Wednesday, June 13, 2012

अष्टावक्र गीता (हिन्दी) - अध्याय 13 & 14 / प्रो बसन्त प्रभात जोशी


                अष्टावक्रगीता (हिन्दी)                      
                    तेरहवाँ अध्याय
राजा जनक अपनी स्थिति को बताते हैं-
कुछ भी नहीं अस स्वास्थ्य से दुर्लभ अपि सन्यासि
त्याग ग्रहण को छोडकर सुखपूर्वक स्थित सदा.१.
कहीं खेद है देह का कहीं दुखी मन, जीभ
इन त्रय को तजते हुए सुख स्थित पुरुषार्थ.२.
किया हुआ जो कर्म है नहीं आत्मकृत जान
जो आयाति कर्म है कर उसको सुखी सदा.३.
कर्म निष्कर्म बंध से जुड़े देह अस योगि
संयोग वियोग अस देह से मुक्त सुखी अस जान.४.
चलने सोने ठहरने अर्थ अनर्थ न जान
एहि कारण मैं ठहरता सोता जाता सुखी सदा.५.
निद्रा से नहिं हानि है यत्न नहीं है सिद्धि
हानि लाभ को त्यागकर सुखपूर्वक स्थित सदा.६.
बहुत जन्म देखे सुने सुख दुःख सदा अनित्य
शुभाशुभ को छोड़कर सुखपूर्वक स्थित सदा.७.

                   गीतामृत
राजा जनक अपनी स्थिति को बताते हैं- मेरे लिए कुछ भी नहीं है, ऐसे भाव से मैं चित्त की स्थिरता को प्राप्त हो गया हूँ ऐसा स्वभाव कोपीन को धारण करने वाले सन्यासी में भी दुर्लभ है. मेरे लिए त्याग और ग्रहण दोनों सामान हैं इसलिए इन्हें छोड़कर मैं सुख पूर्वक स्थित हूँ.
कहीं शरीर का दुःख है कहीं वाणी और मन का दुःख है. इसलिए इन तीनों को त्यागकर मैं सुख पूर्वक स्थित हूँ.
कोई भी किया हुआ कर्म आत्म कृत नहीं होता है ऐसा विचार करके जो कुछ कर्म उपस्थित हो जाता है उसे करके मैं सुख पूर्वक स्थित हूँ.
अनेक योगी कर्म और निष्कर्म के बंधन को रखने वाले हैं परन्तु मैं संयोग वियोग से सर्वथा अलग होने के कारण सुख पूर्वक स्थित हूँ.
चलने सोने ठहरने आदि क्रियाओं में कुछ भी अर्थ अनर्थ नहीं दिखायी देता है. इस कारण मैं ठहरता सोता जाता सदा सुख पूर्वक स्थित हूँ.
सोते  हुए मुझे हानि नहीं है न यत्न करते हुए मुझे सिद्धि की इच्छा है. इसलिए हानि  लाभ को त्यागकर मैं सुख पूर्वक स्थित हूँ.
बहुत से जन्मों  और अनेक परिस्थितियों में सुख दुःख की अनित्यता को देखकर शुभाशुभ को छोड़कर मैं सुख पूर्वक स्थित हूँ.

                       
                  चौदहवाँ अध्याय
राजा जनक कहते हैं-
जो चित शून्य स्वभाव है प्रमाद विषय कर ध्यान
निद्रा पर बोधित सदा मुक्त पुरुष संसार.१.
कहाँ मित्र अरु धन गया विषया रुपी चोर
इच्छा जब से नष्ट मम कहाँ शास्त्र कहँ ज्ञान.२.
जब से जाना परमात्मा को साक्षी ईश्वर जान
बंध मोक्ष नैराश्य नहिं मुक्ति न चिन्ता मोहि.३.
अंतर विकल्प शून्य है स्वछन्द बाह्य से भास
वैसी वैसी दशा को जान पुरुष तद्रूप.४.

                     गीतामृत
राजा जनक कहते हैं जो चित्त स्वभाव से शून्य है पर आलस्य से विषयों की भावना करता हैजो सोता हुआ भी जगाता है ऐसा पुरुष संसार से मुक्त है.
जब मेरी इच्छा ही नष्ट हो गयी तब धन, मित्र, विषय शास्त्र ज्ञान निरर्थक है.
साक्षी पुरुष, परमात्म,ईश्वर आशा मुक्ति,बंधन मुक्ति को जान लेने पर मुझे मुक्ति की चिन्ता नहीं है.
जिसका चित्त विकल्पों से शून्य है परन्तु बाहर से अज्ञानी अथवा माया से भ्रमित व्यक्ति की तरह स्वछन्द है ऐसे पुरुष की दशा को वैसी दशा वे बोध पुरुष ही जानते हैं.
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