Sunday, October 23, 2011

उपनिषद-श्वेताश्वतरोपनिषद् - छठा अध्याय - बसन्त


श्वेताश्वतरोपनिषद् 
                  Author of Hindi verse Prof Basant

     छठा अध्याय


स्वभाव कारण जगत का
काल कारण अन्य
मोह ग्रस्त जानत नहीं
परम देव सब लोक
ब्रह्म चक्र है घूमता
जिस महिमा से नित्य.१.


सदा व्याप्त जग देव है
ज्ञान रूप मह काल
सर्वगुणा सर्ववित वही
शासित हैं सब कर्म
भू जल अनल वायु खम्
नित शासित हैं चिन्त्य.२.


उसने रचा कर्म को
फिर निरीक्ष कर जान
जड़ चेतन का योग कर
एक दो त्रय से अष्ट
और काल गुण आत्म से
जीव योग कर सृष्टि.३.


व्याप्त गुणों से कर्म को
आत्म समर्पित देव
कर्म आभाव कृत कर्म नाश हो
कर्म क्षीण पाता परम
जड़ चेतन से भिन्न.४.


आदि कारण त्रिकाल पर
काल रहित वह ईश
संयोग निमित्त का हेतु जो
स्थित है स्व चित्त
विश्व रूप जग रूप वह
आदि पुरुष पर देव
स्तुति के वह योग्य है
उसे उपासें नित्य.५.


जग प्रपंच जिससे चले
वृक्ष कलाकृति भिन्न
पाप शमनम् धर्म बहु
जग अधिपति आधार जग
आत्म स्थित देख साधक
ब्रह्म अमृत को प्राप्त.६.



ईश्वर का ईश्वर वही
सकल देव के देव
पतियों के वह परमपति
ब्रह्म अंड के स्वामि
वह स्तुति के योग्य है
परम परे है जान.७.


कार्य कारण है नहीं
नहीं अधिक सम नाहिं
विविध ज्ञान अरु बल क्रिया
सुनी स्वभाविक दिव्य.८.


नहिं जगत में ईश सम
नहीं कोउ है चिन्ह
सबका कारण कारणाधिप परम
नहिं जनक नहिं स्वामी.९.



मकड़ी अपने जाल से
जस आच्छादित होत
प्रधान स्वभाव आच्छादित
पर परमेश्वर अवलम्ब सब.१०.


एक देव हृदि व्याप्त है
गूढ़ रूप सब प्राणि
कर्म अधिष्ठा भूत वास वह
निर्गुण साक्षी चेत विशुद्ध.११.


एक अकेला बहुत से
शासक निष्क्रिय तत्व
एक बीज बहु रूप प्रकट हो
धीर आत्म में देख
                धीर देख अस ईश को
                शाश्वत सुख नहिं अन्य.१२.


एक नित्य चेतन परम
काम भोग बहु चेत
साँख्य योग से प्राप्त जो
सबका कारण देव
ऐसे देव को जानकार
सकल पाश से मुक्त.१३.


ना प्रकाशे सूर्य शशि
नक्षत्र भू नहिं ज्योति
        किमि प्रकाशे अग्नि उस
सर्व प्रकाशित उसी परम से
जग  प्रकाशित  उस प्रकाश से
परम दिव्य से सभी प्रकाशित.१४ 


ब्रह्म अंड के बीच में
एक अंड परिपूर्ण
सलिल अनल में व्याप्त है
जान मृत्यु से पार
अन्य न कोउ मार्ग है
परम धाम की प्राप्ति.१५.


ज्ञान रूप पर परम जो
विश्वाक्रत सर्वज्ञ
आत्म योनी है वह परम
और काल का काल
गुणी सर्ववित गुणेश है
प्रधान क्षेत्रज्ञपति जान
जन्म मृत्यु में बांधता
स्थिति मुक्ति का हेतु.१६.


तन्मय अमृत स्वरूप वह
सर्वज्ञ पूर्ण सर्वत्र
ब्रह्म अंड रक्षा करे
सदा जान जग ईश
नहीं ईश कोउ अन्य है
जो जग शासक होय.१७.  


ब्रह्मा को जनता वही
ज्ञान  देत सब वेद
आत्म बुद्धि का कारकम्
मुक्ति हेतु अवलम्ब.१८.


परम निष्क्रिय शान्त निर्मल



निष्कल निर्दोष अमृत सेतु रूप
अग्नि दग्ध काष्ठ  सम
परम ईश स्मरामि.१९.

नोट पद २० से २३ तक कोई विशेष  बात नहीं है.


जो धारें खम चर्मवत
नहिं जाने परदेव
सकल शोक का नाश हो
जो मानें उपदेश.२०.


श्वेताश्वतर ऋषि जाना बहुत
निज तप कृपा परदेव
दिया ज्ञान ऋषि विद्वजन
परम पवित्र उपदेश.२१.


परम ज्ञान वर्णित हुआ
पुराकल्प वेदान्त
गुह्य न उपदेशित अशांत चित
जो निज पुत्र न शिष्य.२२.



जिनकी भक्ति देव में
जिनकी निज गुरु भक्ति
उनके हृदय प्रकाशता
मुनि का कहा उपदेश.२३.


    ॐ तत् सत्
.........................

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