथ हमारा प्रारब्ध जुड़ जाता है. कालान्तर में किसी न किसी रूप में संयोग और परिस्थिति उत्पन्न होकर हमें कर्म फल भोगना पड़ता है.
श्री भगवान् भगवदगीता के अठारहवें अध्याय में बताते हैं-
सब प्राणी की देह में बैठे हैं भगवान
यन्त्र आरूढ़ सब भूत को, प्रकृति नचाती नाच।। 61-18।।बसंतेश्वरी गीता
मैं आत्मा सभी प्राणियों के हृदय में सम्पूर्ण ईश्वरीय शक्तियों के साथ स्थित रहता हूँ, प्रकृति (माया) का सहारा लेकर सभी भूतों को उसके कर्मों के अनुसार जिससे जैसा कराना है कराता हूँ। उसे भ्रम में डाल अथवा वैसी परिस्थितियाँ उत्पन्न कर नियत कर्म के लिए परवश देता हूँ।
इस संसार में जो भी हो रहा है वह कर्म बंधन है.इसे आप क्रिया प्रतिक्रया कह सकते है. प्रतिक्रया तात्कालिक भी हो सकती है और लम्बे समय के बाद परिणाम भी दे सकती है. यही कर्म बीज है और यह कर्म ही मृत्यु का कारण हैं.
प्रश्न- कर्म मृत्यु का कारण कैसे हैं?
उत्तर- कर्म अथवा क्रिया चाहे कितनी ही शुभ हो या अशुभ आप के द्वारा जड़ और चेतन प्रभावित होते हैं इसी क्रम में आप जाने अनजाने कई की मृत्यु का कारण बनते हैं, उनको नष्ट करते हैं और वही आपकी मृत्यु का कारण होते हैं. केवल स्वरुप परिवर्तन के कारण सब को कारण अलग अलग दिखाई देता है. इसी प्रकार हम जो भी अच्छा अथवा बुरा कार्य कर रहे हैं और हमारे साथ जो भी अच्छा और बुरा होता है, हो रहा है और होयेगा यह सब केवल संयोग का परिणाम है जिसके लिए हम अथवा हमारे कर्म उत्तरदायी हैं.
प्रश्न - फिर अमरत्व कैसे प्राप्त हो सकता है?
उत्तर- जब तक कर्म हैं तब तक अमरत्व नहीं हो सकता. कर्म ही मृत्यु का कारण हैं. कर्म चाहे शुभ हो अतवा अशुभ, यह हमें मृत्यु की और ले जाते हैं और यही हमारे जन्म का कारण हैं.
प्रश्न- क्या अमरत्व झूठी बात है? क्या अमरत्व नहीं है/
उत्तर- अमरतत्व पाया जा सकता है इसके लिए कर्म छोड़ने होंगे.
प्रश्न- यह कैसे संभव है?
उत्तर- आपको 100% दृष्टा अथवा साक्षी होना होगा. उससे पहले आप कोई भी जतन कर लें मृत्यु अवश्य आयेगी. 100% दृष्टा अथवा साक्षी स्थिति में आप बोध के साथ शरीर से बाहर हो जायेंगे, तब न कोई कर्म होगा न कर्म बंधन और परिणाम.
कर्म की दृष्टि से तुम किसी के काल हो तो कोई तुम्हारा काल है, तुम किसी के रक्षक हो तो कोई तुम्हारा रक्षक है, किसी ने तुमको जन्म दिया तो किसी को तुम जन्म देते हो.यही प्रकृति बंधन है, यही कर्म बंधन है और अनादि है. जब तुम इन सभी कर्मों को देखने लग जाते हो तो यह प्रकृति रुक जाती है, यही अमृत की घड़ी है.इसकी पूर्णता तुम्हारी पूर्णता है.
Wednesday, June 5, 2013
तेरी गीता मेरी गीता - असुर - कल के असुर आज के असुर - 84 - बसंत
प्रश्न- असुर किसे कहतेहैं? क्या वे होते थे?
उत्तर- असुर पहले भी होते थे, आज भी है तथा कल भी रहंगे. असुर का अर्थ है बिना सुर का. जिसके जीवन में कोइ सुर न हो, जिसका जीवन संगीत मर गया हो उसे असुर कहते है. किस्से कहानियों में असुर बड़े बड़े दांत वाले, सर में सींग, बड़े बड़े नाखून वाले दिखाए जाते हैं पर ऐसा नहीं है. असुर एक स्वभाव है जो सदा रहा है और सदा रहेगा. भगवदगीता के सोलहवें अध्याय में आसुरी स्वभाव की विस्तार से चर्चा हुयी है.
