Saturday, April 21, 2012

अष्टावक्रगीता (हिन्दी) - दूसरा अध्याय / प्रो बसन्त प्रभात जोशी


                दूसरा  अध्याय

आत्म ज्ञान होने पर राजा जनक कहते हैं
निर्दोष हूँ शान्त मैं, बोध हूँ प्रकृति परे
मोह से ठगा गया दीर्घ काल आश्चर्य है.१.
जैसे करता देह को वैसे जगत प्रकाश
सब कुछ यह जग मोर है अथवा किंचित नाहिं.२.
देह सहित इस विश्व को त्याग दर्श आश्चर्य
कितने कौशल से स्वयं देखूँ मैं परमात्म.३.
तरंग फेन अरु बुदबुदा जैसे भिन्न न तोय
विश्व भिन्न नहिं आत्मा अपितु जन्म एही आत्म.४.
तन्तु मात्र ही वस्त्र हैं जान सोच विचार
वैसे ही जग आत्मा यही विशेष विचार.५.
ईख बनी जिमि शर्करा ईख रसा में व्याप्त
मुझसे निर्मित विश्व यह सदा मम व्याप्त.६.
आत्ममोह भासित जग आत्म ज्ञान नहिं भास्
भ्रम से भासित रज्जु अहि, ज्ञान न भासित सर्प.७.
ज्ञान जान मम रूप है नहिं भिन्न मैं ज्ञान
विश्व प्रकाशित होत है जान मोर वह ज्ञान.८.
विश्व भास् अज्ञान से देखूँ महत् आश्चर्य
सीप रजत अहि रज्जू में जल जिमी रवि की रश्मि.९.
मुझसे उद्भव विश्व यह मुझमें लय हो जात
माटी कुम्भ जल में लहर हार स्वर्ण लय जान.१०.
नाश नहीं ब्रह्मा मरे जग समस्त मिट जाय
आश्चर्य परम हूँ जान मैं जगत नाश नहिं नाश.११.
आश्चर्य हूँ मुझको नमस् देहधारी अद्वैत हूँ
ना जाता ना लोटता विश्व व्याप्त स्थित सदा.१२.
आश्चर्य हूँ मुझको नमस् है नहीं निपुण कोउ मोर सम
देह को छूते हुए ना धार मैं चिर विश्व यह.१३.
आश्चर्य हूँ मुझको नमस् है कोई कुछ मेरा नहीं
जो कुछ मेरा जानता मन वाणी का विषय सब.१४.
ज्ञान ज्ञेय ज्ञाता त्रिविध, जान सत् नाहिं
अज्ञान से भासित सदा यह, मैं निरञ्जन हूँ सदा.१५.
द्वेत है सब मूल दुःख का, अन्य कुछ ओषधि नहीं
दृश्य है मिथ्या सदा यह शुद्ध चेतन्य मैं हि हूँ.१६.
मैं ही मात्र बोध हूँ उपाधि कल्पित अज्ञान मैं
नित प्रति सोचूं भांति एही मैं निर्विकल्प स्थित सदा.१७.
मुझमें स्थित विश्व यह वास्तव स्थित नाहिं
नहीं बंध है मोक्ष नहिं भ्रान्ति शान्त निरलम्ब मैं.१८.
देह सहित संसार यह निश्चित कुछ भी नाहिं
शुद्ध चेतन्य यह आत्मा किसमें कल्पित होय.१९.
स्वर्ग नरक अरु देह भय बंध मोक्ष सब झूठ
चैतन्य रूप हूँ आत्मा नहीं प्रयोजन मोर.२०.
नहीं देखता द्वेत मैं कोटि सहस्त्र अपार
निर्जन सम विस्तार मैं राग द्वेष कोउ नाहिं.२१.
नहीं देह मैं देह मम जीव नहीं चैतन्य
मेरा बंधन था यही यह जीवन की चाह.२२.
आश्चर्य अनन्त समुद्र मैं चित्त रूपिणी वायु
डोलत जेहि के जन्म ले जग विचित्र तरंग.२३.
अनन्त महाअम्बोध में स्थिर है चित्त वात
भाग्यहीन इस जीव वणिक की पोत नाश को प्राप्त.२४.
अनन्त महाअम्बोध में उद्भव जीव तरंग
उठ संघर्ष खेलती स्वाभाविक लय होत.२५.

