Saturday, October 29, 2011

वेदान्त –सरल वेदान्त –अध्याय -४-उत्पत्ति स्थिति एवम प्रलय का कारण-प्रो बसन्त



           उत्पत्ति स्थिति एवम प्रलय का कारण
इस सृष्टि कोई न कोईका कारण अवश्य है और वह कारण है पर ब्रह्म आत्मतत्त्व.
पर ब्रह्म परमात्मा भूतों का आदि, मध्य और अन्त है अर्थात सभी भूत आत्मतत्व परमात्मा से प्रकट होते हैं और उसमें में स्थित रहते हैं और अन्त में उसमें ही विलीन हो जाते हैं। पर ब्रह्म परमात्मा सब भूतों में उनके हृदय में स्थित आत्मा है, जो  सृष्टि के अणु-अणु में व्याप्त है. आत्मतत्व ने इस सृष्टि को धारण किया हुआ है।
इस सृष्टि का आदि अन्त और मध्य ब्रह्म परमात्मा ही है अर्थात सम्पूर्ण सृष्टि परमात्मा से जन्मती है, परमात्मा में ही  स्थित रहती है और उसमें ही लय हो जाती है। पर ब्रह्म परमात्मा ही सृष्टि का बीज हहै और सृष्टि का विस्तार भी है. इसी ज्ञान को भिन्न भिन्न उपनिषदों में  कहा गया है.

योनि योनी में पैठ एक
जगत लीन जेहि जात
रूप प्रकट बहु आदि में
ईश वरद परदेव
ईश जान निश्चय परम
परम शान्ति को प्राप्त.११-४श्वेताश्वतरोपनिषद्


अक्षर है वह सत्य है
ब्रह्म बीज सब भूत
चिनगी निकलें अग्नि से
जीव जगत तस ब्रह्म
भाव प्रकट परब्रह्म से
ओर उसी में लीन .१ २-१- मुंडक उपनिषद

जब देखे वह परम को
ब्रह्मा का आधार
पाप पुण्य को त्यागकर
आत्मरूप हो जात.३-३-१-. मुंडक उपनिषद


अश्वत्थ सम है यह जगत
नीचे शाखा ऊपर मूल
मूल परे पर ब्रह्म है
वही अमृत वह तत्त्व
सभी उसी के आश्रित
नहीं लँघ कोऊ ब्रह्म.१-२-३-कठ उपनिषद

पर ब्रह्म से उपजे जगत
चेष्टा करते लोक
उठे बज्र सम भय महत्
जो जाने वह मुक्त.२-२-३- कठ उपनिषद
.
कारण सबका परम है
स्वभाव प्रकट रचना विविध
योग सर्वगुण जो करे
एक जगत का ईश.५-५- श्वेताश्वतरोपनिषद्.

कारण होने से ब्रह्म को जगत का निर्माता मान लिया जाता है.

वेदान्त के इसी तत्त्व को श्री भगवान ने विस्तार से भगवद्गीता में सुस्पष्ट किया है.

प्रभु नहिं रचें, वरते प्रकृति, कर्तापन का भाव
यही नियम है कर्म का, यही कर्म फल संयोग।। 14-5।।

परमेश्वर वास्तव में अकर्ता है, वह संसार के जीवों के न कर्तापन की, न कर्मों की, न कर्म फल संयोग की रचना करते हैं; किन्तु स्वभाव ही इस सबका कारण है अर्थात माया का आरोपण जब ईश्वर में कर दिया जाता है तो उसे कर्ता समझने लगते हैं। परन्तु परमात्मा अपने अकर्ता स्वरूप में स्थित रहते हुए कोटि कोटि ब्रह्माण्डों का सृजन कर देते हैं। यह सब उनकी प्रकृति के कारण होता है। मनुष्य में भी प्रकृति (स्वभाव) उसके कर्तापन, कर्म और कर्मफल संयोग का कारण है.

सकल भूत का बीज मैं, पार्थ सनातन जान।। 10-7।।

मैं सभी भूतों का सनातन बीज हूँ। जब न सृष्टि रहती है न प्रकृति, उस समय विशुद्ध पूर्ण ज्ञान शान्त अवस्था में रहता है, जो सृष्टि का बीज है।

जगत समाया अव्यक्त में, स्थित मम सब भूत
अचरज यह तू जान ले, नहिं स्थित मैं भूत।। 4- 9।।

श्री भगवान कहते हैं हे अर्जुन यह सम्पूर्ण सृष्टि निराकार निर्गुण परमात्मा का साकार विस्तार है। यह जगत निर्गुण परमात्मा से विकसित हुआ है। इस सृष्टि को सर्वत्र अव्यक्त परमात्मा ने परिपूर्ण किया है, वह सृष्टि में बर्फ में जल के समान व्याप्त है। सभी भूत (प्राणी और पदार्थ) परमात्मा के संकल्प के आधार पर ही उनमें स्थित हैं परन्तु परमात्मा उनमें स्थित नहीं है।

अविनाशी अश्वत्थ यह नीचे शाखा ऊपर मूल
छंद इसके पर्ण हैं, जाने विज्ञ विभेद।। 1-15।।

श्री भगवान अर्जुन को सृष्टि का रहस्य बताते हुए कहते हैं; इस सृष्टि का जो मूल है वह परब्रह्म परमात्मा मूल से भी ऊपर है अर्थात जहाँ से सृष्टि जन्मी है परमात्मा उससे परे है और माया जिसे अज्ञान कहा है इस सृष्टि का मूल है। उस मूल से परे परब्रह्म से यह अश्वत्थ वृक्ष पैदा होता है। माया इस वृक्ष का मूल है, इस वृक्ष का फैलाव ऊपर से नीचे की ओर है। माया (अज्ञान) उस अव्यक्त (ज्ञान) को आच्छादित कर सुला देती है। फिर उस
माया में अव्यक्त के बीज से माया का अंकुर फूटता है। परम शुद्ध ज्ञान को अज्ञान (माया) क्रमशः अधिक-अधिक आवृत्त करते जाता है। यही अश्वत्थ वृक्ष (संसार) की ऊपर से नीचे की ओर फैलने की गति है।
सम्पूर्ण सृष्टि परमात्मा से जन्मती है, परमात्मा में ही  स्थित रहती है और उसमें ही लय हो जाती है परन्तु परमात्मा सदा अकर्ता रहता है. वह जगत का कारण है तो उपादान भी वही है.

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