वास्तविकता छिपाकर मिथ्या रूप दिखाना, ईश्वर भक्ति का गर्व पूर्वक बाजार में प्रचार करना, दर्प, सबको नीचा दिखाने की आदत, आधा जल भरा हुआ गागर जिस प्रकार छलकता है उसी प्रकार जो प्रभुता को नहीं पचा पाता, अभिमान अर्थात अपने को, अपने ज्ञान को श्रेष्ठ मानना, क्रोध, कठोर वाणी से दूसरे को जलाना, अपमान करना, मूढ़ता जो शुभ और अशुभ में फर्क नहीं कर सकता, आसुरी सम्पदा को लेकर उत्पन्न पुरुष के लक्षण हैं।
आसुरी स्वभाव वाले नहीं जानते कि किस कर्म को करना चाहिए किस कर्म से दूर रहना चाहिए, किस कार्य से स्वयं उनकी हानि होगी तथा किसी कार्य से उन्हें फायदा होगा इस विषय में वह मूढ़ होते हैं क्योंकि अत्याधिक तम और रज का प्रभाव उनमें होता है। न उनका अन्तःकरण शुद्ध होता है न वह शारीरिक रूप से पवित्र होते हैं, उनका कोई आचरण श्रेष्ठ नहीं होता, वह दूसरे को अपमानित करने वाले, कष्ट देने वाले गलत मार्ग में डालने वाले होते हैं। सत्य से कोई प्रीति अर्थात अज्ञान का नष्ट करने के लिए उनका कोई कार्य नहीं होता, ज्ञान के लिए वह कभी लालायित नहीं रहते। वे आसुरी वृत्ति वाले जगत को आश्रय रहित, असत्य और बिना ईश्वर के मानते हैं। यह संसार स्त्री पुरुष के संयोग से उत्पन्न हुआ है और काम ही इसका कारण है, इसके सिवा और कुछ भी नहीं है। वह यह मानकर चलते हैं जो आज है वही सब कुछ है। भोग ही उनका जीवन है। शास्त्र उनके लिए मिथ्या है। दैवी सम्पदा मूर्खता है। देह ही उनके लिए सर्वोपरि है। उनके अनुसार पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक, ज्ञान, ईश्वर सब कल्पना है। इस प्रकार मिथ्या दृष्टि को आधार मानकर चलने वाले जिनका ज्ञान नष्ट हो गया है, जिन की बुद्धि अल्प है, ऐसे आसुरी वृत्ति के लोग सबका अपकार करने वाले कठोर और निन्दनीय कर्म (विकर्म) में लगे रहते हैं। ऐसे मनुष्य से जड़ चेतन सभी त्रास पाते है। जगत के अहित के लिए ही इनका जन्म होता है। ये दम्भ, मान, मद से युक्त मनुष्य किसी भी प्रकार से पूर्ण न होने वाली कामनाओं का आश्रय लेकर संसार में विचरते हैं। यही नहीं उनमें अज्ञान के कारण अनेक भ्रान्ति पूर्ण बातें मस्तिष्क में भरी रहती है, जिसके कारण उनका आचरण भ्रष्ट रहता है। जगत के प्राणियों को पीड़ित करने वाले, उन्मत्त मनमाना पापाचरण करते हैं। उनका केवल एक ही विचार रहता है, कैसे ही भोग करें, कैसे सुख मिले। इसके लिए कुछ भी करना पड़े, इस कारण मृत्यु होने तक अनेक चिन्ताओं को पाले रखते हैं। कैसे भी जमीन जायदाद बढ़ानी है, ऐशो-आराम की वस्तुएं जुटानी हैं, भोग करना है, इस व्यक्ति को नष्ट करना है आदि आदि सदा विषय भोग में लगे, उसे ही सुख मानने वाले होते हैं।
विभिन्न आशाओं के जाल में फंसे हुए आसुरी वृत्ति के मनुष्य सदा काम और क्रोध में रहते हैं। नित नई कामना करते हैं। हर कामना पूरी नहीं हो सकती और कामना में विघ्न होने से क्रोध उत्पन्न होता है। विषय भोग ही इनका जीवन है जिसके लिए अन्याय पूर्वक धन आदि का संग्रह करने का प्रयत्न करते हैं।
अपने समाज में यह कहते फिरते हैं मैंने यह प्राप्त कर लिया है, अब इस मनोरथ को प्राप्त कर लूंगा जैसे एक कारखाना लगा दिया है, दो और लगाने हैं, इस साल इतना कमाना है अगले वर्ष दुगना करना है, मेरे पास इतना धन है फिर इतना हो जायेगा। इस शत्रु को मैंने मार डाला है या नष्ट कर दिया कल दूसरे को भी मटियामेट कर दूंगा मैं मालिक हूँ, मैं ही ईश्वर हूँ, मैं ही बलवान हूँ, मैं ही सिद्ध हूँ, मैं ही भोगने वाला हूँ, सब मेरे आधीन हैं, मैं ही पृथ्वी का राजा हूँ, यह सब मेरा ही ऐश्वर्य है आदि। मैं बड़ा धनी हूँ, कुबेर से ज्यादा धन मेरे पास है, मैं बड़े कुटुम्ब वाला हूँ, मेरे समान दूसरा कोई नहीं है। जो हूँ मैं ही हूँ, मैं यज्ञ करूंगा, दान दूँगा, आमोद प्रमोद करूंगा, ऐसी कभी खत्म नहीं होने वाली कामनाओं को लिए हुए रहते हैं। इनका हृदय सदा जलता रहता है। इनकी बुद्धि अज्ञान से मोहित व भ्रमित रहती है। यह जमीन, धन, परिवार, झूठी प्रतिष्ठा के मोह से घिरे रहते हैं। सदा विषय भोग में लगे अत्यन्त कामी, घोर अशांत अपने बनाये हुए नरक में जलते रहते हैं.