      गीतामृत
आत्म ज्ञान होने पर राजा जनक कहते हैं
मैं निर्दोष हूँ, शान्त हूँ, बोध हूँ, प्रकृति से परे हूँ. आश्चर्य है लंबे समय से अज्ञान से से ठगा गया हूँ.
मैं जैसे देह को प्रकाशित करता हूँ वैसे जगत प्रकाश को भी मैं ही प्रकाशित करता हूँ
यह समस्त संसार मेरा है.
तरंग फेन अरु बुदबुदा जिस प्रकार पानी से भिन्न नहीं हैं अथवा तन्तु मात्र ही वस्त्र हैं उसी प्रकार यह विश्व आत्मा से भिन्न नहीं है.
ईख से बनी चीनी जिस प्रकार ईख के रस में व्याप्त है उसी मुझसे निर्मित यह विश्व सदा मुझी में व्याप्त है.
अज्ञान के कारण यह संसार महसूस होता है. ज्ञान होने पर संसार अस्तित्व  नहीं रहता.
ज्ञान मेरा ही रूप है मैं ज्ञान से भिन्न नहीं हूँ. इस ज्ञान से ही यह देह और संसार स्थित है.
मुझ से ही यह विश्व पैदा होता है और मुझमें ही लय हो जाता है जैसे जल में लहर उत्पन्न
होती है और उसी में विलीन हो जाती है.
सारे जगत के नष्ट होने पर मेरा नाश नहीं हैं. यहाँ तक ब्रह्माजी के नाश होने पर भी मेरा नाश नहीं है.
मैं देहधारी अद्वैत हूँ, न मैं जाता हूँ न लौटता हूँ.
मेरे सामान अन्य कोई निपुण नहीं है मैं इस शरीर और विश्व को छुए बिना इसे धारण करता हूँ.
मैं न ज्ञान हूँ, न ज्ञेय हूँ, न ज्ञाता हूँ क्योंकि अज्ञान के कारण इनका अस्तित्व है. (यहाँ ज्ञान विद्या और अविद्या के लिए आया है.)
द्वैत सब दुखों का कारण है.
मैं शुद्ध चैतन्य हूँ, बोध हूँ, निर्विकल्प हूँ. उपाधि अज्ञान से ही कल्पित है.
मुझमें यह विश्व जो स्थित दिखायी देता है वास्तव में मुझमें स्थित नहीं है.
वास्तव में कोई बंधन और मोक्ष नहीं है. मैं शान्त और निरालम्ब हूँ.
देह और  संसार वास्तव में कुछ भी नहीं हैं. शुद्ध चैतन्य यह आत्मा  का आरोपण किसमें किया जा सकता है.
स्वर्ग, नरक, देह,बंधन, मोक्ष और भय कल्पना मात्र हैं. आत्मतत्त्व विलक्षण है जो सर्वत्र व्याप्त है.
यह शरीर मेरा नहीं है, मैं जीव नहीं चैतन्य हूँ .जीव भाव ही मेरा बंधन है. इसी कारण जीवन की इच्छा रहती है.
आत्मा रुपी मुझ अनन्त समुद्र में विश्व रुपी तरंग उत्पन्न होती रहती हैं, चेतना रुपी वायु के शान्त होने पर जीव भाव अथवा विश्व  का नाश हो जाता है. यह महान आश्चर्य है कि आत्मा रुपी मुझ अनन्त समुद्र में विश्व रुपी तरंग उत्पन्न होती हैं, उठती हैं, संघर्ष करती हैं, खेलती हैं और स्वभावतः समाप्त हो जाती हैं.


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1 comment:

  1. समुंद्र है तो तरंग उठेगी ही वायु आधारभूत तत्व है तो क्या किया जाय केवल तरंग का उठना बैठना ही देखा जा सकता है अर्थात साक्षी भाव .यही सिद्ध हो जाय तो बात बन जाय.

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