Thursday, January 31, 2013

तेरी गीता मेरी गीता -17- बसंत



प्रश्न- बोध क्या है?

उत्तर -बोध का अर्थ है जानना.
आप इसे अधिक सरलता से समझें.  परमात्मा जो पूर्ण विशुद्ध ज्ञानमाय है हम सबका पिता है और हम सभी जीव उसके बच्चे है. आप अपने जीवन में देखते हैं की आपका अपना बच्चा  आपका होते हुए भी आपसे अलग व्यक्तित्व  रखता है. बच्चा जन्म के बाद अपने जीवन का संघर्ष  प्रारम्भ करता है वह विशेष होना चाहता है. बस यहीं से प्रारम्भ होती है उसकी जीवन यात्रा. प्रत्येक जीव्  स्वाभाविक रूप से जीवन से कुछ सीखता है और उसका विकास होता जाता है. मनुष्य जीवन में  यह गति तेज हो जाती है. किसी जीव अथवा मनुष्य का सीखा ज्ञान यद्यपि उसके विकास में मदद तो करता है पर यह सब सुप्त अवस्था में उसमें समाया रहता है. मृत्यु के बाद उसे पिछली स्मृति याद नहीं रहती. बोध होने पर प्रकृति का यह बंधन टूट जाता है और उसे सदा भूत वर्तमान और भविष्य का ज्ञान बना रहता है.परन्तु बोध होने पर भी पूर्णता की और विकास यात्रा चलती रहती है. बोध से परम पूर्णता की यात्रा भी  जीवन के विकास की  तरह है.
आपने लोगों से सुना होगा श्री कृष्ण 16 कलाओं वाले अवतारी पुरुष थे, श्री राम 12 कलाओं वाले अवतारी पुरुष थे, परुशराम जी 8 कलाओं वाले अवतारी पुरुष थे, ब्रह्माजी परमात्मा की केवल एक कला ही रखते है. यहाँ 16 कलाओं का अर्थ है100% पूर्ण ज्ञानमय पुरुष. अब ब्रह्माजी जब पूर्ण ज्ञानमय पुरुष परमात्मा का 6.25 % हैं तो फिर मनुष्य के बोध के धरातल का आप अनुमान कर सकते हैं. फिर भी बोध कोई मामूली घटना नहीं है. यहाँ से जीव के प्रक्रति बंधन से आजाद होने की यात्रा प्रारंभ होती  है. करोड़ों  मनुष्यों में किसी विरले को ही  बोध हो पाता है.
जानना सृष्टि की तरह अनंत है. अपने को जानना. अपना अगला - पिछ्ला और  वर्तमान जानना. अपना जन्म और पिछले  जन्म जन्मान्तरो को जानना. इसी प्रकार दूसरे का भूत, भविष्य, वर्तमान जानना. सृष्टि के प्रत्येक जड़ चेतन का ज्ञान. दूसरे शब्दों में त्रिकालाज्ञं हो जाना बोध है. बोध होने का अर्थ है पूर्णता. पूर्ण स्थिति से तात्पर्य है सृष्टि का नियंता. काल का भी काल हो जाना अर्थात जन्म मृत्यु जिसकी इच्छा से  से हो. रोग, शोक, आयु वृद्धि जिसे न व्यापे. संक्षेप और सरल शब्दों में जो जड़ को चेतन और चेतन को जड़ कर सकने में समर्थ हो. जो सृष्टि में व्याप्त होकर उससे परे हो उसे ही पूर्ण कहा जाता है.
अब प्रश्न उठता है क्या उक्त बोध अथवा पूर्णता प्राप्त की जा सकती है?
इसके लिए बोध और बोध की पूर्णता इन दो बातों में विचार करंगे. पूर्णता की ऊपर कही स्थिति प्राप्त की जा सकती है और  बोध प्राप्ति के बाद अनेक जन्मों की सतत साधना के परिणाम स्वरुप बोध की पूर्णता प्राप्त होती है. श्री राम और श्री कृष्ण पूर्ण बोधत्व पुरुष थे.उनके जीवन चरित्र से इसकी पुष्टि होती है. श्री राम जब अयोध्या वापस आते है तो समस्त अयोध्या वासियों से एक साथ मिलते हैं. 'अमित रूप प्रगटे तेहि काला ' आदि. इसी प्रकार श्री कृष्ण का विराट रूप  जो सृष्टि में व्याप्त होकर भी उससे परे था.  इनके अलावा पूर्णत्व अन्य किसी में नहीं दिखाए देता है.
जहाँ तक बोध की बात है बोध होना भी जीवन और सृष्टि की एक बहुत बड़ी घटना है.
इसकी पहली स्थिति में साधक को अपना ज्ञान होने लगता है और स्व अनुभूति का स्तर बड़ता जाता है. इन स्थितियों में साधक को स्व अनुभूति के स्तर के आधार पर कुछ अथवा कई जन्मों की याद आने लगती है. उसकी स्मृति बड्ती जाती है. वह आनन्दावस्था मैं रहने लगता है.
धीरे धीरे वासना का नाश होने लगता है. चित्त ज्ञानमय होने लगता है. धीरे धीरे कोइ वृत्ति नहीं रहती
साधक देह से अलग हो जाता है और अपना नियंता हो जाता है. वह अपने सभी जन्म जन्मान्तरों को देखने लगता है. देह से अलग होने की अवधि में, नित साधना के परिणाम स्वरुप वृद्धि होती जाती है.
यहाँ से उसे सृष्टि का खेल समझ में आने लगता है और वह उत्तरोत्तर सिद्धियाँ प्राप्त करता जाता है.
अब पूर्णता की ओर यात्रा के लिए वह सदा अपने को पूर्ण से जुड़ा देखता है.

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