यह सदा दूसरों से अपने को हर बात में श्रेष्ठ मानने वाले घमण्डी पुरुष धन और झूठे मान मद से युक्त होकर दिखावे का यज्ञ पूजन करते हैं और जिसमें शास्त्र की बतायी विधि का पालन नहीं किया जाता केवल अपनी वाहवाही के लिए पाखण्ड पूजन आदि करते हैं। यह आसुरी वृत्ति के पुरुष अहंकार, बल, घमण्ड, कामना, क्रोध आदि के आश्रित रहते हैं। सदा दूसरों की निन्दा करते हैं, इस प्रकार अपने शरीर में तथा दूसरे के शरीर में स्थित परमात्मा से अहंकार और मूढ़ भाव के कारण द्वेष करते हैं।
इस स्वभाव की अधिकता संसार को विनाश की और ले जाती है.
बसंतेश्वरी गीता pdf -83 - बसंत
https://drive.google.com/file/d/0BxOeSNbZ8XHxblBqZFlMWVl0c2c/view?usp=sharing
Saturday, June 1, 2013
तेरी गीता मेरी गीता - आत्म जिज्ञासु शिष्य कैसा होना चाहिए?- 82 - बसंत
प्रश्न- आत्म जिज्ञासु शिष्य कैसा होना चाहिए?
उत्तर- 1- जो तीक्ष्ण बुद्धि वाला हो.
2- जो बुद्धिमान हो और जिसकी स्मृति अच्छी हो.
3- जो वेदान्त, भगवद्गीता और अष्टावक्र गीता के वाक्यों के अर्थ पर निरंतर विचार करता हो.
4- जो तर्क वितर्क कर सकता हो. शिष्य और गुरु के बीच तब तक तर्क वितर्क शांत नहीं होने चाहिए जब तक संशय नष्ट होकर प्रतिबोध का धरातल पुष्ट न हो जाय. केवल एक प्रश्न पूछ लिया गुरु जी ने उत्तर दे दिया, तालियाँ बज गयी फिर बगल झाकने लगे, यह आत्मघाती स्वभाव और स्थिति है.
गुरु शिष्य के बीच संशय नष्ट होने तक निरंतर सत्संग, स्वाध्याय, चिंतन, तर्क वितर्क होने अनिवार्य हैं. आत्मज्ञान की अमूल्य निधि उपनिषद, भगवद्गीता और विवेक चूडामणि यही सन्देश देते है.
इसके साथ अथवा इसके पश्चात ही सही साधना हो सकती है, बाकी तो टाइम पास है.
देखादेखी गुरु बनाने वाले शिष्य का कल्याण कठिन है. जब तक संशय नष्ट नहीं होगा तब तक श्रद्धा नहीं होगी और विश्वास सदा डगमगाते रहेगा.
प्रश्न- किस संदेह को नष्ट होना है?
उत्तर- आत्मा और मिथ्यात्मा का भली भाँती विवेक हो जाना है. इसी का विवेचन करना है. इसी से अस्मिता प्रतीति के संशय मिट जाते है.
उत्तर- 1- जो तीक्ष्ण बुद्धि वाला हो.
2- जो बुद्धिमान हो और जिसकी स्मृति अच्छी हो.
3- जो वेदान्त, भगवद्गीता और अष्टावक्र गीता के वाक्यों के अर्थ पर निरंतर विचार करता हो.
4- जो तर्क वितर्क कर सकता हो. शिष्य और गुरु के बीच तब तक तर्क वितर्क शांत नहीं होने चाहिए जब तक संशय नष्ट होकर प्रतिबोध का धरातल पुष्ट न हो जाय. केवल एक प्रश्न पूछ लिया गुरु जी ने उत्तर दे दिया, तालियाँ बज गयी फिर बगल झाकने लगे, यह आत्मघाती स्वभाव और स्थिति है.
गुरु शिष्य के बीच संशय नष्ट होने तक निरंतर सत्संग, स्वाध्याय, चिंतन, तर्क वितर्क होने अनिवार्य हैं. आत्मज्ञान की अमूल्य निधि उपनिषद, भगवद्गीता और विवेक चूडामणि यही सन्देश देते है.
इसके साथ अथवा इसके पश्चात ही सही साधना हो सकती है, बाकी तो टाइम पास है.
देखादेखी गुरु बनाने वाले शिष्य का कल्याण कठिन है. जब तक संशय नष्ट नहीं होगा तब तक श्रद्धा नहीं होगी और विश्वास सदा डगमगाते रहेगा.
प्रश्न- किस संदेह को नष्ट होना है?
उत्तर- आत्मा और मिथ्यात्मा का भली भाँती विवेक हो जाना है. इसी का विवेचन करना है. इसी से अस्मिता प्रतीति के संशय मिट जाते है.
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